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Megh Churn-3 – मेघ मथनी (मधाणी)-3

चाटी में रखा धर्म
बड़ीईईईई मुश्किल है. मिस्टर मेघ से बात करना ख़तरे से ख़ाली नहीं. वे हमेशा ज़मीनी बात कहें यह ज़रूरी नहीं लेकिन वे कड़ुवी बातें कहेंगे यह तय है. इस बार जब वे भार्गव कैंप (मेघ नगर) की गली में शहतूत के नीचे बिशना टी-शाप पर मिले तो जैसा कि होता आया है, विषय खिसक कर ऐसी जगह पहुँचा जिसका मुझे अनुमान नहीं था. मैंने ही शुरू किया था-
मैं– सर जीईईईई, जय हिंदअअ. कैसे हैं.
मि. मेघ– सुना भई, तेरी दोनों टाँगे चल रही हैं न?
मैं– क्यों सर जी, मेरी टाँग को क्या हुआ.
मि. मेघ– पिछली बार तेरे इतिहास की टाँग तोड़ दी थी मैंने, इस लिए पूछा. हा हा हा हा हा हा….
मैं– (उदास स्वर में) हाँ अंकल जी. अब हमें बिना टाँग से गुज़ारा करना पड़ेगा क्योंकि दूसरी भी टूटती नज़र आ रही है. बुरा न मनाना सर जी, हमारा इतिहास तो है नहीं, धर्म भी रसातल में जा रहा है.
मि. मेघ– क्या हुआ?बड़ा दुखी नज़र आ रहा है. तेरा सनातन धर्म तो आर्यसमाज है. उसकी बैसाखी टूट गई क्या?लगता है गायत्री मंत्र ने बेड़ा पार नहीं किया.
मैं– उस बैसाखी को टूटे तो 60 साल हो गए. अब समस्या बहुत गंभीर हो गई है.
मि. मेघ– ओह, तो तेरी समस्या धर्म है. तू खुद को हिंदू कहता है और हिंदू तेरे को हिंदू नहीं मानते. यही तेरी समस्या है तो दफ़ा हो जा.
मैं– क्या बात करते हो अंकल जी!!हम हिंदू नहीं तो फिर और क्या हैं? यही न कि हिंदुओं में सबसे नीचे रखे हुए हैं.
मि. मेघ– खोत्तेया, सब से नीचे रह कर तू खुश है. तभी तो तू महान है उल्लुआ.
मैं– तो क्या आप हिंदू नहीं हो?
मि. मेघ– हूँ. लेकिन एक अलग मायने में. होशियार रहता हूँ कि बीजेपी और आरएसएस के झाँसे में न आऊँ. ये तो निरा धोखा हैं.
मैं– यह तो आपमें कांग्रेस का भूत बोल रहा है. आप आधे तीतर और आधे बटेर हो चुके हो.
मि. मेघ– तू सही कह रहा है. पर तू मेरी छोड़, अपनी बता. चाय पीनी हो तो बात कर.
(चाय से बातचीत के दरवाज़े खुलते हैं. बिशना को कड़क चाय का आर्डर किया. कैरोसिन का स्टोव शूँ-शूँ करने लगा. भाप के साथ पत्ती की महक आने लगी.
मि. मेघ– चल, अब शुरू हो जा. चाय बन रही है.
मैं– अंकल जी, आपने भी सुना होगा कि बहुत से मेघ ईसाई बन गए हैं.
मि. मेघ– और तेरे पेट में दर्द उठता होगा?हैं?यदि तेरी यही समस्या है तो इसमें मेरी कोई दिलचस्पी नहीं. ओए बिशना आर्डर कैंसल कर.
मैं– बिशना आर्डर कैंसल नहीं होगा….मेघ जी यह बिरादरी की समस्या है. हम हैं ही कितने? पहले ही एकता की कमी है और हम और ज़्यादा बँट जाएँगे.
