बस में कार्यालय जाते समय रास्ते में एक हवेली आती थी जिसके बाहर बहुत बड़े बोर्ड पर लिखा था- ‘बालब्रह्मचारिणी विषकन्या योगिनी’. इसकी ओर ध्यान खिंचता था. एक दिन अपने सहकर्मी मूर्ति (एक ब्रह्मण) को कहा, “देखिए भाई साहब, यह नाम कितना रोचक और भयानक लगता है.” उन्होंने तुरत कहा, “जी हाँ, और आकर्षित भी करता है.”
एक विज्ञापन की वास्तविक सफलता 25-30 वर्ष बाद दिखती है जब उसे देखने वाले बच्चे विज्ञापन से मिले विचारों को लेकर बड़े हो चुके होते हैं और उस उत्पाद या विज्ञापनदाता को धन देने की हालत में आ जाते हैं.
धर्म के क्षेत्र में विज्ञापन का विचार नया नहीं है. इसका प्रयोग सदियों से होता आया है. धार्मिक विज्ञापनों के माध्यम से धन कमाने वालों की संताने आज अरबपति हैं. विज्ञापनों के ज़रिए धन चढ़ाने का भाव स्वयं में पैदा कर चुके लोग करोड़ों में हैं. रिटेल में पैसा चढ़ाने वाले ये लोग उन लोगों को इतना अमीर बनाते हैं कि आगे चल कर ख़ुद उनकी अमीरी का मुकाबला नहीं कर पाते. यह ठीक उसी प्रकार होता है जैसे फिल्में बनाने वाले अमीर हो जाते हैं और फिल्में देखने वाले केवल टिकट पर खर्च करते हैं. कहने का मतलब है कमाऊ और बड़ा कमाऊ होना अधिक ज़रूरी है.