Category Archives: पौराणिक संकेत

What happened to Bhakta Prahlada – मेघवंशी प्रह्लाद भक्त का क्या हुआ

भक्तका मूल अर्थ है जो अलग हो चुका है. किससे अलग हुआ यह संदर्भ के अनुसार है. हिरण्यकश्यपु (असुर या अनार्य) के पुत्र प्रह्लाद को भक्त के तौर पर बहुत महिमा मंडित किया गया है. भारतीय पौराणिक कथाओं (Indian Mythology)में प्रह्लाद को पौराणिक पात्र बना कर और भक्तिरस में भिगो कर परोसा गया है. ज़बरदस्ती अशिक्षित रखे गए दलितों की थाली में भी इस कथा को रखा गया. सच्चाई की कई पर्तें अब तक खुल चुकी हैं. साहित्य और संदर्भों को जानने के बाद एक जिज्ञासा रह जाती है कि सिंधु घाटी सभ्यता पर आक्रमण करके आर्यों ने यहाँ के मूलनिवासियों या मेघवंशियों (aboriginals of Indus Valley Civilization)के साथ क्या किया? हिरण्यकश्यपु को मारने के बाद प्रह्लाद का क्या हुआ? पौराणिक कथाओं पर विश्वास कर लेना कभी भी बुद्धिमत्ता की बात नहीं रही. इन कथाओं के पीछे सच्चाई को छुपाने वाली एक चालाकी रहती है जिसके बारे में लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व महात्मा ज्योतिराव फुले और फुले से पूर्व कई महात्माओं ने समझा दिया था. परंतु दलितों में अशिक्षा के कारण उसका पूर्ण प्रकाश अभी तक नहीं पहुँचा. एक सत्यशोधक के तौर पर ज्योतिबा ने प्रह्लाद की कथा के बारे में जो लिखा उसका सारांश नीचे दिया गया है:-
नृसिंह स्वभाव से लोभी, ढोंगी, विश्वासघाती, कपटी, घातक, निर्दय और क्रूर था. शरीर से सुदृढ़ और बलवान था. राज्य हथियाने के लिए उसने हिरण्यकश्यपु के वध की योजना बनाई. अविकसित बालमन प्रह्लाद के अध्यापक के तौर पर गुप्त रीति से एक द्विज को भेज दिया और उस पर अपने धर्म तत्त्वों का प्रभाव जमा दिया. इसका नतीजा यह हुआ कि प्रह्लाद ने अपने कुल देवता हरहर की पूजा करना बंद कर दिया. हिरण्यकश्यपु ने उसके भटके हुए मन को कुलस्वामी की पूजा की ओर लाने के लिए प्रयास किए परंतु नृसिंह भीतर ही भीतर प्रह्लाद को उकसा रहा था. बालक को इतने झूठे भुलावे दिए गए कि उसके मन में पिता की हत्या करने का विचार आने लगा परंतु साहस नहीं हुआ. अवसर पाकर नृसिंह ने शेर का स्वाँग (मेकअप) करके कलाबत्तू वाली मँहगी साढ़ी पहन ली और हिरण्यकश्यपु के महल के खंभों के बीच छिप गया. शाम को राजपाट का कार्य निपटा कर हिरण्यकश्यपु जब थका-माँदा लौटा और एकाँत में आराम करने के लिए लेटा तब नृसिंह बघनखा लेकर अचानक उसे दबा कर बैठ गया और पेट फाड़ कर उसे मार डाला और स्वयं द्विजों सहित दिन-रात भागता ही चला गया और अपने प्रदेश में पहुँच गया. उधर क्षत्रियों को पता चला कि नृसिंह ने प्रह्लाद को मूर्ख बना कर ऐसा घिनौना कर्म किया है तो उन्होंने आर्यों को द्विज कहना छोड़ दिया और उन्हें विप्रिय कहने लगे. क्षत्रियों ने नृसिंह को नारसिंह जैसा निंदनीय नाम दिया. अंत में हिरण्यकश्यपु के कई पुत्रों ने कई बार प्रयत्न किए कि नारसिंह को बंदी बना कर उसे यथायोग्य दंड दिया जाए, परंतु नारसिंह ने तो हिरण्यकश्यपु का राज्य जीतने की आशा कतई छोड़ दी थी सो वह जैसे-तैसे बचता-बचाता रहा और बाद में आगे कोई उपद्रव किए बिना मृत्यु को प्राप्त हुआ.
विप्रों ने प्रह्लाद का राज्य हथियाने के लिए चोरी-छिपे कई प्रयत्न किए, किंतु सभी यत्न व्यर्थ हुए. आगे चल कर प्रह्लाद की आँखें खुल गईं और उसने विप्रों के छल-कपट को ताड़ लिया. इस प्रकार प्रह्लादने विप्रगणों का थोड़ा भी भरोसा नहीं किया. सबके साथ ऊपरी स्नेह जतलाकर अपने राज्य का उसने समुचित प्रबंध किया और अंत में मृत्यु को प्राप्त हुआ. उसका पोता (विरोचन का पुत्र) बलीबहुत पराक्रमी निकला.
ग़ुलामी’,पृष्ठ 56-59, लेखक महात्मा ज्योतिराव फुले (यह पुस्तक महाराष्ट्र सरकार द्वारा भी प्रकाशित की गई थी.)
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Myth of Mahabali (Maveli बलि) – राजा महाबली का मिथ

