स्यालकोट से विस्थापित हो कर आए मेघवंशी, जो स्वयं को भगत भी कहते हैं, आर्यसमाज द्वारा इनकी शिक्षा के लिए किए गए कार्य से अक़सर बहुत भावुक हो जाते हैं. प्रथमतः मैं उनसे सहमत हूँ. यह आर्यसमाज ही थी जिसने सबसे पहले इनके लिए शिक्षा का प्रबंध किया. इससे कई मेघ भगतों को पढ़ने और प्रगति करने का मौका मिला. परंतु कुछ और तथ्य भी हैं जिनसे नज़र फेरी नहीं जा सकती.
सामाजिक और धार्मिक स्तर पर कबीर और उनके संतमत ने निराकार की भक्ति को एक आंदोलन का रूप दे दिया था जो निरंतर फैल रहा था. इससे परंपरावादी चिंतित थे क्योंकि पैसा संतमत से संबंधित गुरुओं और धार्मिक स्थलों की ओर जाने लगा. आगे चल कर परंपरावादियों ने निराकारवादी आर्यसमाजी (वैदिक) विचारधारा का पुनः प्रतिपादन किया ताकि ‘निराकार’ की ओर जाते धन और जन के प्रवाह को रोका जा सके. अतः उन्होंने कई प्रयोजनों से मेघवंशियों को लक्ष्य करके स्यालकोट में कार्य किया. आर्यसमाज ने शुद्धिकरण जैसी प्रचारात्मक प्रक्रिया अपनाई और अंग्रेज़ों के समक्ष हिंदुओं की बढ़ी हुई संख्या दर्शाने में सफलता पाई. इसका लाभ मेघों को आत्मविश्वास जगाने के रूप में हुआ. नुकसान यह हुआ कि मेघों के मुकाबले आर्य मेघों, जिन्हें आर्य भगत कहा गया, को अलग और ऊँची पहचान दी गई और नाम के आधार पर मेघों का एक विभाजन और हो गया. भगत अपने आप को मेघों से अलग करने लगे. सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक बिखराव बढ़ा.
(विशेष टिप्पणी- कपूरथला के डॉ. ध्यान सिंह का शोधग्रंथ पंजाब के कबीरपंथियों पर विस्तार से रोशनी डालता है. यदि वे इसे यूनीकोड में उपलब्ध करा सकें तो लाभ होगा.)
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