Monthly Archives: October 2012

Let us play fire – आओ ‘ठायँ-ठायँ’ खेलें

कंचे, गिल्ली डंडे और हाकी में बचपन खो दिया. छि-छि. बचपन बेकार गया. कुछ नहीं खेला.
आपको नए खेल ‘ठायँ-ठायँ’ से परिचित कराना आवश्यक हो गया है. आजकल गली-मोहल्ले में कोई वारदात-खेल-तमाशा हो तो वहाँ से गोली चलने की आवाज़ (ख़बर) आती है. जिन घरों से शास्त्रीय संगीत की ध्वनियाँ अपेक्षित हैं वहाँ पिस्तौल का होना पाया जाता है. कहा गया है कि ‘शस्त्र रहेंगे तो उपयोग में आएँगे ही. दूसरों के लिए न सही, आत्महत्या के काम आएँगे’. आत्महत्या अपराध है लेकिन यह ऐसा अपराध भी नहीं कि हथियारों के लिए लाइसेंस देना बंद कर दिया जाए. मरने-मारने वाले के विवेक (discretion) पर भी कुछ छोड़ना पड़ता है. 
फिर बारी आती है आतंकियों की जो हर कहीं ‘फायर-फायर’ खेलते नज़र आते हैं. बताया जाता है कि उनको हथियारों की सप्लाई के स्रोत देशी भी हैं और विदेशी भी. पुलिस उनके हथियार देख कर बिदकती है. उनका मामला देखना सरकार का काम है जो कभी ग़लत काम नहीं करती! कर ही नहीं सकती!!
फायर आर्म्स के लाइसेंस दिए जाते हैं. फिर उनसे संबंधित फाइलों को दीमक चाट जाती है, चूहे खा जाते हैं या रिकार्ड रूम में आग लग जाती है. निरपराध हथियार क्या जाने कि वे किसके हाथों से हो कर आए हैं. पूर्वी यूपी में आधुनिक बंदूकों का खुला सार्वजनिक प्रदर्शन आप में से कइयों ने देखा होगा. गुंडो-दबंगों से कौन पूछे कि उनके हथियार लाइसेंसी हैं या नहीं.   
समाचारों से लगने लगा है कि अस्त्र-शस्त्र सब कहीं हैं. कहीं से भी ले लीजिए. ज़्यादा हो तो दोस्तों को दे दीजिए. फिर गली में आ जाइए, सनसनी भरा खेल खेलिए. ‘ठायँ-ठायँ’ लाशें गिराएँ. जस्ट लाइक वीडियो गेम यू सी. सभी मिल कर खेलें ताकि किसी को शिकायत न हो.  😦

Martyrdom Day of Mahishasur – महिषासुर का शहीदी दिवस

Mahishasur the King

Everything changes with time. As a child, I thought that Asuras and Rakshasas had been very bad to us. With the increase of knowledge I came to know that in fact we were the Asuras and Rakshasas who had been defeated at the hands of outside invaders i.e. Aryans. Due to the continuity of our struggle to come back to power, we were made targets of immense hatred. Our image was distorted through mythical stories.

Today, due to the spread of education, Dalits, tribals and OBCs know better about themselves. Last year Mahishasur’s Martyrdom Day was celebrated at Jawaharlal Nehru University. This year too, preparations are underway at several other places. It is mentionable that Asur is a tribe/caste (aborigines of India) in Jharkhand and Bengal. In Bengal, this Asur tribe mourns the death of Mahishasur during the Durga Puja days.

I have read at some places that such programs are held as a reaction to Durga Puja. This makes no sense to me. Everyone has a right to respect his forefathers. There cannot be any justification if there is any sense of opposition to Durga Puja.

For more information about the Mahishasura Martyrdom Day please see the link below.


समय के साथ बहुत कुछ बदलता रहता है. बचपन में मैं असुरों और राक्षसों को बहुत बुरा समझता था. जैसे-जैसे जानकारी बढ़ी वैसे-वैसे पता चला कि ये तो हमीं हैं जो प्राचीन समय में आक्रांता आर्य कबीलों से युद्ध में हारे थे. हमारे संघर्ष की निरंतरता के कारण हमें घृणा के निशाने पर रख दिया गया. पौराणिक कथा-कहानियों के माध्यम से हमारी छवि खूब बिगाड़ी गई.
शिक्षा के प्रसार के कारण अब दलित, आदिवासी और ओबीसी अपने बारे में बेहतर जानते हैं. पिछले वर्ष जवाहर लाल नेहरू यूनीवर्सिटी में महिषासुर का शहादत दिवस मनाया गया था. इस वर्ष इसकी तैयारी कई अन्य स्थानों पर भी चल रही है. उल्लेखनीय है कि असुर एक जाति है जो झाड़खंड में और बंगाल में पाई जाती है. बंगाल में यह जाति दुर्गा पूजा के दिनों के दौरान अपने घरों में शोक मनाती है.

कुछ स्थानों पर पढ़ा है कि ऐसे आयोजन दुर्गा पूजा की प्रतिक्रिया स्वरूप किए जाते हैं. इससे सहमत नहीं हुआ जा सकता. अपने पुरखों को सम्मान देने का अधिकार सभी को है. यदि दुर्गा पूजा के प्रति विरोध की कोई भावना है तो उसका कोई औचित्य नहीं.

