Category Archives: Meghwal

Religious symbols of Meghwals – मेघवालों के धार्मिक प्रतीक

(ताराराम जी ने अपनी ‘Know your history’ सीरीज़ के तहत मेघवालों के एक धार्मिक प्रतीक के बारे में एक फोटो फेसबुक पर दिया जिसपर पर प्रमोद पाल सिंह जी ने टिप्पणी दी. विषय पर चर्चा हुई. उसे यहाँ सहेज कर रख लिया है ताकि उसके बारे में कुछ विस्तृत जानकारी उपलब्ध रहे.) 

“Know your history– Symbol of religious faith of Meghawals of western desert of Rajasthan.

प्रमोदपाल सिंह मेघवालमेघवाल समाज का गौरवशाली इतिहास’ पुस्तक के पृष्ठ सं. 75 पर लेखक डॉ. एम.एल. परिहार लिखते हैं कि ‘मेघवाल समाज के कई सिद्धों, संतों, नाथों, पीरों ने भी पदचिन्हों की पूजा को आगे बढ़ाया। राजस्थान में रामदेवजी से पहले भी मेघवाल समाज में कई सिद्ध हुए और जीवित समाधियाँ लीं। अतः रामदेवजी से पहले ही इस समाज में पदचिन्हों या पगलियों की पूजा होती थी। स्वयं बाबा रामदेवजी पगलिया की पूजा करते थे। उनके पास रहने वाली ध्वजा के सफेद रंग पर पगलिया बने होते थे। आज का मेघवाल जिन पदचिन्हों को रामदेवजी के पवित्र प्रतीक बताता हैं वे तो प्राचीनकाल से विरासत के रूप में चले आ रहे हैं। मेघवाल समाज इस प्रतीक चिह्नको बहुत ही पवित्र मानता है और इसके प्रति गहरी श्रद्धा भी रखता है। यही वजह है कि पगलिया बने लॉकेट पहनते हैं। बुज़ुर्ग सोने के गहने के रूप में गले में ‘फूल’ पहनते हैं। इस आभूषण पर पगलिया उत्कीर्ण रहता है। इसे आभूषण से भी बढ़कर माना जाता है और इसकी पूजा की जाती है। अक्सर इस पर कुमकुम लगा हुआ भी दिखाई दे जाता है। इसे उतारना पड़ जाए तो जमीन पर नहीं रखा जाता है। यह इस पहनने वाले व्यक्ति की धार्मिक प्रवृत्ति के साथसाथ उसकी प्रतिष्ठा का प्रतीक भी समझा जाता है।
Nathu Ram Meghwal- हमारे यहाँ इसे बाबा/अलखनाथ रा (का) पगलियाकहा जाता है. मैं भी पहना करता था. मेरे गाँव में सभी मेघों के घर यह प्रतीक मिल जाता है. कई बुज़ुर्ग लोग स्वर्णिम प्रतीक भी पहनते हैं.
Madha Ram- इस तरह के प्रतीक समाज और संस्कृति को पोज़िटिव एनर्जी देते हैं. हम कोई भी कार्य करते हैं तब हम इसके बारे में सोचते हैं और इससे कार्य करने का सही रास्ता पूछते हैं ताकि हम दुनिया में सही कार्य करें.
 
