Monthly Archives: October 2010

Maveli (राजा बली) is remembered by Meghvanshis in Kuchchh-Gujrat

This was the feedback I received from Gujrat (Kuchchh) as a comment on one of the articles. This deserved to be taken as proper input.:
Thank you, Bharat Bhushan, for raising historical topic relating to identity of Meghwal identity. As far as western Gujarat (Kachchh) (erstwhile Sindh-Kachchh region) is concerned, we Maheshwari Meghwars have an interesting tradition to confirm much awaited return of Raja Bali’s rule. People from our community are following an unique tradition during Diwali i.e. on Kali Chaudas Day – Kids/youths will take a 3 feet sugarcane stick with cotton tied on it and after burning the same, they will go to each and every fellow community brother’s home and will say “HORI, DIYARI, MEGH RAJA JE GHARE MERIYO BARE”, which means – lights shall ignite in the house of Megh Raja on every Holi and Diwali”. In return, the householder will pour one spoon Ghee on the burning cotton. Eventually, after roaming almost all homes, all these Sugarcane stick (MERIYO) are kept at the outskirts. These MERIYAS when seen together gives a marvelous glimpse of unity of Meghwar community.

The basic idea behind all these traditions is to keep alive our craving for retaining our lost pride that we (Meghwars/Meghwals) are descendants of Great Ruler of ancient India. In our forefathers rule, we were happy and living a dignified life. As such, this tradition of remembering Bali Raja/Megh Raja is to keep alive our ambitions of restoring our lost rule and pride. I think so.

Thanks again for your cause of uniting entire Meghwals of India on one platform.

Navin K. Bhoiya
Kachchh-Gujarat
18 September 2010 17:57”

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Kabir Mandir and Megh Bhagat Aryasmajis

पिछले दिनों एक मेघ सज्ज्न की तीमारदारी के दौरान उनके पास बैठने का मौका मिला. बूढ़े मेघ अभी कबीर मंदिर का सपना भुला नहीं पाए हैं. मैंने कुरेदा तो एक तस्वीर निकली जो आपके सामने रख रहा हूँ.
पंजाब सरकार ने एक बार विज्ञापन दिया था कि धर्मार्थ सोसाइटियाँ यदि आवेदन करें तो 2 कनाल ज़मीन लीज़ पर अलाट की जा सकती है.
उस समय एक शहर में मेघों का एक संगठन अस्तित्व में था. इसमें दो विचारधाराओं के दल थे. एक दल ने कबीर भवन के लिए प्रयास प्रारंभ किए. एक ट्रस्ट बनाया. दूसरे दल को इसमें रिश्तेदारियों का मामला नज़र आय़ा. बातचीत के बाद उसे ब्राडबेस बनाया गया. नए सदस्य जोड़े गए. संविधान बदला गया. पुनः रजिस्ट्रेशन हुआ. नया प्रबंधन बना. फिर से ज़मीन के लिए आवेदन किया गया. एक बड़ी रकम जमा की गई. प्राधिकारियों से मिलने वाले प्रतिनिधि दल में उस समय के अच्छी स्थिति वाले गणमान्य मेघ नौकरशाह थे. प्राधिकारियों का प्रश्न था कि कबीर मंदिर ही क्यों? उन्हें स्पष्ट किया गया कि यह मंदिर आम आदमी और श्रमिकों के लिए है जो अन्य धर्मों के सख्त अनुशासन में हमेशा बँध कर नहीं रह सकते. दूसरे उस क्षेत्र में ऐसी कोई संस्था नहीं थी जहाँ सारे समुदाय बैठ कर अपने गुरु का जन्मदिन मना सकें. प्राधिकारियों का रवैया सकारात्मक था. उल्लेखनीय है कि कबीर मंदिर जैसी धर्मार्थ संस्थाओं के लिए ग्रांट (धर्मशाला हेतु) उपलब्ध थी.
इस बीच दूसरे दल ने अलग से प्राधिकारियों से संपर्क किया. यह दल (इसमें आर्यसमाजी विचारधारा वाले लोग अग्रणी बन कर आए थे) एक भवन बनाने के पक्ष में था. प्राधिकारियों ने जान लिया कि यह एक ही समुदाय के दो दल हैं. बात बिगड़ी. समय बीतने लगा. धीरे-धीरे ज़मीन की कीमतें पहुँच से बाहर होने लगीं. पैसा एकत्रित होता रहा. कीमतें भी बढ़ती रहीं. परिणाम की अभी प्रतीक्षा है.
क्या कबीर मंदिर का विचार बुरा था? क्या उसके लिए संगठित प्रयास (एकता) करने में बुराई थी?
अन्य शहरों में भी इसी से मिलती-जुलती कहानियाँ कही जाती हैं. एकता के प्रति आम मेघ आज भी आशावान हैं. 