महिषासुर के शहादत दिवस के बारे में अधिक जानकारी के लिए नीचे दिए लिंक पर देखें.



दुर्गा नहीं महिषासुर की जय

Resurrecting Mahishasur – Deccan Herald dt.30-10-2012


30-10-2012
PRESS NOTE, AIBSF


“जेएनयू में मनाया गया महिषासुर का शहादत दिवस


• अगले सप्ताह महिषासुर-दुर्गा : एक मिथक का पुनर्पाठवि‍षय पर पुस्तिका जारी की जाएगी

• इतिहास में जो छल करते रहे उन्हीं को देवत्व का तमगा मिल गया है और जिन्होंने अपनी सारी ऊर्जा समाज सुधार और वंचित तबकों के उत्थान के लिए झोंक दी उन्हें असुर या राक्षस करार दे दिया गया.

जेएनयू 30 अक्टूबर 2012 : विवादित विषयों पर बहस की अपनी पुरानी परंपरा को बरकरार रखते हुए जेएनयू के पिछडे समुदाय के छात्रों के संगठन ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट्स फोरम (एआईबीएसएफ) के बैनर तले सोमावार (29 अक्टूबर) रात को महिषासुर का शहादत दिवस मनाया गया.

देर रात तक चले इस समारोह में देश भर से आए विद्वानों ने महिषासुर पर अपने विचार रखे. इस अवसर पर प्रसिद्ध चित्रकार लाल रत्नाकर द्वारा बनाये गये महिषासुर के तैलचित्र पर माल्यार्पण किया गया.

समारोह को संबोधित करते हुए आदिवासी मामलों की विशेषज्ञ और युद्धरत आम आदमीकी संपादक रमणिका गुप्ता ने कहा कि इतिहास में जो छल करते रहे उन्हीं को देवत्व का तमगा मिल गया है और जिन्होंने अपनी सारी ऊर्जा समाज सुधार और वंचित तबकों के उत्थान के लिए झोंक दी उन्हें राक्षस करार दे‍ दिया गया. ब्रह्मणवादी पुराणकारों/ इतिहासकारों ने अपने लेखन में इनके प्रति नफरत का इज़हार का भ्रम का वातावरण रच दिया है. आखिर समुद्र मंथन में जो नाग के मुँह की तरफ थे और जिन्हें विष मिला वे राक्षस कैसे हो गए? कामधेनु से लेकर अमृत के घडों को लेकर भाग जाने वाले लोग किस आधार पर देवता हो सकते हैं?‘ उन्होंने कहा कि वंचित तबका इन मिथकों का अगर पुनर्पाठ कर रहा है तो किसी को दिक्कत क्यों हो रही है?’

जेएनयू की प्रो. सोना झरिया मिंज ने कहा कि हिन्दू धर्मग्रंथों में वर्णित कहानियों के समानांतर आदिवासी समाज में कई कहानियाँ प्रचलित हैं. इन कहानियों के नायक तथाकथित असुर या राक्षस कहे जाने वाले लोग ही हैं जिन्हें कलमबद्ध करने की जरूरत है.

प्रसिद्ध समाजशास्त्री प्रो. विवेक कुमार ने कहा कि मिथकों की राजनीति और राजनीति के मिथक पर बहस बहुत जरूरी है. हमारे नायकों को आज भी महिषासुर की भाँति बदनाम करने की साजिश चल रही है.

इतिहास-आलोचक ब्रजरंजन मणि ने कहा कि शास्त्रीय मिथकों से कहीं ज्यादा खतरनाक आधुनिक विद्वानों द्वारा गढे जा रहे मिथक हैं. पौराणिक मिथकों के साथ-साथ हमें आधुनिक मिथकों का भी पुनर्पाठ करना होगा.

मंच का संचालन करते हुए एआईबीएसएफ के अध्यक्ष जितेंद्र यादव ने कहा कि पिछड़ा तबका जैसे-जैसे ज्ञान पर अपना अधिकार जमाता जाएगा वैसे-वैसे अपने नायकों को पहचानते जाएगा. महिषासुर का शहादत दिवस इसी कडी में है. संगठन महिषासुर शहादत दिवस को पूरे देश में मनाने के लिए प्रयत्नशील है.

संगठन के जेएनयू प्रभारी विनय कुमार ने कहा कि अगले सप्ताह महिषासुर-दुर्गा : एक मिथक का पुनर्पाठवि‍षय पर पुस्तिका जारी की जाएगी, जिसका संपादन अकादमिदक जगत में लोकप्रिय पत्रिका फारवर्ड प्रेसके संपादक प्रमोद रंजन ने किया है. गौरतलब है कि फारवर्ड प्रेसमें ही पहली बार वे महत्वपूर्ण शोध प्रका‍शित हुए थे, जिससे यह साबित होता है असुरएक (आदिवासी) जनजाति है, जिसका अस्तित्व अब भी झाड़खंड व छत्तीसगढ में है और महिषासुर राक्षस नहीं थे बल्कि इस देश के बहुजन तबके के पराक्रमी राजा थे. उन्होंने कहा कि पुस्तिका में महिषासुर और असुर जा‍ति के संबंध में हुए नये शोधों को प्रकाशित किया जाएगा तथा इसे विचार-विमर्श के लिए उत्तर भारत की सभी प्रमुख यु‍निवर्सिटियों में वितरित किया जाएगा.

