मेघ – बड़ा दायरा

मेघ महावृत्त

अतीत की कई गौरवशाली शासक जातियाँ आज बहिष्कृत अथवा वंचित समाज के रूप में जानी जाती हैं। प्रोफ़ेसर अंगने लाल का मत है कि प्राचीन विश्व इतिहास की कई शासक जातियों का आज कोई इतिहास उपलब्ध नहीं होता हैउनमें मेघवंश भी एक है जिससे मेघ या मेघवाल जाति अपना संबंध जोड़ती है। वर्त्तमान भारत की अनुसूचित जातियों में गिनी गई मेघ जाति अपने को मेघवंश का वंशधर मानती है। वर्त्तमान समय में यह जाति न तो ऊँचे अभिजात्य वर्ग में है और न ही राजवंश से ताल्लुक रखती है। इतिहास पटल पर जैसा अन्य शासक जातियों के साथ सलूक हुआउसकी वे भी भुक्त भोगी बनी। परन्तु इतिहास के निरंतर प्रवाह में कई जातियाँ कालकवलित हो गयीं और आज उनका नाम लेने वाला तक कोई नहीं हैऐसे में इस प्राचीन शासक जाति ने अपने पराभव के बाद भी अपना वजूद बनाये रखा हैतो यह सामाजिक अध्ययन के लिहाज से महत्वपूर्ण है।

कुछ इतिहासकारोंशोध कर्ताओं और सामाजिक प्रचेताओं ने इस सन्दर्भ में कमोबेश खोज की है। उन सबका निष्कर्ष यही निकलता है कि प्राचीन वृहत्तर भारत में निवास करने वाला यह एक आदिम समाज या कबीला था। एक जाति के रूप में ज्ञात होने से पहले यह एक सुसंगठित व जाना माना राजनीतिक और सांस्कृतिक दल था। इसकी प्राचीन उपस्थिति प्राचीन सिन्धुघाटी सभ्यता, मोहनजोदड़ो और हडप्पा की अनकही कहानियों में ज़मीदोज़ है। ये सभी कथ्य और तथ्य उसे प्राचीन भारत का एक प्राचीन समाज दर्शाते करते हैं।

इतिहासकार जिन प्राचीन जातीय समूहों की उपस्थिति मानते हैंउनमें मगोइ मद्रमल्ल और मालव आदि कई जातियाँ हैं जिनसे मेघों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंध स्थापित किया जाता है। उपर्युक्त सभी जातीय घटक एक दूसरे से जातीय या भोगौलिक या राजनैतिक या सामाजिक रूप से घनिष्ठता से जुड़े रहे हैंअतः मेघ जाति की प्राचीन जड़ें इनसे निकली हुई वर्णित की जाती हैं तो वह इतिहास सम्मत ही मानी जानी चाहिए। सिन्धुघाटी में फलने फूलने वाली सभ्यता के निवासियों के मानवशास्त्रीय लक्षणों में उनके नाकनक्श और रंग रूप की जो परिकल्पनाएँ की गयी हैउनमें उनका रंगरूप न तो श्वेत उद्घाटित हुआ और न ही श्याम वर्ण अपितु इनके मध्यवर्ती रंग की कल्पना की गयी है जो ब्राउन या गेंहुआ या कदाचित ताम्र वर्णीय बताया जाता है।

मद्र और मेघ– कुछ इतिहास वेत्ताओं ने मेघों को महाभारत कालीन मद्र जाति से समीकृत किया है। वैदिक समय में यह एक क्षत्रिय जाति थीहालाँकि प्राचीन वेदसंहिताओं में इसका जिक्र नहीं है। परन्तु सामवेद में एक मद्रागार सौगयानी गुरु का वर्णन है। जिससे कम्बोज के उपमन्वय ने ज्ञान प्राप्त किया था। सामवेद में आये शब्द ‘मद्रागार’ से शोधकर्ताओं का अनुमान है कि शौगायानी मद्र जाति का था। एतेरेय ब्राह्मण (8:14.3) में उत्तर के मद्र लोगों का जिक्र हैजो हिमालय के उत्तरी क्षेत्र (परेणाम हिमवन्तममें उत्तर कुरु के पड़ोस में निवास करते थे। शोधकर्ताओं द्वारा उत्तर मद्र को “कश्मीर’ माना गया है (vedik index, part-2,page-123), जहाँ आज भी मेघों की सघन बस्तियाँ हैं।

