Monthly Archives: November 2010

Unity and way to progress – सामुदायिक एकता और विकास-पथ

प्रो.राजकुमार और श्री एम.आर. भगत एवं अन्य प्रतिनिधि
किसी समुदाय के भीतर कार्य कर रहे विभिन्न सामाजिक संगठनों का मिल कर अपने कार्यक्रम बनाना समुदाय के विकास का अगला चरण माना जाता है. मेघवंशियों के जम्मू-कश्मीर स्थित मेघ-भगत समुदाय ने, मेरी जानकारी के अनुसार, पहली बड़ी संगठनात्मक पहल की है कि कई वर्ष से कार्यरत मेघ सुधार सभा’ (Megh Sudhar Sabha) और भगत महासभा’ (Bhagat Mahasabha)  ने मिल कर अपने कार्यक्रम बनाने का और सामाजिक उत्थान का संकल्प लिया है. परंपरावादी शक्तियों द्वारा कई नाम दे कर भयंकर रूप से बाँट दिए गए इस समुदाय में बहुत समय के बाद यह सकारात्मक लक्षण देखने को मिला. विश्वास होने लगा है कि पंजाब और जम्मू-कश्मीर में इस समुदाय के भीतर कार्य कर रहे अन्य पुराने और ढीले ढँग से चल रहे संगठन इससे प्रेरणा लेकर एकता और विकास को मिशन बनाएँगे. इससे युवा शक्ति बड़े पैमाने पर आ जुड़ेगी. रास्ता लंबा है और बेचैनी भी बहुत है. शिक्षा, जागरूकता और निरंतर कार्य भी चाहिए.

बधाई और सुनहरे भविष्य हेतु शुभकामनाएँ.

अधिक विस्तार के लिए ये लिंक देखें



1500 Bhil Meena sacrificed their lives for independence – स्वतंत्रता के लिए 1500 भील मीणा हुए थे शहीद

Govind Guru

(This post is based upon an article published in a magazine ‘Meena Bharati’, September-October 2007 issue. I came to know about it through my colleague Vasundhara Meena. I am grateful to her.)
Govind Guru (Govind Guru) was born on December 30, 1858 in Basipa Village, District Dungarpur in a Banjara (gypsy) family. In the area of Bhils in Southern Rajasthan, Gujarat and Madhya Pradesh this aboriginal community was slave of two masters. They were slaves to the British but more sadly they were slaves to local feudal, vassals and petty self made kings those not only exploited this community but also went to the lowest levels of moral values to keep this tribe in abject poverty.  An incident of massacre on the occasion of a religious ceremony held at Mangarh hill is an apt example.
Guru Govind, a socially conscious and religious personality, had launched a different kind of struggle against social evils prevailing in Bhils and Garasis. At that time an organization named Samp Sabha was the symbol of unity of tribes in Gujrat. The number of devotees in the organization had reached 5lakhs. A goal of this organization was to get their tribe free from the system of forced labor. The movement was getting momentum and was strong enough to end the rule of feudal and vassals etc. From the other end feudal and vassals were conspiring to crush it. They propagated that Guru Govind was a threat to British rule and got him arrested. The tribe took it as a challenge and they had to release Guru Govind. It did not end here. Atrocities against the tribals were increased. In addition to violent attacks the main objective was to shut down their schools. The British masters were misinformed and told that tribals had been organizing mutiny against the British rule and wanted to establish their own State. During that period one Bhil Punja Dhira killed a policeman (thanedar) of Gathra village, Santrampur, Gujrat because Thanedar was giving them brutal treatment and tribals were fed up with him. The incident was promoted as treason and military assistance from the British was requested.
In December 1908, like every year, a religious ceremony ‘Magh Purnima’ was prearranged on Mangadh hill. Bhil Meena (including women, children and old men) had gathered for religious ceremony. Those Bhil Meena, influenced by the freedom movement, were also raising slogans against the British, vassals, feudals and petty kings.
False rumors were spread that the half million Bhils had gathered on the hill and intended to attack Santrampur district. The army of the British and the feudal surrounded the hill from three sides and millions of unarmed people were indiscriminately fired at. In order to save their lives many people ran towards Khaidapa valley and were killed in stampede.
It is said that 1500 Bhil Meena died in this massacre.(Most of the references mention 1500 as the number). After the massacre the area was declared ‘restricted area’. The purpose was to destroy evidence and prevent documentation. But – “Blood is blood after all, if dropped it remains in earth.” Now people celebrate this martyrdom day on 17 November every year. 
In Jallianwala Bagh incidence 379 people had died.Shouldn’t Mangadh incidence be given the same place in history as was given to Jallianwala Bagh incidence? These brave people are aboriginal tribe of India. Is their sacrifice and sense of freedom less important? 
This struggle makes the real sense of ‘Vande Mataram’ of freedom struggle of Bhils because this land belongs to them. They are aboriginals of this land. Their struggle is not yet over. Their land is still grabbed and the law is not in their favor. 
Mangadh Hill is undoubtedly memorial of martyrs of Independence. Magh Purnima festival is held even today.
Another reference can be seen on the blog of Mr. Madhav Hada. (It was reported by Mr. Pramod Pal Singh) -> धूणी तपे तीर: Author Mr. Hariram Meena
(यह पोस्ट एक पत्रिका मीना भारती के सितंबर-अक्तूबर 2007 के अंक में छपी थी जिसकी जानकारी मुझे अपनी सहकर्मी वसुंधरा मीणा (Vasundhara Meena) से मिली. उनके प्रति आभार)

