मेघवंश

मेघवंश एक सिंहावलोकन लेखक आर.पीसिंहआई.पी.एस.

(श्री आर.पीसिंह की पूरी पुस्तक आप इस लिंक पर देख सकते हैं– “मेघवंश एक सिंहावलोकन.)


भूमिका :

नि:संदेह आर्यों‘ का एक घुमन्तु कबीला थावह पशुपालन के लिए नए चरागाहों की खोज में घूमता रहता थाइसी सिलसिले में उन्हें भारत के सिंधुघाटी क्षेत्र की विकसित सभ्यता का पता चलासिंधु घाटी सभ्यता कृषि भूमि सम्पदा से भरपूर थीयहाँ पर राजऋषि मेघऋषि की एक कृषि प्रधान अत्यन्त विकसित सभ्यता थी.

सम्पूर्ण सप्तसिन्धु प्रदेश राजऋषि ‘वृत्र’ के अधिकार में थाजिस प्रकार महादेव को आर्य लोग पार्वती के रिश्ते से पहले महासुर (महा+असुरकहते थेउसी प्रकार ये ‘वृत्र’ को भी ‘वृत्रासुर’ नाम से पुकारते थेमहाभारत के आदि पर्व में भीष्म ने ‘वृत्र’ को अनेक गुणोंकीर्तिशौर्यधार्मिकता और ज्ञानविज्ञान का स्वामी माना है.

इन्द्र ने जैसे ही छलकपट से रात्रि के अंधकार में मेघऋषि वृत्रासुर के महल में घुसकर उसकी हत्या की (ऋग्वेद् के अनुसारतो इन्द्र चारों ओर से पापों में घिर गयामेघऋषि की हत्या करने के कारण इन्द्र को पाँच पाप लगे थेजिनमें एक ‘ब्रह्महत्या’ का भी थामेघऋषि को उसकी विद्वत्ता और महान धार्मिकता के कारण ब्राह्मण कहा गया है और आर्यों ने उसकी हत्या को ‘ब्रह्महत्या’ के समान माना हैसम्भवतइसी कारण लोग वृत्र को ‘ब्राह्मण’ या ‘ब्रह्मा’ का पुत्र समझते हैंवह महा धर्मपरायण व्यक्तित्व का स्वामी थाब्रह्मपुराण तो इस बात को स्पष्ट करता है कि वृत्रासुर यानि राजऋषि महामेघ वृत्र ही सिन्धु घाटी की विस्मयकारी सभ्यता का जनक था और वह अनार्य (भारत के मूलनिवासीशासकों में सर्वाधिक बलवान धार्मिक राजा थायही वृत्र ‘मेघऋषि’ नाम से हमारे द्वारा जाना जाता है.

ऋग्वेद (शलोक 4-19-8, 2-11-15 और 2-20-7) के अनुसार सात नदियों (सुरसतीसतलुजव्यासरावीचिनाबजेहलम और सिन्धद्वारा सिंचित प्रदेश राजऋषि वृत्र (जिसे आर्य लोग अहिवृत्र या वृत्रासुर कहते थेके अधीन थाउसे (ऋग्वेद् 2-12-3 मेंअहि अथवा ‘नाग’ कुल का संस्थापक भी कहा गया हैविभिन्न इतिहासकारों द्वारा भी शोधों के आधार पर यह सिद्ध किया जा चुका है कि सम्पूर्ण भारत पर नागवंशियों का शासन था.

नाग (असुरमूलतशिव उपासक बताए गए हैंलाल प्रद्युम्न सिंह ने ‘नागवंश का इतिहास’ में बताया है कि नागवंशियों को उनकी उत्तम योग्यताओंगुणवत्ताव्यवहार व कार्यशैली के कारण देवों का दर्जा दिया गया हैवे वास्तुकला आदि में निपुण थेनागवंशियों का सम्पूर्ण भारत पर राज्य थासिन्धु सभ्यता में मिली मोहरों पर पशु व सांप के चिह्न पाए गए हैंनागवंश के लिए सर्प की पूजा का प्रचलन थाये प्रागैतिहासिक समय में सम्पूर्ण भारत के शासक थेवंशावली बढ़ने से उनके अलगअलग स्थानीय वंश हुए तथा बाद में अधिकतर ने वैष्णव धर्म अपना लिया एवं शिव को भी वैष्णव धर्म का देवता मान लिया गयाऋग्वेद् का यह कहना, ‘मेघों में प्रथम मेघ वृत्रमेघ थे,’ सिद्ध करता है कि ‘मेघवाल’ या ‘ऋषिपुत्र’ होने से ‘ऋषिया’ (रिखियाया ‘ऋषि’ (रिषीया ‘मेघवंशी’ कहते आए हैंजो एक दूसरे के पर्यायवाची शब्द हैंअलगअलग जातियाँ नहीं हैं.

पुराणों के अनुसार ब्रह्मा को आदिपुरुष व सृष्टि का रचयिता माना गया हैब्रह्मा का पुत्र मरीची था और मरीची का पुत्र कश्यप थादक्ष के अदिती तथा दिती दो जुड़वा पुत्रियाँ हुईंइनकी एक अन्य बहन थी –सतिसति की शादी शिव से हुई तथा दिती व अदिती की शादी कश्यप से हुईअदिती से पैदा हुई सतानें अदैत्यसुर (Aryans) कहलाईं तथा दिती की संतानें दैत्यअसुर (Dasyu/ Anaryanas) कहलाईंकश्यप की अन्य पत्नी कंद्रु से नाग तथा दानु से दानव पैदा हुएइस प्रकार सुरअसुरदानवनाग सभी कश्यप की संतानें थींलेकिन उनके धार्मिक मत भिन्नभिन्न थेअदैत्य (सुरविष्णु को अवतार मानते थे और कर्मकाण्ड में विश्वास रखते थेजबिक दैत्य (असुरविष्णु को अवतार नहीं मानकर आडंबरों का मज़ाक उड़ाते थे और समानता में विश्वास करते थे.

