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Hans Raj Bhagat, Advocate – हंसराज भगत, एडवोकेट

Hans Raj Bhagat, Advocate हंसराज भगत, एडवोकेट
वही समय था जब 1882 में भारत सरकार द्वारा कराई गई पहली जनगणना से मालूम हुआ कि अछूत कहे जाने वाले कई लाख लोग नाममात्र के हिंदू थे. उन्हें अपनी मनमर्ज़ी के अनुसार कार्य करने और शिक्षा लेने का अधिकार नहीं था. शोर मचाया जा रहा था कि उन्हें ईसाई बनाया जा रहा है.
वही समय था जब 1889 तक पंजाब में आर्यसमाज की स्थापना हो चुकी थी. पंजाब के एक आर्यसमाजी कार्यकर्ता लाला गंगाराम ने बताया कि 1880 में मेघों ने स्यालकोटी आर्यसमाजियों से आवेदन किया था कि उनके सामाजिक स्तर का पुनर्निधारण किया जाए और उसे ऊँचा उठाया किया जाए. उन्होंने ईसाई, इस्लाम और सिख धर्मों के उदाहरण दिए जिनमें जाति और धर्म आधारित भेदभाव नहीं था. लेकिन हिंदुओं ने इसका कटुतापूर्वक लगातार विरोध किया. (मेघों द्वारा ऐसे आवेदन की पुष्टि अभी नहीं हो पाई है). कहा जाता था कि लाला गंगाराम द्वारा लगातार दबाव देने से आर्यसमाज की कार्यकारी समिति ने यह कार्य एक रजिस्टर्ड संस्था आर्य मेघ उद्धार सभाको सौंपने का निर्णय लिया.
वही समय था जब मेघों को शुद्धिकरणकी प्रक्रिया से गुज़ार कर हिंदुओं के सबसे निचले वर्ण में शामिल करते हुए आर्यसमाज में दाख़िल किया गया. दावा किया गया कि आर्यसमाजियों ने स्यालकोट के 36000 मेघों का शुद्धिकरण करके उन्हें आर्य बनाया था. उनके कुछ बच्चों ने आर्समाज द्वारा चलाए जा रहे प्राइमरी स्कूलों में जाना शुरू किया.
अपने स्वभाव के अनुरूपमेघ अपनी गरीबी और विनम्रता के कारण धार्मिक प्रकृति के थे. इसीलिए लाला गंगाराम उन्हें भगतकह देता था. मेघों ने भगतनामकरण स्वीकार कर लिया क्योंकि इस क्षेत्र में आर्यसमाज के आने से पहले अधिकांश मेघवंशी मध्यकालीन संतों कबीर आदि के प्रति आस्था रखते थे. उन संतों को भारतीय समाज सदियों से भगतकहता आ रहा था.
वही समय था जब डालोवालीगाँव के निवासी हंसराज भगत और ननजवाल गाँव के निवासी जगदीश मित्र ने 1935 तक आर्यसमाज के प्रयत्नों से शिक्षा प्राप्त की और दोनों कानून के स्नातक (LLB) हुए.
इसी दौरान सन् 1925 मेंबाबू मंगूराम मुग्गोवालिया, निवासी गाँव मुग्गोवाल, तहसील गढ़शंकर, ज़िला होशियारपुर ने एक संगठन आदधर्म (आदि धर्म) मंडल बनाया और एक आंदोलन शुरू किया. यह अछूतों के इस पक्ष को बताता था कि वे भारत में आर्यों के आने से भी पहले के बाशिंदे हैं जो सप्तसिंधु या ग्रेटर पंजाब में रहते आए थे. इस आंदोलन के प्रभाव को रोकने के लिए आर्यसमाज (हिंदुओं/ब्राह्मणों) ने पूरी शक्ति लगा दी थी. यह आदधर्म आंदोलन मेघ समुदाय को अधिक आकर्षित नहीं कर सका क्योंकि यह समुदाय पहले ही आर्यसमाजी हिंदू विचारधारा के प्रचार से प्रभावित हो चुका था.
