Category Archives: धर्म

Meghs of Punjab and Arya Samaj – पंजाब के मेघ भगत और आर्य समाज

स्यालकोट से विस्थापित हो कर आए मेघवंशी, जो स्वयं को भगत भी कहते हैं, आर्यसमाज द्वारा इनकी शिक्षा के लिए किए गए कार्य से अक़सर बहुत भावुक हो जाते हैं. प्रथमतः मैं उनसे सहमत हूँ. आर्यसमाज ने ही सबसे पहले इनकी शिक्षा का प्रबंध किया था. इससे कई मेघ भगतों को शिक्षित होने और प्रगति करने का मौका मिला. परंतु कुछ और तथ्य भी हैं जिनसे नज़र फेरी नहीं जा सकती.
स्वतंत्रता से पहले स्यालकोट की तत्कालीन राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक परिस्थितियों की कुछ विशेषताएँ थीं जिन्हें जान लेना ज़रूरी है.
तब स्यालकोट के मेघवंशियों (मेघों) को इस्लाम, ईसाई धर्म और सिख पंथ अपनी खींचने में लगे थे. स्यालकोट नगर में रोज़गार के काफी अवसर थे. यहाँ के मेघों को उद्योगों में रोज़गार मिलना शुरू हो गया था और वे आर्थिक रूप से सशक्त हो रहे थे. इनके सामाजिक संगठन तैयार हो रहे थे. उल्लेखनीय है कि ये आर्यसमाज द्वारा आयोजित शुद्धिकरण की प्रक्रिया से गुज़रने से पहले मुख्यतः कबीर धर्म के अनुयायी थे. ये सिंधु घाटी सभ्यता के कई अन्य कबीलों की भाँति अपने मृत पूर्वजों की पूजा करते थे जिनसे संबंधित डेरे और डेरियाँ आज भी जम्मू में हैं. शायद कुछ पाकस्तान में भी हों. कपड़ा बुनने का व्यवसाय मेघ ऋषि और कबीर से जुड़ा है और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में कोली, कोरी, मेघवाल, मेघवार आदि समुदाय भी इसी व्यवसाय से जुड़े हैं.
इन्हीं दिनों लाला गंगाराम ने मेघों के लिए स्यालकोट से दूर एक आर्यनगरकी परिकल्पना की और एक ऐसे क्षेत्र में इन्हें बसने के लिए प्रेरित किया जहाँ मुसलमानों की संख्या हिंदुओं से अधिक थी. स्यालकोट, गुजरात (पाकिस्तान) और गुरदासपुर में 36000 मेघों का शुद्धिकरण करके उन्हें हिंदू दायरे में लाया गया. सुना है कि आर्यनगर के आसपास के क्षेत्र में मेघों के आर्य भगत बन जाने से वहाँ मुसलमानों की संख्या 51 प्रतिशत से घट कर 49 प्रतिशत रह गई. वह क्षेत्र लगभग जंगल था.
खुली आँखों से देखा जाए तो धर्म के दो रूप हैं. पहला है अच्छे गुणों को धारण करना. इस धर्म को प्रत्येक व्यक्ति घर में बैठ कर किसी सुलझे हुए व्यक्ति के सान्निध्य में धारण कर सकता है. दूसरा, बाहरी और बड़ा मुख्य रूप है धर्म के नाम पर और धर्म के माध्यम से धन बटोर कर राजनीति करना. विषय को इस दृष्टि से और बेहतर तरीके से समझने के लिए कबीर के कार्य को समझना आवश्यक है.
सामाजिक और धार्मिक स्तर पर कबीर और उनके संतमत ने निराकार-भक्ति को एक आंदोलन का रूप दे दिया था जो निरंतर फैल रहा था और साथ ही पुनर्जन्म और कर्म सिद्धांत पर इसने कई प्रश्न लगा दिए थे. इससे ब्राह्मण चिंतित थे क्योंकि पैसा संतमत से संबंधित गुरुओं और धार्मिक स्थलों की ओर जाने लगा. आगे चल कर ब्राह्मणों ने एक ओर कबीर की वाणी में बहुत उलटफेर कर दिया, दूसरी ओर निराकारवादी आर्यसमाजी (वैदिक) विचारधारा का पुनः प्रतिपादन किया ताकि निराकार-भक्तिकी ओर जाते