Category Archives: रचनात्मक
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Atheism – Think over it – नास्तिकता – इस पर विचार करें
नास्तिकता ईश्वर सहित सभी धार्मिक आडंबरों को नकारती है लेकिन मानव व्यवहार की सभी अच्छाइयों को स्वीकारती है. नास्तिकता अपने आप में संपूर्ण धर्म है जो वस्तुनिष्ठ है. उसके ठोस नियम हैं और प्रत्यक्ष सत्य के प्रति उसकी अपनी आस्था और भावनाएँ हैं. नास्तिकता के विरुद्ध बोलने वाला व्यक्ति भी नास्तिक की धार्मिक आस्था को आहत करता है.
तर्कवाद और संशयवाद इसके प्रमुख घटक हैं.
तर्कवाद और संशयवाद इसके प्रमुख घटक हैं.
Atheism rejects concept of God and all religious frills buts accepts all the good things of civilized human behavior. Atheism is a complete religion in itself with all objectivity. Its rules are solid and it has its own faith in the obvious truth and feelings towards it. A person speaking against atheism hurts faith and religious feelings of an atheist.
Rationalism and Skepticism are its major components.
Who created the creator – ब्रह्मा को किसने बनाया
बचपन में मेरे पूछने पर कि दुनिया किसने बनाई है पिता जी ने बताया था कि दुनिया को ब्रह्मा ने बनाया है. तो मैंने बालसुलभ बुद्धि से पूछा था कि तब ब्रह्मा को किसने बनाया था? फेसबुक पर गोत्रा जी की एक पोस्ट से उस सवाल का जवाब आया.
ब्राह्मण ने पहले ब्रह्मा बना लिया फिर खुद को उसके मुँह से निकला बता दिया और शूद्र (देश के मूलनिवासी) कोउसके पैरों से निकला बता दिया. ब्राह्मणीकल सोप ऑपेरा यहीं नहीं रुकता. जन्म से पुनर्जन्म निकाल लिया और मूलनिवासियों के दिमाग़ को पुनर्जन्म और कर्म सिद्धांत की कहानियों के गहरे भँवर में डाल दिया जिसमें वे आज तक असुर और राक्षस बन कर खुशी से डुबकियाँ लगा रहे हैं. वे इस भँवर को ही अपनी किस्मत और धर्म मान बैठे हैं. कबीर ने इन्हीं के लिए सारी आध्यात्मिक और धार्मिक शिक्षा को बदला जिससे ये सभी संतुष्ट होते हैं लेकिन भँवर से नहींनिकलना चाहते.
समय आ गया है कि वे ईश्वर, देवी, देवता, पुनर्जन्म और उस पर आधारित कर्म सिद्धांत के इस मकड़जाल को समझें और उससे मुक्ति पाएँ. देश के मूलनिवासियों की समृद्धि और विकास का रास्ता इसके आगे है.
समय आ गया है कि वे ईश्वर, देवी, देवता, पुनर्जन्म और उस पर आधारित कर्म सिद्धांत के इस मकड़जाल को समझें और उससे मुक्ति पाएँ. देश के मूलनिवासियों की समृद्धि और विकास का रास्ता इसके आगे है.
Messengers of Death – जमदूत
आम आदमी |
सोचा था कि देश में संभावित गृहयुद्ध (Civil war) के बारे में लिखूँ जिसकी चेतावनी प्रशांत भूषण ने एक पत्रकार सम्मेलन में दी थी……..जो बन गई थी ‘कल्पनाओं को चीरती हुई सनसनी……’ फिर विचार आया कि देश में स्मगल हो कर आ रहे और सरकारी नीतियों के तहत बँट रहे फायर आर्म्स पर कलम की एके-47 चला दूँ (मेरे पास केवल यही है). लेकिन मैं डर गया. इसलिए कबीर वाणी याद कर के अपने उर को शांत कर रहा हूँ.