अनेक विद्वान सुर तथा असुर को एक ही पिता की संतान होने की बात स्वीकार नहीं करतेप्रह्लाद का पिता असुर (अनार्यवंश का राजा हिरण्यकश्यप सुरों (आर्योंका सैद्धान्तिक विरोधी थाउसके छोटे भाई हिरणाक्ष के जनता में बढ़ते प्रताप से कुपित होकर विष्णु ने वराह का अवतार बनकर हिरणाक्ष को माराइस बात से हिरण्यकश्यप विष्णु से नाराज़ थाउसे विष्णु ने नरसिंह अवतार बनकर माराहिरण्यकश्यप के पुत्र प्रह्लाद ने वैष्णव विचारधारा को अपनायाउसका पुत्र वीरोचन थावीरोचन का पुत्र राजा महाबली दैत्य (असुरअनार्यवंशावली का शासक थाउसका असली नाम इन्द्रसेन थाकेरल राज्य में ट्रिक्करा –(Trikkara) उसकी राजधानी थीउसने अपने राज्य को जनपदों में बांटकर उनका प्रशासन राजकुमारों (गवर्नरोंको दे रखा थाउसका पुत्र बाणासुर असम क्षेत्र का गर्वनर थाराजा महाबली बड़ा धार्मिक राजा थाउसके राज्य में कोई भी ऊँचनीच नहीं थावह सभी का सम्मान करता थाअपने दादा प्रह्लाद की भांति वह भी विष्णु का भक्त थालेकिन उसे अपने पूर्वजों के साथ आर्यों द्वारा किए गए कपट का ज्ञान थाउसने आर्यों की राजधानी अमरावती पर आक्रमण कर दिया तथा अपने पराक्रम से सम्पूर्ण सिन्धु क्षेत्र पर अधिकार करके सौ अश्वमेघ यज्ञ किए (सौ लड़ाइयाँ जीतीं). आर्यों ने हार कर उसकी शरण लीउसने दयाभाव से आर्यों को शरण दे दीशरण लेने के बावजूद उसके दैत्य (असुरहोने के कारण आर्य (सुरउससे मन ही मन घृणा करते थेविष्णु ने एक ‘वामन’ नामक ब्राह्मण के रूप में उनको वचनबद्ध कर बिना किसी रक्त क्रान्ति के उसका सम्पूर्ण राज्य दान में ले लियाअपने पिता के साथ हुए धोखे से व्यथित होकर बाणासुर ने आर्यों से लड़ाई करने की ठानी लेकिन शिव ने उसका वध कर दियाउसी मेघवंशीय असुर महाराजा महाबली के कुल के इन मेघवालों को ‘बलाई’ भी कहा जाता हैबलाई लोग ‘अला बला जाएबलि का राज आए’ कहकर अपने सम्मान व सत्ता की वापसी की कामना करते हैं.

विजेता लोग प्रायअपने विरोधियों के साहित्य को जलाकर या डुबोकर एवं शिलालेखों को तोड़फोड़ कर नष्ट कर दिया करते थे और यह भी प्रयास करते थे कि सत्ता में हारे हुए लोग पुनसिर उठाने की हिम्मत न करें. ‘मेघवंश’ के इतिहास को भी इसी प्रकार नष्ट कर दिया गयाइतिहास चेतनाइतिहासकारों की प्रतिबद्धता एवं पुरातात्विक सामग्री के पूर्ण विश्लेषण के अभाव में आधुनिक राजवंश भारतीय इतिहास में उचित स्थान नहीं पा सके.

श्री नवल वियोगी की पुस्तक ‘सिन्धु घाटी के सृजनकर्ताशूद्र और वणिक’ में जिस सिन्धु घाटी क्षेत्र का वर्णन हैउसमें समूचा पश्चिमोत्तर अविभाजित भारतजिसमें सम्पूर्ण पाकिस्तानपंजाबहरियाणाहिमाचल प्रदेशराजस्थानगुजरात और पश्चिमी उत्तर प्रदेश का भूभाग आता हैयही क्षेत्र मेघऋषि का क्षेत्र थाक्योंकि इसी क्षेत्र में मेघमेघवालमेघवंशी इत्यादि पर्यायवाची नाम से जानी जानेवाली ‘मेघऋषि’ की जातियों का बाहुल्य रहा है.

असुर शब्द ‘इशु’ (असुसे बना हैजिसका अर्थ है ‘ईश्वर’ऋग्वेद में असुर इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है. ‘असुप्राणो विद्यते यस्मिन् स असुर:’ अर्थात् जिसमें प्राणबल अथवा सामर्थ्य होवह असुर है. ‘असुर’ सुर का विलोम शब्द हैजिसका अर्थ हुआ, ‘सुरविरोधी’कुछ विद्वानों के अनुसार ‘दानव’ का अर्थ ‘दानी’ और ‘दमनशील,’ ‘राक्षस’ का अर्थ ‘रक्षक’ और ‘पालक,’ ‘निशाचर’ का अर्थ ‘रात का पहरेदार,’ ‘रात में चोरलुटेरों से समाज की रक्षा करने वाला’ तथा ‘असुर’ का अर्थ ‘अमछयी’ या ‘मदिरा न पीने’ वाला होता हैदेवअसुर संघर्ष (देवासुर संग्राम अर्थात् आर्यों और मूलनिवासियों का प्रथम युद्धके बाद देवों ने असुर का अर्थ बदल दियाभागवत पुराण में अनार्यों को यज्ञों में विध्न डालने वाला बताया गया है अर्थात् जो यज्ञों में विश्वास नहीं करते थेउन्हें असुर कहा जाने लगावैदिक काल (1500-500 .पूमें असुरों को कर्म विरोधीदेवों के प्रति उदासीनअद्भुत आदेशों के पालने वाले (अन्यव्रतके रूप में कहा गया हैइस देश के मूलनिवासी धर्मात्मा और सत्यनिष्ठ राजाओं को आर्यों ने अपनी पुस्तकों में असुरदैत्यदानव व राक्षस आदि नामों से उल्लेख करके उन्हें अविचारीअनाचारीअधार्मिक और अत्याचारी सिद्ध करके उनके प्रति जनता में घृणा उत्पन्न की और अपने आर्य राजाओं की प्रंशसा कर उन्हें अवतार ही नहीं बल्कि परमेश्वर से भी अधिक महापुरुष सिद्ध करके जनता में उनकी भक्ति व भजन करने के लिए वेदों का प्रचार किया.