इस मौके पर इन साइट फाउंडेशनद्वारा महिषासुर पर बनाई गई डाक्युमेंट्री भी दिखाई गई.

समारोह को एआईबीएसएफ कार्यकर्ता रामएकबाल कुशवाहा, आकाश कुमार, मनीष पटेल, मुकेश भारती, संतोष यादव, श्री भगवान ठाकुर आदि ने भी संबोधित किया.

प्रेषक : विनय कुमार, जेएनयू अध्यक्ष, एआईबीएसएफ, 158, साबरतमी जेएनयू मोबाइल 9871387326″



MEGHnet
 



BAMCEF-2 – बामसेफ-2



कल 21-10-2012 को बामसेफ चंडीगढ़ यूनिट ने कॉमनवेल्थ यूथ प्रोग्राम, एशिया सेंटर, सैक्टर-12 के हाल में एक दिवसीय इतिहासात्मक और विचारधारात्मक प्रशिक्षण काडर कैंप (Historical and Ideological Training Cadre Camp) का आयोजन किया. इसमें भाग लेने का मौका मिला. इस प्रशिक्षण कैंप में मुख्य प्रशिक्षक और वक्ता मान्यवर अशोक बशोत्रा, सीनियर एडवोकेट (Mr. Ashok Bashotra, Sr. AdvocateHigh Court J&K) थे जो जम्मू से पधारे थे.

उनके अभिभाषण में बहुतसी जानकारी थी. जिसमें से मैं दो बातों का यहाँ विशेष उल्लेख करना चाहता हूँ:-
1. किसी भी मनुष्य के लिए तीन चीज़ें बहुत महत्वपूर्ण होती हैं. ‘ज्ञान’- जिससे मनुष्य अपने समग्र जीवन को बेहतर बनाता है, ‘हथियार’- जिससे वह अपने प्राणों की रक्षा करता है और ‘संपत्ति’- जो उसके जीवन को गुणवत्ता प्रदान करती है. मनुस्मृति के प्रावधानों के द्वारा देश के मूलनिवासियों (SC/ST/OBC) से यह तीनों अधिकार छीन लिए गए.
2. तक्षशिला, नालंदा, उज्जैन और विक्रमशिला उस समय (सम्राट अशोक से लेकर बृहद्रथ तक) के विश्व विख्यात विश्वविद्यालय थे. सोते हुए बृहद्रथ की हत्या पुष्यमित्र शुंग नामक ब्राह्मण ने कर दी और सत्ता संभालने के बाद मूलनिवासियों की महान परंपराओं को समाप्त करने करने के लिए उसने चारों विश्वविद्यालयों और वहाँ सुरक्षित साहित्य को नष्ट करने के आदेश दे दिए. डेढ़ माह तक विश्वविद्यालय जलते रहे. छह माह तक वहाँ के पुस्तकालयों को जलाया गया. साठ हज़ार बौध प्राध्यापकों की हत्या की गई जो वहाँ सुरक्षित विज्ञान, दर्शन, धर्म, इतिहास, साहित्य आदि के परमविद्वान थे.
यही कारण है कि कभी मातृत्वप्रधान समाज रहे भारत की स्त्री जाति, शूद्र और दलित अपने जिस इतिहास को ढूँढते फिरते हैं वह नहीं मिलता.

   

