रिटायर होने के बाद कई बार ऐसी बातें याद आती हैं जिन्हें अन्यथा हमने कभी मुड़ कर याद नहीं किया होगा. राष्ट्रीय पक्षी मोर की एक ऐसी स्मृति मैं आपसे साझा करना चाहता हूँ.
Monthly Archives: May 2011
In search of inner peace – इसे भी शांति की तलाश है
Doomsday – Prophecies of Saints – प्रलय – सन्तों की भविष्यवाणियाँ
Bhagat Munshi Ram |
इससे भविष्यवाणियों की सच्चाई स्पष्ट हो जानी चाहिए क्योंकि दुनिया चल रही है.
MEGHnet
Baba Faqir Chand and The Secret-2
Baba Faqir Chand |
(पिछली पोस्ट में शारीरिक जीवन शक्ति का महत्व और उसका रहस्य था. इसे रॉण्डा बर्न (Rhonda Byrne) की पुस्तक ‘The Secret’ में कोई विशेष महत्व नहीं दिया गया. इस पोस्ट में मानसिक जीवन शक्ति के रहस्य का उद्घाटन है जिसे रॉण्डा बर्न ने अपनी पुस्तक का मुख्य बिंदु रखा है. विचार और संकल्प की जो बनावट बाबा फकीर ने बताई है वह उनके आंतरिक विश्लेषण की परिपक्वता का ज्वलंत उदाहरण है जिसका मैं कायल हूँ.)
Baba Faqir Chand and The Secret-1
प्राचीन काल के महापुरुषों की रचनाएँ व हमारे ग्रंथ विभिन्न रूपों में उपरोक्त कथन का समर्थन करते हैं.”
Yogini Mata (Tripta Devi) – योगिनी माता (तृप्ता देवी)
Young Yogini |
योगिनी के विचार ‘राधास्वामी स्टड़ीज़’ पर एक ‘बौद्धिक परीक्षण’ से गुज़र रहे हैं.
Yogini at 71 now |
Caste Census – जाति आधारित जनगणना
लगभग सभी राजनीतिक दल जाति आधारित जनगणना के समर्थन में आए हैं. जातिगत जनगणना के विरोधी अपने कुतर्कों के साथ अपना पक्ष रख रहे हैं. एक पक्ष जातिगत जनगणना की जगह केवल ओबीसी की गणना कराना चाहता है. ऐसे शार्टकट विचारहीनता ही दर्शाते हैं.
ओबीसी गणना के समर्थकों का तर्क है कि कुल आबादी से दलित , आदिवासी और ओबीसी आबादी के आंकड़ों को निकाल दें तो इस देश में “हिंदू अन्य” यानी सवर्णों की आबादी का पता चल जाएगा. सवर्णों के लिए तो इस देश में सरकारें किसी तरह का विशेष अवसर नहीं देतीं अतः सवर्ण जातियों के अलग आंकड़े एकत्रित करने से मिलेगा क्या? जो भी व्यक्ति जनगणना के दौरान खुद को दलित, आदिवासी या ओबीसी नहीं लिखवाएगा, वह सवर्ण होगा. यह अपने आप में ही अवैज्ञानिक विचार है. इस आधार पर कोई व्यक्ति अगर खुद को जाति से ऊपर मानता है और जाति नहीं लिखाता, तो भी जनगणना में उसे सवर्ण (हिंदू अन्य) गिना जाएगा. जबकि वास्तविकता कुछ और होगी.