राजा महाबली – चित्र विकिपीडिया के साभार
राजा बली को केरल में मावेली कहा जाता है. यह संस्कृत शब्द महाबली का तद्भव रूप है. इसे कालांतर में बलि लिखा गया जिसकी वर्तनी सही नहीं जान पड़ती.  राजा बली की कथा एक अनवरत कथा है जिसका जवाब नहीं. दो दिन पहले दीपावली के अवसर पर श्री आर.पी. सिंह ने शुभकामनाएँ देते हुए बताया कि दैनिक भास्कर में राजा बली के बारे में लेख छपा है और कि दीपावली का त्यौहार मनाने का एक कारण राजा बली की कथा में भी निहित है. राखी का त्योहार भी लक्ष्मी द्वारा महाबली को राखी बाँधने से जोड़ा गया है. इंटरनेट को धन्यवाद कि ज़रा खोज करने पर संदर्भ मिल गए जिन्हें आपसे साझा कर रहा हूँ. पहले स्पष्ट करना आवश्यक है कि पौराणिक कथाओं को कभी भी इतिहास नहीं माना गया है. अतः इन्हें हर कोई किसी भी तरह से व्याख्यायित करता है जैसा कि नीचे दी गई कथाओं से भी स्पष्ट है. पौराणिक पात्र संभव है कि संकेतात्मक रहे हों. संभव है किसी काल विशेष की कुछ वास्तविक घटनाओं के साथ उनका घालमेल किया गया हो. लोक में प्रचलित परंपराओं और किंवदंतियों को इन कथाओं के साथ मिला कर देखने से कई बार उनका एक विशेष अर्थ भी निकलने लगता है. देश भर में कई ऐसे समुदाय हैं जो राजा बली के राज्य में प्रजाओं की सुख-समृद्धि को स्मरण करते हैं और राजा बली के लौटने की कामना करते हैं. कुछ समुदाय राजा बली को अहंकारी आदि कहते हैं लेकिन उसके दानवीर, न्यायाप्रिय होने जैसे गुणों को स्वीकार भी करते हैं. कई स्थानों पर उल्लेख है कि केवल महाबली के प्रति ईर्ष्या के कारण ही उसे पाताल (दक्षिण) में धकेल दिया गया या क्रूरतापूर्वक मार डाला गया. हाँ उसके राज्य को दान में हथिया लेने की कथा खूब प्रचलित है. कई कथाओं में यह राजा महाबली (या मावेली) इंद्र और अन्य देवताओं पर इक्कीस पड़ता दिखाई पड़ता है तो अन्य कथाओं में विष्णु और वामन से वह अपनी दानी प्रकृति के कारण पराजित होता भी दिखता है. केरल में मनाया जाने वाला विश्वप्रसिद्ध ओणम त्योहार महाबली की स्मृति में मनाया जाता है. यहाँ यह बता देना ठीक रहेगा कि प्रसिद्ध पौराणिक पात्र वृत्र (प्रथम मेघ) के वंशज हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रह्लाद था. प्रह्लाद के पुत्र विरोचन का पुत्र महाबली था. इनकी वंशावली की विस्तृत जानकारी मेघवाल आलेख से मिल सकती है. नीचे दी गई कथाओं को सभी ने अपने-अपने तरीके से लिखा है.

पहली कथा
दानवीर राजा बलि का प्रताप सभी लोकों में फैल गया. उन्होंने अपने कारागार में लक्ष्मीजी तथा अन्य देवी-देवताओं को कैद कर लिया. धन-संपत्ति और संसाधनों के अभाव में पृथ्वी पर हाहाकार मच गया. तब भगवान विष्णु ने वामन रूप धारण किया और राजा बलि के पास दान प्राप्त करने पहुंचे. वामन ने तीन पग धरती मांगी.  बलि ने उन्हें तीन पग धरती नापने को कहा. तब वामन ने विराट रूप धारण कर लिया. उन्होंने अपने तीन पग में तीन लोकों को नाप लिया. बलि को पाताल लोक में स्थान मिला. लक्ष्मी और अन्य देवगण कारागार से मुक्त होकर क्षीरसागर पहुंचे और वहीं शयन किया. इसी उपलक्ष्य में दीपपर्व मनाया जाता है. पूरी कथा यहाँ पढ़ें- दैनिक भास्कर 04 नवंबर 2010
(साधारण अर्थ- तीन पग नापने का अर्थ यहाँ सब कुछ दान में ले लेना, छीनना या ठगना है.)

दूसरी कथा
भैयादूज व राजा बलि- जब राजा बलि को पाताल में भेजा था, तब वामन ने राजा बलि को वरदान दिया था कि वह पाताल में राजा बलि का पहरेदार बना कर रहेगा. अतः उसे भी पाताल जाना पड़ा. भैया दूज के दिन लक्ष्मी जी ने एक ग़रीब औरत का वेष बनाकर राजा बलि से भाई बनने का आग्रह किया. जिसे बलि ने स्वीकार कर लिया. लक्ष्मी जी ने बलि को तिलक लगाकर पूजा की और लक्ष्मी जी ने बलि से भगवान विष्णु को आज़ाद करने का वरदान मांगा. पूरी कथा यहाँ पढ़ें- दैनिक भास्कर अक्टूबर 19, 2009


तीसरी कथा
पौराणिक कथा में राजा बलि ने भगवान विष्णु से पाताल लोक को अपने राज्य के रूप में प्राप्त किया था. भगवान विष्णु ने प्रसन्न होकर राजा बलि से वर मांगने के लिए कहा. राजा बलि ने भगवान से अपने राज्य का रक्षक बनने की स्वीकृति प्राप्त की. बैकुंठ त्यागकर राजा बलि के पाताल लोक में विष्णु जी के नौकरी किए जाने से लक्ष्मीजी बेहद नाराज़ हुईं. कुछ समय पश्चात लक्ष्मीजी ने राजा बलि के यहां पहुंचकर उनका विश्वास प्राप्त किया. तत्पश्चात राजा बलि को रक्षासूत्र बांधकर लक्ष्मीजी ने बहन का पद प्राप्त किया और राजा बलि से भाई के सम्बंध स्थापित होने पर भगवान विष्णु की सेवानिवृत्ति तथा स्वतंत्रता को वापस ले लिया. पूरी कथा यहाँ पढ़ें-  दैनिक भास्कर 27 अगस्त, 2010
(साधारण अर्थ- राजा बली अपनी प्रजा की रक्षा चाहते थे.)

चौथी कथा
जब भगवान विष्णु ने महाबली से तीन पग धरती मांगकर तीनों लोकों को नाप लिया तो राजा बली ने उनसे प्रार्थना की कि आपने कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से लेकर अमावस्या की अवधि में मेरी संपूर्ण पृथ्वी नाप ली है, इसलिए जो व्यक्ति मेरे राज्य में चतुर्दशी के दिन यमराज के लिए दीपदान करे, उसे यम यातना नहीं होनी चाहिए और जो व्यक्ति इन तीन दिनों में दीपावली का पर्व मनाए, उनके घर को लक्ष्मीजी कभी न छोड़ें.
पूरी कथा यहाँ पढ़ें- दैनिक भास्कर 03 नवंबर, 2010
(साधारण अर्थ- कुछ रोचक और भयानक बिंब कथा में जोड़े गए हैं. इसका दूसरा अर्थ महाबली का अपनी प्रजा या संबंधियों को यात्नाओं से बचाना भी हो सकता है.)

पाँचवीं कथा
ब्राम्हण समाज दल्लीराजहरा के तत्वाधान में आयोजित 9 दिवसीय संगीतमय श्रीमद् भागवत महापुराण ज्ञान यज्ञ के छठवें दिन प्रवचनकर्ता पं. अखिलेश्वरानंद महाराज ने उपस्थित श्रद्धालुओं को भगवान वामन रूप और राजा बलि की कथा में बताया कि बलि इंद्रासन में बैठकर अपने आपको सबसे बड़ा दानी मानता था. भगवान ने उसकी दान वीरता के गर्व को हरण करने के लिए वामन रूप में बलि के यज्ञ में गए. राजा बलि ने कहा, आप कुछ दान ले लीजिए. वामन ने कहा, मुझे दान की आवश्यकता नहीं. इस पर बलि ने कुछ न कुछ भेंट लेने के लिए कहा. इस पर वामन ने तीन पग भूमि दान में मांगी. बलि भूमि देने के लिए तैयार हो गए.