धन और जन के प्रवाह को रोका जा सके. उन्होंने दासता और अति ग़रीबी की हालत में रखे जा रहे मेघों को कई प्रयोजनों से लक्ष्य करके स्यालकोट में कार्य किया. आर्यसमाज ने शुद्धिकरण जैसी प्रचारात्मक प्रक्रिया अपनाई और अंग्रेज़ों के समक्ष हिंदुओं की बढ़ी हुई संख्या दर्शाने में सफलता पाई. इसका लाभ यह हुआ कि मेघों में आत्मविश्वास जागा और उनकी स्थानीय राजनीति में सक्रियता की इच्छा को बल मिला. हानि यह हुई उनकी इस राजनीतिक इच्छा को तोड़ने के लिए मेघों के मुकाबले आर्य मेघों या आर्य भगतों को अलग और ऊँची पहचान और अलग नाम दे कर उनका एक और विभाजन कर दिया गया जिसे समझने में सदियों से अशिक्षित रखे गए मेघ असफल रहे. इससे सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक बिखराव बढ़ गया.
भारत विभाजन के बाद लगभग सभी मेघ भारत (पंजाब) में आ गए. यहाँ उनकी अपेक्षाएँ आर्यसमाज से बहुत अधिक थीं. लेकिन मेघों के उत्थान के मामले में आर्यसमाज ने धीरे-धीरे अपना हाथ खींच लिया. यहाँ भारत में मेघ भगतों की आवश्यकता हिंदू के रूप में कम और सस्ते मज़दूरों (Cheap labor) के तौर पर अधिक थी. दूसरी ओर भारत विभाजन के बाद भारत में आए मेघों की अपनी कोई राजनीतिक या धार्मिक पहचान नहीं थी. धर्मों या राजनीतिक पार्टियों ने इन्हें जिधर-जिधर समानता का बोर्ड दिखाया ये उधर-उधर जाने को विवश थे. धार्मिक दृष्टि से राधास्वामी मत और सिख धर्म ने भी वही कार्य किया जो ब्रहामणों ने निराकार के माध्यम से किया. राधास्वामी मत को कबीर धर्म या संतमत का ही रूप माना जाता है लेकिन यह उत्तर प्रदेश में कायस्थों के हाथों में गया और पंजाब में जाटों के हाथों में. सिखइज़्म और राधास्वामी मत के साहित्य में मानवता और समानता की बात है लेकिन जैसा कि पहले कहा गया है सस्ता श्रम कोई खोना नहीं चाहता. वैसे भी धर्म का काम ग़रीब को ग़रीबी में रहने का तरीका बताना तो हो सकता है लेकिन उसकी उन्नति और विकास का काम धर्म के कार्यक्षेत्र में नहीं आता. यह कार्य राजनीति और सत्ता करती है लेकिन आज तक मेघों की कोई सुनवाई राजनीति में नहीं है और न सत्ता में उनकी कोई भागीदारी है. तथापि मेघों ने एक सकारात्मक कार्य किया कि इन्होंने बड़ी तेज़ी से बुनकरों का पुश्तैनी कार्य छोड़ कर अपनी कुशलता अन्य कार्यों में दिखाई और उसमें सफल हुए.
दूसरी ओर विभिन्न स्तरों पर मेघों के बँटने का सिलसिला रुका नहीं. ये कई धर्मों-संप्रदायों में बँटे. कई कबीर धर्म में लौट आए. कई राधास्वामी मत में चले गए. कुछ गुरु गद्दियों में बँट गए. कुछ ने सिखी और ईसाईयत में हाथ आज़माया. कुछ ने देवी-देवताओं में शरण ली. कुछ आर्यसमाज के हो गए. वैसे कुल मिला कर ये स्वयं को मेघऋषि के वंशज मानते हैं और भावनात्मक रूप से कबीर से जुड़े हैं. मेघवंशियों में गुजरात के मेघवारों ने अपने बारमतिपंथ धर्म को सुरक्षित रखा है. राजनीतिक एकता में राजस्थान के मेघवाल आगे हैं. विडंबना ही कही जाएगी कि इन मेघवंशियों की आपस में राजनीतिक पहचान नहीं बन पा रही है. हालाँकि यह चिरप्रतीक्षित है और बहुत ज़रूरी है.