रामायण में उल्लेखित है कि सीता की खोज हेतु सुग्रीव ने बंदरों को मद्र देश भेज था। विष्णु पुराण (2.3.17) में मद्र लोगों का जिक्र आराम पारसिक आदि लोगों के साथ हुआ है। (आराम शब्द पालि का तकनीकी शब्द हैजिसमें बुद्ध के विहार या आराध्य के स्वरूप का अर्थ निहित है)। मत्स्य पुराण (114,47) में मद्रों का जिक्र गन्धर्व और यवनों के साथ हुआ है। मत्स्य पुराण (208,5) में राजा अश्वपति को मद्र देश के साकल देश का बताया गया है।

पालि साहित्य में 16 महाजनपदों में मद्र का वर्णन नहीं है परन्तु अनुसन्धान कर्ताओं ने यह पाया है कि पालि में जो वाह्लिक‘ का वर्णन हैवह मद्रों का ही है। स्मिथ महोदय के निष्कर्ष में मद्र लोगों का मध्य पंजाब में आधिपत्य था। (Smith, Early history ..,4the ed. p-302)। कैम्ब्रिज हिस्ट्री में रामायण और महाभारत के आधार पर स्यालकोटचिनाब और रावी नदी और झेलम और रावी नदी के बीच के भाग को उनके आधिपत्य में होना बताया गया है।

महाभारत के भीष्म पर्व में मद्र राज्य का वर्णन है (अध्याय-9), वराहमिहिर की बृहत संहिता में और पाणिनि की व्याकरण में (2,3,73; 4,4,67) भी मद्र देश का वर्णन है। इलाहाबाद स्तम्भ लेख के वर्णन से स्पष्ट है कि मद्र देश यौधेयों के समीपस्थ था। मद्र देश की राजधानी सागल थीजिसे कन्न्निघम ने संगल्वाला टिब्बा के रूप में पहचाना था। जो रावी नदी के पश्चिम में स्थित है। कन्निघम के अनुसार सागल (साकलको अब भी मद्र देश से ही जाना जाता है।

परम्परानुसार मेघ लोग वंश के लोग है। ये अपने आपको मेघवंशी कहते है। मेघ समाज मेघवंश‘ के प्रतिष्ठापक के रूप में सर्व मान्य रूप से मेघ‘ नामक एक धर्म प्रणीत और सृजनकारी पुरुष को मानते है। मेघ जाति से सम्बंधित सभी मान्यताएं और परम्पराएँ मेघ जाति की परणीती मेघ नामक पुरुष के वंश धरो से हुई होना स्वीकार कराती है। वह इस जाति का आद्य पुरुष माना जाता है। पुराणों के उल्लेख से पहले मेघ नाम के किसी राजनैतिक या सामाजिक संगठन की सूचना नहीं मिलती है। स्पष्टतः उससे पहले इस समूह का वजूद दूसरे नामों से मिलता हैजिनमे मेगोएमद्र और मल्ल आदि विचारणीय है।

प्राचीन भारत की सिन्धु घाटी सभ्यता का विस्तार हिमालय के आसपास हुआ। उसका विस्तार नेपाल तक था। हिमालय की तलहटी में मौर्यों के बाद कौशाम्बी में मेघ नामांत के कई राजाओं का उद्घाटन हुआ है। जिनका उल्लेख पुराणों में हुआ है परन्तु तब तक वे एक जातीय घटक फिर भी नहीं बने थे। उसके बाद का इतिहास या तो विलुप्त है या अन्य नाम धारण कर लिया गया हो। इस प्रकार से मेघ एतिहासिक रूप से एक ऐसा जातीय घटक है जिसका निर्माण सामाजिक और संस्कितिक रूप से होना प्रतीत होता है।

ह्वेन सांग ने साकल देश की यात्रा की थी। जहाँ पर कई संघाराम थेमहान सम्राट अशोक का बनाया स्तूप भी था। मिलिंद पन्हो में साकल को मद्र देश की राजधानी बताया गया है और राजधानी का ब्यौरा भी दिया गया है।