Ravindranath Thakur belonged to Shudra caste – रवींद्रनाथ ठाकुर शूद्र जाति से थे


कुछ दिन पहले ही अपने एक ब्लॉग पर हरिचंद ठाकुर के मतुआ आंदोलन पर एक पोस्ट लिखी थी. हरिचंद ठाकुर की खोज करते हुए एक ऐसी जानकारी मिली जो मेरे लिए नई थी.
कई साल पहले पढ़ा था कि रवींद्रनाथ टैगोर को जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया गया था. लेकिन वहाँ उन्हें पीरल्ली ब्राह्मण लिखा गया था. लगा कि यह ब्राह्मणों का आपसी झगड़ा रहा होगा. रवींद्रनाथ टैगोर (ठाकुर) के परिवार ने आदि धर्म या ब्रह्मो/ब्रह्म समाज की स्थापना की थी. पीरल्ली ठाकुरों के इस परिवार में विवाह करने के लिए वहाँ का ब्राह्मण समाज तैयार नहीं था. अंततः देवेंद्रनाथ को अपने पुत्र रवींद्रनाथ टैगोर का विवाह अपने एक कर्मचारी की बेटी से करना पड़ा.
मुद्राराक्षस जैसे स्थापित हिंदी साहित्यकार ने बहुत स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया है कि रवींद्र नाथ टैगोर दलित जाति से थे. इसे नीचे उल्लिखित उनके आलेख टैगोर साहित्य में जाति के सवाल में देखा जा सकता है. हालाँकि आज के संदर्भ में पीरल्लियों को दलित (आज के SCs/STs) लिखना शायद श्रेणी की दृष्टि से ठीक न हो, तथापि, वे निश्चित ही शूद्र जाति (जिसमें OBCs  आती हैं) से संबंधित थे जिन पर निम्नजाति होने का कलंक (stigma) लगा है और ब्राह्मण इन्हें चांडाल कहा करते हैं. पीरल्ली लोग स्वयं को ब्राह्मणों (विशेषकर बैनर्जी) से निकली शाखा मानते हैं. मतुआ आंदोलन पर जानकारी लेते हुए पढ़ा है कि पिछली बार सत्ता में आने से पूर्व ममता बैनर्जी ने स्वयं को मतुआ धर्म का बताया था जो पीरल्लियों का चलाया हुआ आंदोलन था. यह भी देखने योग्य है कि कुछ निम्नजातियाँ जैसे मेघ, मेघवाल, मेघवार आदि स्वयं को ब्राह्मणों से निकली शाखा मानती रहीं हैं.
रवींद्रनाथ टैगोर साहित्य का नोबल पुरस्कार पाने वाले पहले भारतीय थे जिन्हें बहुत देर तक ब्राह्मण के तौर पर प्रचारित किया जाता रहा. रवींद्रनाथ के कुछ पुरखों ने जातिगत भेदभाव से तंग आकर पंद्रहवीं शताब्दी में इस्लाम अपना लिया था.
(कुछ स्पष्ट हो रहा है कि रवींद्रनाथ ठाकुर रचित जन-गण-मन के साथ बंकिमचंद्र चटर्जी लिखित वंदेमातरम् को नत्थी करने का कारण क्या रहा होगा.)
टैगोर के विषय में Wikipedia पर दिए ये दो आलेख पढ़े जा सकते हैं जो पर्याप्त रूप से स्पष्ट हैं. ये लिंक 20-10-2012 को देखे गए हैं.
निखिल चक्रवर्ती के लिखे एक बढ़िया आलेख का लिंक नीचे दिया गया है जिसके बारे में इतना ही कहना चाहूँगा कि यह एक ब्राह्मणिकल नज़रिए से लिखा गया है. बहुत से तथ्य दे दिए गए हैं लेकिन उनमें निहित जातिगत सच्चाई को स्पष्ट रूप से कह न पाने की मजबूरी-सी नज़र आती है. यह आलेख वास्तविकता के ऊपर मँडराता तो है लेकिन उस पर उतरता नहीं. Wikipedia में साफ़ जानकारी है कि रवींद्रनाथ टैगोर पीरल्ली जाति से थे. यह जाति stigmated थी. इस परिवार ने ऊँची जातियों की घृणा के डंक को सदियों सहन किया. टैगोर ने कहा है कि यदि दूसरा जन्म होता है तो वह बंगाली बन कर पैदा होना नहीं चाहेंगे. उनकी ऐसी कटुता का विश्लेषण करने की हिम्मत शायद कोई करे. यह आलेख कहता है कि टैगोर ने नमोशूद्रा जाति के एक सम्मेलन में भाग लिया था. पीरल्ली और नमोशूद्रा दोनों stigma युक्त जातियाँ हैं. टैगोर की जाति से संबंधित उस समय के इस महत्वपूर्ण घटनाक्रम और तथ्यों को  बंगाली इतिहासकारों ने शायद शर्मिंदगी के कारण अपनी ही बग़ल में छिपाने की गंभीर कोशिश की है.

Why there is no unity in Meghs-3 – मेघों में एकता क्यों नहीं होती-3


मेघों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि इनके समुदाय का अपना कोई एक धर्म नहीं है. वे इधर-उधर धार्मिक सहारा ढूँढते-ढूँढते विभिन्न धर्मों में बँट गए. 

सामाजिक संघर्ष के लिए न उनके पास पर्याप्त शिक्षा है, न एकता और न ही इच्छा शक्ति. संघर्ष के रास्ते पर दो कदम चलते ही उन्हें निराशा घेरने लगती है और ईश्वर की याद सताने लगती है. वे नहीं जानते कि ईश्वर नाम के आइडिया का प्रयोग बिरादरी के विकास के लिए कैसे किया जाता है.

मेघ समुदाय के लोग एक धर्म के अनुयायी नहीं बन सके. जिसने जिधर आकर्षित किया उधर हो लिए. उनमें एकाधिक धर्मों के प्रति झुकाव पैदा हो गया. धर्म (अच्छे गुण) व्यक्ति की नितांत अपनी चीज़ होती है. लेकिन एक आम पढ़ा-लिखा मेघ पता नहीं क्यों अपने बाहरी धर्म और इष्ट के प्रति अत्यधिक मोह में फँस जाता है. अपने गुरु को सबसे ऊपर मानता है और बाकी गुरुओं और उनके चेलों को आधे-अधूरे ज्ञान वाला मानता है. एक तरह से वह खुद को सर्वश्रेष्ठ समझता है और अन्य के साथ मिल कर चलने में उसे कठिनाई होती है. 

यही बात राजनीतिक दलों के मामले में भी लागू होती है. मेघ किसी के हो गए तो हो गए. कुछ कांग्रेस से चिपट गए तो कुछ बीजेपी से लिपट गए. बिरादरी में एकता और राजनीतिक जागरूकता की कमी है.