वामन ने अपने शरीर का आकार बढ़ाया और एक ही पग में पूरी पृथ्वी को नाप ली, दूसरे पग में स्वर्ग. वामन ने कहा कि अब मैं तीसरा पग कहां रखूं, इस पर बलि ने कहा कि तीसरा पग आप मेरे सिर पर रख लीजिए. बलि की ऐसी बातों को सुनकर वामन बहुत प्रसन्न हुए और कहा कि बलि वास्तव में तुम बहुत चतुर हो. मेरा पैर तुम्हारे सिर पर पड़ गया तो तुम्हारी सात्विक जीव मुक्त हो जाएगी. अब जबकि मेरे पैर तुम्हारे सिर पर पडेंगे तो तुम्हारा कल्याण हो जाएगा. पूरी कथा यहाँ पढ़ें- दैनिक भास्कर 24 फरवरी, 2010
(इस कथा के अनुसार महाबली (जिन्हें असुर, दैत्य, आदि भी कहा जाता है) यज्ञ करते थे. यह मेरे लिए नई बात है. इस कथा के कहने की शैली से स्पष्ट है कि मिथ को अपने अंदाज़ में रोचक बना कर कहने की कोशिश की गई है.)

छठी कथा
राजा बलि जब सौंवा अश्वमेध यज्ञ करने लगे तो इन्द्र सहित देवताओं ने भगवान की शरण ग्रहण करते हुए कहा कि भगवान राजा बलि स्वर्ग के इन्द्र सहित देवताओं को स्वर्ग से असमय च्युत करना चाहता है. हे देव आप ही रक्षा कर सकते हैं. श्रीहरि (विष्णु) वामन रूप धारण करके यज्ञस्थल पहुंचे तो गुरु शंकराचार्य (संभवतः यहाँ शुक्राचार्य होना चाहिए) ने राजा बली को बता दिया था कि तुम्हारे साथ धोखा हो रहा है.  परंतु राजा बली ने तीन कदम जमीन के दान का संकल्प कर दिया. वामन ने विशाल रूप बनाकर पूरा ब्रह्माण्ड दो कदम में नाप लिया. पूरी कथा यहाँ पढ़ें-  दैनिक भास्कर 23 मई, 2010
(यहाँ भी कथा को रोचक बनाने की कोशिश है. पौराणिक कथाओं में इसी प्रकार से परिवर्तन होते रहे हैं. संभव है उनका मूल रूप ही पूरी तरह से बदल दिया गया हो.)

अन्य समाचार जो दिखे
1. दानवीर राजा बलि के मंदिर पर एक शाम दानवीर राजा बलि के नाम भजन संध्या का आयोजन सरगरा समाज नवयुवक मंडल के तत्वावधान में आयोजित किया गया.  दैनिक भास्कर 26 सितंबर, 2010
2. सरगरा समाज के आराध्य देव राजा बलि के दर्शनार्थ कस्बे से दर्शनार्थियों का दल बुधवार को पीचियाक रवाना हुआ. दल में 35 से अधिक लोग शामिल हैं, जो पीचियाक पहुंचकर वहां राजा बलि के मंदिर में आयोजित धार्मिक समारोह में भाग लेंगे. रवानगी के अवसर पर वातावरण राजा बलि के जयकारों से गूंज उठा. दल के सदस्यों को ढोल-नगाड़ों के साथ रवाना किया गया. दैनिक भास्कर 23 सितंबर, 2010


मिथ से संबंधित बहुत सी जानकारी पढ़ी जा चुकी है. ऊपर दिए अन्य समाचारों के अंतर्गत नज़र आने वाले लोगों के बारे में यदि जानकारी न ली जाए तो बात अधूरी रह जाएगी. इसमें मेघवाल आलेख के संदर्भ, पौराणिक और ऐतिहासिक संकेत सहायक हो सकते हैं. मोटे तौर पर वृत्र या मेघ ऋषि के वंशजों को मेघवंशी कहा जाता हैं. मेघवाल आलेख में उल्लिखित संदर्भों के आधार पर इतना कहा जा सकता है कि पौराणिक कथाओं में जिन मानव समूहों को असुर, दैत्य, राक्षस, नाग, आदि कहा गया वे सिंधु घाटी सभ्यता के मूल निवासी थे और मेघवंशी थे. आर्यों और अन्य के साथ पृथ्वी (भूमि) पर अधिकार हेतु संघर्ष में वे पराजित हुए और सदियों तक दासता की अमानवीय स्थितियों में रहे. इनके कुचले हुए शरीर और मन स्पष्ट दिखाई देते हैं जिन्हें निम्न होने के लक्षण कहा जाता है. ये धन, अन्न, भूमि, शिक्षा आदि से सदियों वंचित रहे. आज इन्हें अनुसूचित जातियों, जन जातियों और पिछड़ी जातियों (SCs, STs and OBCs) के रूप में जाना जाता है. ये अपने अधिकारों के प्रति संघर्षशील न रहे हों ऐसा भी नहीं है. इनके घर और बस्तियाँ बार-बार तबाह की गईं. जब-जब इनके या इनके पक्ष के किसी साहित्य, इतिहास, धर्म आदि ने रूप ग्रहण किया उसे नष्ट कर दिया गया या भ्रष्ट कर दिया गया. आज इनका कोई इतिहास उपलब्ध नहीं क्योंकि इतिहास विजेता ही लिखवाता है.
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इनकी हालत कुछ सुधरी है. सामाजिक वातावरण बदला है. परंतु नई अर्थव्यवस्था में ये केवल अति सस्ता श्रम बन कर ही न रह जाएँ इसलिए इनकी शिक्षा का प्रबंध सरकार का सामाजिक दायित्व है.

एक विद्वान के अनुसार तीन कदमों से तीनों लोकों को नापने का एक अर्थ यह भी है कि राजा बली को धोखे से मार कर ब्राह्मणों ने शिक्षा, अर्थतंत्र और राजनीतिक सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया.

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जीवों की आदि सृष्टि

जीवों की आदि सृष्टि विषयक कथाएँ (सुनी-सुनाई) प्रत्येक समुदाय में चली आ रही हैं. कुछ पात्रों के नाम तद्भव हैं और कुछ के तत्सम् चल रहे हैं. राजस्थान के मेघवंशियों में जो परंपरागत जानकारी उपलब्ध है उसे श्री गोपाल डेनवाल ने समेकित कर के भेजा है जिसे ज्यों का त्यों यहाँ दिया जा रहा है. (श्री जितेंद्र कुमार ने इसे यूनीकोड में तैयार किया है). कुछ शब्दों का स्वरूप बदला सा है. शिक्षा से दूर रखे गए समुदाय किसी-न-किसी रूप में जानकारी को संजोए हुए हैं. नामों में टंकण की त्रुटियाँ भी हो सकती हैं. शुद्ध वर्तनी के सुझाव मिलने पर इसे सुधारा जाएगा.