ऊपर बताए गए दो युवकों में से भगत जगदीश मित्र की जीवन अवधि छोटी रही.भगत हंसराज स्यालकोट में वकालत करने लगे.भगत हंसराज आदधर्म आंदोलन के प्रति आकर्षित थे और उन्होंने एक आदधर्मीलड़की सेविवाह भीकिया. आर्यसमाजियोंको यह बात पसंद नहीं आई. सीकारण भगत हंसराज के आर्यसमाजी मित्र उनकेविवाह समारोह में शामिल नहीं हुए खासकरयहतर्क दे करकि शुद्ध किए गए मेघ भगततुलनात्मक रूप सेऊँची जाति के लोग हैं और किआदधर्मियों के साथ उनका रोटीबेटीका संबंध नहीं है. तब तक भगत हंसराज जीडॉ. भीमरावअंम्बेडकर और बाबू मुग्गोवालियाके विचारों से बहुत प्रभावित हो चुकेथे. यह बात आर्यसमाजियों को रास नहीं आ रही थी.अंबेडकर के विचारों के अनुरूपभगत हंसराज चाहते थे कि दलित लोग जाति व्यवस्था से ऊपर उठें.
उधर लाला गंगाराम ने मेघ उद्धार सभाबना कर अंग्रेज़ सरकार से सभा के लिए कुछ बंजर ज़मीन लीज़ पर ली जो तहसील खानेवाल, ज़िला मुल्तान में पडती थी. इस पर कुछ मेघ परिवारों को बसा कर उन्हें खेती करने के लिए रखा गया. इस भूखंड को मेघ नगरनाम दिया गया. खेती करने वाले मेघों को फसल का 50 प्रतिशत हिस्सा मिलता था. आगे चल कर मेघ टेनेंट्स ने दबाव बनाया कि उनका हिस्सा दो तिहाई किया जाए. लाला गंगाराम इस पर राज़ी नहीं था और उसके साथ कुछ हाथापाई भी हुई.
कानून के जानकार हंसराज भगत मेघ उद्धार सभा‘ (जो लाला गंगाराम के नेतृत्व में ही बनी थी)के नाम से बने ट्रस्ट द्वारा इन बँटाईदार (Share cropper) मेघों के शोषण की वास्तविक कथा जानते थे. यह ज़मीन अंग्रेज़ सरकार ने ट्रस्ट को लीज़ पर दी थी और बँटाईदार के तौर पर मेघों को बहुत कम मेहनताना मिल रहा था. समाजसेवा के इस प्रत्यक्ष नाटक के पीछे कुछ गलत था कि जो इसके विरुद्ध आवाज़ उठी. हाथापाई हुई. एक केस एडवोकेट हंसराज की अगुवाई में कोर्ट ले जाया गया. ट्रस्ट का प्रतिनिधित्व गंगाराम कर रहा था. एडवोकेट हंसराज केस जीत गए. स्पष्ट शब्दों में कहें तो उन्होंने यह केस मेघों के तथाकथित महान सुधारक लाला गंगाराम के विरुद्ध जीता था. केस जीतने के बाद वे बँटाईदारमेघ किसान ज़मीनों के मालिक बन गए.
यहाँ इस बात का उल्लेख करना ज़रूरी है कि भगत हंसराज निवासी गाँव डालोवालीको 1935 तक अपनी बीएएलएलबी की शिक्षा के लिए आर्यसमाज से वित्तीय सहायता मिलती रही थी. यद्यपि वे अपनी शिक्षा के लिए आर्यसमाज के आभारी थे लेकिन स्वाभाविक ही वे देश भर के दलितों के इतिहास और उनकी स्थिति संबंधी डॉ. अंबेडकर के विचारों और उनके साहित्य के प्रति आकर्षित थे और बाबू मंगूराम के आदधर्म आंदोलन से लगाव रखने लगे थे. इसे उन आर्यसमाजियों ने नापसंद किया जो शिक्षा के लिए हंसराज को दी वित्तीय सहायता के बदले उनमें एक ज़बरदस्त हिंदूवादी आर्यसमाजी कार्यकर्ता देखने का सपना पाले हुए थे. असल में वे विश्वास ही नहीं कर पा रहे थे कि वह युवक मेघ भगतों को न्याय दिलाने के लिए अदालत चला जाएगा और केस जीत जाएगा.
शिक्षित व्यक्तियों में से भगत हंसराज ही अपने समुदाय में शायद ऐसे थे जिन्होंने उन दिनों अंबेडकर की भाँति अंतर्जातीय विवाह किया था. इसी कारण से मेघों सहित उनके कुछ आर्यसमाजी मित्र बुलावे के बावजूद उनके विवाह में नहीं आए और बहिष्कार करते हुए हंसराज जी को बिरादरी से छेक दिया गया.