30 दिसंबर 1858 में बासीपा ग्राम, ज़िला डूँगरपुर (Dungarpur) के एक बंजारा (gypsy) परिवार में गोविंद गुरु (Govind Guru) का जन्म हुआ था. दक्षिणी राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेश में भीलों का क्षेत्र दो तरफा गुलामी झेल रहा था. अंग्रेज़ों की और उनके एजेंट स्थानीय रजवाड़ों, सामंतों, जागीरदारों आदि की जो स्वयं तो इनका शोषण करते ही थे साथ ही इन्हें गरीबी की हालत में रखने के लिए हद दर्जे तक गिर जाते थे. इसका एक उदाहरण मानगढ़ (Mangarh) पहाड़ी पर धार्मिक समारोह के दौरान हुए भीषण नरसंहार (massacre) की घटना में देखा जा सकता है.
सामाजिक रूप से जागरूक और धार्मिक व्यक्तित्व वाले गोविंद गुरु, भीलों और गरासियों (Garasi) में व्याप्त कुरीतियों से एक अलग लड़ाई लड़ रहे. तब गुजरात में गठित संप सभा (Samp Sabha) आदिवासियों (tribes) की एकता का प्रतीक थी. इस सभा में भक्तों की संख्या 5 लाख तक पहुँच चुकी थी. इस सभा का एक लक्ष्य आदिवासियों से कराई जा रही बेगार (forced labor) से मुक्ति प्राप्त करना था. यह सामंतों, रजवाड़ों की ज़ड़ों को हिलाने वाला आंदोलन बन रहा था. वे इसे कुचलने का षडयंत्र रच रहे थे. उन्होंने गोविंद गुरु को एक खतरा बता कर गिरफ्तार कराया परंतु आदिवासियों ने इसे चुनौती के रूप में लिया और गोविंद गुरु को रिहा करना पड़ा. इसका अंत यहीं नहीं हुआ. इसके बाद आदिवासियों पर अत्याचार बढ़ा दिए गए. हिंसात्मक हमलों के अलावा उनकी पाठशालाओं को बंद कराना एक बड़ा प्रयोजन था. अंग्रेज़ आकाओं के सामने यह रोना रोया गया कि आदिवासी राजद्रोह करके एक अलग राज्य की स्थापना करना चाहते हैं. इन्हीं दिनों गठरा गाँव, संतरामपुर (Santrampur), गुजरात (Gujrat) के एक क्रूर थानेदार की हरकतों से तंग आ चुके भील पूँजा धीरा (Punja Dhira/Poonja Dhira) ने उसकी हत्या कर दी. इसे राजद्रोह के तौर पर प्रचारित किया गया और अंग्रेज़ों से सैनिक मदद माँगी गई.
प्रति वर्ष की भाँति दिसंबर 1908 में माघ पूर्णिमा के दिन मानगढ़ पहाड़ी पर धार्मिक समारोह पूर्वनिर्धारित था. धार्मिक समारोह के लिए भील मीणा (स्त्रियों, बच्चों, बूढ़ों सहित) एकत्रित थे. स्वतंत्रता आंदोलन से प्रभावित वे भील मीणा अंग्रेज़ों, जागीरदारों, सामंतों और रजवाड़ों के विरुद्ध भी आवाज़ उठा रहे थे. झूठी अफ़वाह फैला दी गई कि पहाड़ी पर एकत्रित होने वाले डेढ़ लाख भील संतरामपुर जिले पर हमला करने वाले हैं. अंग्रेज़ और सामंती सैनिकों ने पहाड़ी को तीन ओर से घेर लिया और निहत्थे आदिवासियों पर गोलियों की बौछार कर दी. लाखों लोगों पर अंधाधुँध गोलीबारी की गई. जान बचाने के लिए कई लोग खैड़ापा खाई की ओर भागे और भगदड़ में मारे गए. इस कांड में कहा जाता है कि गोलीबारी में 1500 भील मीणा शहीद हुए. (अधिकतर संदर्भों में यह संख्या 1500 ही बताई गई है) नरसंहार के बाद इस क्षेत्र को प्रतिबंधित क्षेत्र घोषित कर दिया गया. इसका उद्देश्य साक्ष्य मिटाना और दस्तावेज़ीकरण को रोकना था. लेकिन- ख़ून फिर ख़ून है, टपकेगा तो जम जाएगा.’ अब हर वर्ष अंग्रेज़ी माह नवंबर की 17 तारीख को उन शहीदों को यहाँ श्रद्धांजलि देने के लिए लोग एकत्रित होते हैं.
जलियाँवाला काँड (Jallianwala Bagh) में 379 लोग शहीद हुए थे. उसे इतिहास में जो जगह दी गई है क्या मानगढ़ काँड को उससे अधिक महत्व का स्थान नहीं मिलना चाहिए था? ये शहीद लोग भारत के मूल निवासी हैं. इनकी आज़ादी की भावना या स्वतंत्रता के लिए दी गई प्राणों की आहुती क्या कम महत्वपूर्ण है? यह आंदोलन काँड बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय (Bankim Chandra Chatterjee) के उपन्यास आनंदमठ’ (Anandmath) में लिखे राष्ट्रगान वंदेमातरम्’ (Vande Matram) को सही संदर्भ देता है कि भारत के मूलनिवासियों का स्वतंत्रता-सघर्ष अभी चल रहा है. उनकी ज़मीनें आज भी छीनी जा रही हैं और कानून उनकी मदद नहीं करता.
मानगढ़ पहाड़ी निस्संदेह स्वतंत्रता के दीवाने शहीदों का स्मारक (Monument of Martyrs) है. माघ पूर्णिमा का मेला आज भी आयोजित होता है.

The monument

श्री माधव हाड़ा (Madhav Hada) के ब्लॉग पर इसका एक संदर्भ इस प्रकार है (इसकी सूचना श्री प्रमोद पाल सिंह ने अपनी टिप्पणी से दी है) —धूणी तपे तीर : लेखक श्री हरिराम मीणा (Hariram Meena)

Further reading:
The Bible of Aryan Invasion
Bhilistan Movement- Lull before the storm
Scheduled Tribes Protest Rally at  Delhi

Other links from this blog

 

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Dalit Media-1 – Small news papers – दलित मीडिया-1 – छोटे समाचार पत्र

प्रत्येक समाज का सपना होता है कि उसका एक अपना समाचार-पत्र या पत्रिका हो जो उसकी तस्वीर को सही तरीके से प्रस्तुत करे. समाजिक छवि, आर्थिक समर्थन, राजनीतिक पैठ आदि जैसे मामलों में समुदाय की बात को सही जगह पहुँचाने में सक्षम हो. वैवाहिकी (matrimonial), विज्ञापन, नौकरी की तलाश आदि में सहायक हो. सबसे बढ़ कर समुदाय को शिक्षित करने और सही तथा शीघ्र सूचनाएँ देने का कार्य कर सके. इन दिनों कई पिछड़े समुदाय इस बात के बारे में भी गंभीरता से प्रतिक्रिया करने लगे हैं कि राष्ट्रीय माडिया उनकी बात को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं उठाता. ऐसे में उन्होंने नयूज़लेटर जैसे समाचार-पत्रों का प्रकाशन का सहारा लिया है. कुछ ऐसे पत्र मुझे मिले हैं जिन्हें यहाँ प्रदर्शित कर रहा हूँ. उनकी कुछ विशेषताएँ (समीक्षा नहीं) यहाँ दे रहा हूँ.

