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Worship places of Megh Bhagats – मेघ भगतों के पूजा स्थल

देहुरियाँ (डेरे-डेरियों) का इतिहास-

(यह आलेख डॉ. ध्यान सिंह के शोधग्रंथ के एक अंश का संपादित रूप है जिसे उनकी अनुमति से यहाँ प्रकाशित किया गया है)
पंजाब और जम्मू क्षेत्र की मेघ जाति की अधिकतर देहुरियाँ और देहुरे’ (डेरे-डेरियाँ) जम्मू क्षेत्र में बने हैं. पंजाब में भी दो-एक देहुरियाँ हैं जो जम्मू की देहुरियों से कुछ यादगार या प्रतीक के तौर पर कुछ मिट्टी-पत्थर ला कर बनाई गई हैं. ये डेरियाँ मेघों के पूजा स्थल हैं. प्रत्येक गोत्र (खाप) की अलग डेरी है. इन पर वर्ष में दो बार  मेला लगता है जो दशहरा और जून मास में होता है. इसे ‘मेलकहते हैं. प्रत्येक गोत्र के लोग अपनी-अपनी डेरी पर इकट्ठे होते हैं. ये देहुरियाँ जम्मू के आसपास छोटे-छोटे गाँवों में बिखरी हुई हैं. झिड़ी नामक गाँव में देहुरियों की काफी संख्या है.
अधिकतर देहुरियाँ खेतों में बनी हैं. खेतों की मेढ़ पर चल कर इन तक पहुँचना पड़ता है. कुछ देहुरियों का स्थान जंगल-सा दिखाई देता है. वहाँ पेड़ व झाड़ियाँ हैं. इसे बाग़ भी कहते हैं. कुछ स्थानों पर इन बाग़ों को काट कर देहुरियों को अच्छी तरह से बनाया जा रहा है. पहले ये अधिकाँशतः कच्ची मिट्टी की और बहुत छोटी हुआ करती थीं.
ये देहुरियाँ (मौखिक इतिहास के अनुसार) मेघ शहीदों और सतियों के स्मृति स्थल हैं जिन्हें ऊँची जाति वालों ने कत्ल कर दिया था. लोगों ने क़त्ल की जगह पर कुछ पत्थर या पिंडी रूपी पत्थर लगवा दिए और उनकी पूजा करने लगे.
अधिकतर देहुरियाँ इतनी छोटी हैं कि इनके भीतर बैठना, खड़े होना संभव नहीं. देहुरी के भीतर जो पिंडी होती है जिसे स्थानअथवा शक्तिपीठभी कहते हैं. परंपरागत आस्था के अनुसार उसमें बहुत शक्ति होती है. जब से पंजाब के मेघ, भगत, कबीरपंथी इन देहुरियों पर जाने लगे हैं, इनकी हालत में सुधार आया है. पिछले 20-25 वर्षों में लोगों का इस ओर रुझान हुआ है.
पहले इन देहुरियों पर बकरा हलाल किया जाता था. लेकिन अब यहाँ झटका हो रहा है, क्योंकि पहले वहाँ मुसलमानों का प्रभाव था. वे इन्हें झटका नहीं करने देते थे.
इन देहुरियों पर लोग अपनी मन्नतें माँगने आते हैं. मन्नत पूरी होने पर अहसान के तौर पर बकरे की बलि दी जाती है. मेघ अपने यहाँ पहला पुत्र होने पर बकरा देते हैं. मुंडन पर भी बकरा देते हैं. शादी होने पर भी कुछ देहुरियों पर बकरा लगता है, जिसे अपनी जाति की देहुरी पर लेकर जाते हैं. 
देहुरी के पुजारी को पात्र कहा जाता है. पुजारी का एक चेला भी होता है.पात्र या चेला मेले के दिन देहुरी पर बैठते हैं. जो मेघ बकरे को बलि के लिए लेकर आते हैं वे परिवार सहित देहुरी के भीतर या बाहर बैठते हैं और कहते हैं कि बाबा जी दर्शन दो, बकरा परवान करो, मेहर करो.