‘….जम के दूत बड़े मरदूद……’
आम आदमी हथियार बाँटने वालों से क्या कहे सिवाय इसके कि– ”एकदम सामने तो आप ही हो भगवन्!आप ही पूछते हो कि घूँसा पास है या भगवान!! आप सामने हो तो भगवान के पास पहुँचने में कितना समय लगता है?”
Morning walk – evening walk – प्रातः की सैर – शाम की सैर
कई वर्ष से मैंने सुबह की सैर बंद कर दी है. शाम की सैर अच्छी लगती है. सुबह अपने तरीके से जीओ, शाम को अपनी सुविधा से सैर करो.
सुबह की सैर का अर्थ है ‘हाँफती हुई मोटी-मोटी लड़कियाँ और अपनी ताकत से अधिक ज़ोर लगा चुके थके-चुके बूढ़े’. लड़कियों का वज़न उनकी शादी में रुकावट है. पार्क में टहलते लड़कों का विचार है कि- ‘वज़न कोई समस्या नहीं यदि उसके बराबर का सोना साथ ले आए’. बाग़-बग़ीचों में निठल्ले भी तो होते हैं.
शाम की सैर यानि बूढ़ों का ‘लॉफ़्टर क्लब’ जो पूरे दिन की लानत को कमज़ोर फेफड़ों की नकली ‘हा..हा..हा..’ में वाकई डुबो दे और दो साल अतिरिक्त जीने की दिली तमन्ना को ज़िंदा रखे ताकि कोई तमन्ना निकल जाए.
शाम होते ही पार्क में पीजी (पेइंग गेस्ट) लड़कियाँ अकेली या बॉय फ्रैंड सहित सैर करने आ जाती हैं. ये अधिकतर मोटी नहीं होतीं. घर से निकलते ही मोबाइल कान से लग जाता है और सैर पूरी होने तक वहीं रहता है. इनकी बातें सुनने के लिए जासूसी-वासूसी ज़रूरी नहीं. मोबाइल का स्पीकर बिंदास ऑन रखती हैं. इनकी आवाज़ इतनी फटपड़ है कि मेरे हमउम्र हैरानगी के शिखर पर जा बैठे हैं.
इन खुली आवाज़ों को सुनिए:
एक धाकड़ आवाज़- “तू आ, तेरी वाट लगाती हूँ…..जो तूने मेरे सर को कहा है…..उल्लू के पट्ठे.”
नाटकीय आवाज़, “मेरी माँ कंजूस है यार, पूरे पैसे नहीं भेजती है. खाना लैंड लेडी से माँग-माँग कर खा रही हूँ और वो सब्ज़ी में सिर्फ़ आलू खिला रही है.”
दबंगी आवाज़, “उसे कह देना गेड़ी रूट पर चक्कर लगाते-लगाते मर जाएगा. हाथ कुछ नहीं आने वाला बल्कि कॉम्प्लीमेंटरी झापड़ भी खाएगा.”
ठंडी शालीन आवाज़, “मोबाइल के लिए दस-दस पैसे का टुच्चा रीचार्ज दोस्तों से ले रही हूँ. तू न मुझे कोई तरीका बता दे कि मैं मिस्ड एसएमएस भेज सकूँ.”
खीझी आवाज़, “केले खा कर ज़िंदा हूँ मम्मीईईईईई….मैगी की पेटी जल्दी भिजवा दो माता श्रीईईईईई.”
दूसरों के कान बहुत कुछ सुनते हैं लेकिन इन लड़कियों को इसकी परवाह नहीं है.
कुल मिला कर सुबह-सवेरे के सीन में ऐसी जानदार बातें सुनने को नहीं मिलतीं. शाम की सैर बेहतर है. शाम के सूरज में अधिक रंग होते हैं.