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:

700 से 300 .पूतक उत्तरी भारत छोटेछोटे 16 महाजनपदों में बँट गया थाइनमें कुछ जनपदों में अनार्य (असुरराजाओं का शासन थाये 16 महाजनपद थेकम्बोज (Kamboja), गांधार (Gandhar), कुरु (Kuru), पांचाल ( Panchal), कौशल (Koshala), सूरसेन (Sursena), मत्स्य (Matsya), वत्स (Vatsa) या वंश (Vansa), चेदी (Chedi) या चेती (Cheti), अवन्ती (Avanti), माला (Mala), काशी (Kashi), वज्जी (Vajji) या वृजि (Vriji), मगध (Magadha), अंग (Anga), अशाका (Assaka). मगध महाजनपद इनमें सबसे शक्तिशाली थाइन महाजनपदों में से वत्सचेदीमत्स्य इत्यादि महाजनपदों में अनार्य (असुरराजाओं का राज्य थाइसी प्रयास में असुर राजाओं ने चेदी महाजनपद बनाया तथा बुंदेलखंड को राजधानी बनाया.

प्रसिद्ध इतिहासकार के.पीजायसवाल ने मेघवंश राजाओं को चेदीवंश का माना हैभारत अंधकार युगीन इतिहास (सन् 150 से 350 तकमें वे लिखते हैं, ‘ये लोग मेघ कहलाते थेये लोग उड़ीसा तथा कलिंग के उन्हीं चेदियों के वंशज थेजो खारवेल के वंशधर थे और अपने साम्राज्य काल में ‘महामेघ’ कहलाते थे.

भारत के पूर्व में जैन धर्म फैलाने का श्रेय खारवेल को जाता हैमहाभारत के सभा पर्व (xiv 13) में महामेघवाहन व चेदीवंश का जिक्र हैकलिंग के मेघवंशीय राजा श्रुतायु ने महाभारत युद्ध में कौरवों का साथ दिया था.

चूंकि कलिंग राजा जैन धर्म के अनुयायी थेउनका वैष्णव धर्म से विरोध निश्चित थाअतवैष्णव धर्म का पालन करने वाले अशोक ने उस पर आक्रमण कियाआक्रमण का दूसरा कारण थाकलिंग राज्य का समुद्र तट के किनारे होने के कारण समुद्री मार्ग पर कब्जाकलिंग के महामेघवंश के राजा खारवेल का मौर्य शासक अशोक से युद्ध हुआ जो ‘कलिंग युद्ध’ के नाम से जाना जाता हैकलिंग युद्ध में एक लाख से अधिक लोग मारे जाने व उससे भी अधिक घायल हो जाने से व्यथित होने के कारण अशोक ने बौद्ध धर्म अपनाया और अहिंसा पर जोर देकर बौद्ध धर्म को अन्य देशों तक फैलाया.

आर्यों का भारत में आगमन लगभग 1500 .पूहुआवे मध्य एशिया से आए थेआर्यों ने भारत के शान्तिप्रेमीमूलनिवासीसिंधु सभ्यता के शासकों को हराकर उनके द्वारा बसाए नगरों एवं किलों को ध्वस्त करके उन्हें बेघर कर दियाआर्य घुमन्तु जीवन छोड़कर वहाँ पर स्थिर हो गएबसने के बाद आर्यों के सामने मुख्य रूप से यह समस्या आई कि वे अन्य घुमन्तु कबीलों से अपनी रक्षा कैसे करेंउन बिखरे हुए परास्त लोगों के सामने सुरक्षा और शरणस्थल की समस्या थीइन समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए दोनों ने आपस में समझौता कियाजिसके अनुसार इन बिखरे हुए परास्त लोगों ने एक जगह स्थिर रूप से बसे हुए कबीलों अथवा जातियों की सुरक्षा व चाकरी करना स्वीकार कर लियाइसलिए निर्णय लिया गया कि वे लोग गाँव के बाहर गाँव की सीमा पर रहें ताकि वे आक्रमणकारियों का मुकाबला कर सकें.

उसके बाद उनके लिए शिक्षा के द्वार ही बन्द नहीं किएबल्कि उनकी आध्यात्मिकसांस्कृतिकआर्थिक और सामाजिक उन्नति को अवरुद्ध करइन्हें पराधीनता की जंजीरों में जकड़ दिया गयाउनका सारा साहित्य और इतिहास नष्ट कर दिया गयाआर्यों ने मूलनिवासियों के गौरवपूर्ण इतिहास को बदलकर अपने अनुकूल बनाकरअपने मतलब की बातें थोंप दीं.

जो बौद्ध सम्पन्न थेवे देश छोड़कर भाग गए और उन्होंने विदेशों में बौद्ध धर्म फैलायाजो बौद्ध गरीब थे और अपनी विपन्नता के कारण भाग नहीं सकेउन्होंने हिन्दू धर्म स्वीकार कर लियाजो जीत गया वह शासक बन गया और जो हार गया वह बना उसका सेवकबाहुबलियों ने संगठन के बल पर कमजोर पर शासन किया है.