मि. मेघ– अच्छा…अच्छा…अच्छा. तो तुझे यह ग़म खाए जा रहा है!अच्छा यह बता कि तुझे यह ग़म कब से खा रहा है? जब से मेघ सिख, आर्य समाजी बने या मुसलमान हुए या फिर राधास्वामिए बन गए? अच्छा यह बता कि सिख, आर्यसमाजी, मुसलमान,राधास्वामिए या ईसाई बनने से पहले तुम्हारा कोई धर्म था?था तो कौन सा था?चल बता…
मैं– मैं नहीं जानता, बिल्कुल.
मि. मेघ– तो फिर दुखी क्यों होता है?तू कुछ नहीं है और ख़ुद को समझता भी है कि कुछ है. मतलब तू पहले कुछ भी नहीं था, और अब कुछ बन गया है. जो बनेगा, वो बँटेगा. इसमें कोई नई बात है क्या?तुझे यह तक तो पता नहीं कि तेरा पुराना धर्म क्या है. तो क्या तेरे पुरखे बिना धर्म के जीते आ रहे थे?डेरे-डेरियाँ क्या ऐसे ही बन गए? अक्ल की बात किया कर यार.
मैं– मैंने तो कहीं इसके बारे में पढ़ा नहीं.
मि. मेघ– मैं बताता हूँ. तेरा धर्म है- अनपढ़ता. (विरक्त हो कर) सारी उम्र ऐसे ही कट गई. बाकी भी कट जाएगी.
मैं– (खीझ कर) तो फिर आप बताओ न. क्या था धर्म हमारा?
मि. मेघ– तेरे मुँह में तो बस कोई खीर बना कर डाल दे. ख़ुद तो कुछ करना ही न पड़े. पुत्तर, स्टेट लाईब्रेरी में जाया कर. चल तेरे को एक शार्ट कट बता देता हूँ. कुछ न पढ़ सके तो अंबेडकर को पढ़ ले.
मैं– यूँ ही मारे जा रहे हो. कुछ बताओ तो सही. अंबेडकर के बारे में हो सकता है मैं कुछ जानता होऊँ.
मि. मेघ– अच्छा तो यह बता कि अंबेडकर का धर्म क्या था?
मैं– वो हिंदू थे, और क्या.
मि. मेघ– लक्ख लानत..
मैं– क्यों?
मि. मेघ– वे बौध थे.
मैं– (अचानक याद आने पर) हाँ-हाँ-हाँ-हाँ-हाँ, मैंने सुना था.
मि. मेघ– (चुभती आवाज़ में) बौध धर्म के नाम से अब तेरे पेट में फिर से दर्द उठ रहा होगा. नहीं? बिशना से तू चुल्लू भर पानी ले ले और डूब कर मर जा.
(बिशना की आँखें चमक उठीं)
बिशना– हंबेडकर ने कहा था चाचा, कि मैं नरक में पैदा तो हो गया था पर नरक में मरूँगा नहीं.
मि. मेघ– सुनलिया? जो तू नहीं जानता वह बिशना जानता है. अब धरती पर तेरे मरने के लिए कोई जगह नहीं. तू सिर्फ़ बिशना की चाय में डूब कर मर सकता है. चाय पकड़ ले…..और आखिरी बार समझ ले कि धर्म एक ऐसा नकली दही है जिसमें से कोई भी मधाणी मक्खन नहीं निकाल सकती.तू दुखी मत हुआ कर, मेघ बहुत स्याने लोग हैं इसका विश्वास रख.
मिस्टर मेघ कहीं भी, कुछ भी कह सकते हैं. लेकिन उन्होंने आख़िर तक मेघों के ईसाई बनने पर अपनी ओर से कुछ नहीं कहा. मिस्टर मेघ हैं ही मेघ, ऊँची सोच वाले, एकदम आसमानी. कोई कुछ भी बने, वे धर्म को लेकर परेशान नहीं होते. ईसाई मिशनरियों, आरएसएस ने शायद बरास्ता मि. मेघ के मेघों को जान लिया है. मेघ ईसाई भी बन रहे हैं और बुड्डा मल ग्रऊँड में आरएसएस की शाखा भी लगने लगी है. बहुत ख़ूब और जय हो !!
लेकिन समझ नहीं पा रहा हूँ कि मेघ एकता की बात पर मि. मेघ मुझे गोली क्यों दे गए? 