सामाजिक-राजनीतिक संघर्ष का रास्ता सब के साथ मिल कर चलने वाला होता है, अन्यथा इस बात का डर रहता है कि संघर्ष में लगी मानव शक्ति और उसकी भावना कहीं बिखर न जाए. शिक्षित समुदायों के लोग राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने के लिए धर्म, गोत्र, गुरु, देवी-देवता, माता, आदि को भुला कर अपने संसाधन लक्ष्य प्राप्ति के प्रयास में झोंक देते हैं. वे जानते हैं कि सांसारिक प्रगति के लिए जो कार्य राजनीति कर सकती है वह ईश्वर भी नहीं कर सकता. इस दृष्टि से मेघ समुदाय को अभी बहुत कुछ सीखना है.

पिछले दिनों मेघों की संगठनात्मक गतिविधियाँ बढ़ी हैं जो एक अच्छा संकेत दे गई हैं.

सामाजिक और धार्मिक क्रांति के बाद ही राजनीतिक क्रांति आती है.- डॉ. अंबेडकर

Tulsidas knew the art of loving his people – तुलसीदास अपने समुदाय से प्रेम करना जानते थे

(1)

कक्षाओं में तुलसीदास

कक्षाओं को पढ़ाते हुए डॉ. गोविंदनाथ राजगुरु कहा करते थे कि तुलसीदास कवि बहुत अच्छे हैं लेकिन थिंकर (चिंतक) के तौर पर बेकार हैं. थिंकर के तौर पर कबीर बेमिसाल हैं.
डॉ. वीरेंद्र मेंहदीरत्ता कहा करते थे कि तुलसी की हर बात को माफ़ किया जा सकता है लेकिन इस बात को नहीं- ‘जाके प्रिय न राम वैदेही, सो छाँडिए कोटि बैरी सम जदपि परम सनेही’. सही है. स्नेही पर धर्म-आस्था का कोड़ा बरसाना अच्छी बात नहीं. तुलसी ने ही कहीं लिखा है- ‘देखत ही हरषे नहीं, नैनन नाहिं स्नेह, तुलसी तहाँ न जाइए, कंचन बरसे मेह’. तो तुलसी का त्यागा हुआ परम स्नेही व्यक्ति जिसकी अपनी आस्था पर राम-वैदेही की छवि उकेरी हुई नहीं है, तुलसी के घर क्यों आएगा? यह बात और है कि राम-वैदेही के मंदिरों ने तुलसी के समाज को अच्छी आजीविका दी है.
डॉ. लक्ष्मीनारायण शर्मा कहा करते थे, “तुलसीदास का यह कथन- ‘ढोर, गँवार, शूद्र, पशु, नारी, ते सब ताड़न के अधिकारी’- यह वास्तव में रामचरित मानस में समुद्र के मुँह से कहलवाया गया है जो राम के मार्ग में बाधक था और उस समय विलेन था. जरूरी नहीं कि विलेन का कथ्य तुलसी का भी कथ्य हो.” चलिए, आपकी बात भी मानते चलते हैं पंडित जी.
डॉ. पुरुषोत्तम शर्मा इसे कौमा-डैश का हेर-फेर मानते हुए कहते थे कि तुलसीदास का इससे तात्पर्य था- ‘ढोर, गँवार-शूद्र, पशु-नारी, ते सब ताड़न के अधिकारी’. यानि अगर शूद्र गँवार हो या नारी पशु जैसी हो तो वे ताड़ना के अधिकारी हैं. बहुत खूब. इसके निहित संदर्भों की व्याख्या रुचिकर होगी क्योंकि तब शूद्र और नारी के लिए शिक्षा की मनाही थी. अतः उन्हें ‘गँवार’ और ‘पशु’ की श्रेणी में रखने का रिवाज़ रहा होगा.
कुछ बात तो है कि ब्राह्मण समाज तुलसीदास को सिर पर उठाए फिरता है और दूसरों को भी ऐसा करने की सलाह देता है. लेकिन यह तय है कि समय के साथ तुलसी साहित्य की व्याख्याएँ बदलती रहीं. संभव है कि तुलसी के साहित्य में हेर-फेर भी किया गया हो.

(2)

कक्षाओं से बाहर तुलसीदास

तुलसी के साहित्य से ऐसे कई उद्धरण हैं जिन्हें आज विभिन्न लेखक अलग दृष्टि से पहचानते हैं. एक सज्जन ने जातिवादी दृष्टि से तुलसी की इन पंक्तियों- ‘पूजिए विप्र ज्ञान गुण हीना, शूद्र ना पूजिए ग्यान प्रवीना.‘- की व्याख्या की और तुलसी पर जम कर बरसे और फिर इस पर ब्राह्मणवादी प्रवृत्ति का ठप्पा लगा दिया. चलिए जी, ठीक है जी……

लेकिन मैं तुलसी के उक्त कथन को बहुत महत्व देता हूँ.
‘पूजिए विप्र जदपि गुन हीना’ (अर्थात् ब्राह्मण यदि गुणहीन भी है तो भी पूजनीय है). स्पष्ट है कि यहाँ विद्वान, ज्ञानी, दूसरों का भला करने वाले व्यक्ति की बात नहीं हो रही बल्कि ब्राह्मण समुदाय के किसी व्यक्ति की बात है जो सिर्फ़ अनाज का दुश्मन है.
अब मैं सोचता हूँ कि तुलसीदास ने क्या लिखा. वे ब्राह्मण थे और वे अपने समुदाय के गुणहीन व्यक्ति को भी पूजनीय कह रहे हैं तो इसमें उनकी उदार दृष्टि और प्रेम भावना झलकती है. इसमें ग़लत क्या है? वे अपने समुदाय की छवि को ऊँचा उठाते रहे और उनका समुदाय आज उन्हें उठाए-उठाए फिरता है.