यह जो भोगौलिक और राजनीतिक परिदृश्य हैवह मेघों के प्राचीन सामाजिकराजनीतिक और सांस्कृतिक घटक का स्वरूप था। इस संभावना को तब और बल मिलता हैजब मद्रों के सामाजिक व्यवहारों और मेघों के वर्त्तमान व्यवहारों में हमें आश्चर्यजनक समानता मिलती है।

जैसा कि पहले बताया गया है कि वाह्लिक और मद्र एक ही जन जातीय समूह था। किन्हीं सन्दर्भों में उन्हें मद्र कहा गया है तो किन्हीं सन्दर्भों में उन्हें वाह्लिक। कहींकहीं उन्हें वाह्लिककहींकहीं वालहिककहीकहीं वाल्हिक आदिआदि। वाह्लिक शब्द भौगौलिक शब्द है तो मद्र सामाजिक और राजनीतिक घटक को बताने वाला प्रतीत होता है।

महाभारत में वर्णित वाहिक लोग वाह्लिक या मद्रों से अलग हैं। वाहिक लोगों को जर्टिका भी कहा गया है। जर्टिका से जट्टा या आरट्ठा शब्द निकला। इन सन्दर्भों से स्पष्ट है कि वाहिक लोग और वाल्हिक लोग अलगअलग जन समूह थे। पाणिनि के समय वाहिक लोग बाह्य कहलाते थे। पंजाब उस समय बाह्य कहा जाता था। वाहिक नाम पंजाब का भी मिलता है। जिन यौधेयों का वर्णन आता हैउन्हें जोहिया भी कहा जाता था।

संस्कृत महाकाव्यों और पालि जातक कथाओं के आधार पर स्पष्ट है कि मद्र लोग क्षत्रिय थे और उनके वैवाहिक सम्बन्ध गांगेय तट के क्षत्रियों से होते थे। (परीक्षित और मद्रावतीपांडू और मद्र्कुमारी आदि के विवाहआदि पर्वमहाभारतअध्याय-5) जातकों से स्पष्ट है कि उत्तर भारत के क्षत्रिय राजा मद्र राजकुमारियों से विवाह रचते थे। महा वत्थु अवदान में भी ऐसे प्रसंग है। कौटिल्य के अनुसार मद्र बहादुरों का एक संघ था। वे रजा की पदवी सुशोभित करते थे।

महाभारत में मद्रों के एक विशेष रिवाज का पता चलता हैजो मेघों में अभी तक किसी न किसी रूप में विद्यमान है। वह हैपुत्री के विवाह के समय वर पक्ष से कुछ नेग (शुल्कलेना। इसे मारवाड़ में पडला भी कहा जाता है। जिसमें लड़की के लिए कुछ नियत राशी और वस्त्र आभूषण आदि होते हैं।

मद्र्लोगों में सगाई का दस्तूर लड़की वालों के वहां होता थाजो मेघों में अभी तक बरकरार है। महाभारतआदि पर्वअध्याय-113 में वर्णन है कि जब पांडू ने कुंती को स्वयंवर में जीता तो भीष्म ने उसे दूसरा विवाह करने की सलाह दी और वह मद्र देश के शाल्व राजा के पास गयाजो वाह्लिक राजा कहलाता था। उसने राजा से अपनी बहिन का विवाह पांडू से करने का प्रस्ताव रखा। शाल्व ने इस हेतु अपने रिवाज का जिक्र कियाभीष्म ने वह नेग दिया और वह उसे हस्तिनापुर ले आयाजहाँ विवाह की रस्म संपन्न की गयी।

सावित्री और सत्यवान भी मद्र देश के थे। सावित्री अस्वपति की पुत्री थीजो उस समय मद्र देश का रजा था।

मेघों में प्रचलित सामाजिक संबंधों और रीति– रिवाजों का तानाबाना निसंदेह उन्हें मद्रों की पृष्ठभूमि में ले जाता है। मेघों के इस इतिहास के अन्वेषण की आज नितांत आवश्यकता है।

मल्ल और मेघ– महाभारत और अन्य संस्कृत ग्रंथों में तथा पालि शास्त्रों में प्राचीन भारत की एक और जाति का वर्णन मिलता हैजिसे मल्ल कहा गया है। मल्लों की उत्पति और उत्कर्ष पर पालि साहित्य में सारगर्भित सामग्री मिलती है। मद्रों का जिक्र कम हो जाता है और इतिहास पटल पर मल्लों का जिक्र शुरू हो जाता है। प्राचीन मद्रों से निकली हुई ही यह एक प्राचीन क्षत्रिय जाति थी।