Megh churn-1 – मेघ मथनी-1

Megh churn-2 – मेघ मथनी-2

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Why there is no unity in Megh community-1 (Indian System of Slavery and Meghvansh) – मेघवंश समुदाय में एकता क्यों नहीं होती-1- भारतीय दास प्रणाली और मेघवंश

प्रतिदिन यह प्रश्न पूछा जाता है कि मेघवंशियों में एकता क्यों नहीं होती. इस प्रश्न की गंभीरता का रंग अत्यंत काला है जिसे रोशनी की ज़रूरत है. यदि मेघवंशियों का आधुनिक इतिहास लिखा जाए तो उसमें एक वाक्य अवश्य लिखा रहेगा कि इनमें एकता नहीं है. एकता न होना एक नकली चीज़ है जो गुलामी का जीवन जी रहे/जी चुके लोगों में पाई जाती है. यह एक मानसिकता है जो यात्नाएँ दे कर गुलामों में विकसित की जाती है. उन्हें विश्वास दिलाया जाता है कि वे न तो एक हैं और न ही एक हो सकते हैं. उनके समूहों के नाम, धर्म आदि अलग कर दिए जाते हैं. उन्हें यह विचार दिया जाता है कि उनका धर्म, जाति या दर्जा अलग-अलग है. इस तरह उन्हें एक-दूसरे से अलग रहने की आदत डाल दी जाती है और सामाजिक दबाव से मजबूर किया जाता है कि वे एक दूसरे से संपर्क न बढ़ाएँ. जाति आधारित इस गुलामी (Caste based slavery), जिसे भारतीय गुलामी (Indian slavery) कहा जाता है, में बने रहने की मजबूरी याद दिलाई जाती रहती है. इससे उन्हें मानवीय अधिकारों (Human rights) से दूर रखना आसान हो जाता है. वे शिक्षा, कमाई के बेहतर साधनों, सम्मानपूर्ण जीवन आदि से दूर कर दिए जाते हैं. यदि शिक्षा द्वारा इस तथ्य को समझ लिया जाए तो इस मानसिकता से पूरी तरह पार पाया जा सकता है और सामाजिक एकता लाई जा सकती है. इसका लाभ यह होगा कि आत्मविश्वास बढ़ेगा और सब के साथ मिल कर चलने की शक्ति आएगी. लोकतंत्र में अपने विकास के मुद्दों पर बात कहने के लिए सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक मंच साझा करने की और संगठन की आवश्यकता है. एक मंच पर आएँ. अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का यही एक रास्ता है.

Why there is no unity in Megh community-2

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2 comments:

Anjana (Gudia) said…

एकता तो ज़रूरी है, मेघवंश समुदाय में भी और सब समुदायों के बीच भी, तभी सच्चा विकास संभव है… जब तक लोग एक दुसरे को नीचा दिखाने या गुलाम बनाने की सोच रखेंगे… देश का विकास नहीं हो पाएगा. एक अच्छी पोस्ट जिसमें सालों साल चले आ रहे अन्याय के प्रति पीड़ा साफ़ झलकती है. इश्वर करे की सभी मिल के आगे बड़ सकें

ZEAL said…

Education is the answer indeed !