बकरे के सामने धूप जलाया जाता है, उसका सिर व पाँव पानी से साफ़ करते हैं. वह शरीर झटकता है. यदि वह शरीर न झटके तो उसके ऊपर पानी के छींटे लगाए जाते हैं. वह फिर अपना शरीर झटकता है तो लोग कहते हैं कि बिजी गया और फिर उसको काट देते हैं. उसके रक्त से सभी को टीका लगाया जाता है. उसकी कलेजी पोट पहले बनाकर खाई जाती है जो प्रसाद की तरह लिया जाता है. से मंडलाभी कहा जाता है.
यदि किसी कारण बकरा अपना शरीर नहीं झटकता तो बकरा चढ़ाने वाले परिवार के बड़े बूढ़े कान पकड़ते हैं, नाक रगड़ते हैं और कहते हैं कि हमें कुछ पता नहीं था. हमारी भूल क्षमा करो. सिर झुकाते हैं. यह तब तक दुहराया जाता है जब तक बकरा बिजनहीं जाता. यहाँ आने वाले मेघों को जाति निर्धारित नियमों का उपदेश दिया जाता है. फिर सभी बकरा खा लेते हैं. अब राजपूत व मुसलमान भी इसमें शरीक होते हैं.
मेले के अवसर पर बकरा अर्पित करते हुए लोग शराब पीते हैं, बकरा भी खाते हैं. इससे कई बार विवाद हो जाता है. इसी लिए कुछ देहुरियों पर बकरा काट कर रांधने की मनाही है. इन देहुरियों पर लाल रंग का झंडा होता है. वहाँ कुछ चूहों ने मिट्टी निकाल कर ढेर लगा रखा होता है. कहा जाता है कि ऐसे स्थान पर सांप देवता निवास करते हैं. उस मिट्टी को लोग वरमीकहते हैं. उसकी भी कुछ लोग पूजा करते हैं. एक देहुरी पर एक ही दिन में 10 बकरों की बलि भी होती है. शाकाहारी मेघ भी यहाँ आ कर रीति को निभाने के लिए बकरा चख लेते हैं. ऐसे मौकों पर देहुरी का पात्र मेलके अवसर पर चौंकी (ज़ोर से सिर हिलाना) करता है तथा आए हुए लोगों की पुच्छों (प्रश्नों) के उत्तर देता है.
कभी इन देहुरियों पर पीने का पानी नहीं होता नहीं होता था लेकिन अब वहाँ नल लगा लिए गए हैं. कुछ देहुरियों पर छाया के लिए शैड बन गए हैं. कुछ ने आने-जाने वालों के लिए बर्तन भी रख लिए हैं. बकरा बनाने के लिए ईंधन इकट्ठा कर लिया जाता है.
कुछ देहुरियों पर अन्य चित्रों के साथ कुत्ते की भी पूजा होती है क्योंकि वह किसी की शहादत या सती होने के समय वहाँ रहा था. कुछ राजपूत यज्ञ आदि करते हैं तो वह एक मेघ और कुत्ते को रोटी खिलाते हैं. इसी से वह यज्ञ संपूर्ण हो पाता है. कहा जाता है कि राजपूतों की एक जाति को हत्या लगी हुई है. इसलिए ये यज्ञ के दिन मेघ की पूजा करते हैं.

साकोलियों की डेरी, बडियाल ब्राह्मणा, आर.एस. पुरा, जम्मू.


उपर्युक्त जानकारी पर मेरे नोट्स
डॉ. ध्यान सिंह के शोधग्रंथ की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि पहली बार किसी ने मेघ भगतों के गोत्रों से संबंधित डेरे-डेरियों (जिन्हें ध्यान सिंह ने ‘देहुरियाँ’ और ‘देहुरे’ कहा है) पर इतनी सामग्री एकत्रित की.