भगवान बुद्ध के समय मल्ल लोग पूर्वी भारत के ताकतवर लोग थे। मल्लों के जनपद को 16 महा जनपदों में गिना जाता था। महाभारत में अंगवंग और कलिंग के साथ मल्ल जनपद का उल्लेख है। (सभापर्वमहाभारत)। भगवान बुद्ध के समय पावा और कुशिनारा में जनपद थे। कौटिल्य के वर्णन में भी मल्लों के संघ की जानकारी होती है। वे अपने संघ के सदस्य को राजा कहते थे। लिच्छवी और मल्ल गणराज्य थे।

मल्ल भी प्राचीन क्षत्रिय थे। वे बहादुर थे। पालि साहित्य में ऐसे कई प्रसंगों का वर्णन हैजिसमें उनकी बहादुरी और देशभक्ति की चर्चा है।

मालव और मेघ— मालव लोगों का भी प्राचीन भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान था। ये भी पहले पंजाब के ही निवासी थे। बाद में ये राजपुताना की तरफ आ गए। कुछ लोग लाट देश (भडोचकच्छवड नगरअहमदाबाद आदिमें आ गए। पाणिनि से लेकर समुद्र गुप्त तक इनका संगठन बना हुआ था। अलेक्ज़ेंडर के इतिहासकारों ने मल्लों का वर्णन मल्लोइमल्लीमल्लाई आदि विभिन्न नामों से किया है। माना जाता है कि मालव लोग मल्लों से निकले हैं।

मालव और शूद्रक जातियों का वर्णन संस्कृत साहित्य में भी मिलता है। पाणिनि सीधासीधा वर्णन नहीं करता है लेकिन उसके सूत्र 4,3,117 में इन्हें आयुद्ध जीवी संघ कहा गया है। इसकी ‘काशिका टीका’ में इन्हें मालव और शूद्रक बताया गया है। पाणिनि के महाभाष्य के समय से तथा अलेक्ज़ेंडर के समय या उससे पूर्व वे पंजाब में बस चुके थे। स्मिथ के मतानुसार वे झेलम के निचले हिस्से में बसे थे जो झांग (झंग) जिला और मोंट गुमरी का इलाका है। Mc Criadle इन्हें दोआब (चिनाब और रावीका निवासी बताता है। राय चौधरी इन्हें रावी के निचले दोनों किनारों का मानते हैं। कोटा के पास नगर नामक स्थान पर बहुत से सिक्के मिले हैंजिन पर मालावानाम जय‘ उत्कीर्ण है। कन्निंघम के मतानुसार ये 250 ईस्वी पूर्व से 250 ईस्वी के हैं। इससे स्पष्ट है कि मालव इससे काफी पूर्व एक महत्वपूर्ण कौम बन चुकी थी। इन सिक्कों में कुछ सिक्के ऐसे भी मिले हैं जिन पर मगयमगोजयमजुपामगोयाम्मयोजापामपय आदि नाम भी उत्कीर्ण हैं। कुछ सिक्के जयपुर के इलाके में भी मिले हैं। ये सिक्के खरोष्ठी में हैजो पंजाब की लिपि थी। इससे स्पष्ट है कि इनका उधर (पजाब) से ही इधर (राजस्थान) आना हुआ था। नासिक के उसवादत के गुहा लेख से भी यह बात प्रमाणित होती है। उसव दत्त क्षत्रप नह्पान का दामाद था। नह्पान को मालवों ने चुनौती दी थी। समुद्र गुप्त के समय भी इनकी उपस्थिति है। अर्जुनायतयौधेय और आभीरों के साथ इनका जिक्र है। समुद्र गुप्त के समय ये राजपूताने और मंदसौर क्षेत्र में जा बसे। कोटा के काम सुवाम और चितौर के नगरी में स्कन्द गुप्त के समय में ये बस चुके थे।

ताराराम

जोधपुर (राजस्थान)

‘मेघवंश – इतिहास और संस्कृति’ के लेखक


ताराराम – जीवन परिचय

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