जीवों की आदि सृष्टि 
जीव की उत्पति जल से होती है. यह एक वैज्ञानिक सत्य है और जल के बिना जीव पैदा नही हो सकता यह भी एक कटु सत्य है. जल का निकास मेघों  द्वारा  होता है जिसे बादल भी कहते  हैं. उसी जल नारायण  की नाभि  कमल  से भगवान  ब्रह्मा  की उत्पति  है. अतः पूरी सृष्टि मेघ से उत्पन्न हुई  है.

मेघ बरसे मानव हर्षेहर्षे  ऋषि मुनि और देव |
संत महात्मा सभी पुकारे, करो  मेघ  की सेव ||

श्री भगवान मेघ  नारायण  की नाभि कमल से
ब्रह्मा 

ब्रह्मा से :-
1. ब्रह्मा :- चार ऋषि- सनक, सनन्दन, सनातन, संतकुमार
2. दस मानसपुत्र :- मरीच, अत्रि, अंगीरा, पुलस्त्य, पुलह, कृतु, भृगु, वशिष्ट, दक्ष, नारद
3. शरीर के दो खंडरो :-  पुरुष स्वायम्भुमनु, स्त्री स्तरूपा इनसे 2 पुत्र 3 कन्याएँ
उत्तानपाद, प्रियव्रत, आकुति, प्रसूति पति-दक्ष प्रजापति, देवहुति पति-कर्दम ऋषि
उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव
ध्रुव प्रतावती से – पति रूचिनाम ऋषि.  इनके पुत्र
आगिनध्र, विष्णु, दक्षिणा, वयुश्मान, ज्योतिष्मान, धुतिमान, भव्य, सवन, अग्नि बाहु, मित्र   

कर्दम ऋषि की 9 कन्याएँ  व उनका विवाह 
1. कला – मरीचि
2. अनुसूया – अत्री
3. श्रद्धा – अंगीरा
4. हवि  – पुलस्त्य
5. गतिका – पुलह
6. योग – क्रतु
7. ख्याति – भृगु
8. अरुंधती – वशिष्ट
9. शान्ति – अर्थवन

मरीचि :- (1)  कश्यप और (2) पूर्णिमा
कश्यप :- विवस्वान (सूर्य) इनसे सूर्यवंश चला, दनुस्त्री से 100 पुत्र हुए थे जिनमें एक मेघवान था जो सप्त सिन्धु  के महाराज के जनक थे.
विवस्वान :-  विवस्वत्म्नु (सात्वेमनु)
विवस्वत्म्नु:- 1. इशवाक, 2. विकुक्षि, 3. निभी आदि  सहित 101 पुत्र  थे.


अत्रि के पुत्र :- 1
. दत्तात्रेय, 2. दुर्वासा, 3. चंद्रमा
चंद्रमा के पुत्र :- 1. नहुश, 2. बुद्ध, 3. सोम, सोम से चन्द्रवंश चला
नहुश:- 1. यति, 2. ययाति, 3. संयाति, 4. उद्भव, 5. याची, 6. सर्य्याती, 7. समर्पिती

ब्रह्मा के चौथे  पुत्र :- पुलस्त्य
पुलस्त्य के पुत्र :- विश्रवा
विश्रवा के पुत्र :-  कुबेर, खरर्दुशन (खर-दूषण), तारिका, रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, सुरपन्खा (शूर्पनखा) 

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Maveli (राजा बली) is remembered by Meghvanshis in Kuchchh-Gujrat

This was the feedback I received from Gujrat (Kuchchh) as a comment on one of the articles. This deserved to be taken as proper input.:
Thank you, Bharat Bhushan, for raising historical topic relating to identity of Meghwal identity. As far as western Gujarat (Kachchh) (erstwhile Sindh-Kachchh region) is concerned, we Maheshwari Meghwars have an interesting tradition to confirm much awaited return of Raja Bali’s rule. People from our community are following an unique tradition during Diwali i.e. on Kali Chaudas Day – Kids/youths will take a 3 feet sugarcane stick with cotton tied on it and after burning the same, they will go to each and every fellow community brother’s home and will say “HORI, DIYARI, MEGH RAJA JE GHARE MERIYO BARE”, which means – lights shall ignite in the house of Megh Raja on every Holi and Diwali”. In return, the householder will pour one spoon Ghee on the burning cotton. Eventually, after roaming almost all homes, all these Sugarcane stick (MERIYO) are kept at the outskirts. These MERIYAS when seen together gives a marvelous glimpse of unity of Meghwar community.

The basic idea behind all these traditions is to keep alive our craving for retaining our lost pride that we (Meghwars/Meghwals) are descendants of Great Ruler of ancient India. In our forefathers rule, we were happy and living a dignified life. As such, this tradition of remembering Bali Raja/Megh Raja is to keep alive our ambitions of restoring our lost rule and pride. I think so.

Thanks again for your cause of uniting entire Meghwals of India on one platform.

Navin K. Bhoiya
Kachchh-Gujarat
18 September 2010 17:57”

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Balijan Cultural Movement बलीजन सांस्कृतिक आंदोलन-2

मैंने शीर्षक में ही बलि को बली लिखा है. ऐसा मैंने जानबूझ कर किया है. विश्वस्त हूँ कि ऐसा करके ग़लती को ठीक कर रहा हूँ. क्योंकि बलि होना किसी का शौक या हॉबी नहीं हो सकती.

वर्ष जून 2010 में जम्मू में भगत महासभा द्वारा आयोजित कबीर के 612वें जयंती समारोह के अवसर पर जयपुर से पधारे श्री गोपाल डेनवाल (मेघवाल) ने अन्य साहित्य के साथ उक्त आंदोलन का घोषणापत्र मुझे दिया था. यह मेरे लिए एक नई चीज़ थी जिसे मैंने मेघ भगत पर प्रकाशित किया.

इस बीच इसकी जानकारी एकत्रित करने की कोशिश करता रहा. इस सिलसिले में दिल्ली के श्री दिनेश कुमार सांडिला से परिचय हुआ. फोन पर बात हुई. वे चंडीगढ़ पधारे. उनके साथ बातचीत में मेघ समुदाय के दो प्रतिष्ठित व्यक्ति भी शामिल हुए.