इस प्रकार भारत की कई प्राचीन वीर और जुझारू राजवंशीय जातियों का इतिहास लोप हो गयाकइयों को कमीणकारू जातियों में परिणत कर दिया गया और कइयों की ऐसी हालत बना दी गई जिससे उनका अस्तित्व ही समाप्त प्रायहो गयायदि दुनिया की प्रत्येक जाति यह कहे कि उनके पूर्वज भी कभी शासक थे तो इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता

आर्यों ने उन मूलनिवासियों को विभिन्न धर्मोंकर्मकाण्डों और आस्थाओं में फंसाकर उनके स्वाभिमान और स्वावलम्बी स्वरूप को छिन्नभिन्न कर दियाअनुलोमप्रतिलोम और वर्णसंकर जातियों के सिलसिले में मूलनिवासियों (वंचितों/दलितोंकी एकता समाप्त हो गई और वे अनेक बन्धनों में पड़ गएइसी विभाजन की रस्साकशी में ‘मेघवंश’ भी अनेक टुकड़ों में बँट गया और इसके अनेक विभिन्न स्थानीय नाम हो गएएक ही जाति एवं वंश के लोग एक स्थान से दूसरे स्थान पर चले जाने के कारण स्थानीय वातावरण व रीति रिवाजों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके तथा भिन्नभिन्न राज्यों में भिन्नभिन्न नामों से पहचाने जाने लगेउनके साथ अनेक सामाजिक अन्याय होने लगे और उनकी स्थिति सबसे अधिक त्रासदीदायक और शोचनीय हो गई.

2. मध्यकालीन भक्ति आंदोलन और वंचित जातियाँ

मध्ययुग का भक्ति आन्दोलन एक धार्मिक एवं सामाजिक क्रांति कहा जाता हैभक्ति अति है और कट्टरता पैदा करती हैकट्टरताशांति और सहिष्णुता की शत्रु हैइसका प्रभाव आज भी चर्मोत्कर्ष पर हैभक्ति आन्दोलन ने देश में मूर्तिपूजा को बढ़ा दियादेवीदेवताओं की संख्या में बढ़ोत्तरी की एवं जगहजगह महात्मागुरुआध्यात्मिक पंथ आदि पैदा कर दिए.

महाराष्ट्र में नामदेव ने भक्ति मार्ग को बहुत लोकप्रिय बनायामहाराष्ट्र में ही एकनाथतुकारामचोखामेला और सोहयाबाई भी उसी कड़ी में जुडेंभक्ति आन्दोलन के संतों में उत्तर प्रदेश के कबीर तथा रविदास (.1398-1540) प्रमुख हैंउस समय तक छुआछूत तथा जातिवादी भावना का जोर थाउन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच सद्भावना का प्रचार किया तथा जातिपांतिछुआछूत और ऊँचनीच के भेद का विरोध किया व धर्म के बाह्य आडम्बरों की खिलाफत कीसत्गुरु रविदास ऐसे प्रथम व्यक्ति थेजिन्होंने भारत में समाजवाद का नारा बुलन्द कियाआज भी यह समझने की ज़रूरत है कि ईसामोहम्मद आदि पैगम्बर जो विशाल धर्मों के प्रवर्तक हैंसभी ने एक निराकार प्रभु की बात की हैजो वर्णभेदजातिभेद तथा देशभेद से परे हैहमारे महापुरुषों ने भी निराकार प्रभु की बात की है.

पंजाब के गुरु नानकदेव निर्गुण विचारधारा के प्रमुख सन्त थेउनका जन्म 1469 में ननकाना (पाकिस्तानमें हुआ थाकबीर की भांति उनका मुख्य उद्देश्य हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करना थागुरु नानकदेव एक समाज सुधारक थेवे वेदों और पुराणों को नहीं मानते थे.

भक्तिकाल में रूढ़िवादिता पर चोट के कारण एक ओर दलितों में अधिकार चेतना जागृत हुई तो दूसरी ओर उनके व रूढ़िवादियों के बीच जातीय कटुता को बढ़ावा मिलाहिन्दू आडम्बरों की पोल खोलने वाले संतोंसाधों तथा नाथों की सच्ची व कटु आलोचना से कुढ़कर रूढ़िवादियों ने ‘चमार’ शब्द को विभिन्न शब्दकोषों में घृणित जाति के रूप में पेश किया.

3. चमार शब्द और घृणा का भाव

कुछ लोग समझते हैं कि ‘चमार’ शब्द चमड़े का काम करने वाली जातियों से जुड़ा है और चमड़े का काम करने के कारण ही इस नाम से इतनी घृणा पैदा हुई हैयह तर्क सही प्रतीत नहीं होताक्योंकि पेशे को घृणित नहीं कहा जा सकताआज बड़ीबड़ी फैक्ट्रियों में यह कार्य हो रहा है और सवर्ण लोग भी कर रहे हैंइस तरह चमार जाति अपनी पृथक् पंचायत प्रणाली से बँधी थी और अपने प्रत्येक झगड़ेटंटे या किसी अन्य समस्या का फैसला अपने स्तर पर ही कर लेते थे.

कुछ विद्वानों का मत है कि ‘चंवर’ से ‘चमार’ शब्द की उत्पत्ति हुई हैसंभवत: ‘चंवर’ शब्द का विकास ‘चार्वाक’ से हुआ हैइसका तात्पर्य कि जो ‘चार्वाक धर्म’ को मानते हैंवे ‘चंवर’ हैं. ‘चार्वाक धर्म’ नास्तिक धर्म हैयह वैष्णव धर्म में विश्वास नहीं करतायह समानता का पाठ पढ़ाता है तथा झूठे आडम्बरों की पोल खोलता हैचंवरचामुण्डरायहिरण्यकश्यपमहाबलिकपिलासुरजालंधरविषुविदुवर्तन आदि भी ‘चार्वाक धर्म’ को मानने वाले शासक हुए हैंचार्वाक शब्द ‘चारू (मीठा)’ एंव ‘वाक्’ (बोलने वाला)’ की संधि से बना हैजिसका अर्थ है –‘मीठा बोलने वाला’लेकिन वैष्णव मतावलंबियों ने इस धर्म के अनुयायियों को ‘हमेशा चरने वाले’ अर्थात् ‘अधिक खाने वाले’ तथा ‘चबरचबर’ करने वाले अर्थात् ‘अधिक बोलने वाले’ घोषित कर दियायह भी प्रचार किया गया है कि ‘चार्वाक धर्म’ का ध्येय केवल खानापीना और मौज उड़ाना हैकर्ज लेकर घी पीना हैअतइसी धार्मिक विरोध के कारण ही ये घृणा उपजी थी और इस घृणा का आधार ‘चार्वाक धर्म’ के प्रति घृणा ही थीवैष्णव मतावलंबियों ने ‘चार्वाक धर्म’ का साहित्य जला डालाजहाँ भी ‘चार्वाक धर्म’ का व्यक्ति दिखाई देउसे मारने तक के आदेश दिए गए थे.