लोग बताते हैं कि जिस मेघ समूह ने आदधर्मी लड़की से शादी करने पर हंसराज भगत का सामाजिक बहिष्कार किया था उसी समूह ने राज्य की विधानसभा के चुनाव में हंसराज भगत के विरुद्ध खड़े चौधरी सुंदर सिंह के हक में सक्रिय रूप से प्रचार करके मेघों के वोट दिलाए. ये सुंदर सिंह आदधर्मी थे. इससे मेघ समुदाय के व्यवहार का अजीब अंतर्विरोध सामने आता है.
कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली द्वारा अक्तूबर 1966 में प्रकाशित डॉ. अंबेडकर का साहित्य और संभाषण‘ (Writings and Speeches of Dr. Ambedkar, published by Ministry of Welfare, G.O.I., New Delhi, Oct. 1966 Edition) से यह रुचिकर बात पता चलती है कि पंजाब के आर्य हिंदू इस बात पर असहमत थे कि मेघों जैसे समुदाय अछूतों में आते थे. फिर भी डॉ. अंबेडकर से समर्थन प्राप्त भगत हंसराज के प्रयासों के कारण मेघों को अनुसूचित जातियों में रखा गया. यदि आर्य हिंदू सफल हो जाते तो आज़ादी के बाद मेघों को नौकरियों में आरक्षण का लाभ नहीं मिल पाता जिसका महत्व और असर आज सबके सामने है.
यहाँ इस बात का पुनः उल्लेख आवश्यक है भगत जी ने कि आज़ादी से पहले 1937 में स्टेट असेंबली चुनावों में यूनियनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में इलैक्शन लड़ा लेकिन वे कांग्रेस के चौधरी सुंदर सिंह से चुनाव हारे. इसकी वजह यह रही कि चिढ़े हुए आर्यसमाजियों ने गाँव पोथाँ, ज़िला स्यालकोट के निवासी भगत गोपीचंद को उनके विरुद्ध चुनाव में खड़ा कर दिया और मेघों के वोट बँट गए. आगे चल कर 1945 में भगत हंसराज को आदधर्मी समुदाय का समर्थन मिला और वे यूनियनिस्ट पार्टी की ओर से विधान परिषद के सदस्य मनोनीत हो गए और अनुसूचित जातियों का प्रतिनिधित्व किया.
पंजाब के हिंदू, मुसलमानों, दलितों और सिखों के हितों का ध्यान रखने के लिए गठित दस सदस्यीय पंजाब स्टेट फैंचाइज़ कमिटिमें एडवोकेट हंसराज भगत और के. बी. दीन मोहम्मद को सदस्य नियुक्त किया गया. हिंदुओं में सर छोटू राम और पंडित नायक चंद (सनातनी आर्यसमाजी प्रतिनिधित्व) भी इसमें सदस्य थे. समिति के नौ सदस्यों (हिंदू और एक सिख प्रतिनिधि) ने रिपोर्ट दी कि यह कहना असंभव था कि उस समय के अविभाजित पजाब में कोई दलित समुदाय था जिनके धर्म को लेकर उनके सिविल अधिकारों का उल्लंघन हुआ हो. तथापि उन्होंने यह भी जोड़ा कि गाँवों में ऐसे वर्ग थे जिनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति निश्चित रूप से दयनीय थी. उन्होंने यह भी रिपोर्ट किया कि हालाँकि मुस्लिमों में कोई दलित नही हैं फिर भी हिंदुओं और सिखों में दलित थे और उस समय के अविभाजित पंजाब में उनकी कुल जनसंख्या 1,30,709 थी.