मेरे पास उपलब्ध शब्दकोशों में देहुरियाँ शब्द नहीं मिला. संभव है यह शब्द बोलचाल की भाषा का हो जिसे शब्दकोश में सम्मिलित होने की प्रतीक्षा है. शब्दकोश में कबीर द्वारा प्रयुक्त शब्द ‘देहरा’ है जो ‘देवालय’ से बना है और ‘मंदिर’ का पर्यायवाची है. एक शब्द ‘देहर’ है जिसका अर्थ है नदी के पास की नीची ज़मीन. इन सभी शब्दों की अर्थ छटाएँ छोटे-छोटे पूजा स्थानों की ओर इंगित करती हैं. तथापि ‘देहुरिया’ शब्द पर विचार आवश्यक है. वैसे डेरे-डेरी का समान्य अर्थ ‘encampment’ होता है. बड़े-बड़े धार्मिक/गुरु डेरों की छवि से भी इसकी तुलना नहीं की जा सकती. संभवतः कल हो सके.
इस शोधग्रंथ में उपल्ब्ध डेरे-डेरियों की जानकारी से स्पष्ट है कि ये पूजा स्थल हैं जहाँ कर्मकांड किए जाते हैं. पूजास्थल होने के साथ-साथ ये शहीदों के स्मारक भी हैं. यह मृत पूर्वजों की पूजा का ही एक रूप है. दुनिया के अधिकतर ग़रीब (भारत में दलित और आदिवासी) कबीलों में मृतकों की पूजा की परंपरा है. विकसित कबीलों में ईश्वर जैसी अवधारणाएँ हैं जिसमें ईश्वर को जन्म-मृत्यु के परे माना जाता है. दूसरी ओर विकसित कबीले सुनिश्चित करते रहे हैं कि दलित कबीलों के पूजा स्थलों की ओर धन न जाए. दूसरी ओर उनके अपने पूजा स्थल बड़े और भव्य हैं. पैसे का खेल साफ नज़र आता है. दलित कबीलों के पूजा स्थलों को विकसित नहीं होने दिया गया और उन्हें नष्ट करने/ धन के अभाव से नष्ट होने देने की परंपरा रही. इसी लिए ये डेरे-डेरियाँ जैसे-तैसे बच गईं और कच्चे, छोटे, छितराए और अविकसित स्ट्रक्चर के रूप में इनका अस्तित्व बना रहा. कई जगह तो पीने के पानी की व्यवस्था तक नहीं थी. इस शोधग्रंथ में यह पढ़ना संतोषकर है कि अब इन्हें विकसित किया जा रहा है और राजपूत तथा मुसलमान मेल के दिनों में यहाँ के कार्यक्रमों में भाग लेते हैं.
भारत के जनजाति कबीलों में किसी न किसी रूप में देवी की पूजा और पशु-बलि की परंपरा है. मेघों में भी यह परंपरा है जैसाकि इन डेरियों पर देखा जा सकता है. इन स्थलों पर पुजारी या पात्र होता है जो चौकी (चौंकी) देता है और उपस्थितों की ‘पुच्छें’ (प्रश्नों के उत्तर और दिल की बातें) बतलाता है. यह रुचिकर है.
मैंने कुछ मेघों में देवी माता का आना सुना है. एक दो महिलाओं को चौकी देते देखा है. यह जनजातीय परंपरा में आता है. देखा गया है कि ‘चौकी’ देने का प्रयोग शरीकों के प्रति घृणा फैलाने के लिए किया जाता है. वैसे जब किसी जनजातीय महिला में देवी या माता प्रकट होती है वहाँ ऊँची जातियों के पुजारी पहुँच जाते हैं. ध्यान से देखने की बात है कि चौकी देने वाली दलित महिला को कोई चढ़ावा नहीं चढ़ाया जाता न ही दूसरी जाति का कोई उससे प्रश्न पूछता है, अलबत्ता उसके परिवार की जासूसी अवश्य कर ली जाती है. दूसरी ओर ऊँची जाति की कई महिलाओं ने चौकीको व्यवसाय बना लिया है. चौकी देने वाली दलित महिलाओं का पैसा ऊँची जातियों के मंदिरों/पूजा स्थलों पर चढ़ावे के रूप में जाता है जो बुरी बात है. संभव है डेरे-डेरियों पर ऐसा न होता हो. 
