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Hans Raj Bhagat, Advocate – हंसराज भगत, एडवोकेट

Hans Raj Bhagat, Advocate हंसराज भगत, एडवोकेट
वही समय था जब 1882 में भारत सरकार द्वारा कराई गई पहली जनगणना से मालूम हुआ कि अछूत कहे जाने वाले कई लाख लोग नाममात्र के हिंदू थे. उन्हें अपनी मनमर्ज़ी के अनुसार कार्य करने और शिक्षा लेने का अधिकार नहीं था. शोर मचाया जा रहा था कि उन्हें ईसाई बनाया जा रहा है.
वही समय था जब 1889 तक पंजाब में आर्यसमाज की स्थापना हो चुकी थी. पंजाब के एक आर्यसमाजी कार्यकर्ता लाला गंगाराम ने बताया कि 1880 में मेघों ने स्यालकोटी आर्यसमाजियों से आवेदन किया था कि उनके सामाजिक स्तर का पुनर्निधारण किया जाए और उसे ऊँचा उठाया किया जाए. उन्होंने ईसाई, इस्लाम और सिख धर्मों के उदाहरण दिए जिनमें जाति और धर्म आधारित भेदभाव नहीं था. लेकिन हिंदुओं ने इसका कटुतापूर्वक लगातार विरोध किया. (मेघों द्वारा ऐसे आवेदन की पुष्टि अभी नहीं हो पाई है). कहा जाता था कि लाला गंगाराम द्वारा लगातार दबाव देने से आर्यसमाज की कार्यकारी समिति ने यह कार्य एक रजिस्टर्ड संस्था आर्य मेघ उद्धार सभाको सौंपने का निर्णय लिया.
वही समय था जब मेघों को शुद्धिकरणकी प्रक्रिया से गुज़ार कर हिंदुओं के सबसे निचले वर्ण में शामिल करते हुए आर्यसमाज में दाख़िल किया गया. दावा किया गया कि आर्यसमाजियों ने स्यालकोट के 36000 मेघों का शुद्धिकरण करके उन्हें आर्य बनाया था. उनके कुछ बच्चों ने आर्समाज द्वारा चलाए जा रहे प्राइमरी स्कूलों में जाना शुरू किया.
अपने स्वभाव के अनुरूपमेघ अपनी गरीबी और विनम्रता के कारण धार्मिक प्रकृति के थे. इसीलिए लाला गंगाराम उन्हें भगतकह देता था. मेघों ने भगतनामकरण स्वीकार कर लिया क्योंकि इस क्षेत्र में आर्यसमाज के आने से पहले अधिकांश मेघवंशी मध्यकालीन संतों कबीर आदि के प्रति आस्था रखते थे. उन संतों को भारतीय समाज सदियों से भगतकहता आ रहा था.
वही समय था जब डालोवालीगाँव के निवासी हंसराज भगत और ननजवाल गाँव के निवासी जगदीश मित्र ने 1935 तक आर्यसमाज के प्रयत्नों से शिक्षा प्राप्त की और दोनों कानून के स्नातक (LLB) हुए.
इसी दौरान सन् 1925 मेंबाबू मंगूराम मुग्गोवालिया, निवासी गाँव मुग्गोवाल, तहसील गढ़शंकर, ज़िला होशियारपुर ने एक संगठन आदधर्म (आदि धर्म) मंडल बनाया और एक आंदोलन शुरू किया. यह अछूतों के इस पक्ष को बताता था कि वे भारत में आर्यों के आने से भी पहले के बाशिंदे हैं जो सप्तसिंधु या ग्रेटर पंजाब में रहते आए थे. इस आंदोलन के प्रभाव को रोकने के लिए आर्यसमाज (हिंदुओं/ब्राह्मणों) ने पूरी शक्ति लगा दी थी. यह आदधर्म आंदोलन मेघ समुदाय को अधिक आकर्षित नहीं कर सका क्योंकि यह समुदाय पहले ही आर्यसमाजी हिंदू विचारधारा के प्रचार से प्रभावित हो चुका था.
ऊपर बताए गए दो युवकों में से भगत जगदीश मित्र की जीवन अवधि छोटी रही.भगत हंसराज स्यालकोट में वकालत करने लगे.भगत हंसराज आदधर्म आंदोलन के प्रति आकर्षित थे और उन्होंने एक आदधर्मीलड़की सेविवाह भीकिया. आर्यसमाजियोंको यह बात पसंद नहीं आई. सीकारण भगत हंसराज के आर्यसमाजी मित्र उनकेविवाह समारोह में शामिल नहीं हुए खासकरयहतर्क दे करकि शुद्ध किए गए मेघ भगततुलनात्मक रूप सेऊँची जाति के लोग हैं और किआदधर्मियों के साथ उनका रोटीबेटीका संबंध नहीं है. तब तक भगत हंसराज जीडॉ. भीमरावअंम्बेडकर और बाबू मुग्गोवालियाके विचारों से बहुत प्रभावित हो चुकेथे. यह बात आर्यसमाजियों को रास नहीं आ रही थी.अंबेडकर के विचारों के अनुरूपभगत हंसराज चाहते थे कि दलित लोग जाति व्यवस्था से ऊपर उठें.
उधर लाला गंगाराम ने मेघ उद्धार सभाबना कर अंग्रेज़ सरकार से सभा के लिए कुछ बंजर ज़मीन लीज़ पर ली जो तहसील खानेवाल, ज़िला मुल्तान में पडती थी. इस पर कुछ मेघ परिवारों को बसा कर उन्हें खेती करने के लिए रखा गया. इस भूखंड को मेघ नगरनाम दिया गया. खेती करने वाले मेघों को फसल का 50 प्रतिशत हिस्सा मिलता था. आगे चल कर मेघ टेनेंट्स ने दबाव बनाया कि उनका हिस्सा दो तिहाई किया जाए. लाला गंगाराम इस पर राज़ी नहीं था और उसके साथ कुछ हाथापाई भी हुई.
कानून के जानकार हंसराज भगत मेघ उद्धार सभा‘ (जो लाला गंगाराम के नेतृत्व में ही बनी थी)के नाम से बने ट्रस्ट द्वारा इन बँटाईदार (Share cropper) मेघों के शोषण की वास्तविक कथा जानते थे. यह ज़मीन अंग्रेज़ सरकार ने ट्रस्ट को लीज़ पर दी थी और बँटाईदार के तौर पर मेघों को बहुत कम मेहनताना मिल रहा था. समाजसेवा के इस प्रत्यक्ष नाटक के पीछे कुछ गलत था कि जो इसके विरुद्ध आवाज़ उठी. हाथापाई हुई. एक केस एडवोकेट हंसराज की अगुवाई में कोर्ट ले जाया गया. ट्रस्ट का प्रतिनिधित्व गंगाराम कर रहा था. एडवोकेट हंसराज केस जीत गए. स्पष्ट शब्दों में कहें तो उन्होंने यह केस मेघों के तथाकथित महान सुधारक लाला गंगाराम के विरुद्ध जीता था. केस जीतने के बाद वे बँटाईदारमेघ किसान ज़मीनों के मालिक बन गए.
यहाँ इस बात का उल्लेख करना ज़रूरी है कि भगत हंसराज निवासी गाँव डालोवालीको 1935 तक अपनी बीएएलएलबी की शिक्षा के लिए आर्यसमाज से वित्तीय सहायता मिलती रही थी. यद्यपि वे अपनी शिक्षा के लिए आर्यसमाज के आभारी थे लेकिन स्वाभाविक ही वे देश भर के दलितों के इतिहास और उनकी स्थिति संबंधी डॉ. अंबेडकर के विचारों और उनके साहित्य के प्रति आकर्षित थे और बाबू मंगूराम के आदधर्म आंदोलन से लगाव रखने लगे थे. इसे उन आर्यसमाजियों ने नापसंद किया जो शिक्षा के लिए हंसराज को दी वित्तीय सहायता के बदले उनमें एक ज़बरदस्त हिंदूवादी आर्यसमाजी कार्यकर्ता देखने का सपना पाले हुए थे. असल में वे विश्वास ही नहीं कर पा रहे थे कि वह युवक मेघ भगतों को न्याय दिलाने के लिए अदालत चला जाएगा और केस जीत जाएगा.
शिक्षित व्यक्तियों में से भगत हंसराज ही अपने समुदाय में शायद ऐसे थे जिन्होंने उन दिनों अंबेडकर की भाँति अंतर्जातीय विवाह किया था. इसी कारण से मेघों सहित उनके कुछ आर्यसमाजी मित्र बुलावे के बावजूद उनके विवाह में नहीं आए और बहिष्कार करते हुए हंसराज जी को बिरादरी से छेक दिया गया.