उदय मेघ’ (Uday Megh)जयपुर, राजस्थान से निकलने वाला एक ऐसा ही पत्र है. इसमें मेघवंशी समुदायों से संबंधित सामाजिक समस्याओं तथा विकासात्मक गतिविधियों के समाचार देखने को मिले. यह साप्ताहिक पत्र है.


आपका दोस्त(Apka Dost) नूरपुर, हिमाचल प्रदेश से छपता है. इसमें काफी विज्ञापन छपे हैं परंतु इनसे कितनी आय हो पाती होगी यह केवल अनुमान का विषय है. इस पत्र में समाचारों की विविधता बहुत है. लोकप्रिय विषयों का विशेष ध्यान रखा गया है.


राजा बली समाजछपाई की दृष्टि से काफी साफ-सुथरा है. इसकी सामग्री का स्तर बेहतर जान पड़ा. वैवाहिकी को समुचित स्थान दिया गया है. मुख्यतः सामाजिक विषयों को छूते आलेख इसमें दिए गए हैं. यह इंदौर, मध्यप्रदेश से प्रकाशित होता है और मासिक है.










वॉयस ऑफ़ बुद्धा’ (Voice of Buddha)पाक्षिक पत्र है जो ऑनलाइनभी है. यह अंग्रेज़ी और हिंदी दोनों में जानकारी प्रदान करता है. इसके द्वारा दिए गए आँकड़ों की विश्वसनीयता इसका सकारात्मक पक्ष है. यह यूनीकोड में नहीं है अतः फाँट डाऊनलोड किए बिना इसे पढ़ना संभव नहीं.

हक़दार बीकानेर से छपता है. यह 1969 से छप रहा है. अद्भुत. सामग्री के हिसाब से अच्छा लग रहा है. इसके संपादक हैं पन्नालाल प्रेमी. (इसे मैंने 06-01-2011 को देखा है).

आज ही मेघयुग पर इस विषय पर पोस्ट आई है जो इस लिंक पर उपलब्ध है- मेघयुग. धन्यवाद प्रमोद पाल सिंह जी.

तिथि 20-09-2011

आज एक पोस्ट के माध्यम से 11-09-2011 से मेघधारा(Meghdhara) के प्रकाशनारंभ संबंधी पोस्ट भी लिखी है. यह समाचार-पत्र मुख्यतः गुजराती और अँग्रेज़ी में छपेगा.

आज 05-12-2011 

राजस्थान से एक समाचार पत्र दर्द की आवाज़प्राप्त हुआ है जो रंगीन छपाई वाला है. इसके इस अंक से इसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा स्पष्ट है. शुभकामनाएँ.

आज 20-08-2012 को 

1. फेस बुक के माध्यम से श्री कामता प्रसाद मौर्य ने सम्यक् भारत पत्रिका के बारे में जानकारी दी है. इसके एक टाइटल का चित्र श्री प्रभु दयाल (सुश्री मायावती के पिता) के हाथों में है जिसे देख कर सुखद आश्चर्य हुआ. दलित मीडिया विकसित हो रहा है.
कामता प्रसाद मौर्य जी का बलॉग बन चुका है आशा है इस पर हमें जानकारी पूर्ण आलेख मिला करेंगे.
3. फेस बुक से श्री गुणेश राठौड़ ने जानकारी दी है कि बाड़मेर से एक पत्रिका मेघवंश नवयुगनामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ है जिसका पहला अंक फरवरी 2012 में आया है. इसके मुख्य संपादक डॉ. नारायण मेघवाल हैं और इसका प्रकाशन जनहितकारी सीमांत संस्था, बाड़मेर (राजस्थान) कर रही है.
अधिक जानकारी मिलने पर उसे यहाँ देना चाहूँगा.

04 सितंबर 2012 को श्री आर.पी. सिंह ने ये प्रकाशन भेजे हैं-

 

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Jhalkari Bai was a Meghvanshi – झलकारी बाई मेघवंशी थी

A month ago I got a call from Girdhari Lal Bhagat, Pathankot. Citing a book he told that there was a Megvanshi Amazon in the army of Rani Lakshmi Bai of Jhansi. She resembled the queen. I found reference on a blog. There was yet another reference on Wikipedia. Jhalkari Bai belonged to Kori community. She helped Lakshmi Bai escape from the fort and after that she fought bravely as Queen and was killed while fighting. Government of India issued a stamp in her honor. This is an example that Megvanshi men and women have their identity as brave warriors in the forces.

महीना भर पहले मुझे पठानकोट से श्री गिरधारी लाल भगत का फोन आया था. उन्होंने एक पुस्तक का उदाहरण देते हुए कहा था कि एक मेघवंशी वीरांगना झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की सेना में थी और उसकी हमशक़्ल थी. आज उसके बारे में एक ब्लॉग के माध्यम से संदर्भ मिला और विकिपीडिया से दूसरा संदर्भ भी मिल गया कि वे कोरी (मेघ) समुदाय की थी. लक्ष्मी बाई को किले से बच कर निकलने में उसने न केवल सहायता की बल्कि उसी के रूप में वीरता से लड़ते हुए वहीं शहीद हुई. भारत सरकार ने उसके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया था.  दोनों संदर्भ नीचे दिए गए हैं. यह एक उदाहरण है कि मेघवंशी पुरुष और महिलाएँ योद्धा के रूप में सेनाओं में अपनी पहचान रखते रहे हैं.
2. झलकारी बाई Retrieved on 18-11-2010
3. यू-ट्यूब पर झलकारी बाई Retrieved on 18-11-2010

(22-11-2012 को फेस बुक से प्राप्त जानकारी

Kuldeep Wasnik)