Why Megh community does not unite-2 – मेघ समुदाय में एकता क्यों नहीं होती-2

हाल ही में एक शहर में मेघ समुदाय ने शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के जन्मदिन पर एक कार्यक्रम का आयोजन किया. आजोजन सफल रहा. अधिक जानकारी लेने के लिए आयोजकों और मध्यम स्तर के तथा नए (युवा) नेताओं से बात की तो मतभेद और आरोप खुल कर सामने आ गए. यहाँ मेरा उद्देश्य उनका खुलासा करना नहीं है. ये मतभेद आदि तो केवल लक्षण मात्र हैं. यहाँ मैं उनके कारणों की जाँच करना चाहता हूँ.


हममें क्यों एकता नहीं होती….यह सवाल अब कई संदर्भों में उठने लगा है. दो-एक अधिक पिछड़े समुदाय मेघों से आगे निकल चुके हैं जिन्हें मेघ अपने से कमतर मानते थे. आगे बढ़ चुके समुदाय अब अन्य जातियों के साथ अधिक समन्वयन करके आर्थिक संपन्नता की ओर बढ़ चुके हैं और राजनीतिक सत्ता में उनकी भागीदारी बढ़ी है. एक राज्य में तो उनकी मुख्यमंत्री है. जाहिर है कि एकता और फिर सत्ता में भागीदारी के बिना सामूहिक संपन्नता नहीं आ सकती. बिखरे हुए समूह लोकतंत्र में हैसीयत खो देते हैं क्यों कि वे दबाव समूह नहीं बन सकते.

वहाँ की स्थिति से जो समझा उसे यहाँ लिख रहा हूँ-
1. उत्साह, अवसर, समर्थन, मार्गदर्शन, धन, नेतृत्व आदि सब कुछ था, समन्वय नहीं था.
2. पृष्ठभूमि में राजनीतिक दल थे. उन्होंने समुदाय के आंतरिक नेतृत्व को उभरने नहीं दिया. इससे असंतोष हुआ. युवा इस प्रक्रिया को समझ नहीं सके. प्रशिक्षण की कमी स्पष्ट थी.
3. कुछ युवकों में मशहूर होने की महत्वाकाँक्षा आवश्यकता से अधिक थी.
4. समन्वय और सहयोग की जगह दोषारोपण का दूषित दौर शुरू हो गया.
5. युवाओं से लेकर अनुभवी लोगों तक ने समुदाय को कोसना जारी रखा कि यह अनपढ़ तबका है, ये एकता कर ही नहीं सकते, इन्हें समझाना असंभव है, इनमें आगे बढ़ने की इच्छा ही नहीं है आदि पुराने वाक्य सैंकड़ों बार दोहराए गए. नतीजा – वही ढाक के तीन पात – सब कुछ हुआ लेकिन कार्यक्रम से संतुष्टि नहीं हुई. एक दूसरे की आलोचना की गई परंतु कार्यक्रम के बाद की जाने वाली आवश्यक समीक्षा करना किसी को याद नहीं रहा.

प्रबंधन गुरुओं ने इन सारी स्थितियों पर अपार प्रशिक्षण सामग्री और साहित्य रचा है.  मेघ समुदाय के लोग बार-बार समाजिक-राजनीतिक गतिविधियाँ चलाते हैं, असफल होते हैं और बाहर-भीतर से टूटते हैं क्योंकि जहाँ से शुरू करते हैं, वहीं पहुँच जाते हैं. यह कष्ट देने वाली स्थिति है.

समन्वय क्यों नहीं होता
– सामूहिक गतिविधि का अर्थ लोकप्रियता लगाया जाता है
– सामूहिक लक्ष्य स्पष्ट नहीं होता
– मिशनरी भावना नहीं है, प्रत्येक गतिविधि अल्पकालिक होती है
– कोई भी कार्यक्रम शुरू होने से पहले स्थानीय राजनीति करने वाले अपना कुचक्र शुरू कर देते हैं. राजनीतिक जागरूकता न होने से संगठन टूटने लगता है.