इस आंदोलन का घोषणापत्र अब हिंदी में प्राप्त हुआ है जिसे यहाँ पढ़ा जा सकता है बलीजन सांस्कृतिक आंदोलन. अभी तत्संबंधी साहित्य का अध्ययन कर रहा हूँ. संक्षेप में अभी इतना कहना पर्याप्त होगा कि इस आंदोलन का ईसाईयत की ओर झुकाव है. जातिवाद की शिकार अविकसित जातियों की उन्नति का जो मार्ग इसने चुना है उसमें अन्य पिछड़ी जातियों और अनुसूचित जातियो/जनजातियों को सम्मिलित रूप से लक्ष्य बनाया गया है और उन्हें अपनी विचारधारा के साथ जोड़ने का इनका मिशन है. यह मिशन धर्मपरिवर्तन नहीं कराने का दावा करता है.

जहाँ तक इस आंदोलन के नामकरण का सवाल है यह ठीक प्रतीत होता है. इस समूह के अस्तित्व में आने से पहले भी कई इतिहासकार और लेखक इस बात से सहमत हो चुके हैं कि पौराणिक कथाएँ वास्तव में इनके लेखन के समसामयिक भारतीय समाज को एक साँचे में ढालने के लिए एक समूह के द्वारा ख़ास तरीके से लिखी गई हैं जिससे उस समूह का हित लंबे समय तक सधता रहे. यह सफलता पूर्वक किया गया. परंतु अब शिक्षा के साथ कई व्यक्ति और जातिसमूह उन पौराणिक कथाओं की मानसिक गुलामी से निकल चुके हैं. हालाँकि यह बहुत कठिन काम था. उस शिक्षा के आधार पर अस्तिव में आए कई दर्शन और धर्म-संप्रदाय आदि समाप्त हो गए या कमज़ोर पड़ गए. संतमत ने इस दिशा में बहुत कार्य किया. राधास्वामी मत इस दिशा में सक्रिय है जिस पर आक्रमण होते आ रहे हैं.

प्रह्लाद का पोता राजा बली या महाबली (केरल में मावेली के नाम से प्रसिद्ध) एक ऐसा पौराणिक चित्र है जिसकी चमक भारतीय समाज में समांतर चल रही दो सभ्यताओं सुर (आर्य- मध्य एशिया से आई जनजाति) और अनार्य (असुर- सिंधु घाटी सभ्यता का विकास करने वाली जाति और वहाँ के मूल निवासी ) दोनों में बराबर दृष्टिगाचर होती है. वह एक नेक, न्यायी, महाबली, सुशासन देने वाला राजा था जिससे सुर जलते थे और उसे धोखे से पाताल लोक (केरल या अमेरिका) में भेज दिया गया या मार डाला गया. लोग उसे आज तक भूले नहीं. वे उसके लौटने की प्रतीक्षा करते हैं क्योंकि उसके राज्य में सभी सुखी थे. इसी मिथ के आधार पर बलीजन सामाजिक आंदोलन का नामकरण हुआ है. इस आंदोलन ने इसे ईसाई धर्म के न्यू टेस्टामेंट के साथ जोड़ा है. इसमें कुछ शब्दों की रूपसज्जा की गई है जो सुने हुए से प्रतीत होते हैं. यथा महादेव, यःशिवा आदि. अभी इसे थोड़ा ही पढ़ पाया हूँ.

श्री सांडिला जी कुछ और पुस्तकें भी दे गए हैं. जो कुछ मुझे प्रभावित करेगा उसे आपके साथ साझा करूँगा.

 
विशेष टिप्पणी: अंग्रेज़ों के शासन के दौरान ईसाई मिशनरियों ने अपने धर्म के प्रचार के लिए ब्राह्मणों को अपने साथ जोड़ा था. वे जुड़े भी. उनमें से कई ईसाई बने. वहाँ खूब पैसा था. जब मिशनरियों ने अविकसित जातियों में अपने धर्मप्रचार के लिए उनके समूहों में शिक्षा की मुहिम चलाई तब उसे धर्मपरिवर्तन या विश्वासपरिवर्तन कह कर कई तरह से बदनाम किया गया और उन जातियों में भय पैदा करके उन्हें पढ़ाई से दूर रखने की हर कोशिश की गई. आज भी उस कोशिश का अंत हुआ प्रतीत नहीं होता जबकि यह स्थिति आज से करीब डेढ़ सौ वर्ष पूर्व मुद्दा बन चुकी थीं. महात्मा फुले और डॉ. अंबेडकर का साहित्य इसकी गवाही देता है. लेकिन व्यापक रूप से शिक्षा से वंचित किए गए वर्गों तक इस साहित्य का संदेश पर्याप्त रूप से नहीं पहुँच सका, यह विडंबना रही.

संपन्न जातियों के बहुत से लोग विदेशों में जा बसे हैं, ईसाई बन चुके हैं या बिना अपना नाम बदले ईसाईयत को अंगीकार कर चुके हैं. उनके विरुद्ध भारत में कोई दुष्प्रचार नहीं किया जाता. जबकि अविकसित जातियों के विकास की जब भी कोई योजना ईसाई मिशनरी बनाते हैं तब गंदा धार्मिक प्रचार करके या धार्मिक घृणा फैला कर उसे रोकने का प्रयास किया जाता है (मुझे धर्म और घृणा पर्यायवाची से लगने लगे हैं). उद्देश्य केवल एक कि इन जातियों तक अच्छी शिक्षा, रोज़गार और संपन्नता बड़े स्तर पर न पहुँचे. आज शिक्षा का मँहगा होना और भारत सरकार की निर्धन बच्चों की शिक्षा के प्रति उपेक्षा उसी की कड़ी है. (ग़रीबों को बढ़िया और अच्छी शिक्षा देने का प्रबंध कौन करेगा? इन जातियों को शिक्षित बनाने की कारगर आयोजना क्या सरकार का काम नहीं है? अगर नहीं है तो जो भी संस्था यह कार्य करे लोग उसे समर्थन क्यों न दें.)

ब्लॉग लेखक के तौर पर अपना उत्तरदायित्व पूरा करना चाहता हूँ. माता-पिता धार्मिक कार्यों पर न्यूनतम खर्च करें, सामाजिक कार्यों पर फिज़ूलखर्ची बिल्कुल न करें और पैसा बच्चों की शिक्षा पर लगाएँ. सरकारी शिक्षण संस्थाओं/स्कूलों में शिक्षा के नाम पर हो रहे मज़ाक और फैले हुए भ्रष्टाचार  को चुनाव का मुद्दा बनाएँ. युवक-युवतियाँ रोज़गार के लिए किसी भी धर्म या भगवान पर भरोसा न करें, रोज़गार पकड़ें. पैसा सब कुछ न सही परंतु काफ़ी कुछ है. प्रथम आजीविका.