प्रमोदपाल सिंह मेघवाल@Nathu Ram Meghwal अलख जी की पूजा एक पाँवया एक चरण की मानी जाती है। जबकि बाबा रामदेवजी की पूजा दो पगलियों की होती है। इस संबंध में मेरा एक विस्तृत आलेख शीघ्र ही मेघवाल समाज के लिए बनाई गई मेरी वेबसाइट मेघयुग.कॉम www.meghyug.comपर आपको देखने को मिलेगा। आलेख लिखा जा चुका हैं। सिर्फ तथ्यों का परीक्षण एवं संपादन ही शेष है।
Thakur Das Meghwal Bramniya- ये प्रतीक गुलामी के प्रतीक हैं धर्म के नहीं.
Bharat Bhushan Bhagat प्रथम दृष्यटया Thakur Das Meghwal Bramniya की बात सही दिखती है. तथापि दर्शन की दृष्टि से देखें तो संसार में हर वस्तु को नाम और रूप से पहचान मिलती है. बौधधर्म के अपने प्रतीक हैं, ब्राह्मण धर्म के अलग. ऐसे ही अन्य का भी समझ लीजिए. गुलाम मानव समूहों पर ऐसे नाम और रूप (प्रतीक) थोपे जाते रहे हैं यह भी सच है. अब यह इस बात पर निर्भर करेगा कि उस प्रतीक को धारण करने वाला उसे किस अर्थ में ग्रहण करता है और कि क्या वह उस अर्थ से संतुष्ट है? यदि वह उसे अपना धार्मिक प्रतीक समझता है तो यह उस व्यक्ति का अपना चुनाव (selection) है.
Tararam Gautam अभी मैं थार के रेगिस्तान में हूँ और संयोग से इससे सामना हुआ. यह ऐतिहासिक रूप से पुष्ट है कि यह प्रतीक उस आस्था का प्रतिनिधित्व करता है जिसकी जड़ें बहुत गहरी हैं न कि यह गुलामी का प्रतीक है. इस प्रतीक का इतिहास समस पीर और रामदेव जी से भी पहले का है. यह किसी व्यक्ति का नहीं बल्कि व्यक्तित्व का सम्मान है.
 
इस वशिष्टता को सिद्ध और नाथ पंथ के बाद उभरे हरेक पदचिह्न के साथ सामान्यीकृत नहीं किया जा सकता.
 
जहाँ तक अलख पूजा का संबंध है कुछ लोग इसे निजारी इस्माइलिया के सत्पंथ के साथ जोड़ते हैं और दूसरे इसे अन्य के साथ जोड़ते हैं. समस ने इसे अलख रा पाँवक्यों कहा. और विस्तार से देखें तो एक पदचिह्न उसके साथ है और दूसरा पंखुडी पर है. क्या इसका कोई धार्मिक या आध्यात्मिक अर्थ है?
 
उस काल में मेघवालों की स्थिति और स्टैंड क्या था?
ऐसे प्रतीक कब और कहाँ मिले और उनका अर्थ क्या था?
Tararam Gautam सामाजिकऐतिहासिक जाँच से पता चलता है कि इन्हें आभूषण नहीं माना जाता और केवल आस्था के पवित्र प्रतीक माना जाता है.
माना जाता है कि उगम सी (जी) धारू मेघ के गुरु का है, धारू मेघ जिसे ऐतिहासिक व्यक्ति माना जाता है जिससे मेघों के एक जाति बनने का रास्ता खुला. लेकिन विवेकपूर्ण प्रमाणों से स्पष्ट हो जाता है कि उगम सी महामुद्रा पंथ का अनुयायी था जिसमें पाट (पट) स्थापनाऔर घट या कलश स्थापनाधार्मिक कार्यकलाप का अनिवार्य अंग है न कि पदचिह्न.हो सकता है यह पाट में हो लेकिन तब पाट संपूर्ण है और पदचिह्न एक भाग है जबकि इस आस्था को मानने वाले मुख्यतः पदचिह्न को महत्व देते हैं. क्या इसका कोई समाधान है?
जैसलमेर शहर से दूर लेकिन जैसलमेर के इस क्षेत्र में मैंने लोगों को यही प्रतीक धारण किए देखा है जिससे उनके एक ही धर्म और पंथ के होने का पता चलता है.”