सुझाव
1. नेतृत्व देने वाले नेता समुदाय के सदस्यों के प्रति अपशब्द बोलना बंद करें. अपशब्दों से नकारात्मक प्रतिक्रिया होती है.
2. समुदाय के लोग शताब्दियों की ग़रीबी से प्रभावित हैं. आप उनसे अचानक एकता की आशा कैसे कर सकते हैं. उनका मन अचानक अपनी सभी बाधाएँ दूर करके आपसे कैसे मिल सकता है. उन्हें प्रताड़ना दे-दे करके विभाजित रहने की आदत डाली गई थी. उनके साथ प्रेम का बर्ताव करें.  
3. राजनीतिक दखलअंदाज़ी रहेगी, युवा कार्यकर्ताओं का प्रबंधन गुरुओं द्वारा समुचित प्रशिक्षण इसके नकारात्मक प्रभाव को रोक सकता है.
4. लक्ष्य तय और स्पष्ट हों.
5. आपसी सहयोग और समन्वय की आवश्यकता को पहले समझा/समझाया जाए.
6. अपने सामाजिक कार्यक्रमों को भी प्रशिक्षण का मंच बनाएँ.
7. सबसे बढ़ कर महिलाओं को शिक्षित-प्रशिक्षित करें. एक महिला पूरे परिवार और गली मोहल्ले के लिए शिक्षिका बन जाती है. बच्चों को संस्कार द्वारा जो वह बना सकती है वह कार्य देश के नेता नहीं कर सकते. माता ने जो संस्कार दे दिया वह अवश्य फलित होता है.

देश को नेता नहीं बनाते. देश को और नेताओं को महिलाएँ ही बनाती हैं. पहले उनके प्रशिक्षण का प्रबंध करें.

Why there is no unity in Megh comunity-1


मेघनेट पर इस आलेख के नीचे टिप्पणीकार श्री पी.एन. सुब्रमणियन द्वारा दिया गया लिंक यहाँ जोड़ा गया है. (स्त्री सशक्तिकरण) सुब्रमणियन जी को कोटिशः धन्यवाद

10 comments:

boletobindas said…

चलिए आपने नेतागिरी का राज बता दिया। अब कुछ साल मेहनत(राजनीति) करके प्रधानमंत्री बनने की राह पर चलने की कोशिश करता हूं।

ZEAL said…

सबसे बढ़ कर महिलाओं को शिक्षित-प्रशिक्षित करें. एक महिला पूरे परिवार और गली मोहल्ले के लिए शिक्षिका बन जाती है. बच्चों को संस्कार द्वारा जो वह बना सकती है वह कार्य देश के नेता नहीं कर सकते. माता ने जो संस्कार दे दिया वह अवश्य फलित होता है. sehmat hun aapki baat se. sundar aalekh. aabhar . .

हास्यफुहार said…

बहुत अच्छी प्रस्तुति।

यशवन्त माथुर said…

आप सभी को हम सब की ओर से नवरात्र की ढेर सारी शुभ कामनाएं.

Apanatva said…

sarahneey prayatn asaphalata kee jado tuk pahuchane ke liye . Aabhar

Umra Quaidi said…

सार्थक लेखन के लिये आभार एवं “उम्र कैदी” की ओर से शुभकामनाएँ। जीवन तो इंसान ही नहीं, बल्कि सभी जीव भी जीते हैं, लेकिन इस मसाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, मनमानी और भेदभावपूर्ण व्यवस्था के चलते कुछ लोगों के लिये यह मानव जीवन अभिशाप बना जाता है। आज मैं यह सब झेल रहा हूँ। जब तक मुझ जैसे समस्याग्रस्त लोगों को समाज के लोग अपने हाल पर छोडकर आगे बढते जायेंगे, हालात लगातार बिगडते ही जायेंगे। बल्कि हालात बिगडते जाने का यही बडा कारण है। भगवान ना करे, लेकिन कल को आप या आपका कोई भी इस षडयन्त्र का शिकार हो सकता है! अत: यदि आपके पास केवल दो मिनट का समय हो तो कृपया मुझ उम्र-कैदी का निम्न ब्लॉग पढने का कष्ट करें हो सकता है कि आप के अनुभवों से मुझे कोई मार्ग या दिशा मिल जाये या मेरा जीवन संघर्ष आपके या अन्य किसी के काम आ जाये। http://umraquaidi.blogspot.com/ आपका शुभचिन्तक “उम्र कैदी”