इस आंदोलन के घोषणा-पत्र का अंग्रेज़ी पाठ इस लिंक पर देखा जा सकता है–> Balijan

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Meveli belongs to India and Meghvansh

I received few phone calls from N.Delhi, Indore, Jaipur and other places. None of the callers questioned relationship of Maveli and Meghvansh (Maveli belongs to Meghvansh) rather they were aware of it. The Balijan Cultural Movement retells the mythical story of King Mahabali. Mr. Mohan Devraj Thontyal, a research scholar from Pakistan who has done his research on Origins of Meghwars and Megh Rikh, observes that:-
“I am delighted to read the article Maveli or Mahabali and the subsequent article about the festival Onam. Perhaps one can agree with the historical point that one ancient tradition is often told by the people of different regions of India into the different versions for instance, the epics Ramayana and Mahabharata and their several versions. In case of Raja Bali, I found a tradition in the Meghwar origin story (Book Megh Mahayatamaya in Gujarati authored by Nathguru Jivannathji) where Raja Bali has been shown interacting with Rishi Shringya and Megh Dharu.
To my own opinion Vamansthali or the present Vanthali (a modern town in Gujarat state) should have been the royal seat of Raja Bali, where the Incarnation Waman is said to have pressed down the king into the earth, later the place came to be known after the name of Waman Dev. However the further research in this regard is yet to be done. The tradition of Raja Bali might have been received in the certain period of time by the South Indian region with more exhilaration. (15 September 2010 18:59)”
In this context we find King Mahabali’s presence in Gujrat region as well. The stories may differ as they have been distorted sometimes even beyond recognition. I asked all the callers whether they were inclined to celebrate Onam festival in respect of Mahabali. The response was positive. Then I suggested them an Onam festival which is without other symbolic items like Pulikali (lion dance) that has a non-contextual image of another distorted story. Secondly, on Onam, so far as possible, this can be ensured that only such goods and products are used which are produced by Meghvanshis especially the poor one. On this occasion we may use candles rather than electric lighting. It can do wonders. There is some activity in Balai community after this suggestion.

Balijan (बलिजन) Cultural Movement

Recently I had written a post regarding Meveli and Onam. Now I got some additional information through further search.
Folk culture never dies. It forms basis for many religions, schools of thoughts, political thoughts etc. The myth of King Bali has survived with two images in two different cultures of Indian society. Both the cultures admit that he was a great king who is known for his humanism, justice, charity and egalitarian regime. His image is used by brahmins as well as non-brahmins, by shudras as well as non-shudras of course with opposite intentions. His name may not appear in the manifestos of political parties but the ground reality is that his present generations are divided in various castes and names. All political parties try to divide their votes for obvious benefit. So much so, their hutments are pulled down in order to rehabilitate them at a far off place where their vote becomes isolated and ineffective thus further reducing their political say.
I know nothing about the political ideology of Eklavya but he is curious about the present position of Balijan Cultural Movement. I learnt only from him that the manifesto of this movement was released in Osmania University in the year 2009. Recently (in the past two days) I have come to know that the movement is alive though moving slowly. It is active in New Delhi and other states. One periodical named ‘Balijan Samaj’ is being published from Indore. I hope to get a copy of it in near future.
The work of Mahatma Phule and Mr. Braj Ranjan Mani’s book form the basis of philosophy of this movement. We await other details and literature.

हाल ही में राजा बली और ओणम उत्सव पर आलेख दिया था. इसी सिलसिले में खोजबीन की तो कुछ और जानकारी मिली.
लोक संस्कृति कभी मरती नहीं है. लोक संस्कृति को आधार बना कर कई धर्म, विचार धाराएँ, राजनीतिक विचारधाराएँ आदि पनपती हैं. राजा बली का मिथ भारतीय समाज में दो संस्कृतियों में दो छवियों के साथ जीवित है. दोनों छवियों में राजा बली समानता, मानवधर्म, न्यायप्रियता, दानवीरता के कारण जाना जाता है.
उसकी छवि का प्रयोग ब्राह्मण भी करते हैं और अब्राह्मण भी, शूद्र भी करते हैं और अशूद्र भी. उसका नाम राजनीतिक पार्टियों के घोषणा पत्रों में भले ही न हो परंतु ज़मीन पर उसके वंशजों को विभिन्न जातियों और नामों में बाँट कर रखा गया है. सभी राजनीतिक पार्टियाँ उनके वोटों को आपस में बाँटने का प्रयास करती रहती हैं. यहाँ तक कि उनके घरों को गिरा दिया जाता है ताकि उन्हें कहीं और ऐसी जगह बसाया जा सके जहाँ उनके वोट अलग-थलग पड़ जाएँ, अप्रभावी हों जाएँ और उनकी राजनीतिक आवाज़ पहले से कम हो जाए.
मैं ठीक से नहीं जानता कि एकलव्य की विचार धारा क्या है परंतु उन्हें बलीजन सांस्कृतिक आंदोलन की आज की स्थिति की जानकारी चाहिए. मुझे उन्हीं से पता चला कि बलीजन सांस्कृतिक आंदोलन का घोषणा पत्र सन् 2009 में उस्मानिया विश्वविद्यालय से जारी किया गया था. पिछले दो दिनों में मेरी जानकारी में आया है कि यह आंदोलन चल रहा है चाहे धीमी गति से चल रहा है. यह नई दिल्ली और अन्य राज्यों में सक्रिय है. इंदौर से बलिजन समाज नाम से एक पत्रिका भी प्रकाशित हो रही है. शीघ्र ही उनसे एक प्रति मिलने की आशा है.

इस आंदोलन का दार्शनिक आधार महात्मा फुले और श्री ब्रज रंजन मणि की पुस्तक है. अन्य ब्यौरे और साहित्य की हमें प्रतीक्षा रहेगी.