लोग बताते हैं कि जिस मेघ समूह ने आदधर्मी लड़की से शादी करने पर हंसराज भगत का सामाजिक बहिष्कार किया था उसी समूह ने राज्य की विधानसभा के चुनाव में हंसराज भगत के विरुद्ध खड़े चौधरी सुंदर सिंह के हक में सक्रिय रूप से प्रचार करके मेघों के वोट दिलाए. ये सुंदर सिंह आदधर्मी थे. इससे मेघ समुदाय के व्यवहार का अजीब अंतर्विरोध सामने आता है.
कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली द्वारा अक्तूबर 1966 में प्रकाशित डॉ. अंबेडकर का साहित्य और संभाषण‘ (Writings and Speeches of Dr. Ambedkar, published by Ministry of Welfare, G.O.I., New Delhi, Oct. 1966 Edition) से यह रुचिकर बात पता चलती है कि पंजाब के आर्य हिंदू इस बात पर असहमत थे कि मेघों जैसे समुदाय अछूतों में आते थे. फिर भी डॉ. अंबेडकर से समर्थन प्राप्त भगत हंसराज के प्रयासों के कारण मेघों को अनुसूचित जातियों में रखा गया. यदि आर्य हिंदू सफल हो जाते तो आज़ादी के बाद मेघों को नौकरियों में आरक्षण का लाभ नहीं मिल पाता जिसका महत्व और असर आज सबके सामने है.
यहाँ इस बात का पुनः उल्लेख आवश्यक है भगत जी ने कि आज़ादी से पहले 1937 में स्टेट असेंबली चुनावों में यूनियनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में इलैक्शन लड़ा लेकिन वे कांग्रेस के चौधरी सुंदर सिंह से चुनाव हारे. इसकी वजह यह रही कि चिढ़े हुए आर्यसमाजियों ने गाँव पोथाँ, ज़िला स्यालकोट के निवासी भगत गोपीचंद को उनके विरुद्ध चुनाव में खड़ा कर दिया और मेघों के वोट बँट गए. आगे चल कर 1945 में भगत हंसराज को आदधर्मी समुदाय का समर्थन मिला और वे यूनियनिस्ट पार्टी की ओर से विधान परिषद के सदस्य मनोनीत हो गए और अनुसूचित जातियों का प्रतिनिधित्व किया.
पंजाब के हिंदू, मुसलमानों, दलितों और सिखों के हितों का ध्यान रखने के लिए गठित दस सदस्यीय पंजाब स्टेट फैंचाइज़ कमिटिमें एडवोकेट हंसराज भगत और के. बी. दीन मोहम्मद को सदस्य नियुक्त किया गया. हिंदुओं में सर छोटू राम और पंडित नायक चंद (सनातनी आर्यसमाजी प्रतिनिधित्व) भी इसमें सदस्य थे. समिति के नौ सदस्यों (हिंदू और एक सिख प्रतिनिधि) ने रिपोर्ट दी कि यह कहना असंभव था कि उस समय के अविभाजित पजाब में कोई दलित समुदाय था जिनके धर्म को लेकर उनके सिविल अधिकारों का उल्लंघन हुआ हो. तथापि उन्होंने यह भी जोड़ा कि गाँवों में ऐसे वर्ग थे जिनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति निश्चित रूप से दयनीय थी. उन्होंने यह भी रिपोर्ट किया कि हालाँकि मुस्लिमों में कोई दलित नही हैं फिर भी हिंदुओं और सिखों में दलित थे और उस समय के अविभाजित पंजाब में उनकी कुल जनसंख्या 1,30,709 थी.
इस प्रकार पंजाब की समिति ने सीधे तौर पर बहुमत से इंकार कर दिया कि पंजाब में दलितों या अछूतों का कोई अस्तित्व था. वास्तव में अछूत‘ (untouchable) शब्द का प्रयोग दलितशब्द के स्थान पर किया गया था ताकि किसी की भावनाओं को चोट न पहुँचे. तथापि एडवोकेट हंसराज ने अपने अलग से प्रस्तुत असहमति (dissenting) नोट में उल्लेख किया कि दलित समुदायों की सूची अपूर्ण थी क्योंकि मेघों सहित कई समुदायों को इससे बाहर रखा गया था. आगे चल कर उनके असहमति नोट को महत्व दिया गया और उस पर सकारात्मक कार्रवाई करते हुए पंजाब के दलित समुदायों को अनुसूचित जातियों में शामिल किया गया.
श्री यशपाल, आईईएस से बातचीत के दौरान पता चला है कि हंसराज जी ने अपने एक नज़दीकी रिश्तेदार की बेटी को गोद लिया था जिसकी शादी आगे चल कर मेघ समुदाय के श्री खज़ानचंद जी से तय हुई थी जो उन दिनों रेलवे में स्टेशन मास्टर (शायद मेघों में पहले) के पद पर नियुक्त हुए थे. लेकिन विवाह से कुछ ही पहले उनका निधन हो गया.
स्वतंत्र भारत में आने पर हंसराज भगत दिल्ली के करोल बाग में रहने लगे. वे वकील के रूप में कार्य करते रहे. करोल बाग में ही भगत गोपीचंद के बेटे महिंदर पाल ने 1965 से 1966 के बीच उनसे भेंट की. उनके जन्म और देहांत की सही तिथि ज्ञात नहीं हो सकी है न ही कोई फोटो प्राप्त हो सकी है. संभवतः हंसराज जी का परिवार विदेश में बस गया था.
अंत में यह बताना भी ज़रूरी है कि भारत विभाजन के बाद सेटेलमेंट मंत्रालय में एडवाइज़र सुश्री रामेश्वरी नेहरू, भगत हंसराज और श्री दौलत राम (मेघ) भगत गोपीचंद और भगत बुड्ढामल सभी ने समन्वित प्रयास किया और स्यालकोट से भारत में आए मेघों को अलवर (राजस्थान) आदि जगहों पर ज़मीनें दिला कर बसाया गया. भगत हंसराज राजनीति रूप से सक्रिय थे, श्री दौलत राम सेटेलमेंट ऑफिसर थे. इस टीम ने बहुत अच्छा कार्य किया और सफल रही. लाभ उठाने वाले भगतों में वे लोग भी शामिल थे जो कभी हंसराज भगत के विरोधी रहे थे.
आर्यसमाज और लाला गंगाराम का प्रयोजन और उद्देश्य चाहे कुछ भी क्यों न रहा हो, उन्होंने मेघों की शिक्षा के लिए जितना भी किया वह मेघों के लिए लाभकारी हुआ हालाँकि आज़ादी के बाद मेघ समुदाय आर्यसमाज के एजेंडा में कहीं नहीं दिखता. दूसरी ओर एडवोकेट भगत हंसराज और डॉ. अंबेडकर ने पंजाब के मेघों और अन्य दलित जातियों को अनुसूचित जातियों की अनुसूची में शामिल कराने के लिए जो संघर्ष और कार्य किया उसने उनकी आर्थिक हालत को सुधारने में बहुत मदद की और आज उनके कार्य के कारण पंजाब के कई लाख दलित निम्न मध्यम और मध्यम वर्ग मे आ चुके हैं. इस लिए सभी दलित समुदायों के साथसाथ मेघों के पक्ष से उनके अग्रणी हीरो एडवोकेट भगत हंसराज हैं. जिनके संघर्ष का लाभ मेघों की आने वाली पीढ़ियाँ महसूस करेंगी.
(उक्त जानकारियाँ सर्वश्री आर.एल. गोत्रा, यशपाल जी, मोहिंदर पाल और डॉ. ध्यान सिंह के सौजन्य से प्राप्त हुई हैं. उनका आभार. एडवोकेट भगत हंसराज जी के बारे में बेसिक जानकारी उपलब्ध नहीं हो पाई है. यदि कोई सज्जन उसकी तथ्यात्मक जानकारी दे सकें तो इस ईमेलbhagat.bb@gmail.comपर भेज सकते हैं.)