प्रतिबन्धों के बावजूद ‘चंवर’ अर्थात् ‘चमार समाज’ ने अपनी योग्यता के बल पर वैष्णव मतावलंबियों को परेशान कर रखा थाउनके ऐशोआराम में बाधा पड़ रही थीउनके द्वारा रचे जा रही ढपोरशंखी धार्मिक मान्यताओं को चलाने में परेशानी हो रही थीसमाज को बेवफूक बनाकर उल्लू सीधा करने वाले आडंबरों के विरुद्ध ‘चमार समाज’ की ज्ञान व तर्क करने की महान क्षमताश्रम के बल पर सदैव विश्वास करके जीवन जीने की महान कलापरहित में जीवन होम कर देने की सद्इच्छा वैष्णव मतावलंबियों के आड़े आती रहीइसलिए उन्होंने अपना उल्लू सीधा करने के लिए ‘चंवरों’ पर अनेक प्रतिबंध थोंप दिए.

प्रतिबंधों के कारण चाहे ‘चमारसमाज’ अकेला पड़ गयाफिर भी वह अपनी शासन व्यवस्था के लिए किसी का मोहताज नहीं रहा और न ही किसी को अपने ऊपर हावी होने दियाइस समाज का अध्ययन एवं सर्वे करने से पता चलता है कि इसने ब्राह्मणों की मनुस्मृति के कानूनविधान की परवाह नहीं कीवह इन अमानवीय विधानों की धज्जियाँ उड़ाता रहाचाहे उसे कितनी ही मुसीबतों का सामना क्यों न करना पड़ा होब्राह्मण वर्ग ने जैसे ‘सवर्ण समाज’ की रचना कीवैसे ही चमार वर्ग ने भी ‘चमार आत्मनिर्भर समाज’ गठित किया.

चूँकि चमार जाति अपनी पृथक पंचायत प्रणाली से बंधी थी और अपने प्रत्येक झगड़ेटंटे या किसी अन्य समस्या का फैसला अपने स्तर पर ही कर लेती थी अतः इस समाज की न्याय प्रणाली एवं इसकी आजीविका को पसंद करके कई अन्य जातियाँ इसमें सम्मिलित हो गईं थीं.

चमार’ जाति को अत्यंत अस्पृश्य व नीच बनाने का श्रेय शब्दकोषकारों को भी जाता हैजातिवाचक शब्दों पर ‘हंस’ अगस्त 1998, पूर्णांक 144, वर्ष 13 अंक 1, में श्री भवदेय पाण्डेय का लेख ‘सवर्ण मानसिकता और पुरुषवादी कुण्ठा’ लेख छपा थाइस आलेख में कहा गया है,- ‘इतिहास  साक्षी है कि संस्कृत और हिन्दी के ब्राह्मणवादी पोंगापंथियों की तरह हिन्दी शब्दकोषकारों ने भी ‘चमार’ वाचक शब्दों के साथ भारी छल किया हैसंस्कृत के शब्दकोष ग्रथों में ‘चमार’ को नीच जाति नहीं कहा गया थाजातीय कुण्ठा की चरम अभिव्यक्ति हिन्दी शब्दकोष ग्रंथों में हुई है.

इस देश में झगड़ा केवल आर्य और अनार्य का हैरूढ़िवादी कहते हैं कि मनुष्य जन्म से छोटाबड़ा होता हैये यहाँ के मूलनिवासियों को अपने से छोटा समझते हैंजबकि हमारे महापुरुषों ने समयसमय पर इस गलत फहमी को दूर किया है और माना है कि सब मानव बराबर हैंकोई छोटा या बड़ा नहीं हैइस बात को संसार के सभी महापुरुष मान चुके हैं कि आदमी जन्म से नहींअपने कर्म से छोटा या बड़ा बनता हैसिंधु निवासी आडंबरों व अंधविश्वासों में भरोसा नहीं करते थेउन्हें आर्यों ने माराबौद्ध धर्म ने जातिप्रथा को तोड़कर समानता सिखाई तो बौद्धों को मारा गयाबौद्ध धर्म के पतन के बाद हिन्दू धर्म में सवर्णों व शूद्रों में असमानता का व्यवहार इतना गहरा हो गया कि शूद्रों द्वारा अपने अधिकारों की माँग किए जाने पर उनको इतना प्रताड़ित किया जाने लगा कि पुनवे अपना सिर नहीं उठा सकें तथा उनकी हालत देखकर दूसरे शूद्र लोग भी भय के कारण अपना मुँह नहीं खोल सकेंभारत में बाहर से आए विदेशी आक्रमणकारियों की जीत के बाद उन्हें सवर्णों द्वारा स्वीकार कर लिया जाता रहा है तथा उनसे छुआछूत की भावना भी नहीं रखी जाती रही हैलेकिन बड़े आश्चर्य की बात है कि रूढ़िवादी सवर्ण लोगों द्वारा हिन्दू धर्म में होते हुए भी यहाँ के मूलनिवासियों (शूद्रदलितोंको अभी तक शूद्रअछूतअग्राह्य व अनावश्यक समझा जाता हैपरंतु वे इन्हें छोड़ना भी नहीं चाहतेक्योंकि ये उनकी आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन के मूल स्तम्भ हैं.