Reverence of Ravana on Dussehra – दशहरे पर रावण की पूजा

रावण के मिथ को ले कर कई रोचक और भयानक कथाएँ प्रचलित हैं. इनमें से कुछ रुचिकर हैं जिन्हें शब्द शिखरब्लॉग पर एक आलेख में संजोया गया है. इसे इस लिंक पर देखा जा सकता है —>  दशहरे पर रावण की पूजा




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Balijan Cultural Movement बलीजन सांस्कृतिक आंदोलन-2

मैंने शीर्षक में ही बलि को बली लिखा है. ऐसा मैंने जानबूझ कर किया है. विश्वस्त हूँ कि ऐसा करके ग़लती को ठीक कर रहा हूँ. क्योंकि बलि होना किसी का शौक या हॉबी नहीं हो सकती.

वर्ष जून 2010 में जम्मू में भगत महासभा द्वारा आयोजित कबीर के 612वें जयंती समारोह के अवसर पर जयपुर से पधारे श्री गोपाल डेनवाल (मेघवाल) ने अन्य साहित्य के साथ उक्त आंदोलन का घोषणापत्र मुझे दिया था. यह मेरे लिए एक नई चीज़ थी जिसे मैंने मेघ भगत पर प्रकाशित किया.

इस बीच इसकी जानकारी एकत्रित करने की कोशिश करता रहा. इस सिलसिले में दिल्ली के श्री दिनेश कुमार सांडिला से परिचय हुआ. फोन पर बात हुई. वे चंडीगढ़ पधारे. उनके साथ बातचीत में मेघ समुदाय के दो प्रतिष्ठित व्यक्ति भी शामिल हुए.

इस आंदोलन का घोषणापत्र अब हिंदी में प्राप्त हुआ है जिसे यहाँ पढ़ा जा सकता है बलीजन सांस्कृतिक आंदोलन. अभी तत्संबंधी साहित्य का अध्ययन कर रहा हूँ. संक्षेप में अभी इतना कहना पर्याप्त होगा कि इस आंदोलन का ईसाईयत की ओर झुकाव है. जातिवाद की शिकार अविकसित जातियों की उन्नति का जो मार्ग इसने चुना है उसमें अन्य पिछड़ी जातियों और अनुसूचित जातियो/जनजातियों को सम्मिलित रूप से लक्ष्य बनाया गया है और उन्हें अपनी विचारधारा के साथ जोड़ने का इनका मिशन है. यह मिशन धर्मपरिवर्तन नहीं कराने का दावा करता है.

जहाँ तक इस आंदोलन के नामकरण का सवाल है यह ठीक प्रतीत होता है. इस समूह के अस्तित्व में आने से पहले भी कई इतिहासकार और लेखक इस बात से सहमत हो चुके हैं कि पौराणिक कथाएँ वास्तव में इनके लेखन के समसामयिक भारतीय समाज को एक साँचे में ढालने के लिए एक समूह के द्वारा ख़ास तरीके से लिखी गई हैं जिससे उस समूह का हित लंबे समय तक सधता रहे. यह सफलता पूर्वक किया गया. परंतु अब शिक्षा के साथ कई व्यक्ति और जातिसमूह उन पौराणिक कथाओं की मानसिक गुलामी से निकल चुके हैं. हालाँकि यह बहुत कठिन काम था. उस शिक्षा के आधार पर अस्तिव में आए कई दर्शन और धर्म-संप्रदाय आदि समाप्त हो गए या कमज़ोर पड़ गए. संतमत ने इस दिशा में बहुत कार्य किया. राधास्वामी मत इस दिशा में सक्रिय है जिस पर आक्रमण होते आ रहे हैं.