Rajtarangini and Meghs – राजतरंगिनी और मेघ


Rajtarangini and Meghs
कल श्री ताराराम जी ने कल्हण की राजतरंगिणी की पीडीएफ फाइल भेजी थी जिसके वे पृष्ठ पढ़ गया हूँ जो सम्राट मेघवाहन से संबंधित हैं, जो एक बौध राजा थे, और इन विचारों से जूझ रहा हूँ.
1. लेखक एक ब्राह्मण था. पता नहीं उसके लिखे इतिहास पर कितना विश्वास किया जा सकता है.
2, पुस्तक की भाषा बताती है कि लेखन में काफी भावुकता है और कि वह सत्य पर हावी हो सकती है. तब कितना भरोसा किया जाए.
3. ख़ैर, पुस्तक बताती है कि बौध राजा मेघवाहन को गांधार से बुला कर कश्मीर का राजा बनाया गया जिसने अपने सुशासन से प्रजा का हृदय जीत लिया.
4. बाकी बातों को छोड़ यदि केवल मेघवाहन शब्द पर ही विचार किया जाए तो पहला प्रश्न यह है कि क्या हम मेघवाहनसे ही मेघजाति की व्युत्पत्ति (शुरुआत) मान लें. ऐसा नहीं लगता.
5. भाषा विज्ञान की दृष्टि से मेघवाहनशब्द से कई शब्द निकले हो सकते हैं, जैसे– मेदमघ, मेघमेधमेथा, मेधो, मेगल, मेगला, मींघ, मेघवाल, मेंग, मेंघवाल, मेघोवाल, मद्र, मल्ल आदि. अधिक संभावना मींघ, मेंघवाल, मेघवाल की है. ये सभी शब्द दलित समुदायों से संबंधित हैं और इतिहास के अनुसार दलित उन्हें ही बनाया गया जिन का मूल बौधधर्म में था. संभावना इस बात की भी लगती है कि सम्राट मेघवाहन मेघ/मेघवाल रहे हों जो अफ़गानिस्तान में बसे थे. इतिहास में उल्लिखित ‘Dark ages’ में मेघनाम (वंशावली नाम) वाले कई राजा हुए हैं लेकिन उनके बाद उन राजाओं के नाम को सरनेम की तरह अपनाने वाले समुदायों का उल्लेख कहीं नहीं मिलता. हाँ, अलबत्ता मेघनाम वाले मानव समूहों की संख्या काफी बड़ी है और वे सदियों से गुमनामी में हैं.
6. दूसरी ओर यह भी तथ्य है कि दुनिया में कोई ऐसा मानव समूह नहीं है जिसका अपना कोई पूर्वज राजा या शासक न रहा हो. यानि तर्क को सिर के बल खड़ा करके देखें तो भी मेघों के समूह का कोई तो राजा रहा होगा.
7. ‘मेघशब्द के कई अर्थ हो सकते हैं. इस पर भी चर्चा हो सकती है. बुद्ध का एक नाम मेघेंद्रहै जिसका अर्थ हैमेघों का राजा.

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A drop of History of Meghs – मेघ इतिहास की एक बूँद

(Frederic Drew की पुस्तक के पृष्ठ 55-57 तक का अनुवाद)

अंत में वे जातियाँ आती हैं जिन्हें हम अंग्रेज़ सामान्यतः हिंदुओं की निम्न जातियाँकहते हैं लेकिन ऐसा किसी हिंदू के मुँह से नहीं सुना जाता; उन्हें हिंदू के तौर पर कोई मान्यता नहीं दी जाती; उन्हें हिंदुओं में नीचा स्थान भी प्राप्त नहीं है. उनके नाम हैं मेघ और डूम और मेरा विचार है कि इनमें धियार नामक लोगों को भी शामिल करना चाहिए जिनका पेशा लोहा पिघलाना है और जिन्हें आमतौर पर उनके साथ ही वर्गीकृत किया जाता है.


ये कबीले आर्यों से पहले आने वाले कबीलों के वंशज हैं जो पहाड़ों पर रहने वाले थे जो हिंदुओं और आर्यों द्वारा देश पर कब्ज़ा करने के बाद दास बना लिए गए थे; आवश्यक नहीं था कि वे किसी एक व्यक्ति के ही दास हों, वे समुदाय के लिए निम्न (कमीन) और गंदगी का कार्य करते थे. उनकी स्थिति आज भी वैसी है. वे शहरों और गाँवों में सफाई का कार्य करते हैं*. (* मेरा विचार है कि धियारों का रोज़गार ऐसा कम है कि वे जातीय रूप से मेघों और डूमों से जुड़े हैं.) डूमों और मेघों की संख्या जम्मू में अधिक है और वे पूरे देश, जो निचली पहाड़ियों और उससे आगे की ऊँची पहाड़ियों, में बिखरे हैं. वे ईँट बनानें, चारकोल बर्निंग और झाड़ूपोंछा जैसे रोज़गार से थोड़ी कमाई कर लेते हैं. इन्हें प्राधिकारियों द्वारा किसी भी समय ऐसे कार्य के लिए बुलाया जा सकता है जिसमें कोई अन्य हाथ नहीं लगाता.

केवल उनके द्वारा किए जाने वाले ऐसे श्रम की श्रेणी के कारण ही ऐसा है कि उन्हें एकदम अस्वच्छ गिना जाता है; वे जिस चीज़ को छूते हैं वह गंदी प्रदूषित हो जाती है; कोई हिंदू सपने में भी नहीं सोच सकता कि वह उनके द्वारा लाए गए ऐसे बर्तन से पानी पीएगा जिस बर्तन को एक सोंटी के किनारे पर लटका कर ही क्यों न लाया गया हो. जिस गलीचे पर अन्य बैठै हों वहाँ इन्हें कभी आने नहीं दिया जाता है. यदि संयोग से उन्हें कोई कागज़ देना हो तो हिंदू उस कागज़ को ज़मीन पर गिरा देगा और वहाँ से वह उसे ख़ुद ही उठाएगा; वह उन्हें उनके हाथ से नहीं लेगा.

मेघों और डूमों के शारीरिक गुण भी हैं जो उन्हें अन्य जातियों से अलग करते हैं. उनका रंग सामान्यतः अधिक साँवला होता है जबकि इन क्षेत्रों में उनका रंग हल्का गेहुँआ होता है, इनका रंग कभी इतना साँवला भी हो सकता है जितना दिल्ली से नीचे के भारतवासियों में है. मेरा विचार है कि आम तौर पर इनके अंग छोटे होते हैं और कद भी तनिक छोटा होता है. अन्य जातियों की अपेक्षा इनके चेहरे पर कम दाढ़ी होती है और डोगरों के मुकाबले इनका चेहरामोहरा काफी निम्न प्रकार का है, हालाँकि इसके अपवाद हैं जिसका कारण निस्संदेह रक्तमिश्रण है, क्योंकि दिलचस्प है कि अन्य के साधारण दैनिक जीवन से इनका अलगाव उस कभीकभार के अंतर्संबंधों को नहीं रोकता जो अन्य जातियों को आत्मसात करता है.

डूमों के मुकाबले मेघों की स्थिति कुछ वैसी है जैसे हिंदुओं में ब्राह्मणों की, उन्हें न केवल थोड़ा ऊँचा माना जाता है बल्कि उन्हें कुछ विशेष आदर के साथ देखा जाता है.

जम्मूकश्मीर के महाराजा (गुलाब सिंह) ने इन निम्न जातियों की स्थिति में सुधार के लिए कुछ कार्य किया और कुछ सौ लोगों को सिपाही के तौर पर खुदाई और खनन कार्य के लिए भर्ती किया. इन्होंने कुछ नाम कमाया है, वास्तव में युद्ध के समय ऐसा व्यवहार किया है कि उन्हें सम्मान मिला है, उच्चतर जातियों के समान ही अपने साहस का परिचय दिया है और सहनशक्ति में तो उनसे आगे निकले हैं.