अंग्रेज़ों के आगमन के बाद

भारत में इस्लाम शासन ने जनता का आर्थिक शोषण तो किया हीउसे पिछड़ेपन की ओर भी धकेल दियाअंग्रेजों ने यहाँ फैले अंधविश्वासों और कुप्रथाओं का अंत करना शुरू कियाउन्होंने अरबी व फारसी और अंग्रेजी व एंग्लोवर्नेकुलर (उर्दूहिन्दीके स्कूल खोलेशहरों में बड़ेबड़े कारखाने खोले गएइससे दलितों को पढ़ने व रोजगार का अवसर मिलाजिससे उनकी सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ.

1920 में एम.जीडब्ल्यू ब्रिंग्स द्वारा लिखित ‘दि चमार्स’ नामक पुस्तक में मेघवंशीय 1156 जातियों के ‘चमार’ होने का उल्लेख किया थालेकिन शीघ्र ही इस नाम से घोर नफ़रत की जाने लगी थीसुधारवादी आन्दोलनों में यह निर्णय लिया गया कि ‘चमार’ शब्द से समाज को पगपग पर अपमान झेलना पड़ता हैइसलिए ‘चमार’ जैसे अपमानजनक जाति सूचक शब्द से छुटकारा दिलाया जाए तथा उन लोगों से भी यह काम छुड़वाया जावे जो दलितों की आबादी के पाँच प्रतिशत से भी कम हैंइसलिए अस्मिता जागरण काल में चमार नाम के पुछल्ले से पीछा छुड़ाने के लिए विभिन्न क्षेत्रीय आन्दोलनों में एक ही जाति अनेक नामों में परिवर्तित हो गईये अनेक टुकड़े अपने को एक दूसरे से अलग समझने लगे तथा एक दूसरे से ऊँचा बनने की होड़ में अपनी संगठन शक्ति खो बैठेयदि ये सब उपजातियाँ ‘केवल एक’ जाति के रूप में संगठित हो जाएँ तो वे अपने जीवन में एक बहुत बड़ा परिवर्तन ला सकती हैंसफलता की सबसे पहली शर्त स्वाभिमान तथा आत्मविश्वास ही होती है.

महर्षि दयानन्द ने आर्य समाज की स्थापना कीआर्य समाज का जब खूब प्रचारप्रसार हुआ तो बहुत से लोगों ने ‘आर्य’ लगाकर जाति नाम बदलाआजकल लोगों द्वारा अपने नाम के पीछे ‘भारती’ लगाने का रिवाजसा चल पड़ा है.

पंजाब में बाबू मंगूराम मुगोवालिया ने ‘आदिधर्म’ आन्दोलन शुरू कियाउन्होंने सन् 1925 में ‘आदिधर्म मण्डल’ की स्थापना कीपंजाब में आज मूल आदिधर्म जाति में चमारजटियाचामड़चामड़ियारैहगररायगररामदासीरविदासीजुलाहाकबीरपंथीमेघभगतकोलीकोरीपासीमेघवाल आदि चंवर जाति की ही उपजातियाँ हैंसन् 1928 में जब साईमन कमीशन भारत आया तो लाहौर में साईमन कमीशन के सामने मंगूराम मुगोवालिया ने लाखों आदिधर्मियों का नेतृत्व करके जबरदस्त प्रदर्शन कियासर ज्योकरे जब 12 अक्टूबर, 1929 को जालन्धर (पंजाबमें आए तो आदिधर्म मण्डल के प्रतिनिधि उसे मिले और अपने अलग धर्म के विषय में बातचीत कीपंजाब तथा भारत सरकार ने तत्काल ‘आदिधर्म’ को मान्यता प्रदान कर दी जिसके परिणामस्वरूप 1931 में सभी आदिधर्मियों ने अपना धर्म ‘आदिधर्म’ लिखाकर अपने संगठन का परिचय दिया.

आन्ध्र में ‘आदिआन्ध्रा,’ कर्नाटक में ‘आदिकर्नाटका,’ तथा तमिलनाडु’ में ‘आदिद्रविड़’ आन्दोलन शुरू हुआआदिधर्म द्वारा यह प्रचार किया गया कि हम इस देश के आदिनिवासी (मूलनिवासीहैं.

राजस्थान और गुजरात में स्वामी गोकुलदास जी ‘मेघवंश’ नाम से समाज को एक सूत्र में संगठित कर रहे थेवे डूमाड़ा (अजमेरके रहने वाले थेइन्होंने 1935 में दौराई ग्राम में 290 गाँवों की आम सभा बुलाई तथा ‘राजस्थान मेघवंश महासभा’ का गठन कियामहासभा का एक अधिवेशन 1935 में अहमदाबाद में हुआइन्होंने समाज को एक नाम देने के लिए सन् 1935 में ‘मेघवंश इतिहास’ नामक पुस्तक लिखीजिसका संशोधित संस्करण 1960 में प्रकाशित हुआ.

राजस्थान और दिल्ली में आचार्य स्वामी गरीबदास जीजो भोजपुरा (जयपुरके बलाई थेने मेघवालबलाईभांबी आदि मूलतकपड़े बनाने का कार्य करने वाली जाति को ‘सूत्रकार’ नाम से संगठित कियाउन्होंने ‘अखिल भारतीय सूत्रकार महासभा’ का गठन कर समाज को बेगार मुक्त करने का एक पुरजोर आन्दोलन छेड़ दियापहले सूत्रकार आन्दोलन से मेघवाल समाज का सामाजिक स्तर बढ़ा.