हास्यफुहार said…

अपकी यह पोस्ट अच्छी लगी। हज़ामत पर टिप्पणी के लिए आभार!

संजय भास्कर said…

@ भूषण जी ये कार्य देश के नेता नहीं कर सकते सर जी जल्‍दी से जनता में जागरूकता लाओ। ये काम नये कंधे ही कर सकते हैं। सार्थक लेखन के लिये आभार

sm said…

same way we have to think of india and not about one caste

निर्मला कपिला said…

सहमत हूँ। सार्थक मश्विरा। शुभकामनायें।

Kabir Mandir and Arya Samajist thinking – कबीर मंदिर और आर्यसमाजी विचारधारा

पिछले दिनों एक मेघ सज्ज्न की तीमारदारी के दौरान उनके पास बैठने का मौका मिला. बूढ़े मेघ अभी कबीर मंदिर का सपना भुला नहीं पाए हैं. मैंने कुरेदा तो एक तस्वीर निकली जो आपके सामने रख रहा हूँ.

पंजाब सरकार ने एक बार विज्ञापन दिया था कि धर्मार्थ सोसाइटियाँ यदि आवेदन करें तो 2 कनाल ज़मीन लीज़ पर अलाट की जा सकती है.

उस समय एक शहर में मेघों का एक संगठन अस्तित्व में था. इसमें दो विचारधाराओं के दल थे. एक दल ने कबीर भवन के लिए प्रयास प्रारंभ किए. एक ट्रस्ट बनाया. दूसरे दल को इसमें रिश्तेदारियों का मामला नज़र आय़ा. बातचीत के बाद उसे ब्राडबेस बनाया गया. नए सदस्य जोड़े गए. संविधान बदला गया. पुनः रजिस्ट्रेशन हुआ. नया प्रबंधन बना. फिर से ज़मीन के लिए आवेदन किया गया. एक बड़ी रकम जमा की गई. प्राधिकारियों से मिलने वाले प्रतिनिधि दल में उस समय के अच्छी स्थिति वाले गणमान्य मेघ नौकरशाह थे. प्राधिकारियों का प्रश्न था कि कबीर मंदिर ही क्यों? उन्हें स्पष्ट किया गया कि यह मंदिर आम आदमी और श्रमिकों के लिए है जो अन्य धर्मों के सख्त अनुशासन में हमेशा बँध कर नहीं रह सकते. दूसरे उस क्षेत्र में ऐसी कोई संस्था नहीं थी जहाँ सारे समुदाय बैठ कर अपने गुरु का जन्मदिन मना सकें. प्राधिकारियों का रवैया सकारात्मक था. उल्लेखनीय है कि कबीर मंदिर जैसी धर्मार्थ संस्थाओं के लिए ग्रांट उपलब्ध थी.

इस बीच दूसरे दल ने अलग से प्राधिकारियों से संपर्क किया. यह दल (इसमें संभवतः आर्यसमाजी विचारधारा वाले लोग अग्रणी थे) कोई भवन बनाने के पक्ष में था. प्राधिकारियों ने जान लिया कि यह एक ही समुदाय के दो दल हैं. बात बिगड़ी. समय बीतने लगा. धीरे-धीरे ज़मीन की कीमतें पहुँच से बाहर होने लगीं. पैसा एकत्रित होता रहा. कीमतें भी बढ़ती रहीं. परिणाम की अभी प्रतीक्षा है.