Foot prints of Buddha (left) and Jesus (right)
इस चर्चा के दौरान मुझे याद पड़ा कि श्रीनगर के एक मंदिर में ईसा मसीह के पदचिह्न होने की बात विश्वप्रसिद्ध है. उसकी फोटो को मैंने फेसबुक की चर्चा वाली जगह पर लगाया और बताया कि पदचिह्नों में समानता है. स्वतंत्र रूप से बनाई गई छवियाँ मिलतीजुलती हो सकती हैं लेकिन एक समान नहीं होतीं. फिर भी मैं वह छवि वहाँ लगाने से खुद को रोक नहीं सका. इसका कारण यह था कि एक पुस्तक जीसस लिव्ड इन इंडियामें लिखा है कि जीसस का आखिरी जीवन भारत में बीता. यह भी पढ़ रखा था कि जीसस ने बौधों की एक बहुत बड़ी सभा को कश्मीर में संबोधित किया था. एक ऐसा लिंक भी मिला जिसमें स्पष्ट था कि गांधार में बुद्ध की पदशिला मिली है. मन में कौंधा कि कहीं ईसा ने यहाँ ऐसे बौध मठ में शरण तो नहीं ली थी जहाँ बौधजन और बुद्ध की पदशिला पहले से मौजूद थे? क्या संभव है कि आगे चल कर बुद्ध के उक्त पदचिह्न को जीसस के पदचिह्न की प्रसिद्धि प्राप्त हुई हो या उन पदचिह्नों का मिलताजुलता अनुसृजन हुआ हो? क्या ये पदचिह्न बुद्धिज़्म और क्रिश्चिएनिटी के परस्पर संबंध का प्रतीक तो नहीं है? यह विषय आर्कियालॉजिस्टों और इतिहासज्ञों का है. मैं तो केवल प्रश्न ही पूछ सकता हूँ

वैसे मेरी मान्यता यह है कि बौधधर्म, ईसाइयत और इस्लाम एक ही धर्म के तीन क्षेत्रीय रूप हैं. बात इतनी है कि दुनिया भर के बौद्धों, ईसाइयों और मुसलमानों के प्रति भारत में पाई जाने वाली घृणा के मूल में ब्राह्मणवाद जनित वंशवाद अर्थात जातिवाद है जो वैश्वीकरण के बाद कुछ ढीला पड़ता दिखाई दिया है.

Rajtarangini and Meghs – राजतरंगिनी और मेघ


Rajtarangini and Meghs
कल श्री ताराराम जी ने कल्हण की राजतरंगिणी की पीडीएफ फाइल भेजी थी जिसके वे पृष्ठ पढ़ गया हूँ जो सम्राट मेघवाहन से संबंधित हैं, जो एक बौध राजा थे, और इन विचारों से जूझ रहा हूँ.
1. लेखक एक ब्राह्मण था. पता नहीं उसके लिखे इतिहास पर कितना विश्वास किया जा सकता है.
2, पुस्तक की भाषा बताती है कि लेखन में काफी भावुकता है और कि वह सत्य पर हावी हो सकती है. तब कितना भरोसा किया जाए.
3. ख़ैर, पुस्तक बताती है कि बौध राजा मेघवाहन को गांधार से बुला कर कश्मीर का राजा बनाया गया जिसने अपने सुशासन से प्रजा का हृदय जीत लिया.
4. बाकी बातों को छोड़ यदि केवल मेघवाहन शब्द पर ही विचार किया जाए तो पहला प्रश्न यह है कि क्या हम मेघवाहनसे ही मेघजाति की व्युत्पत्ति (शुरुआत) मान लें. ऐसा नहीं लगता.
5. भाषा विज्ञान की दृष्टि से मेघवाहनशब्द से कई शब्द निकले हो सकते हैं, जैसे– मेदमघ, मेघमेधमेथा, मेधो, मेगल, मेगला, मींघ, मेघवाल, मेंग, मेंघवाल, मेघोवाल, मद्र, मल्ल आदि. अधिक संभावना मींघ, मेंघवाल, मेघवाल की है. ये सभी शब्द दलित समुदायों से संबंधित हैं और इतिहास के अनुसार दलित उन्हें ही बनाया गया जिन का मूल बौधधर्म में था. संभावना इस बात की भी लगती है कि सम्राट मेघवाहन मेघ/मेघवाल रहे हों जो अफ़गानिस्तान में बसे थे. इतिहास में उल्लिखित ‘Dark ages’ में मेघनाम (वंशावली नाम) वाले कई राजा हुए हैं लेकिन उनके बाद उन राजाओं के नाम को सरनेम की तरह अपनाने वाले समुदायों का उल्लेख कहीं नहीं मिलता. हाँ, अलबत्ता मेघनाम वाले मानव समूहों की संख्या काफी बड़ी है और वे सदियों से गुमनामी में हैं.
6. दूसरी ओर यह भी तथ्य है कि दुनिया में कोई ऐसा मानव समूह नहीं है जिसका अपना कोई पूर्वज राजा या शासक न रहा हो. यानि तर्क को सिर के बल खड़ा करके देखें तो भी मेघों के समूह का कोई तो राजा रहा होगा.
7. ‘मेघशब्द के कई अर्थ हो सकते हैं. इस पर भी चर्चा हो सकती है. बुद्ध का एक नाम मेघेंद्रहै जिसका अर्थ हैमेघों का राजा.