इस प्रकार पंजाब की समिति ने सीधे तौर पर बहुमत से इंकार कर दिया कि पंजाब में दलितों या अछूतों का कोई अस्तित्व था. वास्तव में अछूत‘ (untouchable) शब्द का प्रयोग दलितशब्द के स्थान पर किया गया था ताकि किसी की भावनाओं को चोट न पहुँचे. तथापि एडवोकेट हंसराज ने अपने अलग से प्रस्तुत असहमति (dissenting) नोट में उल्लेख किया कि दलित समुदायों की सूची अपूर्ण थी क्योंकि मेघों सहित कई समुदायों को इससे बाहर रखा गया था. आगे चल कर उनके असहमति नोट को महत्व दिया गया और उस पर सकारात्मक कार्रवाई करते हुए पंजाब के दलित समुदायों को अनुसूचित जातियों में शामिल किया गया.
श्री यशपाल, आईईएस से बातचीत के दौरान पता चला है कि हंसराज जी ने अपने एक नज़दीकी रिश्तेदार की बेटी को गोद लिया था जिसकी शादी आगे चल कर मेघ समुदाय के श्री खज़ानचंद जी से तय हुई थी जो उन दिनों रेलवे में स्टेशन मास्टर (शायद मेघों में पहले) के पद पर नियुक्त हुए थे. लेकिन विवाह से कुछ ही पहले उनका निधन हो गया.
स्वतंत्र भारत में आने पर हंसराज भगत दिल्ली के करोल बाग में रहने लगे. वे वकील के रूप में कार्य करते रहे. करोल बाग में ही भगत गोपीचंद के बेटे महिंदर पाल ने 1965 से 1966 के बीच उनसे भेंट की. उनके जन्म और देहांत की सही तिथि ज्ञात नहीं हो सकी है न ही कोई फोटो प्राप्त हो सकी है. संभवतः हंसराज जी का परिवार विदेश में बस गया था.
अंत में यह बताना भी ज़रूरी है कि भारत विभाजन के बाद सेटेलमेंट मंत्रालय में एडवाइज़र सुश्री रामेश्वरी नेहरू, भगत हंसराज और श्री दौलत राम (मेघ) भगत गोपीचंद और भगत बुड्ढामल सभी ने समन्वित प्रयास किया और स्यालकोट से भारत में आए मेघों को अलवर (राजस्थान) आदि जगहों पर ज़मीनें दिला कर बसाया गया. भगत हंसराज राजनीति रूप से सक्रिय थे, श्री दौलत राम सेटेलमेंट ऑफिसर थे. इस टीम ने बहुत अच्छा कार्य किया और सफल रही. लाभ उठाने वाले भगतों में वे लोग भी शामिल थे जो कभी हंसराज भगत के विरोधी रहे थे.
आर्यसमाज और लाला गंगाराम का प्रयोजन और उद्देश्य चाहे कुछ भी क्यों न रहा हो, उन्होंने मेघों की शिक्षा के लिए जितना भी किया वह मेघों के लिए लाभकारी हुआ हालाँकि आज़ादी के बाद मेघ समुदाय आर्यसमाज के एजेंडा में कहीं नहीं दिखता. दूसरी ओर एडवोकेट भगत हंसराज और डॉ. अंबेडकर ने पंजाब के मेघों और अन्य दलित जातियों को अनुसूचित जातियों की अनुसूची में शामिल कराने के लिए जो संघर्ष और कार्य किया उसने उनकी आर्थिक हालत को सुधारने में बहुत मदद की और आज उनके कार्य के कारण पंजाब के कई लाख दलित निम्न मध्यम और मध्यम वर्ग मे आ चुके हैं. इस लिए सभी दलित समुदायों के साथसाथ मेघों के पक्ष से उनके अग्रणी हीरो एडवोकेट भगत हंसराज हैं. जिनके संघर्ष का लाभ मेघों की आने वाली पीढ़ियाँ महसूस करेंगी.
(उक्त जानकारियाँ सर्वश्री आर.एल. गोत्रा, यशपाल जी, मोहिंदर पाल और डॉ. ध्यान सिंह के सौजन्य से प्राप्त हुई हैं. उनका आभार. एडवोकेट भगत हंसराज जी के बारे में बेसिक जानकारी उपलब्ध नहीं हो पाई है. यदि कोई सज्जन उसकी तथ्यात्मक जानकारी दे सकें तो इस ईमेलbhagat.bb@gmail.comपर भेज सकते हैं.)