“4 जून 1858 को जनरल ट्युरोज के शब्द थे “अगर हिंदुस्तान की एक फीसदी लड़कियाँ भी झलकारी की तरह हो जाए तो हमे ये देश छोड़कर भागना पड़ेगा”.
लक्ष्मीबाई कभी भी अंग्रेजों से नहीं लड़ी बल्कि उसके भेष में बहुजन समाज की कोरी जाति की झलकारी देवी ही बहादुरी से लड़ी. बल्कि लक्ष्मीबाई किले के भंडारी गेट से भागती हुई मारी गई. ब्राह्मण इतिहासकारों ने झांसी की ब्राह्मणकन्या लक्ष्मीबाई, जो कि रानी भी नहीं थी बल्कि मामूली जागीरदारन थी, को न केवल रानी करार दिया बल्कि उसके किले के तट से घोड़े के साथ छलाँग लगाने की बात का भी झूठा प्रचार किया. लक्ष्मीबाई को घोड़े पर ठीक से बैठना भी नहीं आता था. घोड़े पर बैठने के लिए उसे सहायकों की मदद दरकरार थी अंग्रेजों के हमला करने के बाद अंग्रेजों से लड़ना तो दूर वह अपनी जान बचाने भाग खड़ी हुई. उसके बावजूद झलकारी देवी की युद्ध कला में निपुणता निर्भीकता और वीरता देख कर अंग्रेज सेनापति आश्चर्यचकित हो उठे. ऐसी महान वीरांगणा झलकारी देवी का जन्म 22 नवंबर 1830 को झाँसी जनपद के भोजला ग्राम में तीरंदाज सदोबा अहीरवार कोरी परिवार में हुआ था. आज उनकी 182 वीं जयंती पर उनकी स्मृति को विनम्र अभिवादन.”

मचा झाँसी में घमासान चहुँ ओर मची किलकारी थी

अँग्रेजों से लोहा लेने रण में कूदी झलकारी थी

मचा झाँसी में घमासान चहुँ ओर मची किलकारी थी

अँग्रेजों से लोहा लेने रण में कूदी झलकारी थी

जाकर रण में ललकारी थी वह तो झाँसी की झलकारी थी

गोरों से लड़ना सिखा गयी रानी बन जौहर दिखा गयी है

इतिहास में झलक रही वह भारत की सन्नारी थी

(फेस बुक से आर.डी. पांधी के सौजन्य से)

Megh Bhagat and Arya Samaj

स्यालकोट से विस्थापित हो कर आए मेघवंशी, जो स्वयं को भगत भी कहते हैं, आर्यसमाज द्वारा इनकी शिक्षा के लिए किए गए कार्य से अक़सर बहुत भावुक हो जाते हैं. प्रथमतः मैं उनसे सहमत हूँ. यह आर्यसमाज ही थी जिसने सबसे पहले इनके लिए शिक्षा का प्रबंध किया. इससे कई मेघ भगतों को पढ़ने और प्रगति करने का मौका मिला. परंतु कुछ और तथ्य भी हैं जिनसे नज़र फेरी नहीं जा सकती.


स्वतंत्रता से पहले स्यालकोट में उस समय धार्मिक और सामाजिक परिस्थितियों की कुछ विशेषताएँ थीं जिन्हें जान लेना ज़रूरी है.

मेघवंशियों को इस्लाम, ईसाई धर्म, सिख पंथ में ले जाने के लिए संस्थाएँ सक्रिय थीं. स्यालकोट नगर में रोज़गार के अवसर काफी थे. यहाँ मेघजन उद्योगों में रोज़गार पा कर आर्थिक रूप से सक्षम बन रहे थे. इनके सामाजिक संगठन तैयार हो रहे थे. उल्लेखनीय है कि ये आर्यसमाज द्वारा आयोजित शुद्धिकरण की प्रक्रिया से गुज़रने से पहले मुख्यतः कबीरमत के अनुयायी थे और मेघ ऋषि तथा कबीर से जुड़े कपड़ा बुनने के व्यवसाय में लगे थे.

इन्हीं दिनों लाला गंगाराम ने इनके लिए स्यालकोट से दूर एक आर्यनगरकी परिकल्पना की और एक ऐसे क्षेत्र में इन्हें बसने के लिए प्रेरित किया जहाँ मुसलमानों की संख्या हिंदुओं से अधिक थी. स्यालकोट, गुजरात और गुरदासपुर में 36000 मेघों का शुद्धिकरण करके उन्हें हिंदू दायरे में लाया गया. सुना है कि आर्यनगर के आसपास के क्षेत्र में मेघों को आर्य भगत बनाने से वहाँ मुसमानों की संख्या 51 प्रतिशत से घट कर 49 प्रतिशत रह गई थी. वह क्षेत्र लगभग जंगल था.

नंगी आँखों से देखा जाए तो धर्म के दो रूप हैं. पहला है अच्छे गुणों को धारण करना. इस धर्म को प्रत्येक व्यक्ति घर में बैठ कर किसी सुलझे हुए व्यक्ति के सान्निध्य में भी धारण कर सकता है. दूसरा और मुख्य रूप है धर्म के माध्यम से धन बटोर कर राजनीति करना.

सामाजिक और धार्मिक स्तर पर कबीर और उनके संतमत ने निराकार की भक्ति को एक आंदोलन का रूप दे दिया था जो निरंतर फैल रहा था. इससे परंपरावादी चिंतित थे क्योंकि पैसा संतमत से संबंधित गुरुओं और धार्मिक स्थलों की ओर जाने लगा. आगे चल कर परंपरावादियों ने निराकारवादी आर्यसमाजी (वैदिक) विचारधारा का पुनः प्रतिपादन किया ताकि निराकारकी ओर जाते धन और जन के प्रवाह को रोका जा सके. अतः उन्होंने कई प्रयोजनों से मेघवंशियों को लक्ष्य करके स्यालकोट में कार्य किया. आर्यसमाज ने शुद्धिकरण जैसी प्रचारात्मक प्रक्रिया अपनाई और अंग्रेज़ों के समक्ष हिंदुओं की बढ़ी हुई संख्या दर्शाने में सफलता पाई. इसका लाभ मेघों को आत्मविश्वास जगाने के रूप में हुआ. नुकसान यह हुआ कि मेघों के मुकाबले आर्य मेघों, जिन्हें आर्य भगत कहा गया, को अलग और ऊँची पहचान दी गई और नाम के आधार पर मेघों का एक विभाजन और हो गया. भगत अपने आप को मेघों से अलग करने लगे. सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक बिखराव बढ़ा.