अपने समुदाय के सदस्यों के कार्य, कला, ज्ञान और उत्पाद (product) की जानकारी लें और परस्पर चर्चा करें. फिर जहाँ भी अवसर आए उसकी यथोचित प्रशंसा करें. यह सब को अच्छा लगेगा. इस प्रकार एक-दूसरे का आवश्यक सामाजिक-आर्थिक सहयोग अपने आप होता रहता है.

संत तुलसीदास सामुदायिक उन्नति के इस सरलतम मार्ग को जानते थे. उनकी सभी बातें आप माने या न माने, केवल अपने समुदाय के प्रति आदर और प्रेम-भावना को घना करके हृदय तक उतार लें तो समुदाय के विकास का रास्ता अधिक प्रशस्त होगा. आपकी उन्नति और सफलता निश्चित है.

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Megh community felicitates Bhagat Chuni Lal – मेघ समुदाय ने भगत चूनी लाल का नागरिक अभिनंदन किया


ऑल इंडिया मेघ सभा, चंडीगढ़ ने 17 जून, 2012 को अंबेडकर भवन, सैक्टर-37, चंडीगढ़ में मेघ भगत परिवारों का एक गेटटुगेदर आयोजित किया जिसमें भगत श्री चूनी लाल, माननीय मंत्री लोकल बॉडीज़ और मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च, पंजाब सरकार का मेघ समुदाय की ओर से नागरिक अभिनंदन किया गया.
वातावरण में अपूर्व उत्साह था. उनके आते ही सभागार का माहौल भगत चूनी लाल ज़िंदाबाद के जयकारों से गूँज उठा. इस अवसर पर सभी वक्ताओं ने श्री चूनी लाल जी के राजनीतिक करियर की चर्चा की, इस क्षेत्र में उनकी उपलब्धियों का उल्लेख किया और उनके करियर की वर्तमान बुलंदियों की जम कर तारीफ़ की गई. वक्ताओं ने भाजपा और शिरोमणी अकाली दल के नेतृत्व को धन्यवाद दिया जिन्होंने भगत जी को वांछित समर्थन दे कर मेघ समुदाय की छवि को भी नई पहचान दी है. साथ ही उन्होंने मेघ भगत समुदाय से अपील की कि वे भविष्य में ऐसी ही एकता का प्रदर्शन करते रहें और विभाजित करने वाली ताक़तों को पीछे छोड़ते हुए आगे बढ़ें और अपनी चमकदार पहचान बनाएँ.
भगत चूनी लाल जी के राजनीतिक जीवन में उनके अपने समुदाय द्वारा किया गया उनका यह पहला नागरिक अभिनंदन था और इस पहल का श्रेय ऑल इंडिया मेघ सभा, चंडीगढ़ को जाता है.
इस अवसर पर बोलने वालों में सर्वश्री महेंद्र कुमार (आईएएस), यशपाल (आईईएस), राजेश कुमार, (सेवानिवृत्त सुपरिन्टेंडिंग इजीनियर), ऑल इंडिया मेघ सभा के इंद्रजीत मेघ (अध्यक्ष), गोविंद कांडल (सचिव) आदि प्रमुख थे.
श्री गोविंद कांडल ने इस अवसर पर मेघ समुदाय के सामाजिक कार्यकर्ता श्री गोपीचंद भगत, श्री बुड्डामल भगत, श्री मिल्खीराम भगत (पीसीएस), श्री लेखराज भगत (आईपीएस) आदि द्वारा मेघ समुदाय के उत्थान के लिए किए गए अथक प्रयासों को याद किया और उनका आभार प्रकट किया. उन्होंने ऊँची स्थिति पर बैठे मेघों और इंटरनेट के द्वारा मेघ समाज की सेवा करने वाले सदस्यों का आभार प्रकट किया. 

ऑल इंडिया मेघ सभा की ओर से बोलते हुए श्री इंद्रजीत मेघ ने मुख्य अतिथि श्री चूनी लाल को इस संस्था के एक पुराने और महत्वपूर्ण सपने कबीर मंदिर की याद दिलाई जिसे मेघ भवन के नाम से भी जाना जाता है. भगत जी को बताया गया कि इसके लिए कई प्रयास किए गए हैं लेकिन ज़मीन की कीमतों और राजनीतिक समर्थन के अभाव में यह सपना अभी पूरा नहीं हुआ है. अपने भाषण के दौरान भगत जी ने इस बात को नोट किया और आश्वासन दिया कि इस सपने को हक़ीक़त में बदलने के लिए शीघ्र ही प्रयास शुरू करेंगे. इस माँग को भगत जी के दाहिने हाथ कहे जाने वाले श्री महेंद्र भगत ने भरपूर हामी दी और कहा कि यह सपना पूरा हो कर रहेगा.

