(कल बहुत दिनों के बाद अपनी गढ़त करने वाली पुस्तकों को छुआ. और बाबा फकीर चंद जी की एक पुस्तक ‘अगम-वाणी’ से यह मिला. यह इसलिए भी अच्छा लगा कि यह MEGHnet पर 200वीं पोस्ट है.)
“वाणी कहती है कि राधास्वामी अनामी, अरंग अरूप की आदि अवस्था में थे जिसे अचरज रूप कहते हैं. केवल इस ख्याल से कि मैं किसी के अन्तर नहीं जाता, मेरे अन्तर जो रूप, रंग, दृश्य पैदा होते थे उनको तथा सहसदल कंवल, त्रिकुटी आदि को छोड़ने के लिये मैं विवश हुआ क्योंकि वह मुझे मायावी और कल्पित सिद्ध हुए. वे दृश्य आदि हमारे मन पर बाह्य प्रभावों से या अपनी प्रकृति के कारण आते हैं. शब्द और प्रकाश से गुज़रता हुआ जब इनसे आगे चलता हूँ तो फिर उस मालिक को समझने, देखने की शक्ति नहीं है. सिवाय अचरज के और कुछ नहीं है. जब वहाँ से उत्थान होता है, शब्द और प्रकाश की चेतनता आती है. वह अगम है. इसी प्रकार मेरी ही नहीं हर एक जीव की या हर एक मनुष्य की यही दशा है.
तो फिर मेरे जीवन की रिसर्च यह सिद्ध करती है कि उस परमतत्त्व, अनामी, अकाल पुरुष की अवस्था से यह चेतन का बुलबुला प्रगट हुआ और उसी में समा गया. ‘लब खुले और बन्द हुये, यह राज़े ज़िन्दगानी है’.
अब संसार वालो! सोचो! मैंने जो खोज की है, क्या वह सत्य नहीं है. आज 80 वर्ष के बाद अपना अनुभव कहता हूँ कि जो कुछ वाणी में लिखा है वह ठीक है. इसकी सचाई का ज्ञान केवल गुरुपद पर आने से हुआ. जो लोग मेरा रूप अपने मन से या अपनी आत्मा से अपने अन्तर में बनाते है और मैं नहीं होता तो सिद्ध हुआ कि प्रत्येक व्यक्ति के अन्तर जो वह है, वह और है और जो शक्ति उसकी रचना करती है, उसकी अंश है, वह उसकी सत्ता है इसलिये वह जो उस अनामी धाम, हैरत, अकाल पुरुष की सत्ता है वह रचना करती है. तमाम धर्म पंथ, हर प्रकार के योगी, हर प्रकार के विचारवान, किससे काम लेते हैं? वह है अपने आपकी सत्ता, जो मनरूपी उनके साथ रहती है और उससे काम लेते हैं. मनुष्य के अन्तर में उसका मन रचना करता है और ब्रह्मंड, ब्रह्मंडीय मन उस अकाल पुरुष, परमतत्त्व, अनामी, आश्यर्चरूप की सत्ता है.
प्रत्येक धर्म सम्प्रदाय तथा पंथ वाले उस मालिक को अपने मन से अलग समझकर उसको पूजते हैं. कोई कहता है अन्तर में राम मिलता है कोई कहता है उसका अलग मंडल है, अलग लोक है. मैं भी ऐसा ही समझा करता था मगर जब सत्संगियों के कहने से ज्ञान हुआ कि वह अपने अन्तर सूर्य, चन्द्रमा, देवी, देवताओं के रूप देखते हैं और मेरा रूप भी देखते हैं मगर मैं नहीं होता तो मुझे निश्चय हो गया कि यह सब खेल इनके अपने ही काल रूपी मन का है. इसी प्रकार इस बाहरी रचना में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, देवी देवता, लोक-लोकान्तर सब ब्रह्मंडी मन काल ने बनाये हैं. जिस तरह मनुष्य का मन अपने अन्तर अपनी रचना करता है और वह रचना हमारी सुरत को भरमाती रहती है, इसी प्रकार यह बाहर की रचना हमको भरमाती रहती है, वास्तव में यह रचना उस असल अकाल पुरुष, दयाल पुरुष का प्रतिबिम्ब है और हम उस अकाल पुरुष या दयाल पुरुष की अंश है. यहाँ आकर अपनी रचना में और बाहरी रचना में इसे भूल गये. उस भूल को मिटाने के लिये यह परम संत सत्गुरु का रूप धारण करके जीवों को अपने घर का पता देता है.” – बाबा फकीर चंद, ‘अगम वाणी’ से
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