स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद मेघवंशियों के उत्थान के मामले में आर्यसमाज ने धीरे-धीरे अपना हाथ खींच लिया. यहाँ भारत में मेघ भगतों की ज़रूरत हिंदू के रूप में कम और सस्ते करिंदों/मज़दूरों के तौर पर अधिक थी. सस्ते श्रम को कौन खोना चाहेगा? मेघवंशियों की अपनी कोई धार्मिक या राजनीतिक पहचान नहीं थी. जिस धर्म या राजनीतिक पार्टी ने इन्हें समानता का सपना दिखाया ये उधर झुकने को विवश थे. राधास्वामी मत और सिख धर्म ने भी वही कार्य किया जो परंपरावादियों ने निराकार के माध्यम से किया. इनका साहित्य मानवता और समानता की बात तो कर ही लेता है. शायद इतना काफी हो.

मेघवंशी कई धर्मों-संप्रदायों में बँटे. कई कबीर धर्म की ओर लौट गए. कई राधास्वामी धर्म में आ गए. कुछ गुरु गद्दियों में बँट गए. कुछ सिखी और ईसाईयत की ओर चले गए. कुछ देवी-देवताओं को पूजने लगे. कुछ आर्यसमाज के हो गए. वैसे ये स्वयं को मेघऋषि के वंशज मानते हैं और भावनात्मक रूप से कबीर से जुड़े हैं. मेघवंशियों में गुजरात के मेघवारों ने अपने धर्म- बारमतिपंथ- को सुरक्षित रखा है. राजनीतिक एकता में राजस्थान के मेघवाल आगे हैं.

(विशेष टिप्पणी- कपूरथला के डॉ. ध्यान सिंह का शोधग्रंथ पंजाब के कबीरपंथियों पर विस्तार से रोशनी डालता है. यदि वे इसे यूनीकोड में उपलब्ध करा सकें तो लाभ होगा.) 


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Those looted temples – वे लुटे हुए मंदिर

मैंने श्री पा.ना. सुब्रमणियन को मेघनेट पर बहुत सकारात्मक टिप्पणीकार के रूप में देखा है. उनका लिखा आलेख मेरे लिए कुछ नई सूचनाएँ दे गया है. पाली (छत्तीसगढ़) का शिव मंदिरनामक आलेख में वे लिखते हैं:-
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि मंदिर के अन्दर श्रीमद जाजल्लादेवस्य कीर्ति रिषम3 जगह खुदा हुआ है. इसके आधार पर यह माना जाता रहा कि मंदिर का निर्माण कलचुरी वंशीय यशस्वी राजा जाजल्लदेव प्रथम के समय 11 वीं सदी के अंत में हुआ होगा.  19 वीं सदी में भारत के प्रथम पुरातात्विक सर्वेक्षक श्री कन्निंघम की भी यही धारणा रही.  परन्तु 20 वीं सदी के  उत्तरार्ध में डा. देवदत्त भंडारकर जी ने मंदिर के गर्भ गृह के द्वार की गणेश पट्टी पर बहुत बारीक अक्षरों में लिखे एक लेख को पढने में सफलता पायी. इस लेख का आशय यह है कि महामंडलेश्वर मल्लदेव के पुत्र विक्रमादित्य ने  यह देवालय निर्माण कर कीर्तिदायक काम कियाभंडारकर जी को अपने शोध/अध्ययन के आधार पर मालूम था कि बाणवंश में विक्रमादित्य उपाधि धारी 3 राजा हुए हैं.  पाली में उल्लिखित विक्रमादित्य, महामंडलेश्वर मल्लदेव का पुत्र था अतः जयमेरूके रूप में उसकी पहचान बाणवंश के ही दूरे शिलालेखों के आधार पर कर ली गयी. जयमेरू का शासन  895 ईसवी तक रहा. अतः पाली के मंदिर का निर्माण 9 वीं सदी का है. परन्तु कलचुरी शासक जाजल्लदेव (प्रथम) नें 11 वीं सदी में पाली के मंदिर का जीर्णोद्धार  ही करवाया था न कि निर्माण.
शिल्पों की विलक्षण लावण्यता के दृष्टिकोण से यह मंदिर भुबनेश्वर के मुक्तेश्वर मंदिर (10 वीं सदी) से टक्कर लेने की क्षमता रखता है. वैसे बस्तर (छत्तीसगढ़) के नारायणपाल के मंदिर से भी इसकी तुलना की जा सकती है. यह मंदिर भी शिल्पों से भरा पूरा रहा होगा पर अब लुटा हुआ दीखता है.
वहां भी मंडप गुम्बदनुमा  ही रहा जो क्षतिग्रस्त हो गया. परन्तु इस मंदिर का निर्माण नागवंशी राजाओं के द्वारा 12 वीं सदी में किया गया था.
मुझे जो महत्व का लगा उसे मैंने मोटे अक्षरों में कर दिया है.
पूरा आलेख आप इस लिंक पर पढ़ सकते हैं– पाली छत्तीसगढ़ का शिव मंदिर
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Myth of Mahabali (Maveli बलि) – राजा महाबली का मिथ