शोधग्रंथ में लिखा है कि कुछ देहुरियों पर अन्य चित्रों के साथ कुत्ते का चित्र लगा होता है और कि कुछ राजपूत लोग यज्ञ में एक मेघ व एक कुत्ते को रोटी खिलाते हैं. मुझे दूर तक नज़र नहीं आता कि मेघों में कुत्ते जैसे जीव की पूजा करने की परंपरा कभी रही हो. यहाँ ऐसा क्यों है? इंसान और कुत्ते के अच्छे गुणों की तुलना हो सकती है लेकिन पूजास्थल पर कुत्ते का चित्र कई प्रश्न खड़े करता है. ऐसे ही राजपूतों का वह व्यवहार सम्मानजनक नहीं लगता जब वे एक मेघ और एक कुत्ते को इसलिए भोजन कराते दिखते हैं कि इससे उनका यज्ञ संपूर्ण होता है. ऐसा करके वे शायद अपने किए अत्याचारों का प्रायश्चित करते हों या प्रकारांतर से अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शित करते हों. कुल मिला कर यह स्थिति मेघों के लिए सम्मानजनक नहीं है.
ये डेरे-डेरियाँ ऊँची जातियों द्वारा मेघ पुरुषों और स्त्रियों पर किए अत्याचारों के स्मारक हैं और उनकी कुर्बानियों-शहादतों के गवाह हैं. यह भी एक कारण है कि इन स्थलों को विकसित नहीं होने दिया गया. दलित तबकों को सदियों से उनकी मजबूरियाँ याद दिलाई जाती रही हैं जिससे अब वे उबर रहे हैं.
मेघों के डेरे-डेरियाँ उनका संपूर्ण इतिहास नहीं है. उन्होंने सदियों से कोई जंग नहीं लड़ी सिवाय अपने अस्तित्व की जंग के जिसमें ज़िंदा रहने मात्र का महत्व था. सदियों तक इनकी साँसें अमानवीय यात्नाओं की टीस सहलाने में खर्च हुईं. कुछ साँसें राहत और ग़ैबी ताकत पर खर्च करना ज़रूरी था. डेरे-डेरियाँ इसी का अलिखित और प्रत्यक्ष इतिहास हैं. यही मेघों के संघर्ष का सूक्ष्मतम रूप है.
क्या संभव है कि मेघ इन कुर्बानियों और शहादतों को याद रखें और अपनी पूजा पद्धतियों को बदल कर विकसित भी कर लें? ऐसा एक संकेत शोधग्रंथ में वर्णित कबीर मंदिरों के निर्माण के संदर्भ में किया गया है.
एक प्रश्न और भी मन में उठता है कि क्या मेघों के सभी गोत्रों/खापों का एक साझा पूजा स्थल नहीं बन सकता? मेरा विचार है कि यह संभव है. 

(अभी परसों ही राजस्थान के श्री भगवानाराम मेघवाल से फोन पर जानकारी मिली कि राजस्थान में मेघवालों के पूजा स्थल हैं जो ऐसी सतियों के हैं जो मेघवंशी थीं. आज (17-09-2013) को डॉ. ध्यान सिंह ने जम्मू स्थित कुछ डेरियों के फोटो भेजे हैं जो नीचे दिए गए हैं. संभव है शीघ्र ही भगवानाराम जी से भी फोटो प्राप्त हो जाएँ.)

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