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Satyanarayan Gothwal and national flag- सत्यनारायण गोठवाल और राष्ट्रध्वज

कभी सुना था कि भारत का पहला झंडा बुनने का कार्य एक मेघवाल ने किया था. इस बारे में हाल ही में प्राप्त समाचार पत्र “दर्द की आवाज़” में अधिक पढ़ने को मिला कि इसे श्री सत्यनारायण गोठवाल ने बनाया था. नीचे दिए चित्र पर क्लिक करके आप विवरण पढ़ सकते हैं. 

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Social Conventions and Meghwals – मेघवाल और सामाजिक रूढ़ियाँ

Prithvi Pal Singh Meghwal (via Face Book)
मेरी व्यथा:- बहुत गाँवों में हमारे समाज की कुछ भयानक-असहनीय परम्पराएँ या मजबूरियाँ हैं, जैसे:-

(1) मेघवाल परिवार की शादी के कार्याक्रम के दौरान अगर गाँव में कोई ठाकुर या उसका कोई सबंधी मर जाता है तो, मेघवाल परिवार को बिना गाजा-बाजा यानि बिना किसी गीत-गायन और ढोल के चुपचाप उस शादी को सम्पन्न करना होता है, दूसरी ओर अगर इसका उल्टा उदाहरण लें तो ठाकुर कभी भी अपनी शादी का माहौल फीका नहीं करेगा (उदाहरण :- नरसाणा, मुडी, तेळवाडा, निम्बलान, पारपड, सापनी, दासपा और आस-पास के सैंकडों गाँव)

(2) अगर किसी गाँव में बारात आती है तो बारातियों को शादी से पहले, जहाँ गाँव के बाहर डेरा लगाया जाता है, वहाँ नीचे बैठना पडता है, क्योंकि ठाकुर, मेघवालों को पलँग-कुर्सी पर बैठने की आज्ञा नहीं देता, मुझे भी एक बारात में नीचे बैठना पडा था (गाँव निम्बलान-जालोर). मैं उस वक़्त कॉलेज मे पढता था. पहले मैं दूल्हे के साथ पलँग पर बैठा था, पर उस गाँव के अपने समाज के लोगों ने ही मुझे पलँग से नीचे उतार दिया, और बोले कि आप तो एक दिन के मेहमान हो और हमें तो इस गाँव में जिंदगी-भर रहना है. फिर भी मैं अड़ा रहा और फिर से पलँग पर बैठ गया और ठाकुर ने देख लिया, शिकायत आयी, और जिसकी सज़ा हमने बारात रवानगी के वक़्त पायी, वहाँ के ठाकुर के बच्चों ने हमारे, उजले कपडों पर गोबर-कीचड़ डाला. हमें बहुत परेशान किया पर किसी की हिम्मत न थी कि उन्हें रोके. (उदाहरण:- जालौर, बाड़मेर के सैंकड़ों गाँव).

(3) शादी के बाद नव-विवाहित जोड़े को गाँव के तथाकथित ठाकुर के घर धौक लगाने जाना होता है, कभी-कभी इसका शर्मनाक परिणाम भी भुगतना पड़ता है (उदाहरण :-जालौर-बाड़मेर के कठाडी, रामणिया और आस-पास के गाँव).

(4) अगर ठाकुर के घर कोई मर जाता है तो अपने समाज के लोगों को सिर पर सफेद कपड़ा बाँधना पड़ता है और ठाकुर की मौत का शोक करना पडता है. इसका भी उल्टा उदाहरण लें तो ठाकुर कभी भी ऐसा नहीं करता है. (उदाहरण:- जालौर, बाड़मेर के सैंकडों गाँव).