हाल ही में पीसीएस परीक्षा में चुने गए युवाओं को बधाई दी गई और बहुत अच्छे अंक लेकर उत्तीर्ण हुए छात्र-छात्राओं को इस अवसर पर सम्मानित किया गया. मंच संचालन श्री राजेश भगत (सेवानिवृत्त सुपरिन्टेंडिंग इजीनियर) ने किया और उन्होंने श्री चूनी लाल जी के सम्मान में अपनी कविताओं का पाठ किया.
कार्यक्रम के अंत में एक प्रीति भोज का आयोजन किया गया. शेष इन तस्वीरों में :-

हमारे हीरो, स्वागतम्
पुष्पगुच्छ से स्वागत

शॉल ओढ़ा कर अभिनंदन किया गया
मुख्य अतिथि का संबोधन

मुख्य अतिथि को स्मृति चिह्न
श्री गोविंद कांडल, सचिव, AIMS
श्री यशपाल, पूर्व अध्यक्ष, AIMS
श्री साथी, लीगल एडवाइज़र, AIMS
श्री इंद्रजीत मेघ, अध्यक्ष, AIMS
मंच पर उपस्थिति
श्री महेंद्र कुमार, आईएएस, सैक्रेटरी टू गवर्नर हरियाणा
93% प्रतिशत अंक प्राप्त करने वाली छात्रा का सम्मान
अध्यक्षीय भाषण

श्रोताओं ने एकाग्रता से सुना
महिलाओं की बड़ी उपस्थिति सराहनीय रही
प्रीति भोज

Unity of SCs, STs and OBCs – अ.जा., अ.ज.जा. और पिछड़ी जातियों की एकता


कई विद्वानों ने इस विषय पर विचार-विमर्ष किया है विशेषकर बहुजन हिताय दर्शन के तहत जिसका बहुत महत्व है. मैंने भी अपने चिट्ठों में इस विचार-धारा के समर्थन में लिखा है.

लेकिन जब समाज की व्यावहारिक स्थिति की बात आती है तो दर्शन अलग खड़ा दिखता है और वस्तुस्थिति अलग.
यह ऐतिहासिक तथ्य है कि स्वयं को सुरक्षित रखते हुए ब्राह्मणों ने दलित जातियों और जन जातियों पर सीधे हमले स्वयं तो कम ही किए हैं. अधिकतर हमले अन्य पिछड़ी जातियों के लोग ही करते आए हैं. यह ब्राह्मणवाद का ऊंच-नीचवादी हथकंडा है जो भारत के मूलनिवासियों को बाँटने और उन्हें एक-दूसरे के हाथों मरवाने में सफल होता आया है.
यही फैक्टर है जो आज अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ी जातियों की एकता की संभावना पर प्रश्न चिह्न लगाता है. देश के दूर-दराज़ के गाँवों में फैली पुरानी और जातिगत हिंसक प्रवृत्तियाँ इस एकता को रोकने के लिए हमेशा कटिबद्ध रहती हैं. कुछ राज्यों में अन्य पिछड़ी जातियाँ अब तेज़ी से सत्ता की ओर बढ़ रही हैं और अनुसूचित जातियाँ तथा अनुसूचित जनजातियाँ उनके मुँह की ओर ताक रही हैं कि शायद बुलावा आ जाए. उधर अन्य पिछड़ी जातियाँ इनकी ओर देख तक नहीं रहीं.
देखते हैं स्थिति कैसे बदलेगी. इसे बदलना तो होगा.

Bhagat Buddamal – भगत बुड्डामल


Bhagat Budda Mal Ji

सन् 1947 में पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए और जालंधर में बसे मेघ भगत समाज में लगभग सभी लोग एक नाम से भली-भाँति परिचित हैं- भगत बुड्डामल. भार्गव कैंप, जालंधर में उनके नाम से एक ग्राऊँड बना है जिसे भगत बुड्डामल ग्राऊँड कहते हैं.

विडंबना है कि आज मेघ भगत समाज में बहुत कम लोग इस सामाजिक कार्यकर्ता के बारे में विस्तार से जानते हैं जिसने अपने समुदाय के लिए जीवन भर अथक परिश्रम किया ताकि यह समुदाय भविष्य में भली प्रकार से ससम्मान जीवन व्यतीत कर सके.

उनका जन्म और पालन-पोषण स्यालकोट, पश्चिमी पंजाब (अब पाकिस्तान) में हुआ था. वे मेघ जाति के एक सामान्य परिवार में जन्मे थे. बहुत शिक्षित नहीं थे. लेकिन छोटी आयु में ही वे समाज सेवा के कार्य में प्रवृत्त हो गए थे. भारत में आने के बाद तो वे आजीवन समाज सेवा में रहे. मैंने स्वयं उन्हें अमृतसर, जालंधर और चंड़ीगढ़ में समाज सेवा में सक्रिय देखा है.

  
उनकी दिनचर्या ही थी कि वे सहायता माँगने आए किसी भी आगंतुक के साथ हो लेते और उसकी भरपूर मदद करते. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वे अन्य मेघ भगतों की भाँति भार्गव कैंप, जालंधर में बस गए. यहाँ रहते हुए उन्होंने भगत गोपीचंद के साथ मिल कर बहुत कार्य अपने समाज के लिए किया. वे कई बार जालंधर म्युनिसिपल कार्पोरेशन के सदस्य चुने गए. वे अकेले या अपने साथी सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ पंजाब की राजधानी चंडीगढ़ में आते रहे और यहाँ भगत मिल्खीराम (पीसीएस), श्री केसरनाथ जी, सत्यव्रत शास्त्री जी आदि के साथ मिल कर उन्होंने बहुत से लोगों के नौकरियों आदि से संबंधित कार्य कराए जिससे समुदाय के लोगों को लाभ पहुँचा.