Bhagata Sadh – भगता साध

As revealed by the history of famines during the 19TH century, because of hunger and tormenting poverty, many people among the communities like Meghs had even started eating the flesh of animals, dead or otherwise. Hunger also compelled them to eat the left-over food of both the Muslims and Hindus. However, Basith and Dhian (sub-castes among Meghs in Jammu province) did not develop such habits. Because of this reason, they started keeping aloof from the other Meghs or Mihnghs. 

 However, the issue was resolved through the efforts of Baba Bhagata Sadh r/o Vill. Khairi, Dist. Jammu, who later on came to be known as ‘Guru of Keran’. Consequently, by a contract which was concluded and signed in 1879, through the influence of a ‘Guru of Keran’, the representatives of Meghs hailing from different areas pledged themselves to total abstinence from it. A breach of this agreement made a man liable to pay Rs. 25 to the Government, Rs. 5 to the headmen of village, and a sum, fixed according to the means of the offender, as a penalty was to be paid to the brotherhood (Biradari). In default of payment, he was liable to exclusion from the caste. This contract did have a good impact over the people and since then the Meghs have generally believed in vegetarian food habits.


(यह सूचना श्री रतन गोत्रा जी के एक आलेख Meghs of India से मिली है. यह भी सुनने में आया है कि भगता साध के अनुयायी आज उनकी जीवन-कथा के साथ कुछ चमत्कारों के जुड़ने की बातें भी बताते हैं.)

All India Satguru Kabir Sabha – आल इंडिया सत्गुरु कबीर सभा – (1958)

कल 03-08-2012 को आर्य समाज मंदिरसैक्टर-16चंडीगढ़ में श्रीमती तारा देवी की रस्म क्रिया के बाद भगत प्रेम चंद जी ने एक स्मारिका (Souvenir/सुवेनेयर – 2012-13) मुझे दी. 

आल इंडिया सत्गुरु कबीर सभा (1958)मेन बाज़ारभार्गव नगरजालंधर का नाम सुना था लेकिन मेरी जानकारी में नहीं था कि सभा (AISKS) ने इस वर्ष ऐसी स्मारिका का प्रकाशन किया है. इस स्मारिका को देख कर सुखद आश्चर्य हुआ.
सुखद आश्चर्य इस लिए कि ये स्मारिकाएँ संस्था द्वारा संपन्न कार्यों का प्रकाशित दस्तावेज़ होता है. इसमें कार्यों की भूमिकाउनके महत्वसंबंधित विषयों पर आलेखकार्यकर्ताओं और संगठन की गतिविधियों के बारे में जानकारी आदि होते हैं जो धीरे-धीरे एक इतिहास का निर्माण करते हैं. इस स्मारिका में यह सब कुछ दिखा.
यह स्मारिका सत्गुरु कबीर के 614वें प्रकाशोत्सव (04-06-2012) के अवसर पर जारी की गई थी. इसका संपादन श्री विनोद बॉबी (Vinod Bobby) ने किया है और उप संपादक श्री गुलशन आज़ाद (Gulshan Azad) हैं.
इस स्मारिका में काफी जानकारियाँ हैं. लेकिन जो मुझे अपने नज़रिए से महत्वपूर्ण लगीं उनका उल्लेख यहाँ कर रहा हूँ. इसका संपादकीय जालंधर में कबीर मंदिरों (Kabir Temples) के विकास की संक्षिप्त कथा कहता है और इसमें शामिल आलेख कबीर से संबंधित जानकारी देते है. राजिन्द्र भगत द्वारा श्री अमरनाथ (आरे वाले) पर लिखा आलेख सिद्ध करता है कि अपने समाज के अग्रणियों पर अच्छा लिख कर हम आने वाली संतानों के लिए आदर्श जीवनियों का साहित्य निर्माण कर सकते हैं. यह अच्छी भाषा में लिखा आलेख है. ‘अंतर्राष्ट्रीय संस्कृति पीठ – कबीर भवन’ पर लिखा आलेख प्रभावित करता है.
स्मारिका में प्रकाशित विज्ञापन बताते हैं कि मेघ भगतों ने इसके प्रकाशन में खूब सहयोग दिया है. बहुत-बहुत बधाईक्योंकि यह करने योग्य कार्य है.
इस सभा के संस्थापकों में आर्यसमाज के अनुयायी मेघ भी कबीर सभा की इस स्मारिका में दिखे जो मेघ समाज में हो रहे परिवर्तन का द्योतक है. आर्यसमाजी विचारधारा के कारण मेघ भगत समाज ने कबीर और डॉ. भीमराव अंबेडकर को बहुत देर से अपनाया. यह देख कर अच्छा लगा कि इस स्मारिका में विवादास्पद लेखक श्री एल. आर. बाली (L.R. Bali) (‘भीम पत्रिका’ के संपादक) का आलेख भी छापा गया है जिन्होंने अपना पूरा जीवन अंबेडकर मिशन को समर्पित कर दिया है. मुझे आशा है कि मेघ भगत देर-सबेर डॉ. अंबेडकर, जो स्वयं कबीरपंथी थे, को जाने-समझेंगे.
स्मारिका में सभा के कार्यकर्ताओं का टीम अन्ना के साथ दिखना राजनीतिक संकेत करता है और यह अच्छा है.

आशा है कि मेघ भगतों के अन्य संगठन भी ऐसी स्मारिकाएँ छापने के बारे में विचार करेंगे. 

 स्मारिका की पूरी पीडीएफ फाइल आप नीचे दिए इस लिंक पर क्लिक करके देख सकते हैं


Souvenir (p. 1-32)

Souvenir (p. 33-64)

मेघ भगत