(5) गाँव के मेघवाल समाज के लोग अगर गाँव के बाहर गुंदरा (चौहटा) या किसी चौपाटी पर बैठने की हिम्मत कर ले तो उसे लात मार के नीचे फेंका जाता है, सो किसी की हिम्मत तक नहीं कि कोई चौपाटी/चौहटे पर बैठ सके. और अगर बस में सफर करे तो ठाकुर जात को जगह अपने-आप ही मिल जाती है क्योंकि मेघवाल बंधु को सीट छोडनी ही पडती है. 

(6) मरे हुये ठाकुर के घर मेघवाल औरतों का रोने जाना तो कई गाँवों में अभी-भी चल रहा है.
क्या वाकई यह परम्परा है या माजबूरियाँ, या हमारी आदत जो चाहते हुए भी नहीं छूट रही है?

(7) गाँव में मरे ठाकुर के घर मृत्यु-भोज में मेघवाल जाता है और सबसे दूर अलग बैठ कर अपने ही घर से साथ लाए बरतन में भोजन करता है. क्या वहाँ जाना और इस तरह अपमान के साथ खाना मजबूरी है?

(8) आज भी कई गाँवों के सभी घरों में नल सुविधा नहीं है, इसलिये मेघवाल औरतों को गाँव के कुँए पर पानी भरने जाना पड़ता है जहाँ उन औरतों को अपने मटके लिए दूसरे समाज की औरतों से दूर खड़े रहना पड़ता है. अगर मेघवाल औरत अकेली कुँए पर गयी है तो मटका उठाने में दूसरी औरतें सहायता नहीं करतीं यानि वे औरतें मेघवालों के मटकों को हाथ तक लगाना अशुभ मानती हैं. शायद इस समस्या को दूर होने में थोड़ा और समय लगेगा. 

(9) अपने किसी रिश्तेदार के मरने पर मृत्यु-भोज कर के अपने आप को समाज में ऊँचा साबित करना.

मेघवाल मृत्यु-भोज:- कई गाँवों से भारी मात्रा में मेघवाल पुरुष, महिलाएँ, बच्चे, मृत व्यक्ति के घर इकट्ठे होते जाते हैं और खाना खाते जाते हैं. अगर गंगा थाली हो तो ढेरों मिठाइयाँ बनाई जाती हैं. इस अवसर के लिये एक गरीब को अपना कई वर्षों की कमर-तोड़ मेहनत से हुई कमाई पानी की तरह बहानी पड़ती है,  कभी-कभी खेत को गिरवी रखना या बेचना पड़ता है, क्योंकि मजबूरी यह होती है कि अपने ही समाज के लोग कहते हैं कि हमारे भी बाप-दादा की मृत्यु के बाद हमने मृत्यु-भोज कराया तब तूने भी खाया था अब तेरी बारी वरना तेरे बाप-दादा मरने के बाद ऐसे ही समाज में लटकते रहेंगे और बार-बार समाज की बैठक में ऐसा मामला उठाया जाता है और उस गरीब को कोसा जाता है, पर आज-कल ऐसा सामाजिक दबाव कम तो हो गया है पर फिर भी ये मूर्ख लोग नहीं समझते. मैं मेरी मौसी की सासु के मृत्यु-भोज में नहीं गया. मेरी मौसी ने पूछा कि क्यों नहीं आया, बहुत लोग आये थे, मैंने कहा मौसी आपको मैंने पहले ही कहा था कि यह खर्चा मत करो. आपको क्या मिला? मौसी हँस कर बोली- अरे, समाज में रहना है तो करना पडता है, और तुझे पता है बहुत लोग आये थे, लगभग 12 गाँव के लोग, और भोज में 3-4 लाख खर्चा आया. लोगों ने बहुत सराहा, वाह भाई बहुत खर्च किया और मौसी-मौसा कुछ दिनों तक समाज में अपने आपको ऊँचा समझने लगे हैं. क्या ये परम्परा सही है? 