प्रह्लाद का पोता राजा बली या महाबली (केरल में मावेली के नाम से प्रसिद्ध) एक ऐसा पौराणिक चित्र है जिसकी चमक भारतीय समाज में समांतर चल रही दो सभ्यताओं सुर (आर्य- मध्य एशिया से आई जनजाति) और अनार्य (असुर- सिंधु घाटी सभ्यता का विकास करने वाली जाति और वहाँ के मूल निवासी ) दोनों में बराबर दृष्टिगाचर होती है. वह एक नेक, न्यायी, महाबली, सुशासन देने वाला राजा था जिससे सुर जलते थे और उसे धोखे से पाताल लोक (केरल या अमेरिका) में भेज दिया गया या मार डाला गया. लोग उसे आज तक भूले नहीं. वे उसके लौटने की प्रतीक्षा करते हैं क्योंकि उसके राज्य में सभी सुखी थे. इसी मिथ के आधार पर बलीजन सामाजिक आंदोलन का नामकरण हुआ है. इस आंदोलन ने इसे ईसाई धर्म के न्यू टेस्टामेंट के साथ जोड़ा है. इसमें कुछ शब्दों की रूपसज्जा की गई है जो सुने हुए से प्रतीत होते हैं. यथा महादेव, यःशिवा आदि. अभी इसे थोड़ा ही पढ़ पाया हूँ.

श्री सांडिला जी कुछ और पुस्तकें भी दे गए हैं. जो कुछ मुझे प्रभावित करेगा उसे आपके साथ साझा करूँगा.

 
विशेष टिप्पणी: अंग्रेज़ों के शासन के दौरान ईसाई मिशनरियों ने अपने धर्म के प्रचार के लिए ब्राह्मणों को अपने साथ जोड़ा था. वे जुड़े भी. उनमें से कई ईसाई बने. वहाँ खूब पैसा था. जब मिशनरियों ने अविकसित जातियों में अपने धर्मप्रचार के लिए उनके समूहों में शिक्षा की मुहिम चलाई तब उसे धर्मपरिवर्तन या विश्वासपरिवर्तन कह कर कई तरह से बदनाम किया गया और उन जातियों में भय पैदा करके उन्हें पढ़ाई से दूर रखने की हर कोशिश की गई. आज भी उस कोशिश का अंत हुआ प्रतीत नहीं होता जबकि यह स्थिति आज से करीब डेढ़ सौ वर्ष पूर्व मुद्दा बन चुकी थीं. महात्मा फुले और डॉ. अंबेडकर का साहित्य इसकी गवाही देता है. लेकिन व्यापक रूप से शिक्षा से वंचित किए गए वर्गों तक इस साहित्य का संदेश पर्याप्त रूप से नहीं पहुँच सका, यह विडंबना रही.

संपन्न जातियों के बहुत से लोग विदेशों में जा बसे हैं, ईसाई बन चुके हैं या बिना अपना नाम बदले ईसाईयत को अंगीकार कर चुके हैं. उनके विरुद्ध भारत में कोई दुष्प्रचार नहीं किया जाता. जबकि अविकसित जातियों के विकास की जब भी कोई योजना ईसाई मिशनरी बनाते हैं तब गंदा धार्मिक प्रचार करके या धार्मिक घृणा फैला कर उसे रोकने का प्रयास किया जाता है (मुझे धर्म और घृणा पर्यायवाची से लगने लगे हैं). उद्देश्य केवल एक कि इन जातियों तक अच्छी शिक्षा, रोज़गार और संपन्नता बड़े स्तर पर न पहुँचे. आज शिक्षा का मँहगा होना और भारत सरकार की निर्धन बच्चों की शिक्षा के प्रति उपेक्षा उसी की कड़ी है. (ग़रीबों को बढ़िया और अच्छी शिक्षा देने का प्रबंध कौन करेगा? इन जातियों को शिक्षित बनाने की कारगर आयोजना क्या सरकार का काम नहीं है? अगर नहीं है तो जो भी संस्था यह कार्य करे लोग उसे समर्थन क्यों न दें.)

ब्लॉग लेखक के तौर पर अपना उत्तरदायित्व पूरा करना चाहता हूँ. माता-पिता धार्मिक कार्यों पर न्यूनतम खर्च करें, सामाजिक कार्यों पर फिज़ूलखर्ची बिल्कुल न करें और पैसा बच्चों की शिक्षा पर लगाएँ. सरकारी शिक्षण संस्थाओं/स्कूलों में शिक्षा के नाम पर हो रहे मज़ाक और फैले हुए भ्रष्टाचार  को चुनाव का मुद्दा बनाएँ. युवक-युवतियाँ रोज़गार के लिए किसी भी धर्म या भगवान पर भरोसा न करें, रोज़गार पकड़ें. पैसा सब कुछ न सही परंतु काफ़ी कुछ है. प्रथम आजीविका.