इस प्रकार हम देखते हैं कि डूगर के अधिसंख्य लोग हिंदू हैं जिनमें पुराने कबीलों के भी लोग हैं. वे किस धर्म से संबंधित हैं यह नहीं कहा जा सकता……..
(From ‘The Jummoo and Kashmir Territories, A Geographical Account’ by Frederic Drew, 1875)


https://archive.org/stream/jummooandkashmi00drewgoog#page/n308/mode/1up

BJP and Meghs – भाजपा और मेघ

बीजेपी का दलित दाँव
आज सभी समाचारिया चैनल उदित राज (बुद्धिस्टऔर रामविलास पासवान (दुसाधऔर रामदास अठावले (बुद्धिस्ट), अध्यक्षरिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के बीजेपी में जाने की खबरों से अटे पड़े हैं.
पासवान कभी पायदार सामाजिक कार्यकर्ता रहे हैंकेंद्र में मंत्री भी रह चुके हैंउनकी पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी हैआजकल उनकी छवि मौकापरस्त राजनेता की हैउदितराज का नाम पहले रामराज थासंभवतः अंबेडकरवाद से प्रभावित हो कर उन्होंने अपना नाम उदितराज कर लियादिल्ली में काफी सक्रिय रहे हैंउनकी इंडियन जस्टिस पार्टी नाम से एक राजनीतिक पार्टी भी हैदक्षिण भारत की कुछ दलित संस्थाओं में उनकी अच्छी घुसपैठ हैएक बार उनसे फोन पर बात करने का सुअवसर प्राप्त हुआ थाकाफी खनखनाती आवाज़ में टू द प्वाइंट बोलते हैं.
बीजेपी ने काफी समय से ओबीसी को जानेअनजाने में अपने पसंदीदा टारगेट पर रखा हैउमा भारती, (शायदगोविंदाचार्य (भी), नरेंद्र मोदी नामक ओबीसी पत्ते उसके पास रहे हैंपंजाब में एक वर्तमान मंत्री श्री चूनी लाल भगत को कुछ प्रोमोट किया हैइसी प्रकार राजस्थान और जम्मूकश्मीर के मेघों में भी बीजेपी की बिजली चमकी हैराजस्थान में कैलाश मेघवाल विधानसभा के अध्यक्ष हैं केंद्र में एनडीए की पिछली सरकार में अर्जुन मेघवाल एक महत्वपूर्ण चेहरा बने हैं.
मेघवंशियों और बीजेपी पर मैंने मेघनेट पर एक पोस्ट लिखी थीनीचे दिए उसके लिंक पर आप कुछ जानकारी ले सकते हैंमैं अपनी खोपड़ी के खाँचे के अनुसार पासवान और उदितराज को मेघवंशी मानता हूँ.

ख़ैरहर पार्टी दलित कार्ड खेलती है और हर दलित नेता के हाथ में 4-5 पार्टियों के पत्ते होते हैंदेखा यह है कि दलितों का थर्मामीटर राजनीतिक समझदारी का तापमान कम और आपसी अनेकता का तापमान अधिक दिखाता हैदाँव पर ख़ुद जनता होती है.


Megh-Jat struggle – जाटों मेघों का संघर्ष

एक जानकारी फेसबुक के ज़रिए :-


Tararam Gautam:

कुछ इतिहासकारों ने मेघ समाज की उत्पति मेद, मद्र और मल्ल जातीय समूह से होना दर्शाया है। मैं भी इस संभावना को नकारता नहीं हूँ।

मद्र लोगों का उत्कर्ष गांधार क्षेत्र में हुआ। मेव भी इसी क्षेत्र से। मल्लों का राज्य पावा और कुशिनारा में। बौद्ध साहित्य मल्लों का शासन गांधार में भी होने का वर्णन करता है। इस प्रकार से मल्ल और मद्र एक ही ठहरते है।

मुज्मल ए तवारीख (mujmalu-I tawarikh) जिसका परेशियन भाषा में AD 1026 में अनुवाद हुआ। उसमें मेदों (say as Megh) और जाटों के संघर्ष का विवरण उपलब्द्ध होता है। ये मेद और जाट बाद में मुस्लमान हिन्दू और बौद्ध आदि धार्मिक विभागों मे बंट गए। तवारीख के अनुवाद में इलियट लिखते है-“Jats and Meds are… they dwelt Sindh and (on the bank of) the river which is called Rahar. By the Arabs the Hindus are called Jats. The Meds held the ascendancy over the jats; and put them to great distress, which compelled them to take refuge on the other side of the river Pahan, but being accustomed to the use of boats, they used to cross the river and made attracts on Meds (Meghs); who were owners of sheep. It so come to pass that the Jats enfeebled the Meds (meghs), killed many of them, and plundered their country. The Meds (Meghs) then become subject to the jats.”

And discussion goes so on …. if some one have copy of that book it must be looked into for constricting history of Meghs of that region.

Tararam Gautam:

Struggle between Jats and Meds (Meghs) settled and arrival of Brahmans in their territories as told by historians of Sindh-

“One of that Jat chiefs (seeing the sad state to which Meds were reduced) made the people of his tribe understand that success was not constant; that there was a time when the Meds Meghs) attacked Jats and harassed them, and that the jats had in their turn done the same with the Meds. He impressed upon their minds the utility of both tribes living in peace, and then advised the Jats and Meds to send a few chiefs to wait on king Dajushan, son of Dahrat, and beg of him to appoint a king, to whose authority both tribes might submit. The result of this was satisfactory, and his proposition was adopted. After some discussion they agreed to act upon it, and the emperor Dajushan nominated his sister Dassal , wife of king Jandrat, a powerful prince, to rule over the Jats and Meds. Dassal went and took charge of the country and cities, the particulars of which and of the wisdom of the princess, are detailed in the origional work. But for all its greatness and riches and dignity, there was No Brahman or wise man in the country. She therefore wrote a long letter to her brother for assistance, who collected 30000 Brahmans from all Hindustan , and sent them, with all their goods and dependents,to his sister. There are several discussions and stories about these brahmans in original work.

A long time passed before Sindh become flourishing. The origional work gives a long description of country, its rivers and wonders, and mentions foundations of cities. The city which the queen made the capital, is called Askaland. A small portion of country to made over to Jats and appointed one of them as their chief, his name was Judrat. Similar arrangements were also made for the Meds.

(Rattan Gottra and K.k. Singh Genwa like this.)

Tararam Gautam:  Above facts are mentioned in Mujmalu-I Tawarikh. Extracts above are as narrated by Elliot, sir, in the history of India, 1867(Historians of Sindh-volume,1)Pp 4-5. Bharat Bhagat sir is requested to tally with rajatarangini to ascertain dates and

Tararam Gautam:

Know your history- ब्राह्मणों ने दाहिर की पत्नी को कासिम को सौंपा- Chachnama;edited by Sir H M Elliot; pp84-85

“The relations of Dahir are betrayed by the Brahmans”-

“It is revealed that when none of the relations of Dahir were found among the prisoners, the inhabitants of the city were questioned respecting them, But the no one gave any information or hint about them. But the next date nearly one thousand Brahmans, with shaven heads and beards, brought before Kasim.”

The Brahmans come to Muhammad Kasim

When Muhammad Kasim saw them, he asked to what army they belonged, and why they had come in that manner. They replied, O faithful noble, our king was a Brahman. You have killed him, and have taken his country; but some of us have faithfully adhered to his ccouse, and have laid down our lives for him; and the rest, mourning for him; have dressed themselves in yellow clothes, and have shaved their heads and beards. As now the Almighty God has given this country into your possession, we have come submissively to you just Lord, to know what may be your orders for us. Muhammad Kasim began to think, said, “By my soul and head, they are good, faithful people. I give them protection, but on this condition, that they bring hither the dependents of Dahir, wherever they may be”. Thereupon they brought out *Ladi.”