क्या कबीर मंदिर का विचार बुरा था? क्या उसके लिए संगठित प्रयास (एकता) करने में बुराई थी?

अन्य शहरों में भी इसी से मिलती-जुलती कहानियाँ कही जाती हैं. एकता के प्रति आम मेघ आज भी आशावान हैं.

4 comments:

मनोज कुमार said…

शिक्षाप्रद आलेख।

निर्मला कपिला said…

विचार बुरा नही है। अच्छी जानकारी है। आभार।

Ravi said…

It is a nice article. I have seen the whole chapter unfold and can thus appreciate it. I am impressed by the kind of work you are doing. – R S Amar

Bhushan said…

मुझे महसूस हुआ कि आलेख सकारात्मक नोट पर समाप्त हो. अतः इसे आशोधित किया गया है.

Kabir Mandir and Megh Bhagat Aryasmajis

पिछले दिनों एक मेघ सज्ज्न की तीमारदारी के दौरान उनके पास बैठने का मौका मिला. बूढ़े मेघ अभी कबीर मंदिर का सपना भुला नहीं पाए हैं. मैंने कुरेदा तो एक तस्वीर निकली जो आपके सामने रख रहा हूँ.
पंजाब सरकार ने एक बार विज्ञापन दिया था कि धर्मार्थ सोसाइटियाँ यदि आवेदन करें तो 2 कनाल ज़मीन लीज़ पर अलाट की जा सकती है.
उस समय एक शहर में मेघों का एक संगठन अस्तित्व में था. इसमें दो विचारधाराओं के दल थे. एक दल ने कबीर भवन के लिए प्रयास प्रारंभ किए. एक ट्रस्ट बनाया. दूसरे दल को इसमें रिश्तेदारियों का मामला नज़र आय़ा. बातचीत के बाद उसे ब्राडबेस बनाया गया. नए सदस्य जोड़े गए. संविधान बदला गया. पुनः रजिस्ट्रेशन हुआ. नया प्रबंधन बना. फिर से ज़मीन के लिए आवेदन किया गया. एक बड़ी रकम जमा की गई. प्राधिकारियों से मिलने वाले प्रतिनिधि दल में उस समय के अच्छी स्थिति वाले गणमान्य मेघ नौकरशाह थे. प्राधिकारियों का प्रश्न था कि कबीर मंदिर ही क्यों? उन्हें स्पष्ट किया गया कि यह मंदिर आम आदमी और श्रमिकों के लिए है जो अन्य धर्मों के सख्त अनुशासन में हमेशा बँध कर नहीं रह सकते. दूसरे उस क्षेत्र में ऐसी कोई संस्था नहीं थी जहाँ सारे समुदाय बैठ कर अपने गुरु का जन्मदिन मना सकें. प्राधिकारियों का रवैया सकारात्मक था. उल्लेखनीय है कि कबीर मंदिर जैसी धर्मार्थ संस्थाओं के लिए ग्रांट (धर्मशाला हेतु) उपलब्ध थी.
इस बीच दूसरे दल ने अलग से प्राधिकारियों से संपर्क किया. यह दल (इसमें आर्यसमाजी विचारधारा वाले लोग अग्रणी बन कर आए थे) एक भवन बनाने के पक्ष में था. प्राधिकारियों ने जान लिया कि यह एक ही समुदाय के दो दल हैं. बात बिगड़ी. समय बीतने लगा. धीरे-धीरे ज़मीन की कीमतें पहुँच से बाहर होने लगीं. पैसा एकत्रित होता रहा. कीमतें भी बढ़ती रहीं. परिणाम की अभी प्रतीक्षा है.
क्या कबीर मंदिर का विचार बुरा था? क्या उसके लिए संगठित प्रयास (एकता) करने में बुराई थी?
अन्य शहरों में भी इसी से मिलती-जुलती कहानियाँ कही जाती हैं. एकता के प्रति आम मेघ आज भी आशावान हैं.