Akbar Ilahabadi- A poet still in flesh – अकबर इलाहाबादी- एक शायर जो ज़िंदा है
गुलाम अली की हंगामा ग़ज़ल ‘हंगामा है क्यों बरपा’ का शायर कौन है? इसे लिखने वाला कोई इश्किया–पियक्कड़ शायर नहीं बल्कि जनाब सैयद हुसैन हैं जिनका जन्म सन् 1846 में और मृत्यु सन् 1921 में हुई लेकिन वे ज़िंदा है और हमारे बीच हैं. पियक्कड़ों के पक्ष में ग़ज़ल कहने वाले रिटायर्ड सेशन जज सैयद हुसैन-उर्फ़-अक़बर ‘इलाहाबादी’ आप हैं जिनसे मैं मुख़ातिब हूँ. बैठिए साहब.
आपकी की उँगलियाँ समाज की नब्ज़ पर रहीं. मुहज़्ज़ब (सभ्य) होने का जो अर्थ आपने सामने देखा उसे अब ‘सामाजिक समस्याओं’ के तौर पर पिछले पचास साल से कालेजों में पढ़ाया जा रहा है. कम्पीटिशन और दौड़-भाग के माहौल में पिसते जिस जीवन को हम सभ्यता का विकास मानते हैं उसे आपने दो पंक्तियों में कह दिया. यह देखो आप ही ने लिखा है-
हुए इस क़दर मुहज़्ज़ब कभी घर का न मुँह देखा
कटी उम्र होटलों में मरे अस्पताल जा कर
जी सर, इक्कीसवीं सदी आते-आते हम अस्पताल में भर्ती होने के लिए हेल्थ इंश्योरेंस के नाम से पैसे जोड़ने लगे हैं. अब घर में मरना बदनसीबी हो चुका है. यह आज की हक़ीक़त है.
महिलाओं के सशक्तीकरण के उन्नत बीज आपने अपने समय में देख लिए थे. आपका तैयार किया दस्तावेज़ आप ही की नज़्र है-
बेपर्दा नज़र आईं जो चन्द बीबियाँ
‘अकबर’ ज़मीं में ग़ैरते क़ौमी से गड़ गया
पूछा जो उनसे –‘आपका पर्दा कहाँ गया?’
कहने लगीं कि अक़्ल पे मर्दों की पड़ गया.
देखिए न, ज़माना महसूस करता है कि अक़्ल पे सदियों से कुछ पड़ा है.
कभी “हट, क्लर्क कहीं का” एक चुभने वाली गाली थी. लेकिन आज ‘सरकारी क्लर्क‘ ख़ानदानी चीज़ है. सुरक्षित नौकरी, बिना काम वेतन और ‘ऊपर की कमाई’. एमबीए वाली हाई-फाई नौकरियाँ ही अपने इकलौते भाई ‘सरकारी क्लर्क‘ को हेय दृष्टि से देखती हैं. आपने कहा भी है–
चार दिन की ज़िंदगी है कोफ़्त (कुढ़न) से क्या फायदा
कर क्लर्की, खा डबल रोटी, खुशी से फूल जा.
सरकारी नौकर के लिए खुश रहने के सभी कारण आपने दे दिए हैं. वह काफी फूल चुका है. उधर प्राइवेट सैक्टर और औद्योगीकरण में दिख रही समता आधारित सामाजिक व्यवस्था पर आप फरमा गए-
हम आपके फ़न के गाहक हों, ख़ुद्दाम हमारे हों ग़ायब
सब काम मशीनों ही से चले, धोबी न रहे नाई न रहे!
सर, सर, सर!!! पकड़ा आपने चतुर वर्ण व्यवस्था को. सोशियोलोजी पर आपका क़र्ज़ हमेशा बाकी रहेगा.