*queen, wife of King Dahir


Tararam Gautam:


अरबी पुस्तकों में भिक्षु के लिए बैकुर या बेकर शब्द भी मिलता है।बौद्ध भिक्षु हेतु बरामका शब्द भी मिलता है। बरामक अभी मुस्लमान है।

अरबी इतिहास पुस्तकों और चचनामा मेबौद्धों के नौविहार मंदिर का बारम्बार उल्लेख है। नौबहार मंदिरका मुख्य पुजारी-भिक्षु बरामक कहा जाता था।

Tararam Gautam:

अरबी इतिहास पुस्तकों और चचनामा मेबौद्धों के नौविहार मंदिर का बारम्बार उल्लेख है। नौबहार मंदिरका मुख्य पुजारी-भिक्षु बरामक कहा जाता था।

Tararam Gautam:

अरबी पुस्तकों में बौद्धों का एक अन्य संबोधन-
“अरबी पुस्तकों में बौद्धों का एक तीसरा नाम मुहम्मिरा भी है, जिसका अर्थ है लाल कपड़े पहनने वाले।(किताबुल हिन्द, बैरूनी,191) इस धर्म के साधु इसी रंग के कपडे पहनते थे। वे इसी से पहचाने जाते थे। मारवाड़ी में इसे मेरुन या मेहरून कहा गया है। या तो इससे गेरुएँ रंग से अभिप्राय हो या केसरिया रंग से।”

 


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Megh and Magh – मेघ और मघ

प्राचीन मेघ/मघ राजाओं के बारे में इतिहासकारों का क्या कहना है इसके बारे में ताराराम जी ने कल फोटो भेजे थे. आज उसी सामग्री को टाइप करा कर ईमेल से भेजा है. एस.एन. राय द्वारा संजोई सामग्री का हिंदी अनुवाद भी उन्हीं ने भेजा है. आपकी जानकारी के लिए हाज़िर है

राय, एस.एन, भारतीय पुरालिपि एवं अभिलेख, पृ. 201

विषय विवेचन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ध्यातव्य पक्ष है कि 1929 ईस्वी से लेकर अभी हाल तक मघ नरेशों को प्रसंगित करने वाली संख्याप्रचुर मुहरों एवं मुद्राओं के अतिरिक्त ऐसे अनेक अभिलेख प्राप्त हो चुके हैं कि इनसे संबंधित अनेक ऐतिहासिक समस्याएँविचार एवं विमर्श की विषय बन बैठी हैं. जिनविशेष स्थानों के सर्वेक्षण एवं समुत्खनन शोधों से ये उपकरण प्रकाश में लाये गये हैं, वे हैं उत्तर प्रदेश में स्थित कौशाम्बी, भीटा, गिंजा, फतेहपुर तथा मध्य प्रदेश में स्थित बन्धोगढ़. संबंधित शासकों के नाम ’’मघ’’ शब्दान्त हैं, अत एव ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक सम्भावना प्रस्तावित की जाती है कि जिस विशेष राजवंश में इनका आविर्भाव हुआ था, उसे मघ राजवंश की संज्ञा मिली होगी. किन्तु ऐसी सम्भावना पौराणिक सन्दर्भों के कारण बाधित हो जाती है, जिनकी पाण्डुलिपियों में ’’मेघ’’, यहां तक कि ’’मेधातिथि’’ पाठ मिलता है. इण्डिया आफिस लाइब्रेरी में सुरक्षित वायु पुराण की पाण्डुलिपि संख्या 1310 में ’’मेध्य’’ पाठ मिलता है. वायुपुराण के आनन्दाश्रम संस्कृत सिरीज़संस्करण में ’’मेधातिथि’’ पाठ मिलता है. 14 इन भ्रान्तिमूलक शब्दों के प्रयोग का कारण उत्तरकालीन संकलनकर्त्ताओं का अज्ञान माना जा सकता है. इन पाण्डुलिपियों के संदर्भों का उल्लेख पार्जिटर ने अपने ग्रन्थ ’’पुराण टेक्स्ट फ दि डाइनेस्टीज़ आफ दि कलि एज’’, पृष्ठ 32 पर किया है. विभिन्न पुराणपाठों को समायोजित कर पार्जिटर ने निम्नोक्त पाठ प्रस्तावित किया है:

कोसलयांतुराजानोभविष्यन्ति महाबलाः ।
मेधा इति समाख्याता बुद्धिमन्तोनवैवतु ।।

उक्त स्थिति को ध्यान में रखते हुए निम्नोक्त तथ्यों पर विचार किया जाना अपेक्षित प्रतीत होता है:

(1) पौराणिक एवं आभिलेखिक स्थलों में प्रसंगित क्रमशः मेघ और मध शब्दों में कौनसा शब्द वस्तुस्थिति का परिचायक है? अर्थात संबंधित राजवंश का वास्तविक नाम क्या था?

(2) संबंधित राजवंश के शासकों की वास्तविक संख्या क्या थी, जिसे पौराणिक पंक्ति में नव बताया गया है.

(3) संबंधित शासकों की शासनसत्ता का समय क्या था, जिसे पार्जीटर ने पौराणिक संदर्भ में तृतीय शताब्दी ईस्वी माना है.

(4) संबंधित राजवंश की शासनसत्ता का क्षेत्र क्या था, जिसे पौराणिक पंक्ति में कोसल की संज्ञा दी ग है.

उल्लेखनीय है कि इलाहबाद जिले में स्थित भीटा नामक स्थान से जो मुहर प्राप्त हुई थी, उसके अभिलेखांकन में सर जान मार्शल एवं राय बहादुर दया राम साहनी ने भद्रमेघ एवं शिवमेघ जैसे शासकद्योतक नामों को निरूपित किया था. 17

संदर्भ:
14. वायुपुराण, 99.373-382
ब्रम्हाण्डपुराण, 3. 74, 186.993
विष्णुपुराण, 4.24.17-18
भागवतपुराण, 12.1.34-37 (इन स्थारनों में ’’मेघ’’ शब्द मिलता है)
17. सर जान मार्शल, आर्क्यालाजिकल सर्वे आफ इण्डिया रिपोर्ट, 1911-1912, डी.आर. साहनी, एपिग्राफिया इण्डिका, भाग 8, पृष्ठ 15-16


Roy, S.N., Magha Inscriptions in the Allahabad Museum, p.36-38

There is yet another pint involved in the analysis of Nagar, the foundamental core of which needs careful consideration. As shown above, he invites our attention to the Purana-passage which alludes to the existence of nine rulers in the Magha dynasty. He seems to believe that the information of the Puranas in this regard can not be justified without postulating the existence of the new king Jayamagha and without distinguishing this king from Vijayamagha. The number of Magha rulers otherwise falls short of one.
Before examining the reasonability of the above observation, it may be desirable to take into account the authenticity of Puranic statement in this regard. Among the scholars, who have taken any cognizance of the Puranic evidence on the present issue mention can be made of Altekar. He observes, that the information supplied by the Puranas is very meager, that they only tell us that there will be nine kings in this dynasty, that they neither refer to the names of these rulers nor to the reign period of each of them, that their time also is not specifically indicated, that the context shows that they must have ruled in the 2nd and the 3rd centuries A.D.89
Explaining the position comparatively in a greater detail, Sastry points out that the dynastic text as reconstructed by Pargiter avers in the usual prophetic vein that there would flourish nine wise and powerful kings well known as Maghas, that according to Pargiter, the dynasties mentioned here of which Megha is one, flourished in the third century A.D., that on account of the similarity of this dynastic designation with the word Magha found suffixed to the names of some of the members of what is popularly known as the Magha dynasty, the Meghas of the Puranas have by common consent been identified with the Maghas, that since the manuscripts of the Puranas give variant readings of the dynastic appellation, it is possible that the original reading was Magha and the substitution of the medial “e” for “a” is due to the copysts, that according to the Puranas, the Meghas (or Maghas) ruled in Kosala, that in view of its association with some areas of the Doccan like Mekala and Nishadha and the Nala dynasty Kosala in the present context, appears to refer to South Kosala which comprised the Chhattisgarh region of Madhya Pradesh and the Sambhalpur district of Orissa; that the find-spots of the records of the Maghas, on the other hand, lie between Bandhogarh in the south to Fatehpur in the north with Kausambi approximately occupying the central position; that Bandhogarh, which judging from the provenance of inscriptions, formed the southernmost part of the Magha kingdom is situated at a distance of a few hundred kilometers from the northernmost portions of the Chhattisgarh region, that this discrepancy must be explained away if the Maghas of the inscription, coins and seals are taken as identical to the Meghas of the Puranas.
In continuation, Sastry suggests the possibility of three alternative explanations; that the dominions of some of the Megha chiefs extended as far south as Dakshina Koala, or touched upon its borders for which no evidence has come to the fore so far; that the sourthern border of Dakshina Kosala may at one time, have extended much further that the Chhattisgarh area so as to touch upon or cover the Bandhogarh region (here Sastry91 cities the case of Panduvamsi King Nannaraja whose dominions reached as far as the banks of the river Varada, mod. Wardha, a tributary of Godavari, E.I. XXXI, pp. 35-36); that the Puranas have erroneously referred to Kosala instead of Vatsa or some other geographical name as the dominion of the Maghas; that such errors are not rare in the Puranas and if none of these alternatives are acceptable, the Meghas of the Puranas will have to be treated as different from the Maghas of our archaeological records and a search for the archaeological records of the Meghas will have to be instituted.
It is evident from the notes and observations of Altekar and Sastry that the Purana-passage under reference is not free error and consequently its authenticity also is not unquestionable. Its wording even though meticulously reconstructed by Pargiter taking into consideration the variants dispersed in the extant manuscripts hardly makes it useful for the purpose of history. The employment of the expression Megha instead of Magha makes one believe, at least at the first glance, that the passage has its reference to some other ruling house and not to that one which is introduced by the antiquarian records explored so far. If this is taken for error attributable to the copyist of the text, then in that case we will have to locate the particular situation responsible for this kind of error. But the fact remains that any such attempt is likely to be a futile exercise for want of requisite data on the point.
R E F E R E N C E S
89) JGJRI, Vol. 1, pt. 2, p.149
90) A.M. Sastry, ibid, pp.19-20
91) ibid, p.32, N.7.
92) G.R. Sharma, History to Pre-history, pp.34-35
J.S. Negi ibid, pp.64-55
93) E.I. XVIII, p.160, pl. No. III.