(विशेष टिप्पणी- इस संबंध में कपूरथला के डॉ. ध्यान सिंह (जो स्वयं मेघ समुदाय से हैं) का शोधग्रंथ आप देख सकते हैं.)

Other links from this blog

 

MEGHnet      

                                  

        

3 comments:

निर्मला कपिला said…

मेरे लिये नई जानकारी है। धन्यवाद।

Bhushan said…

@ निर्मला जी, पहली टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

Mohan Devraj said…

A nice description. This shows how certain group of Meghwars settled into the different parts of Punjab and that how schism could happen within the rungs of Megh or Meghwar Jati.

Why religious places, why not education – धार्मिक जगह क्यों, शिक्षा क्यों नहीं

भारत के जातिवाद की शिकार ग़रीब जातियों को धर्म ने भी शोषित किया है. धार्मिक और सामाजिक रीति-रिवाज़ इनके हाथों से धन खीचते रहते हैं. इसके लिए कई तरीके अपनाए जाते हैं, जैसे 1. यह प्रचार कि धार्मिक स्थल पर जाने से ही मनोकामनाएँ पूरी होती हैं, 2. यह प्रचार कि यह विशेष धार्मिक स्थल समतावादी समाज का निर्माण करेगा, 3. यह प्रचार कि यही डेरा मानवतावादी है, 5. यह अनुष्ठान न करने से पूर्वजों को कष्ट होगा, 6. यह यज्ञ करने से पवित्रता आएगी, 7. यह दान देने से यश और समृद्धि प्राप्त होगी आदि. यह किसी का व्यवसाय हो सकता है. आप उसमें मदद कर सकते हैं परंतु शोषण के प्रति होशियार रह कर.

धर्म या संप्रदाय के झंडे पर ऐसे आकर्षक और संकेतात्मक नारे लिख दिए जाते हैं कि ग़रीब जातियों के लोग किसी आशा में आकर्षित हो जाते हैं. अंतिम परिणाम वही- आर्थिक शोषण. चढ़ावा चढ़ाओ, मन्नत माँगो और घर चले जाओ. मन्नत तो घर पर भी माँगी जा सकती है. लोगों का अनुभव है कि धार्मिक जगहों पर की गई सभी मनोकामनाएँ पूरी नहीं होतीं. मनोकामना वह भी पूरी हो जाती है जो गली या पार्क में की जाए, वह भी बिना पैसा-प्रसाद चढ़ाए.

इधर धार्मिक स्थल इतने बना दिए गए हैं कि राह चलते सिर से टकराते हैं. एक सावधानी बरती जा सकती है कि जैसे ही धर्म स्थल सामने आए उसी समय अपने बच्चों की शिक्षा और उन्नति का ध्यान करें और अपनी मेहनत का पैसा उनकी शिक्षा पर व्यय करें. बच्चों को अच्छी शिक्षा देना देशभक्ति है, पूजा का बेहतर स्वरूप है. हालाँकि इस भक्ति (शिक्षा) को मँहगा किया जा रहा है जो ग़रीब जातियों के विरुद्ध षड्यंत्र से कम नहीं है. हम मिलकर प्रार्थना कर सकते हैं कि ईश्वर उनका भला करे.

Other links from this blog




MEGHnet

Baba Faqir Chand – Key to Religion

People are running from place to place in search of happiness and peace. Make a sincere search for your ideal within you. Enjoy the bliss after finding your ideal from within. This is the teaching of Santmat. Why you run to various directions? Everything is within you. I have revealed its secret to you in very simple words. You dwell in Him and He dwells in you. You can behold Him in any form you love, such as a son, brother or husband. His form within depends upon your intention and wish. But unfortunately nobody speaks the truth to you. (From: Jeevan Mukti)

MEGHnet