विकासवाद के सिद्धांत में डारून (डार्विन) द्वारा चंचल बुद्धि बंदरों को फिट करना आपको या मुझे कभी जँचा ही नहीं. हमारा सवाल साझा और सीधा है. सभी बंदर आदमी क्यों नहीं बने? जिसमें आदमी बनने की संभावना थी वह आदमी ही तो ठहरा न? हमारे मूरिस (पूर्वज) बंदर हुए तो यह विकासवाद न हुआ इल्ज़ाम हो गया. आपने एक फैसले में कहा है-
‘डारून साहब हकीकत से निहायत दूर थे,
मैं न मानूँगा कि मूरिस आपके लंगूर थे‘
शुक्रिया जज साहब. ऐसा फैसला आप ही से मुमकिन था. पीने के आप कभी शौकीन नहीं रहे. लेकिन आपकी महफिल में चाय तो चल ही सकती है. लीजिए.
लीडरों के बारे में देश की राय आजकल अच्छी नहीं. कभी कोई भला ज़माना रहा होगा जब लीडर अच्छे थे. अब तो हर शाख़ पर बैठे हैं. आप ही ने बताया था-
कौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ
रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ
गाँधी के ज़माने का आपका यह डेढ़ सौ साल पुराना शे‘र पढ़ कर दिल बैठा जा रहा है कि हम हमेशा से ही ऐसे लीडरों की रहनुमाई में रहे हैं और ख़ुदा ने हमें पनाह देना मुनासिब नहीं समझा. लीडर देश को खा गए और आप भी फ़रमा गए-
थी शबे-तारीक (अंधेरी रात), चोर आए, जो कुछ था ले गए
कर ही क्या सकता था बन्दा खाँस लेने के सिवा
सही है हुज़ूर, आप खाँसते रहे हैं. हम तो भौंकते हैं और चोर मुस्करा कर चल देता है. चलिए, छोड़िए. चलते हैं और कुछ देर जंतर-मंतर पर बैठ कर नए ज़माने की हवा खा आते हैं.
My spy, my pride – मेरा जासूस, मेरी नाक
मोहन लाल भास्कर पाकिस्तान में जासूस था. कोट लखपत की जेल के अँधेरे में अमानवीय यात्नाओं से तंग आ चुका मोहन जेलर को देखते ही ऊँची आवाज़ में उसे माँ-बहन की गंदी गालियाँ लग़ातार देता जाता ताकि वह एक ही बार पीट-पीट कर मोहन की हत्या कर दे. लेकिन जेलर ठंडे मन से उसकी गालियाँ सुनता और यात्नाएँ सलीके से देता. बाद में मोहन प्रधान मंत्री मोरार जी देसाई से मिला. अपनी कथा सुनाई.
जासूस किसी सरकारी कर्मचारी की नहीं बल्कि निजी हैसियत से शत्रुदेश में जाता है. सूचना के लिए महीनों पागलों की तरह घूमता है, धीमा और बोरिंग काम. यदि दुश्मन के राकेटों के ज़खीरे में आग लगाई जा सके तो ठीक-ठाक रकम मिल सकती है लेकिन मर गए तो शहीदों में शुमार नहीं हो सकते.
मोहन भास्कर की (शायद) पेंशन की माँग सुन कर मोरार जी ने खरी-खरी सुना दी जिसे याद करते हुए उसने लिखा है- ‘यदि उस समय मेरे पास रिवाल्वर होता तो मैं सारी गोलियाँ मोरार जी के सीने में उतार देता’. सुरजीत यार, तुम ऐसा कोई फिल्मी डॉयलाग न बोलना. तुम्हारे इंटरव्यू के बाद अब तक सरबजीत का कितना दिमाग़ निचोड़ा गया होगा किसको पता.
जासूसी अविश्वास की दुनिया है. जासूस दुश्मन की जेल में हो या बाहर उसके डबल-क्रॉस होने की आशंका बनी रहती है. सीमा पार से दुश्मन उसे स्कैन करता है. दुश्मन के जासूस उसे उसके ही देश में अगुवा कर सकते हैं.