यदि कोई व्यक्ति अल्पसंख्यक की श्रेणी में दर्ज छह धर्मों में से किसी एक में अपना नाम नहीं लिखाता, उसे हिंदू मान लिया जाता है. यानी कोई व्यक्ति अगर आदिवासी है और अल्पसंख्यक श्रेणी के किसी धर्म में अपना नाम नहीं लिखाता, तो जनगणना कर्मचारी उसके आगे “हिंदू” लिख देता है. इस देश के लगभग 8 करोड़ आदिवासी जो न वर्ण व्यवस्था मानते हैं, न पुनर्जन्म और न हिंदू देवी-देवता, उन्हें इसी तरह हिंदू गिना जाता रहा है. उसी तरह अगर कोई व्यक्ति किसी भी धर्म को नहीं मानता, तो भी जनगणना की दृष्टि में वह हिंदू है. अगर जातिगत जनगणना की जगह दलित, आदिवासी और ओबीसी की ही गणना हुई तो किसी भी वजह से जो “हिंदू” व्यक्ति इन तीन श्रेणियों में अपना नाम नहीं लिखाता, उसे जनसंख्या फॉर्म के हिसाब से “हिंदू अन्य” की श्रेणी में डाल दिया जाएगा. इसका नतीजा हमें “हिंदू अन्य” श्रेणी की बढ़ी हुई संख्या की शक्ल में देखने को मिल सकता है. अगर “हिंदू अन्य” का मतलब सवर्ण लगाया जाए तो पूरी जनगणना का आधार ही गलत हो जाएगा. दलित, आदिवासी और ओबीसी की लोकतांत्रिक शक्ति का आकलन नहीं हो पाएगा.
साथ ही अगर जनगणना फॉर्म में तीन श्रेणियों आदिवासी , दलित और ओबीसी और अन्य की श्रेणी रखी जाती है, तो चौथी श्रेणी ‘सवर्ण’ रखने में क्या समस्या है. यह कहीं अधिक वैज्ञानिक तरीका होगा.
भारतीय समाज में राजनीति से लेकर शादी-ब्याह तक के फैसलों में जाति अक्सर निर्णायक पहलू के तौर पर मौजूद है. ऐसे समाज में जाति की गिनती को लेकर भय क्यों है? जाति भेद कम करने और आगे चलकर उसे समाप्त करने की पहली शर्त यही है कि इसके सच को स्वीकार किया जाए और जातीय विषमता कम करने के उपाय किये जाएं. जातिगत जनगणना जाति भेद के पहलुओं को समझने का प्रामाणिक उपकरण साबित हो सकती है. इस वजह से भी आवश्यक है कि जाति के आधार पर जनगणना करायी जाए.
कहा जाता है कि ओबीसी नेता संख्या बल के आधार पर अपनी राजनीति मजबूत करना चाहते हैं. लोकतंत्र में राजनीति करना कोई अपराध नहीं है और संख्या बल के आधार पर कोई अगर राजनीति में आगे बढ़ता है या ऐसा करने की कोशिश करता है, तो इस पर किसी को एतराज क्यों होना चाहिए? लोकतंत्र में फैसले अगर संख्या के आधार पर नहीं होंगे, तो फिर किस आधार पर होंगे?
जनगणना प्रक्रिया में यथास्थिति के समर्थकों का एक तर्क यह है कि ओबीसी जाति के लोगों को अपनी संख्या गिनवाकर क्या मिलेगा. उनके मुताबिक ओबीसी की राजनीति के क्षेत्र में बिना आरक्षण के ही अच्छी स्थिति है. मंडल कमीशन के बाद सरकारी नौकरियों में उन्हें 27 फीसदी आरक्षण हासिल है. केंद्र सरकार के शिक्षा संस्थानों में भी उन्हें आरक्षण मिल गया है. वे आशंका दिखाते हैं कि हो सकता है कि ओबीसी की वास्तविक संख्या उतनी न हो, जितनी अब तक सभी मानते आए हैं.
अगर देश की कुल आबादी में ओबीसी की संख्या 27 फीसदी से कम है, तो उन्हें नौकरियों और शिक्षा में 27 फीसदी आरक्षण क्यों दिया जाना चाहिए? यूथ फॉर इक्वैलिटी जैसे संगठनों और समर्थक बुद्धिजीवियों को तो इस आधार पर जाति आधारित जनगणना का समर्थन करना चाहिए!
