2. हालाँकि व्यक्ति के धर्म और लोक धर्म में कई बातें समान हो सकती हैं. उनके बारीक ताने–बाने को बुद्धिजीवी क्रमवार समझने का प्रयास करते हैं. कबीर, महात्मा ज्योतिराव फुले और डॉ. अंबेडकर की परंपरा में कइयों ने यह कार्य किया है लेकिन हम उनकी वाणी पढ़–सुना कर धन्य हो जाते हैं. उनकी कही बातों में छिपे इतिहास और परंपरा को समझने का प्रयास नहीं करते.
Baba Ramdev |
Dhani Matang Dev |
4. पंजाब के जो मेघ भारत विभाजन के बाद भारत में आ गए वे आर्यसमाज के एजेंडा से बाहर हो गए. राजनीतिक रूप से यहाँ हिंदुओं के रूप में उनकी कोई ज़रूरत नहीं रह गई थी. साथ ही वे कई अन्य धर्मों/पंथों में बँट गए जैसे राधास्वामी, निरंकारी, ब्राह्मणीकल सनातन धर्म, सिख धर्म, ईसाई धर्म, विभिन्न गुरुओं के डेरे–गद्दियाँ आदि. सच्चाई यह है कि जिसने भी उन्हें ‘मानवता और समानता‘का बोर्ड दिखाया वे उसकी ओर पाँच रुपया और हार लेकर दौड़ पड़े. इससे उनका सामाजिक स्तर तो क्या बदलना था, धार्मिक दृष्टि से उनकी अलग पहचान की संभावना भी पतली पड़ गई. राजनीतिक पार्टियाँ अपने वोटों की गिनती करते समय हिंदुओं, सिखों, मुसलमानों और ईसाइयों के वोट गिनने के बाद “बाकियों के वोटो” में मेघों को गिन भर लेती हैं. विशेष महत्व नहीं देतीं. कारण यह कि मेघों ने सामूहिक निर्णय कम ही लिए हैं.
कला और धर्म के मेल से असीमित कृतियाँ बन सकती हैं. उससे कहीं धर्म तो गायब नहीं हो जाता? |
6. वे मंदिरों में जाना चाहते हैं लेकिन ब्राह्मणीकल धर्म के प्रति आशंकित भी हैं. गुलामी के दौर में अत्यधिक जातीय हिंसा झेलने और अशिक्षा के कारण वे जात–पात को भुलाने की प्रबल इच्छा रखते हैं लेकिन यह कैसे हो. जातिवाद को खत्म करने की इच्छा दलितों में है क्योंकि वे इससे पीड़ित हैं. गैर दलित जातियाँ इस बारे में गंभीर नहीं हैं.
8. युवा मेघ पूछते हैं कि शूद्र ‘खास अपने’ मंदिर क्यों नहीं बनाते? शायद वे नहीं जानते कि वे देवी–देवताओं की मूर्तियों वाले अपने खास मंदिर बना लेंगे (कबीर मंदिर को छोड़) तो अन्य जातियों के लोग विशेषकर ब्राह्मण उन पर कब्ज़ा जमाने के लिए आ जाएँगे क्योंकि मंदरों में धन लगातार टपकता है. यह एक भरा–पूरा व्यवसाय है. अपने समुदाय द्वारा बनाए गए कबीर मंदिरों में चढ़ा पैसा मेघ अपने उत्थान के लिए प्रयोग में ला सकते हैं. वैसे उन मेघों की संख्या काफी है जो इष्ट के रूप में कबीर को सब कुछ देने वाला मानते हैं और उससे शक्ति ग्रहण करते हैं.
9. कुछ मेघ इस अनुभव से गुज़रे हैं कि कई मंदिरों और धार्मिक स्थलों का प्रयोग जातीय भेदभाव फैलाने के लिए होने दिया जाता है. अतः वे भगवान को तो मानते हैं लेकिन इसके लिए किसी मंदिर में जाने की अनिवार्यता महसूस नहीं करते न ही वे ऐसे मंदिरों में दान देना चाहते हैं. वे समुदाय के लिए या कबीर मंदिर के लिए दान देने में विश्वास रखते हैं. तथाकथित हिंदू धर्म ग्रंथों (जो ब्राह्मणों द्वारा लिखे हैं) पर उनका विश्वास समाप्त हो रहा है क्योंकि ये ग्रंथ जातिवाद बढ़ाने में सहायक सिद्ध हो रहे हैं.
10. अंत में यह कहना पर्याप्त होगा कि मेघों में संशयवादी विचारधारा के लोग भी हैं जो भगवान, मंदिर, धर्मग्रंथों, धार्मिक प्रतीकों आदि की आवश्यकता महसूस नहीं करते बल्कि देश के संविधान पर भरोसा रखते हैं.
(श्री सतीश भगत द्वारा फेसबुक पर 24-10-2013 को आयोजित बहस इसका मुख्य आधार है)
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