तो जासूस एक तरह की लंबी नाक होती है जिसे खतरा सूँघने के लिए दूसरे मुल्क में रख दिया जाता है लेकिन उस पर भरोसा नहीं किया जाता. लग़ातार सत्यापन होता है. यह नाक पकड़ी जाए तो कोई देश स्वीकार नहीं करता कि पकड़ी गई नाक मेरी है.
Raag Darbari – राग दरबारी
इस जीवन-राग को लेकर कई अंतर्विरोध मेरे ज़ेहन में हैं. मैंने ख़ुद से रागदरबारी कभी नहीं गाया. संभव है इसमें निबद्ध कोई फिल्मी गीत मुँह से निकल गया हो.
नौकरी के दौरान राजनीतिज्ञों या बड़े अफ़सरों के सामने कोई महत्वपूर्ण रागदरबारी ‘जोगन बन जाऊँ रे…..‘ नहीं गाया (सम्राट अक़बर और मियाँ तानसेन इस पर हैरानगी प्रकट कर सकते हैं कि कमाल है भाई, अगर नहीं गाया). बैंक में नौकरी थी सो कभी-कभी सायं चार बजे चपरासियों, लिपिकों को यह राग सुनाना पड़ता था- ‘महाराज जितना संभव हो, कार्य कर जाना, इख़्लाक़ बुलंद रहे, चलता रहे बैंक घराना’. यहाँ राग का गायन समय अत्यंत लोचशील है, प्रातः से सायं तक, कभी भी.
घर के दरबार में मेरी राजा-सी हैसियत कभी नहीं रही सो रानी (नारी) स्वर में रागदरबारी सुनने को नहीं मिला. लेकिन इस क्षेत्र में मेरी गायकी के कुछ व्यंगात्मक किस्से मुझ तक लौटे कि ‘भई खूब गाते हो रागदरबारी, क्या बात है!!’ किस्सा सुनाने वालों की तान (दाँत) तोड़ने की तमन्ना दिल में ही रह गई.
दिल्ली के रास्ते में कई ढाबे आते हैं. चाचे का ढाबा, राणा ढाबा, पप्पू ढाबा, रॉकी वैष्णो ढाबा, पहलवान ढाबा. ये हिंसक नाम हैं. देसी पुलिस के लिए सीधा संदेश- ‘जब चाहे आओ, ठंडा-वंडा पीओ और मसाला भाषा में देसी गाने सुनो. बस, पंगा नहीं लेना’. जानने योग्य है कि हमारी नौकरशाही संगीत के नाम पर केवल इसी शास्त्रीय राग को आराम से गा पाती है. यह इस राग की विशेषता है.
सड़क किनारे महाराजा पान शॉप पर अनजाने कलाकार की यह कलाकृति दिखी. फोटू खींच ली. इसमें एक तबलची, एक सारंगी मास्टर है और राजसी ठाठ में रागदरबारी है. कलात्मक वस्तुएँ महलों से निकल कर कहाँ-कहाँ पहुँचीं, भई वाह!! विश्वास हो गया कि पनवाड़ियों, दरबारियों और राज घराने में कभी खूब छनती थी.
आप पूछ सकते हैं कि पुराने अंदाज़ के दरबार तो समाप्त हो गए, आजकल रागदरबारी कहाँ और कैसे गाया जाता है. येस-येस, इसकी प्रस्तुति का वेन्यू अब राजनीतिक पार्टियों की हाई कमान के यहाँ होता है लेकिन सुर वही हैं, शैली वही है और ठाठ वही है.
ऊपर की पेंटिंग से मिलता जुलता एक चित्र फेसबुक पर आज (09-01-2014 को) मिला है जिसे नीचे चिपका रहा हूँ-
We exist in songs – गीतों में हम हैं.