इनकी धर्मपत्नी का नाम भगवंती था. इनके अपनी कोई संतान नहीं थी अतः अपने भाई की संतान को गोद लेकर पाला. दमकता हुआ गोरा चेहरा. लंबा कुर्ता, तुर्रे वाली अफ़ग़ानी पगड़ी और पठानी सलवार पहनने वाले बुड्डामल जी का व्यक्तित्व बहुत आकर्षक और प्रभावपूर्ण था. वे धीरे-धीरे प्रेमपूर्वक और ठहरी हुई बात करते थे.

उनके कार्य और समाज सेवा के मद्देनज़र सरकार ने उनकी स्मृति में भार्गव कैंप में श्री बुड्डामल पार्क बना दिया और उनके कार्य के महत्व को मान्यता दी.

पार्क बनने के साथ उनका नाम अमर तो हो गया लेकिन उनके बारे में अभी बहुत-सी जानकारियाँ जुटाई जानी बाकी हैं. अभी हाल ही में भगत चूनी लाल भगत के नागरिक अभिनंदन समारोह में श्री बुड्डामल जी को याद किया गया था.

अब बेहतर हो कि हमारे सामाजिक संगठन अपने पूर्ववर्ती सामाजिक कार्यकर्ताओं के बारे में जानकारी जुटाएँ और समय-समय पर उनके संबंध में उपलब्ध सामग्री को भावी पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखने का उपक्रम करें आखिर वे हमारे लिए कल्याणकारी सोच रखने वाले प्रेरणा स्रोत हैं.

मेरे विचार से भगत बुड्डामल पार्क में उनकी मूर्ति लगाई जानी चाहिए ताकि आने वाले समय में हम सभी उनके कार्य से प्रेरणा ले सकें. यहाँ के वाटर टैंक पर बुड्डामल पार्क लिखा जा सकता है ताकि पार्क का नाम दूर से पढ़ा जा सके.
विशेष टिप्पणी :-
 
कुछ समय पूर्व भगत बुड्डामल ग्राऊँड में शनि सहित कई देवी-देवताओं का मंदिर बना दिया गया हैयह सोचने की बात है कि किसी मेघ भगत के नाम से पंजाब में इस प्रकार की यह एकमात्र ग्राऊंड है. माना कि यह सरकारी जगह है लेकिन इसका उपयोग पार्क की तरह ही होना चाहिए. बेहतर होगा कि शनि मंदिर को कहीं और शिफ्ट किया जाए.
सोचने की बात है कि आपको ‘आर्य समाज स्कूल‘ सुनने में अच्छा लगता है कि ‘मेघ हाई स्कूल‘. ऐसे ही सोच लें कि भगत बुड़्डामल ग्राऊँड‘ सुनने में अच्छा लगता है या शनि मंदिर ग्राऊँड‘. यदि मेघ भगत समुदाय या उसके किसी सदस्य के नाम पर कोई स्थल या शिक्षण संस्थान बने तो उससे समुदाय की छवि बेहतर बनती है. विचार करें.

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विशेष आभार

भगत बुड्डामल जी के फोटो और उनकी पेंटिंग की फोटो देने के लिए भगत बुड्डामल जी के परिवार का तथा पार्क के चित्र भेजने के लिए युवा ब्लॉगर श्री मोहित भगत का बहुत आभार. उनकी सहायता के बिना यह कार्य संभव नहीं था.

Megh Bhagats of J&K struggle for survival

(1)

Megh Bhagat – मेघ भगत

Their habitats उनके घर

Their capital उनकी पूँजी
Their way to development उनका विकास मार्ग

Their roofs उनकी छतें

They compete with heavy weight cloth industry
भारी कपड़ा उद्योग के साथ प्रतियोगिता
Below you can see a community Hall being constructed for them. Hiranagar B D O block is constructing this community Hall at village Ladyal Hiranagar, S C Mohalla for the past about 12 years.
A house of Bhagats in the heart of Samba city

(2)

Their displacement due to terrorism

घाटी से विस्थापित कश्मीरी पंडितों के लिए सरकार ने सरकारी भवनों के दरवाज़े खोल दिए थे लेकिन आतंकवाद के कारण कई क्षेत्रों से विस्थापित मेघों की ओर ध्यान देने वाला कोई नहीं. इनकी कहानी एक गुमनामी की कहानी है. गरीबी में रह रहे इस समुदाय के लोग कारे बेगार कानून की पीड़ा भुगत चुके हैं और कश्मीरियों और जम्मू के डोगरों की संपन्नता के पीछे इनका खून-पसीना साफ़ चमकता है. 

There are many more Megh Bhagats from Kishatwar now living in Kathua District who had to leave their homes and land. Now they have no land to cultivate, no permanent work or employment. They have settled in village Bhalua Budhi, Barnoti, Nagri and near Sakta Chack. There are about 30 families. Just look at their conditions.

(Contributed by Sh. Tara Chand Bhagat of Udhampur via Face Book)