MEGHnet

Maveli (महाबली) belongs to Meghvansh

I wrote a post On Megh Bhagat. It was captioned ‘Our hero’. It had some significance but I did not have any idea of its extension. Now I have a fair idea.
I was a child when my mother told me the story of King Maveli (Mahabali). It sounded in my ears like this: the king was so good then why someone grabbed his kingdom by fraud. Well the story was over. I fell asleep.
I got a chance to serve my organization in Trivandrum. I saw first time the fervor with which Onam is celebrated in Kerala. With much emotion and good expense people celebrate the festival. Some people (no idea who these people are) sell their belongings to celebrate the festival with determination to keep the glitter maintained. A year later I was transferred from there. But Onam festival of Kerala kept haunting my mind.
I happened to visit Jammu for attending celebrations of Kabir Jayanti. A delegation of Meghwals of Rajasthan had come. They brought along some literature. There were two important things. One was the manifesto of Balijan Cultural Movement and other a book by Shri R.P. Singh’s- ‘Meghvansh – Ek Singhavokan (An overview)’. I casually read both and partially published them on MEGHnet. Unknowingly a sentence kept on coming to my dim memory. It was a prayer of Meghvanshi Balai people (belonging to Madhya Pradesh, Rajasthan and Chhattisgarh). They pray like this- ‘Ala jaye bala jaye – Bali ka raj aye’ i.e. ‘let all nonsense go and let the regime of King Bali come back.’
Then I got an idea to use quotes from ‘Meghvansh- Ek Singavlokan’. As I prepared for the use of materials a very serious situation arose in front of me. Megh, Meghwal, Meghwar, Maheshwari Meghwar, Megh Rishi, Vritra and his generations, Rishi Kashyap, Diti, Aditi, Sur, Asura, Hiranyaksyap, Hirnaksha, Ban, Mahabali (popularly known as Maveli in Kerala), Prahlada, Many warriors of Mahabharata, Nag, Nagvansh, Buddhism, Dragon, Jainism, Cārvāka (Charvak), Kalinga, Khaarvel, Mahameghvahan etc. The available information looked like a black canvass having no other color or light.
It took two months to understand what was visible was an artificially created black sky. The depiction of demons (Asuras) in religious books and comics was in fact someone’s defeated past, which was featured as dirty and ugly as possible. Where ever it was made presentable it was through the image of devotee (Bhakta) Prahlad. It was methodology of endorsing slavery by narrating it as ‘good’ and ‘ok’.
Prahlad was the son of King Bali. His predecessors and successors were struggling for their due but invaders were overpowering them. The shine of King Bali’s image has survived through centuries. His subjects and successors in Kerala kept his memories alive and they did not forget him. His work and qualities are remembered on the festival day of ‘Onam’.
Onam like festival relating to King Bali is not celebrated in any other corner of India. But it was surprising to know that Maveli is remembered by a community in Madhya Pradesh, Rajasthan and Chhattisgarh. Balai community there still prays for return of regime of King Bali. In mom’s story I hear a prayer for return of King Bali.
I know that the time has changed a lot. Mahabali’s generations after going through centuries of abject poverty and torture have now begun to see the light of progress. This is not the era for making ethnic differences worse. It is time to evolve the society and not revolve it. However, if no good picture of the past is available then it is better to save Maveli’s shining picture to feel good. If I am not too emotional, can’t we celebrate Onam our own way?
मावेली (महाबली) मेघवंश के हैं 