दलितों के गौरवमयी अतीत को लौटाने के लिए भारत रत्न बाबा साहब डाभीमराव अम्बेडर ने प्रकाश स्तम्भ का कार्य कियाउन्होंने सभी दलित जातियों को एक झण्डे के नीचे इकट्ठा होने का आह्वान कियाइसलिए उन्होंने प्राचीन धर्म ‘बौद्ध धर्म’ को पुनर्जीवित करने का बीड़ा उठाया और भारत में उसे नया जीवननई शक्ति और नई दिशा दीउन्होंने भारत की हजारों अस्पृश्य जातियों में बंटे दलितों को मात्र एक ‘अनुसूचित जाति’ मेंसैकड़ों जनजातियों को एक ‘अनुसूचित जनजाति’ में तथा अनेक पिछड़ी जातियों को एक ओ.बी.सी. (अन्य पिछड़ी जातिमें संगठित कर दिया.

हम एक होते हुए भी जाति उपजाति के मानसिक बंधनों में बंधे हुए हैंलेकिन जब अच्छा रिश्ता मिलता है तो हम अपने बच्चों की शादी समाज की इन्हीं फांकों (खापोंमें अपनी सुविधानुसार कहीं भी कर लेते हैंफिर भी अपनी ही उपजाति के नाम का राग अलापते रहते हैंअब समय आ गया कि समाज की इन सन्तरे की सी फांकों (खापोंको जोड़ा जाए ताकि एक सार्थक परिणाम सामने आए.

समाज के भिन्नभिन्न नामों की जगह एक सम्मानजनक नाम देकर समाज को सुदृढ़ बनाने तथा इन मानसिक दायरों को तोड़ने की एक सोच उभरी तो इसके क्रियान्वयन के लिए अनेक शुभचिंतकों व गुरुओं ने समाज को केवल एक ‘मेघवाल’ नाम देकर संगठित करने का प्रयास कियाजिसके सार्थक परिणाम सामने आए हैंतीन दशक पहले राजस्थान के हाड़ोती और झालावाड़ जिले में समाज के लोगों ने अपने को केवल ‘मेघवाल’ घोषित कर दिया और अपने भूराजस्व रिकार्ड ठीक करा लिए. 12 सितम्बर, 2004 को झुंझुनू में एक सम्मेलन में शेखावटीखेतड़ीझुंझुनूफतेहपुर आदि के स्वजातीय भाईयों ने घोषणा कर दी कि ‘गर्व से कहो हम मेघवाल– हैं’यहाँ भी ‘मेघवाल’ जाति के प्रमाणपत्र बनवाकर भूराजस्व रिकार्ड ठीक करा लिएइसी के साथ अलवर जिले में भी मुहिम चली तथा वहाँ भी समाज बंधुओं ने ‘मेघवाल’ नाम से जाति प्रमाणपत्र बनवा लिए तथा भूराजस्व रिकार्ड ठीक करा लिएहरियाणा की ‘चमार महासभा’ की नारनौल इकाई ने भी अपने को ‘मेघवाल’ घोषित कर दिया हैकुरुक्षेत्ररेवाड़ी व दिल्ली में भी ‘मेघवाल’ घोषित कर दिया हैदिसम्बर, 2006 में संसद द्वारा प्रस्ताव पास कर ‘मेघवाल’ शब्द को हरियाणा की अनुसूचित जातियों की सूची में भी डाल दिया गया है.

रूढ़िवादी हिन्दुओं की घृणादमनशोषण एवं अत्याचारों से बचने के लिए दलित लोग समयसमय पर ‘जाति’ व ‘धर्म’ बदलते रहे हैंवे आर्य समाजी बनेपर वहाँ भी ‘महाशय जी’ की नई पहचान बनकर रह गएवे सिख बनेवहाँ भी ‘रामदासिया’ और ‘मज़हबी’ नाम से उनकी अलग पहचान रखी गईवे ईसाई बनेवहाँ भी उनके नाम के साथ ‘मसीह’ जोड़ कर उनकी पिछली पहचान बरकरार रखी गईवे मुसलमान बनेवहाँ पर भी उन्हें हिन्दुओं की तरह चौथे दर्जे में ‘अंसारी,’ ‘मोची‘, ‘सक्का‘, ‘लालबेगी’ बनाकर अलग रखा गयाये नास्तिक बनेनिरंकारी बनेवैरागी बनेजैन बनेआदिधर्मी बनेअधर्मी बनेशाक्य बनेऋषि बनेआचार्य बने और इन्होंने हजारों रूप बदलेपरन्तु रूढ़िवादियों ने इन्हें ‘चमार’ ही कहाइस ‘चमार’ नाम के पुछल्ले से बचने के लिए इन्होंने अनगिनत प्रयास किएपर पुछल्ला लगा ही रहा और उनसे बैर और घृणा का बर्ताव किया जाता रहा.

संगठन बल और सत्ताबल से सभी भय खाते हैंआज जो जाति एकजुट हुई हैवही सफल रही हैअतः आज समय आ गया है कि इस वर्ग की सभी जातियाँ अपनी उपजातियाँआपस के वर्ग भेद को मिटाकर पुनअपने मूल ‘मेघवाल’ नाम को स्वीकारें और अपनी ‘जाति पहचान’ को संगठितसुदृढ़ और अखण्ड बनाए रखने के लिए अब ‘मेघवाल’ नाम के नीचे एक हो जाएँ.

मेघवालों में आपस में यदि कोई समाजबंधु विभेद पूछना भी चाहे तो कह सकते हैंमैं ‘जाटव मेघवाल’ हूँमैं ‘बैरवा मेघवाल’ हूँमैं ‘बुनकर मेघवाल’ हूँ मैं ‘बलाई मेघवाल’ हूँइत्यादि. ‘मेघवाल’ शब्द से एक बार शुरूआत तो होइसके बाद सालमहीनों में यह विभेद भी समाप्त हो जाएगाआपसी भेदभाव भुलाकर रोटीबेटी का व्यवहार शुरू करेंजब अन्य जातियों के लोग मेघवालों के शिक्षित बच्चों के साथ अपने बच्चों की शादी बिना किसी हिचकिचाहट के कर रहे हैं तो हम छोटीछोटी उपजातियों में भेदभाव नहीं रखें तो अपनी एकता बनी रहेगीमिथ्या भ्रम व भेदभाव की निद्रा से जागें और एकता का परिचय देकर अपने संवैधानिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए एवं पाखंडों का पर्दाफाश करने के लिए अग्रसर होवेंइसलिए पहली जरूरत यही है कि हम सभी हीनताबोध से मुक्त हों.