Shastri, Ajay Mitra, Kausambhi Hoard of Megha Coins, P.19
Maghas and Meghas
The Dynastic text of the Puranas as reconstructed by Pargiter avers in the usual prophetic vein that there would flourish in Kasala nine wise and powerful kings well-known as Megha.1 According to Pargiter, the dynasties mentioned here, of which Megha is one, flourished in the third century A.D.2 On account of the similarity of this dynastic designation with the word megha found suffixed to the names of some of the members of what is popularly known as the Magha dynasty the Meghas of the Puranas have by common consent been identified with the Meghas.3 Since the manuscripts of the Puranas give variant readings of the dynastic appellation,4 it is possible that the original reading was Magha and that the substitution of the medial e for a is due to the copyists. Now, according to the Puranas, the Meghas(or Maghas) ruled in Kosala. In view of its mention in association with some areas of the Deccan like Mekala and Nishadha and the Nala dynasty Kosala, in the present context, appears to refer to South Kosala which comprised the Chhattisgarh region of Madhya Pradesh and the Sambalpur District of Orissa. The find-spots of the records of the Maghas, on the other hand, lie between Bandhogarh in the south to Fatehpur in the north with Kausambi occupying an approximately central position. Bandhogarh, which, judging from the provenance of inscriptions,5 formed the southernmost point of the Magha kingdom,  is situated at a distance of a few hundred kilometers from the northernmost portions of the Chhattisgarh region. This discrepancy must be explained away if the Maghas of inscriptions, coins and seals are to be taken as identical with the Meghas of Puranas.  Three alternative explanations may be suggested. First, possibly the dominions of some of the Magha chiefs extended as far south as Dakshina Kosala6 or touched upon its borders though, it must be admitted, no record of the dynasty has been reported from anywhere within or close to this area. Secondly, northern borders of Dakshina Kosala may, at one time, have extended much further than the Chhattisgarh area so as to touch upon or cover the Bandhogarh region.7 And lastly, it is possible that the Puranas have erroneously referred to Kasala instead of Vatsa or some other geographical name as the dominion of the Meghas. Such errors are not very rare in the Puranas. And if none of these alternatives is found acceptable, the Meghas of the Puranas will have to be treated as different from the Maghas of our archaeological records and a search for the archaeological records of the Meghas will have to be instituted.
R E F E R E N C E S
1. Kosalayam tu rajano bhavishyanti mahabalah,
Megha iti samakhyata buddhimanto nav-aiva tu.
Medya and Medhatithi are given as variants in place of Megha and Megha iti respectively. F. E. Pargiter, The Purana Text of the Dynasties of the Kali Age, p.51
2. Ibid., pp. 50, 73
3. This view is, however, not accepted by some scholars. See Jagannath Agrawala in Comprehensive History of India, II, p.259, note 4.
4. Medya and Medhatithi are mentioned by Pargiter as variants in place of Megha and Megha iti respectively. See The Purana Text of Dynasties of the Kali Age, p.51, note 21.
5. According to K.D. Bajpai, some Magha coins also have been found at Bandhogarh.
6. Altekar thinks it possible that in the heyday of their glory, the Magha kings ruled over wide territories extending from Bilaspur in the south to Fatehpur in the north, vide JGJRI, I, P.159.
7. Limits of provinces are known to have changed with political vicissitudes. To cite an example, Dakshina Kosala once appears to have included a part of Vidarbha. The senkapat inscription of the time of the Panduvamsi king Maha-Sivagupta Balarjuna of South Kosala shows that the dominions of his predecessor Nannaraja reached as far as the banks of the river Varada, mod. Wardha, a tributary of the Godavari. See EI, XXXI, pp.35-36.

R C Majumdar -Ancient India p-127




Know your history as told by historian; Prof. Radheysharan-“विन्ध्य क्षेत्र का इतिहास( वृहतर बघेलखंड)” -2001;पृष्ठ- 166 to169. 



महाराष्ट्रातील महारांचा इतिहास–शंकरराव खरात; पृष्ठ 110-111



“मेघ पर्वतीय क्षेत्र में रहने वाली एक आदि जाति है। मेघ एक ऐसी जाति है जिसका समुदाय या जातीय प्रकार का नाम है। बाद की बहुत सी जातियां जो पेशे या व्यवसाय से अलग बनी वे इसी स्रोत से निकली।कन्निघम के मतानुसार पश्चिमी पर्वतीय क्षेत्र मूलतः ऐसे लोगों द्वारा बसाया गया जो मध्य भारत में निवासित कोल लोगो के सामान ही थे। हम ठीक से यह निष्कर्ष निकाल सकते है कि इनके पूर्वज ही प्राचीन काल में इन पर्वतों में सबसे पहले बसे। बाद में इनको दूसरी जातियों द्वारा चुनौती मिली निसंदेह वह शादी विवाह और अन्य संबंधों से परिचालित थी । उनके रीति रिवाज और परम्पराएँ इस ओर इंगित करते है।” Punjab gazetteer volume 22a gazetteer of chamba state. Part -A;1910 pp 163 edited by Samual T Weston.



Megh Emperors – मेघ सम्राट

प्राचीन मेघ राजाओं के बारे में इतिहासकारों का क्या कहना है इसके बारे में ताराराम जी ने फोटो भेजे थे. इसमें एक पुस्तकभारतवर्ष का अंधकारयुगीन इतिहास‘ (पृष्ठ 161) की फोटोप्रति भी इसमें शामिल थी. यह पुस्तक प्रो. काशी प्रसाद जायसवाल ने लिखी है.इसे पढ़ कर अब गर्व से कहने को दिल करता है किमैं मेघ हूँ. मैं अपना इतिहास जानता हूँ. मेरे पुरखे सम्राट थे. शक्तिशाली और बुद्धिमान थे.
वाकाटकों के समय में कोसला के एक के बाद एक इस प्रकार नौ शासक हुए थे, पर भागवत के अनुसार इनकी संख्या सात ही है. ये लोग मेघ कहलाते थे. संभव है कि ये लोग उड़ीसा तथा कलिंग के उन्हीं चेदियों के वंशज हों जो खारवेल के वंशधर थे और जो अपने साम्राज्यकाल में महामेघ कहलाते थे. अपनी सात या नौ पीढ़ियों के कारण ये लोग मूलतः विंध्यशक्ति के समय तक जब कि आंध्र पर विजय प्राप्त की गई थी, या उससे भी और पहले भारशिवों के समय तक जा पहुँचते हैं. विष्णुपुराण के अनुसार कोसला प्रदेश के सात विभाग थे (सप्त कोसला). पुराणों में कहा गया है कि ये शासक बहुत शक्तिशाली और बहुत बुद्धिमान थे. गुप्तों के समय में मेघ लोग हमें फिर कोशांबी के शासकों और गवर्नरों के रूप में मिलते हैं जहाँ उनके दो शिलालेख मिले हैं.”