मेरी ऐसी कोई मजबूरी या आदत नहीं है पर मेरे द्वारा अकेला कुछ करना व्यर्थ है क्योंकि हमारे बंधुओं को गंदी सामाजिक परम्परा ने जकड़ रखा है, ये तभी इस समस्याओं से मुक्त होंगे जब सब मिलकर इसे दूर करेंगे और मेरी तरह अपना सुंदर जीवन जीने की कोशिश करेंगे. और अगर बुजुर्ग (जिन्होंने इन गंदी परम्पराओं को अपनी कांख मे दबा रखा है) कोशिश करेंगे तो यह परम्परा जल्दी ही भस्म हो जाएगी.

मेरी व्यथा पढने के लिये आपका बहुत-बहुत शुक्रिया, पर असली शुक्रिया तो तब होगा जब आप सब मेरा साथ दोगे.

शर्मनाक :दलित दूल्हे को घोड़े से उतारकर, पैदल घुमाया

शर्मनाक :दलित दूल्हे को घोड़े से उतारकर, पैदल घुमाया

Jul 12, 2013

टीकमगढ़ । एक दलित दूल्हे का सिर पर सेहरा बांध कर और घोड़ा पर सवार होकर अपनी बारात निकलवाने का सपना उस समय हवा हो गया, जब गांव के प्रभावशाली लोगों ने दूल्हे को न केवल घोड़े से नीचे उतरवाया बल्कि उसकी बारात भी पैदल निकलवाई। मामला टीकमगढ़ जिले के दिगौड़ा थाना के अंतर्गत आने वाले ग्राम मऊ बछौड़ा का है। इधर घटना के बाद दूल्हे की बहन और पिता ने इसकी सूचना पुलिस को दी है। पुलिस ने मामले में एक संदिग्ध व्यक्ति को पकड़ लिया है।
http://www.bhaskar.com/article/c-58-1972588-NOR.html

 

  MEGHnet

 


Rashtriya Sarv Meghvansh Mahasabha (India)

Rashtriya Sarv Meghvansh Mahasabha (India)
(Regd. No.224/88-89)

Rajasthan Meghwal Samaj was established in the year 1988-89 with the mission of uniting Megh Samaj scattered in the country under different names. It has its National Executive with network in 35 districts in every tehsil. They organize various activities of social awareness throughout the year with the participation of tehsil and block level workers in the state level conference each year. For the past two years they are having a wing named Megh Sena having its unit in all the districts. They intend to open the units in each tehsil and block. Megh Sena has its own training programs. They have prepared second and third line of leadership. They have an advisory board, Legal Advisory Board and different letter heads for districts units. The details of each activity are published. In addition to Megh Sena, youth and women wings are also being strengthened. They are coordinating with other organizations having identical ideology.
Mission: To unite the Megh community scattered over a large area from Kashmir to Kanyakumari.


Public Awareness Movement of Balai Community


Balai community of Megh lineage has started a public awareness movement. Its Executive State President is Mr.G.R. Bunkar.
Development vision:
Their development model includes collection of Rs.50/- from each of 500 families out the total 1500 families from a village. Thus expecting a total collection of Rs. 1, 20, 00,000 per annum from around 40 Panchayats. The amount will be spent on student hostels, home for destitute, marriages of girls from poor families, renovation of temples of Baba Ramdev (a revered deity of Meghwals and others in Rajasthan), and education of intelligent students and also on election of community candidates contesting elections. Their last Maha Panchayat was held on 13 June, 2010.
They are educating their folks so that they do not spend hard earned money on court cases, outdated religious activities and unimportant aspects of social functions. Awareness is being created against borrowing from local money lenders and mortgaging land.
Agenda:
Construction of boys and girls hostels, Dharmashala; organizing coaching and training classes and constitution of Balai Brigade etc.; unity of votes by various means; raising demand with government to give special treatment to Balai community while giving political posts in cooperative sector and other semi government organizations; demand for Weavers Commission and Weavers Cooperative Development Corporation with financial assistance of Rs.400 crores; to request government to name its schemes after Megh Rishi, Kabir, Baba Ramdev, Dr.Ambedkar, Baba Garib Das etc. and issue special postal tickets.