मेघ भगत और मेघ नेट पर मैंने हमारे हीरो के नाम से एक छोटी सी पोस्ट मैंने डाली थी. उसका कुछ महत्व था लेकिन उसके विस्तार का अनुमान नहीं था. अब है.बचपन में माँ ने मुझे राजा बली (महाबली) की कहानी सुनाई थी. मेरे कानों में वह यों लग रही थी कि राजा इतना अच्छा था तो किसी ने धोखे से उसका राज्य क्यों हड़प लिया. ख़ैर कहानी समाप्त हो गई. मैं सो गया.
नौकरी के दौरान तिरुवनंतपुरम में रहने का अवकर मिला. पहली बार पता चला कि केरलमें ओणम का त्यौहार मनाया जाता है. बहुत भावुकता के साथ और ख़ूब व्यय करके लोग यह त्योहार मनाते हैं. कुछ लोग (पता नहीं ये कौन लोग हैं) अपना घर-बार बेच कर भी इस त्योहार की चमक-दमक बनाए रखने के लिए कृतसंकल्प होते हैं. एक वर्ष के बाद मेरा वहाँ से तबादला हो गया. परंतु केरल मेरे मन में कहीं टँगा रहा. 
कबीर जयंती के एक समारोह में मुझे जम्मू जाने का मौका मिला. वहाँ राजस्थान के मेघवालों का एक प्रतिनिधि मंडल आया हुआ था. वे अपने साथ कुछ साहित्य भी लाए थे. उसमें दो महत्वपूर्ण चीज़ें थीं. एक तो बलीजन आंदोलन का घोषणापत्र(मेनिफ़ेस्टो) और दूसरे श्री आर.पी. सिंह की पुस्तक मेघवंश- एक सिंहावलोकन’. मैंने दोनों सरसरी तौर पर पढ़े और मेघनेट पर अंशों में प्रकाशित किए. एक पढ़ी हुई बात कहीं मन पर पड़ी रह गई कि राजस्थान में बलाई समाज के लोग, जो मेघवंशी हैं,  प्रार्थना करते हैं कि अला-बला जाए, बली का राज आए’.
इसके बाद विचार आया कि मेघवंश एक सिंहावलोकन को विस्तार से देखा जाए और इस पुस्तक के उद्धरणों का प्रयोग किया जाए. जैसे ही मैंने यह सामग्री के प्रयोग की तैयारी की और कई आलेखों के आंतरिक जोड़ देखे तो बड़ी गंभीर स्थिति सामने आने लगी. मेघ, मेघवाल, मेघवार, माहेश्वरी मेघवार, मेघ ऋषिवृत्र और उसकी संतानें, ऋषि कश्यप, दिति, अदिति, सुर, असुर, हिरण्यकश्यप, हिरणाक्ष, बाण, महाबली (केरल में मावेलीनाम से प्रसिद्ध), प्रह्लाद, महाभारत के अनेकों योद्धा, नाग, नागवंश, बौद्धधर्म, ड्रैगन, जैनधर्म, चार्वाक, कलिंग, खारवेल, महामेघवाहन आदि की जानकारी एक काला कैन्वास बन कर खड़ी हो गई जैसे उसमें कोई अन्य रंग या प्रकाश हो ही नहीं. 
यह समझने में दो महीने लग गए कि जो दिखाई दे रहा था वह नकली आसमान था जो काला दिख रहा था. धार्मिक पुस्तकों, पाठ्यक्रम, कॉमिक्स आदि में जिसे असुर या खलनायक के रूप में देखता रहा था वह वास्तव में किसी का पराजित अतीत था जिसे यथासंभव गंदे और भद्दे रूप में चित्रित किया गया था. यदि उसे अच्छा बना कर पेश किया भी गया तो भक्त प्रह्लाद बना कर. यह भी दासत्व पर मुहर लगाने का एक तरीका था कि यह ठीक था और अच्छा था. 
राजा बली प्रह्लाद की संतानों में से है. उनके पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती वंशज आक्रमणकारियों से जूझते रहे और दबाए जाते रहे. केवल राजा बली की तस्वीर है जिसकी चमक मिटाए से मिटी नहीं. केरल में उसके वंशजों और प्रजाओं ने उसे भूलने नहीं दिया और उसके गुणों को एक पर्व ओणमके रूप में याद करते रहे. 
राजा बली से जुड़ा ओणम जैसा पर्व भारत के किसी और कोने में दिखाई नहीं देता. लेकिन यह जान कर आश्चर्य हुआ कि महाबली या मावेली को स्मरण करने वाला एक समुदाय मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भी है. वहाँ के बलाई आज भी प्रार्थना करते हैं कि राजा बली का राज आए. मुझे माँ की सुनाई कहानी में भी कहीं सुनाई पड़ता है कि राजा बली का राज आए. 
मैं जानता हूँ कि अब समय बहुत बदल गया है. महाबली की संतानें शताब्दियों तक घोर यात्नाएँ और घोर ग़रीबी झेलने के बाद अब प्रगति का उजाला देखने लगी हैं. जातिगत मनमुटावों को हवा देने का युग नहीं है. यह समय समाज को आंदोलित करने का नहीं बल्कि उसे विकसित करने का है. तथापि अगर अतीत की कोई साफ़ सी तस्वीर उपलब्ध हो तो उसे सहेज कर रखना अच्छा लगता है. अगर मैं बहुत भावुक नहीं हो रहा तो क्या हम अपने यहाँ ओणम नहीं मना सकते?
अब आप ओणम के बारे में एक सार लेख पढ़ सकते हैं:-
ओणम
ओणम केरल के लोक-जीवन को हर्षोल्लास से भर देने वाला मुख्य त्योहार है. यह राज्यभर में मनाया जाता है. ओणम में केरल की पुरानी महिमा, गरिमा, वैभव और सुख-समृद्धि की झलक देखने को मिलती है. मानसून में जब भूमि हरियाली से पट जाती है, उसी समय केरल में ओणम का त्यौहार मनाया जाता है. यह केरल में नया साल शुरू होने का त्योहार भी है. 
अत्तप्पूव ओणम का एक अभिन्न अंग है. रंग-बिरंगे फूलों से चित्र रचना (अल्पना) करके पूजा करती हैं. हर दिन सुबह पुराने पुष्प हटाये जाते हैं, नए सजाए जाते हैं. ओणम की धूम-धाम छह दिन तक चलती है. छह दिनों में परिवारों में बड़ा भोज होता है. परिवार के सारे सदस्य, चाहे वे दुनिया के किसी भी कोने में क्यों न हों, तिरुओणम (श्रीओणम) के दिन माता-पिता के साथ भोजन करने अपने घर में आ जाते हैं. तिरुओणम के दिन सुबह परिवार में सब को नये-नये कपड़े बांटे जाते हैं, जिसे ओणप्पुडवा कहते हैं यानी कपड़ा. ओणम के दिनों में हर घर में बच्चों के लिए झूले लगाये जाते हैं. स्त्रियाँ लोकगीत गाकर नृत्य करती हैं. इस त्यौहार के अवसर पर कबड्डी और गेंद (देशी) का खेल भी होता है. नौकोत्सव भी ओणम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. 
इतिहास के अनुसार केरल के मशहूर पेरूमाल वंशी राजा चेरमान पेरूमाल ने इस महोत्सव का श्रीगणेश किया था. वे महाबली को एक आदर्श पुरुष मानते थे. तृक्काक्करा मंदिर में चूंकि वामन की मूर्ति प्रतिष्ठित है, अत: श्री पेरुमाल ने वहाँ प्रतिवर्ष ओणम, महोत्सव के रूप में मनाये जाने के कुछ तौर-तरीके नियत किये. कर्क महीने के श्रवण नक्षत्र से शुरू होकर सिंह महीने के श्रवण नक्षत्र तक, जिस दिन महाबली को वामन से मुक्ति मिली, केरल के कोने-कोने में यह त्योहार धूम-धाम से मनाए जाने का निश्चय किया था. उन दिनों अट्ठाइस दिनों तक महोत्सव मनाया जाता था. 
पौराणिक कथा के अनुसार असुर वंश के राजा महाबली केरल में शासन करते थे. उनके शासनकाल में न कहीं असमानताएँ थी न ही धोखा-धड़ी, सर्वत्र न्याय और धर्म का शासन था. उनकी न्यायप्रियता ओर धर्मनिष्ठा से इंद्रासन हिलने लगा. इंद्र ने महाविष्णु से इस स्थिति से बचाने की प्रार्थना की. महाविष्णु वामन का रूप धारण कर महाबली के पास आये और तपस्या के लिए तीन पग भूमि मांगी. बली ने बड़ी प्रसन्नता से ब्राह्मण को भूमि देने का वचन दिया, लेकिन वह जन हितैषी राजा ठगे गये. सहसा वामन ने बृहद रूप धारण करके बली की वचनबद्धता का फायदा उठाते हुए दो ही पगों से स्वर्ग, पाताल और भूमि नाप ली. बली ने तीसरे पग नापने के लिए अपना सिर झुका दिया. वामन ने बली के सिर पर तीसरा पग नापते हुए उन्हें पाताल में धंसा दिया. यही कहा जाता है कि पाताल जाने से पहले बली ने वामन से हर साल एक बार अपनी प्रजा की कुशल क्षेम जानने के लिए अपने राज्य में आने की अनुमति माँगी थी और वामन ने अनुमति दी भी थी. केरल के लोगों को विश्वास है कि हर साल सिंह महीने के शुक्ल पक्ष द्वादशी को महाराज बली अपनी प्रजा का कुशल-क्षेम जानने के लिए पधारा करते हैं. 
ओणम के दिन जनता अच्छी मिठाइयाँ पकाकर, नए कपड़े पहनकर घरों और रास्तों में दीप जलाकर राजा बली का भव्य स्वागत तथा पूजा करने की परिकल्पना करती है. लोगों को विश्वास है कि उत्तराषाढ़ की रात को राजा महाबली हर घर का दौरा करते हैं और इसलिए इस दिन रात-भर में अखंड दीप जलाये रखते हैं. इस प्रकार लोग अपने प्रजाहितैषी भूतपूर्व सम्राट को यह बताते हैं कि हम आज भी आपके शासनकाल के समान सुखी और सकुशल हैं. 
बाजार में करोड़ों का कारोबार होता है. सरकार की ओर से सभी जिला केंद्रों और राजधानी तिरुवनंतपुरम में कई कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं. लोक कलाओं की प्रस्तुति और मनोरंजक कार्यक्रम भी होते. ओणम को वर्ष 1961 में राजकीय त्योहार घोषित कर दिया गया. अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त होने के कारण ही भारत सरकार ने ओणम पर्व को पर्यटन सप्ताह घोषित किया. इस दौरान हजारों सैलानी पर्यटन के लिये केरल आते है.

यू-ट्यूब पर ओणम और राजा बली


Onam and Raja Bali on You Tube


(ऊपर दिए गए चित्र विकिपीडिया से लिए गए हैं)

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