Social Conventions and Meghwals – मेघवाल और सामाजिक रूढ़ियाँ

Prithvi Pal Singh Meghwal (via Face Book)
मेरी व्यथा:- बहुत गाँवों में हमारे समाज की कुछ भयानक-असहनीय परम्पराएँ या मजबूरियाँ हैं, जैसे:-

(1) मेघवाल परिवार की शादी के कार्याक्रम के दौरान अगर गाँव में कोई ठाकुर या उसका कोई सबंधी मर जाता है तो, मेघवाल परिवार को बिना गाजा-बाजा यानि बिना किसी गीत-गायन और ढोल के चुपचाप उस शादी को सम्पन्न करना होता है, दूसरी ओर अगर इसका उल्टा उदाहरण लें तो ठाकुर कभी भी अपनी शादी का माहौल फीका नहीं करेगा (उदाहरण :- नरसाणा, मुडी, तेळवाडा, निम्बलान, पारपड, सापनी, दासपा और आस-पास के सैंकडों गाँव)

(2) अगर किसी गाँव में बारात आती है तो बारातियों को शादी से पहले, जहाँ गाँव के बाहर डेरा लगाया जाता है, वहाँ नीचे बैठना पडता है, क्योंकि ठाकुर, मेघवालों को पलँग-कुर्सी पर बैठने की आज्ञा नहीं देता, मुझे भी एक बारात में नीचे बैठना पडा था (गाँव निम्बलान-जालोर). मैं उस वक़्त कॉलेज मे पढता था. पहले मैं दूल्हे के साथ पलँग पर बैठा था, पर उस गाँव के अपने समाज के लोगों ने ही मुझे पलँग से नीचे उतार दिया, और बोले कि आप तो एक दिन के मेहमान हो और हमें तो इस गाँव में जिंदगी-भर रहना है. फिर भी मैं अड़ा रहा और फिर से पलँग पर बैठ गया और ठाकुर ने देख लिया, शिकायत आयी, और जिसकी सज़ा हमने बारात रवानगी के वक़्त पायी, वहाँ के ठाकुर के बच्चों ने हमारे, उजले कपडों पर गोबर-कीचड़ डाला. हमें बहुत परेशान किया पर किसी की हिम्मत न थी कि उन्हें रोके. (उदाहरण:- जालौर, बाड़मेर के सैंकड़ों गाँव).

(3) शादी के बाद नव-विवाहित जोड़े को गाँव के तथाकथित ठाकुर के घर धौक लगाने जाना होता है, कभी-कभी इसका शर्मनाक परिणाम भी भुगतना पड़ता है (उदाहरण :-जालौर-बाड़मेर के कठाडी, रामणिया और आस-पास के गाँव).

(4) अगर ठाकुर के घर कोई मर जाता है तो अपने समाज के लोगों को सिर पर सफेद कपड़ा बाँधना पड़ता है और ठाकुर की मौत का शोक करना पडता है. इसका भी उल्टा उदाहरण लें तो ठाकुर कभी भी ऐसा नहीं करता है. (उदाहरण:- जालौर, बाड़मेर के सैंकडों गाँव).

(5) गाँव के मेघवाल समाज के लोग अगर गाँव के बाहर गुंदरा (चौहटा) या किसी चौपाटी पर बैठने की हिम्मत कर ले तो उसे लात मार के नीचे फेंका जाता है, सो किसी की हिम्मत तक नहीं कि कोई चौपाटी/चौहटे पर बैठ सके. और अगर बस में सफर करे तो ठाकुर जात को जगह अपने-आप ही मिल जाती है क्योंकि मेघवाल बंधु को सीट छोडनी ही पडती है. 

(6) मरे हुये ठाकुर के घर मेघवाल औरतों का रोने जाना तो कई गाँवों में अभी-भी चल रहा है.
क्या वाकई यह परम्परा है या माजबूरियाँ, या हमारी आदत जो चाहते हुए भी नहीं छूट रही है?

(7) गाँव में मरे ठाकुर के घर मृत्यु-भोज में मेघवाल जाता है और सबसे दूर अलग बैठ कर अपने ही घर से साथ लाए बरतन में भोजन करता है. क्या वहाँ जाना और इस तरह अपमान के साथ खाना मजबूरी है?

(8) आज भी कई गाँवों के सभी घरों में नल सुविधा नहीं है, इसलिये मेघवाल औरतों को गाँव के कुँए पर पानी भरने जाना पड़ता है जहाँ उन औरतों को अपने मटके लिए दूसरे समाज की औरतों से दूर खड़े रहना पड़ता है. अगर मेघवाल औरत अकेली कुँए पर गयी है तो मटका उठाने में दूसरी औरतें सहायता नहीं करतीं यानि वे औरतें मेघवालों के मटकों को हाथ तक लगाना अशुभ मानती हैं. शायद इस समस्या को दूर होने में थोड़ा और समय लगेगा. 

(9) अपने किसी रिश्तेदार के मरने पर मृत्यु-भोज कर के अपने आप को समाज में ऊँचा साबित करना.

मेघवाल मृत्यु-भोज:- कई गाँवों से भारी मात्रा में मेघवाल पुरुष, महिलाएँ, बच्चे, मृत व्यक्ति के घर इकट्ठे होते जाते हैं और खाना खाते जाते हैं. अगर गंगा थाली हो तो ढेरों मिठाइयाँ बनाई जाती हैं. इस अवसर के लिये एक गरीब को अपना कई वर्षों की कमर-तोड़ मेहनत से हुई कमाई पानी की तरह बहानी पड़ती है,  कभी-कभी खेत को गिरवी रखना या बेचना पड़ता है, क्योंकि मजबूरी यह होती है कि अपने ही समाज के लोग कहते हैं कि हमारे भी बाप-दादा की मृत्यु के बाद हमने मृत्यु-भोज कराया तब तूने भी खाया था अब तेरी बारी वरना तेरे बाप-दादा मरने के बाद ऐसे ही समाज में लटकते रहेंगे और बार-बार समाज की बैठक में ऐसा मामला उठाया जाता है और उस गरीब को कोसा जाता है, पर आज-कल ऐसा सामाजिक दबाव कम तो हो गया है पर फिर भी ये मूर्ख लोग नहीं समझते. मैं मेरी मौसी की सासु के मृत्यु-भोज में नहीं गया. मेरी मौसी ने पूछा कि क्यों नहीं आया, बहुत लोग आये थे, मैंने कहा मौसी आपको मैंने पहले ही कहा था कि यह खर्चा मत करो. आपको क्या मिला? मौसी हँस कर बोली- अरे, समाज में रहना है तो करना पडता है, और तुझे पता है बहुत लोग आये थे, लगभग 12 गाँव के लोग, और भोज में 3-4 लाख खर्चा आया. लोगों ने बहुत सराहा, वाह भाई बहुत खर्च किया और मौसी-मौसा कुछ दिनों तक समाज में अपने आपको ऊँचा समझने लगे हैं. क्या ये परम्परा सही है? 

मेरी ऐसी कोई मजबूरी या आदत नहीं है पर मेरे द्वारा अकेला कुछ करना व्यर्थ है क्योंकि हमारे बंधुओं को गंदी सामाजिक परम्परा ने जकड़ रखा है, ये तभी इस समस्याओं से मुक्त होंगे जब सब मिलकर इसे दूर करेंगे और मेरी तरह अपना सुंदर जीवन जीने की कोशिश करेंगे. और अगर बुजुर्ग (जिन्होंने इन गंदी परम्पराओं को अपनी कांख मे दबा रखा है) कोशिश करेंगे तो यह परम्परा जल्दी ही भस्म हो जाएगी.

मेरी व्यथा पढने के लिये आपका बहुत-बहुत शुक्रिया, पर असली शुक्रिया तो तब होगा जब आप सब मेरा साथ दोगे.