मेघवंशीय समाज की कई उपनामित जातियों की स्थानीय समितियाँसंस्थाएँसंगठनपरिषद्ट्रस्ट इत्यादि बने हुए हैंइन इकाइयों के पदाधिकारीगण अपने प्रभुत्व व पहचान कायम रखने के लिए सभी को एक नाम ‘मेघवाल’ के नीचे लाने के लिए शायद थोड़ी अनिच्छा प्रकट करेंइसके लिए सुझाव है कि ‘विश्व मेघवाल परिषद्’ या ‘अन्तर्राष्ट्रीय मेघवाल परिषद्’ नाम की एक प्रतिनिधि संस्था गठित की जाएउसमें सभी उपनामित ‘मेघवंशीय’ जातियों को एक मानकर जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिया जाए व रोस्टर के आधार पर लाटरी से प्रत्येक वर्ष अध्यक्ष का चयन किया जाएभारत देश की सभी मेघवंशीय उपजातियाँ छोटेबड़े का भेद भुलाकर आपसी सहयोग का एक समझौता कर सकती हैंइसी प्रकार सभी अनुसूचित जातियाँ भी यदि मेघवाल नाम के साथ जुड़ जाएं तो विश्व की कोई भी ताकत उनकी एकता को चुनौती नहीं दे सकती.

नाम बदलने के साथसाथ हमें इन बुराइयों सेरूढ़ियों से भी निजात पानी होगीउदाहरण के तौर पर हम मृत्युभोज पर हजारों रुपए खर्च कर डालते हैंजो पाप हैमातापिता के जिंदा रहते उनकी सेवा करने से समस्त प्रकार का सुख प्राप्त होता हैअतअनेक देवीदेवताओं के मंदिरों में माथा टेकने से अच्छा है कि घर पर माँबाप की सेवा करेंमाँबाप से बड़ा भगवान् इस दुनिया में कोई नहीं हैहमें धोखे में रखकरभटकाकरकर्मकांडों के चक्रों में फँसाया गया हैनिकलो इन कर्मकांडों सेइस धर्मभीरूता को त्यागकर नए सवेरे की ओर बढ़ोआज विज्ञान का युग हैहमारे लिए अच्छा है कि हम विज्ञान सम्मत ‘चावार्क धर्म’ अपनाएंगूंगेबहरे न बन कर वाक्शक्ति संपन्न बने!

हमें सुनिश्चित करना है कि हम आर्थिक रूप से सम्पन्न होंआर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने का तरीका है कि हम केवल नौकरी की तलाश में न रहकरव्यापार (बिज़नेसकी ओर भी ध्यान देंजनसंख्या बढ़ोतरी के अनुपात में आजकल नौकरियाँ बहुत कम रह गई हैंइसलिए हमें नौकरियों के भरोसे नहीं रहकर दूसरे धंधों की ओर ध्यान देना चाहिएयह शाश्वत सत्य है कि जिसने भी समय के साथ स्थान परिवर्तन कियाबाहर जाकर खानेकमाने की कोशिश कीवे सम्पन्न हो गएहम लोग कुँए के मेंढ़क की तरह गाँव को ही अपना संसार समझकर गाँव की अर्थव्यवस्था के चलते दबे और पिछड़े रहे हैंहम केवल गाँव में ही धंधे की क्यों सोचेंशहरों में जाकर भी धंधा कर सकते हैंमन में शंका तो ज़रूर होगी कि क्या हम व्यापार में कामयाब को पाएँगेआज का समय चुनौतियों से घबराकर भागने या इसके समक्ष समर्मण करने का नहींबल्कि उनका डटकर मुकाबला करने का हैहिम्मत करने वालों को सफलता अवश्य मिलती हैदृढ़ इच्छा शक्ति के साथ हम कुछ भी हासिल कर सकते हैं.

——————————————————————————————————

विशेष नोट :-

कश्मीर में शंकर वर्या (वर्मावर्मनगोपाल वर्यासंघटबारत वर्मनसुगन्ध वर्मनगोपालरानी सुगन्धाचक्रवर्तीबरछतभारतसूर्य वर्मनशंकर वर्मनचक्रवर्ती द्वितीयअनमीतआदित्य वर्मन इत्यादि मेघवंशीय राजाओं के शासन का उल्लेख मिलता है। कश्मीर के इन शासकों के पूर्वज चर्मकार थे। उस समय चमड़े के काम को अपवित्र नहीं माना जाता थाक्योंकि सामान्य दिनचर्या में चमड़े का भरपूर उपयोग किया जाता था।  

(सौजन्य से चहार गुलषनमुकद्दमासाहिबजादा षौकत अली खाँ)

——————————————————————————————————

संदर्भित पुस्तकें

People of India – An Anthropology of India

गुलामगीरी – ज्योतिराव गोविंदराव फुले

अछूत कौन और कैसे – डॉ. भीमराव अंबेडकर

प्राचीन भारत का इतिहास – विजेंद्र नारायण झा एवं कृष्ण मोहन श्रीमाली

आदिम जाति चमार – डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर

मेघवंश इतिहास – स्वामी गोकुलदास

मेघवंश : इतिहास एवं संस्कृति – ताराराम

Meghs of India – Sh. R.L. Gottra

मेघऋषि कौन/मेघवाल कैसे – आचार्य श्री गुरुप्रसाद के.पी.  

 

 

 

Leave a comment