राजा महाबली – चित्र विकिपीडिया के साभार
राजा बली को केरल में मावेली कहा जाता है. यह संस्कृत शब्द महाबली का तद्भव रूप है. इसे कालांतर में बलि लिखा गया जिसकी वर्तनी सही नहीं जान पड़ती.  राजा बली की कथा एक अनवरत कथा है जिसका जवाब नहीं. दो दिन पहले दीपावली के अवसर पर श्री आर.पी. सिंह ने शुभकामनाएँ देते हुए बताया कि दैनिक भास्कर में राजा बली के बारे में लेख छपा है और कि दीपावली का त्यौहार मनाने का एक कारण राजा बली की कथा में भी निहित है. राखी का त्योहार भी लक्ष्मी द्वारा महाबली को राखी बाँधने से जोड़ा गया है. इंटरनेट को धन्यवाद कि ज़रा खोज करने पर संदर्भ मिल गए जिन्हें आपसे साझा कर रहा हूँ. पहले स्पष्ट करना आवश्यक है कि पौराणिक कथाओं को कभी भी इतिहास नहीं माना गया है. अतः इन्हें हर कोई किसी भी तरह से व्याख्यायित करता है जैसा कि नीचे दी गई कथाओं से भी स्पष्ट है. पौराणिक पात्र संभव है कि संकेतात्मक रहे हों. संभव है किसी काल विशेष की कुछ वास्तविक घटनाओं के साथ उनका घालमेल किया गया हो. लोक में प्रचलित परंपराओं और किंवदंतियों को इन कथाओं के साथ मिला कर देखने से कई बार उनका एक विशेष अर्थ भी निकलने लगता है. देश भर में कई ऐसे समुदाय हैं जो राजा बली के राज्य में प्रजाओं की सुख-समृद्धि को स्मरण करते हैं और राजा बली के लौटने की कामना करते हैं. कुछ समुदाय राजा बली को अहंकारी आदि कहते हैं लेकिन उसके दानवीर, न्यायाप्रिय होने जैसे गुणों को स्वीकार भी करते हैं. कई स्थानों पर उल्लेख है कि केवल महाबली के प्रति ईर्ष्या के कारण ही उसे पाताल (दक्षिण) में धकेल दिया गया या क्रूरतापूर्वक मार डाला गया. हाँ उसके राज्य को दान में हथिया लेने की कथा खूब प्रचलित है. कई कथाओं में यह राजा महाबली (या मावेली) इंद्र और अन्य देवताओं पर इक्कीस पड़ता दिखाई पड़ता है तो अन्य कथाओं में विष्णु और वामन से वह अपनी दानी प्रकृति के कारण पराजित होता भी दिखता है. केरल में मनाया जाने वाला विश्वप्रसिद्ध ओणम त्योहार महाबली की स्मृति में मनाया जाता है. यहाँ यह बता देना ठीक रहेगा कि प्रसिद्ध पौराणिक पात्र वृत्र (प्रथम मेघ) के वंशज हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रह्लाद था. प्रह्लाद के पुत्र विरोचन का पुत्र महाबली था. इनकी वंशावली की विस्तृत जानकारी मेघवाल आलेख से मिल सकती है. नीचे दी गई कथाओं को सभी ने अपने-अपने तरीके से लिखा है.

पहली कथा
दानवीर राजा बलि का प्रताप सभी लोकों में फैल गया. उन्होंने अपने कारागार में लक्ष्मीजी तथा अन्य देवी-देवताओं को कैद कर लिया. धन-संपत्ति और संसाधनों के अभाव में पृथ्वी पर हाहाकार मच गया. तब भगवान विष्णु ने वामन रूप धारण किया और राजा बलि के पास दान प्राप्त करने पहुंचे. वामन ने तीन पग धरती मांगी.  बलि ने उन्हें तीन पग धरती नापने को कहा. तब वामन ने विराट रूप धारण कर लिया. उन्होंने अपने तीन पग में तीन लोकों को नाप लिया. बलि को पाताल लोक में स्थान मिला. लक्ष्मी और अन्य देवगण कारागार से मुक्त होकर क्षीरसागर पहुंचे और वहीं शयन किया. इसी उपलक्ष्य में दीपपर्व मनाया जाता है. पूरी कथा यहाँ पढ़ें- दैनिक भास्कर 04 नवंबर 2010
(साधारण अर्थ- तीन पग नापने का अर्थ यहाँ सब कुछ दान में ले लेना, छीनना या ठगना है.)

दूसरी कथा
भैयादूज व राजा बलि- जब राजा बलि को पाताल में भेजा था, तब वामन ने राजा बलि को वरदान दिया था कि वह पाताल में राजा बलि का पहरेदार बना कर रहेगा. अतः उसे भी पाताल जाना पड़ा. भैया दूज के दिन लक्ष्मी जी ने एक ग़रीब औरत का वेष बनाकर राजा बलि से भाई बनने का आग्रह किया. जिसे बलि ने स्वीकार कर लिया. लक्ष्मी जी ने बलि को तिलक लगाकर पूजा की और लक्ष्मी जी ने बलि से भगवान विष्णु को आज़ाद करने का वरदान मांगा. पूरी कथा यहाँ पढ़ें- दैनिक भास्कर अक्टूबर 19, 2009


तीसरी कथा
पौराणिक कथा में राजा बलि ने भगवान विष्णु से पाताल लोक को अपने राज्य के रूप में प्राप्त किया था. भगवान विष्णु ने प्रसन्न होकर राजा बलि से वर मांगने के लिए कहा. राजा बलि ने भगवान से अपने राज्य का रक्षक बनने की स्वीकृति प्राप्त की. बैकुंठ त्यागकर राजा बलि के पाताल लोक में विष्णु जी के नौकरी किए जाने से लक्ष्मीजी बेहद नाराज़ हुईं. कुछ समय पश्चात लक्ष्मीजी ने राजा बलि के यहां पहुंचकर उनका विश्वास प्राप्त किया. तत्पश्चात राजा बलि को रक्षासूत्र बांधकर लक्ष्मीजी ने बहन का पद प्राप्त किया और राजा बलि से भाई के सम्बंध स्थापित होने पर भगवान विष्णु की सेवानिवृत्ति तथा स्वतंत्रता को वापस ले लिया. पूरी कथा यहाँ पढ़ें-  दैनिक भास्कर 27 अगस्त, 2010
(साधारण अर्थ- राजा बली अपनी प्रजा की रक्षा चाहते थे.)