अगर बौद्धिक विमर्श से देश चल रहा होता, तो नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण कभी लागू नहीं होता. जाहिर है लोकतंत्र में जनता की और संख्या की ताकत के आगे किसी का जोर नहीं चलता. इस देश में जातीय जनगणना के पक्ष में माहौल बन चुका है. यह साबित हो चुका है कि इस देश की लोकसभा में बहुमत जाति आधारित जनगणना के पक्ष में है.
1 comments:
- जातिगत जनगणना पर अच्छा लेख लिखा है दिलिप मंडल जी ने लेख हम तक पहुचाने के लिए धन्यवाद
Baba Sahab Ambedkar belonged to a Kabirpanthi Family – बाबा साहब अंबेडकर कबीरपंथी परिवार से थे
2 comments:
- एक नई जानकारी प्रदान करने के लिए आभार।
- मेरे लिए एकदम नई जानकारी है ये धन्यवाद
Kabir of South India – Thiruvalluvar) – दक्षिण का कबीर – तिरुवल्लुवर
3 comments:
- इतनी जानकारी देने के लिए बधाई
- Extra ordinary information.congratulations
- Thanks for the information.
Why there is no unity in Megh community-1 (Indian System of Slavery and Meghvansh) – मेघवंश समुदाय में एकता क्यों नहीं होती-1- भारतीय दास प्रणाली और मेघवंश
प्रतिदिन यह प्रश्न पूछा जाता है कि मेघवंशियों में एकता क्यों नहीं होती. इस प्रश्न की गंभीरता का रंग अत्यंत काला है जिसे रोशनी की ज़रूरत है. यदि मेघवंशियों का आधुनिक इतिहास लिखा जाए तो उसमें एक वाक्य अवश्य लिखा रहेगा कि इनमें एकता नहीं है. एकता न होना एक नकली चीज़ है जो गुलामी का जीवन जी रहे/जी चुके लोगों में पाई जाती है. यह एक मानसिकता है जो यात्नाएँ दे कर गुलामों में विकसित की जाती है. उन्हें विश्वास दिलाया जाता है कि वे न तो एक हैं और न ही एक हो सकते हैं. उनके समूहों के नाम, धर्म आदि अलग कर दिए जाते हैं. उन्हें यह विचार दिया जाता है कि उनका धर्म, जाति या दर्जा अलग-अलग है. इस तरह उन्हें एक-दूसरे से अलग रहने की आदत डाल दी जाती है और सामाजिक दबाव से मजबूर किया जाता है कि वे एक दूसरे से संपर्क न बढ़ाएँ. जाति आधारित इस गुलामी (Caste based slavery), जिसे भारतीय गुलामी (Indian slavery) कहा जाता है, में बने रहने की मजबूरी याद दिलाई जाती रहती है. इससे उन्हें मानवीय अधिकारों (Human rights) से दूर रखना आसान हो जाता है. वे शिक्षा, कमाई के बेहतर साधनों, सम्मानपूर्ण जीवन आदि से दूर कर दिए जाते हैं. यदि शिक्षा द्वारा इस तथ्य को समझ लिया जाए तो इस मानसिकता से पूरी तरह पार पाया जा सकता है और सामाजिक एकता लाई जा सकती है. इसका लाभ यह होगा कि आत्मविश्वास बढ़ेगा और सब के साथ मिल कर चलने की शक्ति आएगी. लोकतंत्र में अपने विकास के मुद्दों पर बात कहने के लिए सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक मंच साझा करने की और संगठन की आवश्यकता है. एक मंच पर आएँ. अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का यही एक रास्ता है.
2 comments:
- एकता तो ज़रूरी है, मेघवंश समुदाय में भी और सब समुदायों के बीच भी, तभी सच्चा विकास संभव है… जब तक लोग एक दुसरे को नीचा दिखाने या गुलाम बनाने की सोच रखेंगे… देश का विकास नहीं हो पाएगा. एक अच्छी पोस्ट जिसमें सालों साल चले आ रहे अन्याय के प्रति पीड़ा साफ़ झलकती है. इश्वर करे की सभी मिल के आगे बड़ सकें
- Education is the answer indeed !