कई वर्ष पहले मैंने ‘मेघ’ शब्द इंटरनेट पर ढूँढा. मंशा थी कि बिरादरी के बारे में शायद कुछ जानकारी मिले. मगर कुछ नहीं मिला. ‘मेघ’ सरनेम वाले एक अमरीकन की वेबसाइट मिली. वह उद्योगपति था. लेकिन वह काफी गोरा था. हो सकता है वह हमारा ही बंदा आदमी हो :)) एक इटेलियन एक्ट्रेस मिली जिसके नाम के साथ मेघ(नेट) लगा था. शायद वह हमारी ही बंदी हो. ‘भगत’ ढूँढा तो कबीर और अन्य संतों के अलावा जालंधर के एक सज्जन श्री राजकुमार का एक ब्लॉग मिला जिसका नाम था ‘भगत शादी डॉट कॉम’. उनसे बात हुई और फिर…..आज आप ढूँढ कर देखिए दोनों शब्द, ‘मेघ-भगत’ बहुतायत से आपको इंटरनेट पर मिल जाएँगे.
कुछ वर्ष पहले तक इस बात की भी तकलीफ़ होती थी कि हम साहित्य में कहीं नही थे. एक दिन खोज करते हुए अचानक एक कहानी मिली ‘ज़ख़्मों के रास्ते से’ जिसे एक कथाकार देसराज काली ने लिखा था. इसमें मेघ भगत और भार्गव कैंप का स्पष्ट उल्लेख था. रूह को बहुत आराम आया कि चलो भई हम साहित्य में कहीं तो मिले.
इस बीच वियेना में हुई चमार समुदाय के गुरु की हत्या और जालंधर के पास गाँव तलहण की घटनाओं ने चमार समुदाय के स्वाभिमान को जगा दिया और वे कई सुंदर गीतों के साथ संगीत की धमक लेकर आ गए. ‘रविदासिया धर्म’ की स्थापना हो गई और ये गर्वीले सड़कों पर उतर कर कहने लगे – “गर्व से कहो हम चमार हैं”. इस बात से दिल पूछने लगा कि भई हम ‘मेघ भगत’ गीत-संगीत की धमक में कहाँ हैं.
तभी एक गीत सुनाई दिया- “मेघो कर लो एका, भगतो कर लो एका”. मज़ा आ गया. इसे रमेश कासिम ने गाया था…….और अभी हाल ही में एक गीत सुनने को मिला- “असीं भगताँ दे मुंडे, साडी वखरी ए टौर (हम भगतों के बेटे, हमारा अलग है स्टाइल)” जिसे अमित देव ने गाया है. वाह क्या बात है !!
When we became independent in 1947… – जब हम 1947 में आज़ाद हुए थे…..
…..उससे पहले एक कानून था कि यदि कोई शराब पीकर किसी की हत्या कर दे तो उसे कम सज़ा दी जाती थी क्योंकि माना जाता था कि नशे में होने के कारण उससे ग़लती हो गई.
यह कानून अंग्रेज़ों ने बनाया था. ज़ाहिर है उन्होंने अपने भले के लिए बनाया था. हत्या या कई अन्य अपराध पियक्कड़ अंग्रेज़ों से ‘हो’ जाते थे. उनके कारकुन भी इसी मर्ज़ के शिकार थे. लेकिन इस कानून के कारण वे दोनों काफी कम सज़ा के भागी होते थे. कानून ज़िंदाबाद. चलो हो गया. हम आज़ाद हो गए.
अब हुआ यह है कि आज़ादी के बाद अंग्रेज़ों के बनाए कानूनों की किताब यहीं हमारे सिर पर रखी रह गई और विदाई के समय हम उन्हें देना भूल गए. आज टीवी पर खबर थी कि एक बाप ने अपनी नन्हीं-सी बेटी को शराब के नशे में नीचे पटक दिया और फिर उसे मरा समझ नाले में डाल आया. अरे वाह!! क्या बात है सर जी!! उसे पक्की उम्मीद थी कि वह सस्ते में छूट जाएगा क्योंकि मेरे देश का प्रत्येक पियक्कड़ अंग्रेज़ों के उक्त कानून को जानता है.