चौथी कथा
जब भगवान विष्णु ने महाबली से तीन पग धरती मांगकर तीनों लोकों को नाप लिया तो राजा बली ने उनसे प्रार्थना की कि आपने कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से लेकर अमावस्या की अवधि में मेरी संपूर्ण पृथ्वी नाप ली है, इसलिए जो व्यक्ति मेरे राज्य में चतुर्दशी के दिन यमराज के लिए दीपदान करे, उसे यम यातना नहीं होनी चाहिए और जो व्यक्ति इन तीन दिनों में दीपावली का पर्व मनाए, उनके घर को लक्ष्मीजी कभी न छोड़ें.
पूरी कथा यहाँ पढ़ें- दैनिक भास्कर 03 नवंबर, 2010
(साधारण अर्थ- कुछ रोचक और भयानक बिंब कथा में जोड़े गए हैं. इसका दूसरा अर्थ महाबली का अपनी प्रजा या संबंधियों को यात्नाओं से बचाना भी हो सकता है.)

पाँचवीं कथा
ब्राम्हण समाज दल्लीराजहरा के तत्वाधान में आयोजित 9 दिवसीय संगीतमय श्रीमद् भागवत महापुराण ज्ञान यज्ञ के छठवें दिन प्रवचनकर्ता पं. अखिलेश्वरानंद महाराज ने उपस्थित श्रद्धालुओं को भगवान वामन रूप और राजा बलि की कथा में बताया कि बलि इंद्रासन में बैठकर अपने आपको सबसे बड़ा दानी मानता था. भगवान ने उसकी दान वीरता के गर्व को हरण करने के लिए वामन रूप में बलि के यज्ञ में गए. राजा बलि ने कहा, आप कुछ दान ले लीजिए. वामन ने कहा, मुझे दान की आवश्यकता नहीं. इस पर बलि ने कुछ न कुछ भेंट लेने के लिए कहा. इस पर वामन ने तीन पग भूमि दान में मांगी. बलि भूमि देने के लिए तैयार हो गए.

वामन ने अपने शरीर का आकार बढ़ाया और एक ही पग में पूरी पृथ्वी को नाप ली, दूसरे पग में स्वर्ग. वामन ने कहा कि अब मैं तीसरा पग कहां रखूं, इस पर बलि ने कहा कि तीसरा पग आप मेरे सिर पर रख लीजिए. बलि की ऐसी बातों को सुनकर वामन बहुत प्रसन्न हुए और कहा कि बलि वास्तव में तुम बहुत चतुर हो. मेरा पैर तुम्हारे सिर पर पड़ गया तो तुम्हारी सात्विक जीव मुक्त हो जाएगी. अब जबकि मेरे पैर तुम्हारे सिर पर पडेंगे तो तुम्हारा कल्याण हो जाएगा. पूरी कथा यहाँ पढ़ें- दैनिक भास्कर 24 फरवरी, 2010
(इस कथा के अनुसार महाबली (जिन्हें असुर, दैत्य, आदि भी कहा जाता है) यज्ञ करते थे. यह मेरे लिए नई बात है. इस कथा के कहने की शैली से स्पष्ट है कि मिथ को अपने अंदाज़ में रोचक बना कर कहने की कोशिश की गई है.)

छठी कथा
राजा बलि जब सौंवा अश्वमेध यज्ञ करने लगे तो इन्द्र सहित देवताओं ने भगवान की शरण ग्रहण करते हुए कहा कि भगवान राजा बलि स्वर्ग के इन्द्र सहित देवताओं को स्वर्ग से असमय च्युत करना चाहता है. हे देव आप ही रक्षा कर सकते हैं. श्रीहरि (विष्णु) वामन रूप धारण करके यज्ञस्थल पहुंचे तो गुरु शंकराचार्य (संभवतः यहाँ शुक्राचार्य होना चाहिए) ने राजा बली को बता दिया था कि तुम्हारे साथ धोखा हो रहा है.  परंतु राजा बली ने तीन कदम जमीन के दान का संकल्प कर दिया. वामन ने विशाल रूप बनाकर पूरा ब्रह्माण्ड दो कदम में नाप लिया. पूरी कथा यहाँ पढ़ें-  दैनिक भास्कर 23 मई, 2010
(यहाँ भी कथा को रोचक बनाने की कोशिश है. पौराणिक कथाओं में इसी प्रकार से परिवर्तन होते रहे हैं. संभव है उनका मूल रूप ही पूरी तरह से बदल दिया गया हो.)

अन्य समाचार जो दिखे
1. दानवीर राजा बलि के मंदिर पर एक शाम दानवीर राजा बलि के नाम भजन संध्या का आयोजन सरगरा समाज नवयुवक मंडल के तत्वावधान में आयोजित किया गया.  दैनिक भास्कर 26 सितंबर, 2010
2. सरगरा समाज के आराध्य देव राजा बलि के दर्शनार्थ कस्बे से दर्शनार्थियों का दल बुधवार को पीचियाक रवाना हुआ. दल में 35 से अधिक लोग शामिल हैं, जो पीचियाक पहुंचकर वहां राजा बलि के मंदिर में आयोजित धार्मिक समारोह में भाग लेंगे. रवानगी के अवसर पर वातावरण राजा बलि के जयकारों से गूंज उठा. दल के सदस्यों को ढोल-नगाड़ों के साथ रवाना किया गया. दैनिक भास्कर 23 सितंबर, 2010


मिथ से संबंधित बहुत सी जानकारी पढ़ी जा चुकी है. ऊपर दिए अन्य समाचारों के अंतर्गत नज़र आने वाले लोगों के बारे में यदि जानकारी न ली जाए तो बात अधूरी रह जाएगी. इसमें मेघवाल आलेख के संदर्भ, पौराणिक और ऐतिहासिक संकेत सहायक हो सकते हैं. मोटे तौर पर वृत्र या मेघ ऋषि के वंशजों को मेघवंशी कहा जाता हैं. मेघवाल आलेख में उल्लिखित संदर्भों के आधार पर इतना कहा जा सकता है कि पौराणिक कथाओं में जिन मानव समूहों को असुर, दैत्य, राक्षस, नाग, आदि कहा गया वे सिंधु घाटी सभ्यता के मूल निवासी थे और मेघवंशी थे. आर्यों और अन्य के साथ पृथ्वी (भूमि) पर अधिकार हेतु संघर्ष में वे पराजित हुए और सदियों तक दासता की अमानवीय स्थितियों में रहे. इनके कुचले हुए शरीर और मन स्पष्ट दिखाई देते हैं जिन्हें निम्न होने के लक्षण कहा जाता है. ये धन, अन्न, भूमि, शिक्षा आदि से सदियों वंचित रहे. आज इन्हें अनुसूचित जातियों, जन जातियों और पिछड़ी जातियों (SCs, STs and OBCs) के रूप में जाना जाता है. ये अपने अधिकारों के प्रति संघर्षशील न रहे हों ऐसा भी नहीं है. इनके घर और बस्तियाँ बार-बार तबाह की गईं. जब-जब इनके या इनके पक्ष के किसी साहित्य, इतिहास, धर्म आदि ने रूप ग्रहण किया उसे नष्ट कर दिया गया या भ्रष्ट कर दिया गया. आज इनका कोई इतिहास उपलब्ध नहीं क्योंकि इतिहास विजेता ही लिखवाता है.
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इनकी हालत कुछ सुधरी है. सामाजिक वातावरण बदला है. परंतु नई अर्थव्यवस्था में ये केवल अति सस्ता श्रम बन कर ही न रह जाएँ इसलिए इनकी शिक्षा का प्रबंध सरकार का सामाजिक दायित्व है.