इस आंदोलन के घोषणा-पत्र का अंग्रेज़ी पाठ इस लिंक पर देखा जा सकता है–> Balijan

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Maveli (महाबली) and Matriarchal Society (मातृप्रधान समाज)

It refers to Maveli belongs to Meghvansh and other articles pertaining to this subject. Recently I remembered that Kerala has a matriarchal society. Likewise north-west region of India also has matriarchal system of society. Maveli ruled in Kerala and south-western parts of the country. His son Ban was governor of north-west. It is interesting that these parts of country have a matriarchal system of society? Did Maveli start this system in recognition of importance of women in society or was this system prevailing in Indus Valley Civilization before Maveli existed? Has the system of matriarchal society of this part of the globe been sytematically destroyed? At the same time I feel that women living in these regions also are not one up though property is in the name of women. Surname continues after the name of mother. However women in these areas are more conscious about their rights and know better about the life outside four walls of the house.

It is a fact that history of original inhabitants of Indus Valley Civilization has been corrupted or destroyed beyond recognition and it is very difficult to reconstruct it. However, it may be possible to collect traces and signs and extract something from human experience. Kayasthas of India got their history corrected after 200 years of struggle. It became possible through education, organization and awareness. Maharishi Shivbrat Lal Burman (ये संतमत/राधास्वामी मत में जाना माना नाम हैं और सुना है कि इन्होंने भारत में दूसरी टाकी फिल्म बनाई थी जिसका नाम ‘शाही लकड़हारा’ था) and Munshi Prem Chand belonged to Kayasthas. It will still be harder for Meghvanshis to do it. But it is worth doing it.    
 
राजा महाबली और मातृप्रधान समाज
इसका संदर्भ Maveli belongs to Meghvansh और ऐसे अन्य आलेखों से है. हाल ही में मुझे याद आया कि केरल में मातृप्रधान समाज है. इसी प्रकार उत्तर-पूर्व में भी मातृप्रधान समाज प्रचलित है. महाबली का राज्य दक्षिण और दक्षिणी-पश्चिमी क्षेत्रों में था. उसका बेटा बाण उत्तर-पूर्वी क्षेत्र का गवर्नर था. क्या यह हैरानगी की बात नहीं है कि इन दोनों क्षेत्रों में आज भी मातृप्रधान समाज है? क्या राजा महाबली ने समाज में महिलाओं का महत्व समझते हुए यह प्रणाली लागू की थी या महाबली से भी पहले सिंधु घाटी सभ्यता में यह प्रणाली पहले से चल रही थी? क्या देश के अन्य हिस्सों से मातृप्रधान समाज को क्रमबद्ध तरीके से समाप्त किया गया? मैं यह भी महसूस करता हूँ कि इन क्षेत्रों में संपत्ति महिलाओं के नाम में होती है लेकिन वे पुरुषों पर इक्कीस नहीं पड़ती हैं. वंश का नाम माता के नाम से चलता है. इन क्षेत्रों की महिलाएँ अपने अधिकारों के बारे में और घर की चारदीवारी से बाहर के संसार को बेहतर जानती हैं.

यह सच है कि सिंधु घाटी सभ्यता के मूल निवासियों के इतिहास को इतना नष्ट और भ्रष्ट कर दिया गया है कि उसे पहचानना और उसका पुनर्निर्माण करना कठिन है. लेकिन संकेतों और चिह्नों को एकत्र करना संभव है और मानवीय अनुभव से कुछ-न-कुछ निकाला भी जा सकता है. भारत के कायस्थों ने आख़िर 200 वर्षों के संघर्ष के बाद अपना इतिहास ठीक करने में सफलता पाई है. ऐसा शिक्षा, संगठन और जागरूकता से संभव हो पाया. महर्षि शिवब्रतलाल (ये संतमत/राधास्वामी मत में जाना माना नाम हैं और सुना है कि इन्होंने भारत में दूसरी टाकी फिल्म बनाई थी जिसका नाम ‘शाही लकड़हारा’ था) और मुंशी प्रेमचंद कायस्थ थे. मेघवंशियों के लिए ऐसा कर पाना और भी कठिन होगा. परंतु यह करने लायक कार्य है.


इस आलेख के नीचे टिप्पणीकार श्री पी.एन. सुब्रमणियन द्वारा दिया गया लिंक यहाँ जोड़ा गया है. (स्त्री सशक्तिकरण) सुब्रमणियन जी को कोटिशः धन्यवाद


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