शर्मनाक :दलित दूल्हे को घोड़े से उतारकर, पैदल घुमाया

शर्मनाक :दलित दूल्हे को घोड़े से उतारकर, पैदल घुमाया

Jul 12, 2013

टीकमगढ़ । एक दलित दूल्हे का सिर पर सेहरा बांध कर और घोड़ा पर सवार होकर अपनी बारात निकलवाने का सपना उस समय हवा हो गया, जब गांव के प्रभावशाली लोगों ने दूल्हे को न केवल घोड़े से नीचे उतरवाया बल्कि उसकी बारात भी पैदल निकलवाई। मामला टीकमगढ़ जिले के दिगौड़ा थाना के अंतर्गत आने वाले ग्राम मऊ बछौड़ा का है। इधर घटना के बाद दूल्हे की बहन और पिता ने इसकी सूचना पुलिस को दी है। पुलिस ने मामले में एक संदिग्ध व्यक्ति को पकड़ लिया है।
http://www.bhaskar.com/article/c-58-1972588-NOR.html

 

  MEGHnet

 


Why there is no unity in Meghs-3 – मेघों में एकता क्यों नहीं होती-3


मेघों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि इनके समुदाय का अपना कोई एक धर्म नहीं है. वे इधर-उधर धार्मिक सहारा ढूँढते-ढूँढते विभिन्न धर्मों में बँट गए. 

सामाजिक संघर्ष के लिए न उनके पास पर्याप्त शिक्षा है, न एकता और न ही इच्छा शक्ति. संघर्ष के रास्ते पर दो कदम चलते ही उन्हें निराशा घेरने लगती है और ईश्वर की याद सताने लगती है. वे नहीं जानते कि ईश्वर नाम के आइडिया का प्रयोग बिरादरी के विकास के लिए कैसे किया जाता है.

मेघ समुदाय के लोग एक धर्म के अनुयायी नहीं बन सके. जिसने जिधर आकर्षित किया उधर हो लिए. उनमें एकाधिक धर्मों के प्रति झुकाव पैदा हो गया. धर्म (अच्छे गुण) व्यक्ति की नितांत अपनी चीज़ होती है. लेकिन एक आम पढ़ा-लिखा मेघ पता नहीं क्यों अपने बाहरी धर्म और इष्ट के प्रति अत्यधिक मोह में फँस जाता है. अपने गुरु को सबसे ऊपर मानता है और बाकी गुरुओं और उनके चेलों को आधे-अधूरे ज्ञान वाला मानता है. एक तरह से वह खुद को सर्वश्रेष्ठ समझता है और अन्य के साथ मिल कर चलने में उसे कठिनाई होती है. 

यही बात राजनीतिक दलों के मामले में भी लागू होती है. मेघ किसी के हो गए तो हो गए. कुछ कांग्रेस से चिपट गए तो कुछ बीजेपी से लिपट गए. बिरादरी में एकता और राजनीतिक जागरूकता की कमी है.

सामाजिक-राजनीतिक संघर्ष का रास्ता सब के साथ मिल कर चलने वाला होता है, अन्यथा इस बात का डर रहता है कि संघर्ष में लगी मानव शक्ति और उसकी भावना कहीं बिखर न जाए. शिक्षित समुदायों के लोग राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने के लिए धर्म, गोत्र, गुरु, देवी-देवता, माता, आदि को भुला कर अपने संसाधन लक्ष्य प्राप्ति के प्रयास में झोंक देते हैं. वे जानते हैं कि सांसारिक प्रगति के लिए जो कार्य राजनीति कर सकती है वह ईश्वर भी नहीं कर सकता. इस दृष्टि से मेघ समुदाय को अभी बहुत कुछ सीखना है.

पिछले दिनों मेघों की संगठनात्मक गतिविधियाँ बढ़ी हैं जो एक अच्छा संकेत दे गई हैं.

सामाजिक और धार्मिक क्रांति के बाद ही राजनीतिक क्रांति आती है.- डॉ. अंबेडकर

Political ambitions of Meghs – मेघों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा


पंजाब में विधान सभा के चुनाव फरवरी 2012 में होने जा रहे हैं. सुना है कि इस बार कम-से-कम 10 मेघ भगत किसी पार्टी की ओर से या स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर चुनाव में खड़े हो सकते हैं. देखना है कि हमारी तैयारी कितनी है.

शुद्धीकरण की प्रक्रिया से गुजरने के बाद सन् 1910 तक मेघों में जैसे ही अत्मविश्वास जगा तुरत ही उनमें राजनीतिक महत्वाकांक्षा जागृत हो गई.  इसे लेकर अन्य समुदाय चौकन्ने हो गए. अपने हाथ में आई सत्ता को कोई किसी दूसरे को थाली में नहीं परोसता कि आइये हुजूर मंत्रालय हाज़िर है‘. तब से लेकर आज तक  वह महत्वाकांक्षा ज्यों की त्यों है लेकिन समुदाय में राजनीतिक एकता का कहीं अता-पता नहीं. 
भारत विभाजन के बाद मेघ भगतों का  कांग्रेस की झोली में गिरना स्वाभाविक था. अन्य कोई पार्टी थी ही नहीं. फिर आपातकाल के बाद जनता पार्टी का बोलबाला हुआ. जालन्धर से श्री रोशन लाल को जनता पार्टी का टिकट मिला. पूरे देश में जनता पार्टी को अभूतपूर्व जीत मिली. लेकिन भार्गव नगर से जनता पार्टी हार गई. देसराज की 75 वर्षीय माँ ने हलधर पर मोहर लगाईविजय के 80 वर्षीय पिता ने हलधर पर ठप्पा लगाया. ये दोनों छोटे दूकानदार थे. लेकिन इस चुनाव क्षेत्र से दर्शन सिंह के.पी. (के.पी. = (शायद) कबीर पंथी) चुनाव जीत गया. राजनीतिक शिक्षा के अभाव में मेघ भगतों के वोट बँट गए.

फिर भगत चूनी लाल (वर्तमान में पंजाब विधान सभा के डिप्टी स्पीकर) यहाँ से दो बार बीजेपी के टिकट से जीते. लेकिन समुदाय के लोगों को हमेशा शिकायत रही कि इन्होंने बिरादरी के लिए उतना कार्य नहीं किया जितना ये कर सकते थे. कहते हैं कि नेता आसानी से समुदाय से ऊपर उठ जाते हैं और फिर अपनों‘ की ओर मुड़ कर नहीं देखते. यहाँ एक विशेष टिप्पणी आवश्यक है कि यदि कोई नेता विधान सभा का सदस्य बन जाता है तो वह किसी समुदाय/बिरादरी विशेष का नहीं रह जाता. वह सारे चुनाव क्षेत्र का होता है. दूसरी वस्तुस्थिति यह है कि हमारे नेताओं की बात संबंधित पार्टी की हाई कमान अधिक सुनती नहीं है. मेघ भगत ज़रा सोचें कि वे कितनी बार अपने नेताओं के साथ सड़कों पर उतरे हैंकितनी बार उन्होंने अपनी माँगों की लड़ाई लड़ते हुए हाईवे को जाम किया है या अपने नेता के पक्ष में शक्ति प्रदर्शन किया है. इसके उत्तर से ही उनके नेता और उसके समर्थकों की शक्ति का अनुमान लगाया जाएगा.

सी.पी.आई. के टिकट से जीते एक मेघ (मेघवाल) चौधरी नत्थूराम मलौट से पंजाब विधान सभा में दो बार चुन कर आए. इन्हीं के पिता श्री दाना राम तीन बार सीपीआई की टिकट से जीत कर विधानसभा में आए हैं. पता नहीं उनके बारे में लोग कितना जानते हैं.
सत्ता में भागीदारी का सपना 1910 में हमारे पुरखों ने देखा था. वे मज़बूत थे. इस बीच क्या हमें अधिक मज़बूत नहीं होना चाहिए थासोचें. एकता ही शक्ति है‘ की समझ जितनी जल्दी आ जाए उतना अच्छा. एकता की कमी और राजनीतिक पिछड़ेपन का हमेशा का साथ है.
राजनीतिक पार्टी कोई भी होइससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता. सब का चेहरा एक जैसा होता है. महत्वपूर्ण है कि मेघ समाज आपस में जुड़ने की आदत डाले. आपस में जुड़ गए तो स्वतंत्र उम्मीदवार को भी जिता सकते हैं. यही बात है जो बड़ी राजनीतिक पार्टियाँ नहीं चाहतीं. इस हालत में आपको क्या करना चाहिए?