एक विद्वान के अनुसार तीन कदमों से तीनों लोकों को नापने का एक अर्थ यह भी है कि राजा बली को धोखे से मार कर ब्राह्मणों ने शिक्षा, अर्थतंत्र और राजनीतिक सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया.

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जीवों की आदि सृष्टि

जीवों की आदि सृष्टि विषयक कथाएँ (सुनी-सुनाई) प्रत्येक समुदाय में चली आ रही हैं. कुछ पात्रों के नाम तद्भव हैं और कुछ के तत्सम् चल रहे हैं. राजस्थान के मेघवंशियों में जो परंपरागत जानकारी उपलब्ध है उसे श्री गोपाल डेनवाल ने समेकित कर के भेजा है जिसे ज्यों का त्यों यहाँ दिया जा रहा है. (श्री जितेंद्र कुमार ने इसे यूनीकोड में तैयार किया है). कुछ शब्दों का स्वरूप बदला सा है. शिक्षा से दूर रखे गए समुदाय किसी-न-किसी रूप में जानकारी को संजोए हुए हैं. नामों में टंकण की त्रुटियाँ भी हो सकती हैं. शुद्ध वर्तनी के सुझाव मिलने पर इसे सुधारा जाएगा.

जीवों की आदि सृष्टि 
जीव की उत्पति जल से होती है. यह एक वैज्ञानिक सत्य है और जल के बिना जीव पैदा नही हो सकता यह भी एक कटु सत्य है. जल का निकास मेघों  द्वारा  होता है जिसे बादल भी कहते  हैं. उसी जल नारायण  की नाभि  कमल  से भगवान  ब्रह्मा  की उत्पति  है. अतः पूरी सृष्टि मेघ से उत्पन्न हुई  है.

मेघ बरसे मानव हर्षेहर्षे  ऋषि मुनि और देव |
संत महात्मा सभी पुकारे, करो  मेघ  की सेव ||

श्री भगवान मेघ  नारायण  की नाभि कमल से
ब्रह्मा 

ब्रह्मा से :-
1. ब्रह्मा :- चार ऋषि- सनक, सनन्दन, सनातन, संतकुमार
2. दस मानसपुत्र :- मरीच, अत्रि, अंगीरा, पुलस्त्य, पुलह, कृतु, भृगु, वशिष्ट, दक्ष, नारद
3. शरीर के दो खंडरो :-  पुरुष स्वायम्भुमनु, स्त्री स्तरूपा इनसे 2 पुत्र 3 कन्याएँ
उत्तानपाद, प्रियव्रत, आकुति, प्रसूति पति-दक्ष प्रजापति, देवहुति पति-कर्दम ऋषि
उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव
ध्रुव प्रतावती से – पति रूचिनाम ऋषि.  इनके पुत्र
आगिनध्र, विष्णु, दक्षिणा, वयुश्मान, ज्योतिष्मान, धुतिमान, भव्य, सवन, अग्नि बाहु, मित्र   

कर्दम ऋषि की 9 कन्याएँ  व उनका विवाह 
1. कला – मरीचि
2. अनुसूया – अत्री
3. श्रद्धा – अंगीरा
4. हवि  – पुलस्त्य
5. गतिका – पुलह
6. योग – क्रतु
7. ख्याति – भृगु
8. अरुंधती – वशिष्ट
9. शान्ति – अर्थवन

मरीचि :- (1)  कश्यप और (2) पूर्णिमा
कश्यप :- विवस्वान (सूर्य) इनसे सूर्यवंश चला, दनुस्त्री से 100 पुत्र हुए थे जिनमें एक मेघवान था जो सप्त सिन्धु  के महाराज के जनक थे.
विवस्वान :-  विवस्वत्म्नु (सात्वेमनु)
विवस्वत्म्नु:- 1. इशवाक, 2. विकुक्षि, 3. निभी आदि  सहित 101 पुत्र  थे.


अत्रि के पुत्र :- 1
. दत्तात्रेय, 2. दुर्वासा, 3. चंद्रमा
चंद्रमा के पुत्र :- 1. नहुश, 2. बुद्ध, 3. सोम, सोम से चन्द्रवंश चला
नहुश:- 1. यति, 2. ययाति, 3. संयाति, 4. उद्भव, 5. याची, 6. सर्य्याती, 7. समर्पिती

ब्रह्मा के चौथे  पुत्र :- पुलस्त्य
पुलस्त्य के पुत्र :- विश्रवा
विश्रवा के पुत्र :-  कुबेर, खरर्दुशन (खर-दूषण), तारिका, रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, सुरपन्खा (शूर्पनखा) 

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Conference of Meghvanshis – मेघवंशियों का सम्मेलन

राजस्थान में मेघवंशियों का एक महत्वपूर्ण सम्मेलन 26-12-2010 को किया जा रहा है जिसकी विस्तृत जानकारी निम्नलिखित लिंक पर उपलब्ध है. उनके द्वारा भेजी गई जानकारी से सुखद अनुभूति होती है कि वे सामुदायिक कार्यक्रम एक योजनाबद्ध और अनुशासित तरीके से करते हैं जो अन्य मेघवंशियों के लिए अनुकरणीय है.