Category Archives: Baba Faqir Chand

Baba Faqir Chand and circle of rebirth – बाबा फकीर चंद और आवागमन

आवागमन को लेकर एक प्रश्न उठता रहता है कि इतने ऋषि-मुनि, गुरु, महात्मा, संत, बाबा, योगी आदि हो गुज़रे हैं और उनके इतने शिष्य और शिष्यों की अगणित शाखाएँ-प्रशाखाएँ हैं कि यदि वे आवागमन के चक्र से बाहर हो जाते तो जन्म-मरण के सिद्धांत के अनुसार विश्व की आबादी, विशेष कर भारत की, कम होनी चाहिए थी. हुआ उलटा. इसकी एक व्याख्या बाबा फकीर चंद के साहित्य से मिली है जो मुझे बेहतर लगती है :-
सोचता हूँ यह सृष्टि अनादि हैयदि यह मान लूँ कि सन्तों की शिक्षा से आवागमन छूट जाता है तो ख्याल करता हूँ कि सत का प्राकट्य कलियुग में हुआ तो आबादी तो इतनी बढ़ी कि जिसका कोई हिसाब नहींघट जानी चाहिए थीइसे जानने में मेरा दिमाग़ फेल होता हैमैं तो हौसले से कहना चाहता हूँ कि कुदरत के भेद का पता शायद कबीर को भी न लगा होइतना ही लगा कि वे इस संसार से उस ज्ञान के आधार परजो मैंने संतमत में समझाशायद आप अलग हो गये होंकई बार सोचता हूँ कि अलग हो गये तो क्या हो गयाजो अलग हो गया उसके लिए संसार नहीं रहादुनिया जैसी है वैसी बनी हुई हैसत्युगत्रेताद्वापर और कलियुग के चक्र आते रहते हैंक्या कहूं कि कितने मनुष्य या कितनी आत्माएँ इस संसार से निकल गईंसमझ यही आई कि आप निकल गया उसके लिये संसार भी निकल गया.”    (अगम-वाणीसे)

Baba Faqir Chand and Inner Practices – बाबा फकीर चंद और आंतरिक साधन

Baba Faqir Chand
A question had been hanging on my mind whether Baba Faqir Chand, who spoke and wrote so much on inner practices, had really got fed up with all such yogic practices.
It is certain that all divine visions experienced during inner practices can continue till we exist in the body and till neural activity continues. What happens after death is a matter of imagination and entertainment. The fact is that nobody returned after ‘final death’ of heart and brain and did not reveal his experiences about it. Stories of rebirth are fabricated and shops keep humming with business.
I got a reference from Bhagat Munshi Ram’s book ‘Santmat (The opinion of Saints)’. He writes:-
The soul which realizes the third form of Guru gets liberated in due course. That is why he (Faqir) has written in his last discourses that ‘he was against inner practices. Whenever he sat for inner practices he surrendered to that form (Murti). He sought shelter in that. Intentional inner practices were nothing but a come back to the region of ego and he used to curse his mind and ask what good it was for.’ Param Dayal Ji used to explain it in these words:-
“I have pulled down the sand house”
It is clear indication that inner practices done intentionally do tire us and a desire to get rid of them takes us to yet another state though all such stages are different experiences within neural activity. It is like child making sand house, playing with it till getting fed up with it and then again constructing something new.
Bhagat Munshi Ram
यह बात मेरे मन पर अटकी थी कि साधन-अभ्यास का आंतरिक अवस्थाओं पर इतना बोलने-लिखने वाले बाबा फकीर चंद क्या इन साधनों से उकता नहीं होंगे.
यह तो तय है कि साधन के दौरान अलौकिक और दैवी दृष्य और विभिन्न अवस्थाओं का अनुभव तभी तक होता है जब तक शरीर है या मस्तिष्क की न्यूरल गतिविधि चलती है. हृदय और मस्तिष्क की अंतिम मृत्यु के बाद क्या होता है यह केवल अनुमान और मनोरंजन का विषय है. हृदय और मस्तिष्क की अंतिम मृत्यु के बाद आज तक न कोई लौटा और न अपने तत्संबंधी अनुभव के बारे में किसी ने कुछ बताया. पुनर्जन्म की कहानियाँ गढ़ ली जाती हैं और दुकानदारियाँ चलती रहती हैं.
मुझे भगत मुंशीराम जी की पुस्तक संतमत से यह उद्धरण मिला है. वे लिखते हैं:-
जिस जीव पर उनकी परम दयालुता से तीसरी मूर्ति के दर्शन हो जाते हैं, उसके धीरे-धीरे सभी बंधन कट जाते हैं. इसलिए उन्होंने (फकीर ने) अपने आखिरी सत्संगों में लिखा है कि मैं अभ्यास के विरुद्ध हूँ.मैं जब कभी अपनी नीयत से अभ्यास करने बैठता हूँ तो अपने आप को उस मूर्ति के हवाले कर देता हूँ. शरणागत हो जाता हूँ. अपनी नीयत से अभ्यास करना अब अभिमान में आना समझता हूँ और मन को लानत देता हूँ कि ऐ मन तू क्या कर सकता है. इस बात कोहुज़ूर परम दयाल जी महाराज इन शब्दों में ब्यान करते थे :-
मैंने अब सब ढेरियाँ ढा दीं.
इससे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि नीयत से साधन करना एक प्रकार की थकान देता है और उस थकान से अलग होने की इच्छा व्यक्ति को एक अन्य अवस्था में ले जाती है यद्यपि वे सभी अवस्थाएँ न्यूरल गतिविधि के ही अनुभव हैं.  यह लगभग वैसा ही है जैसे बच्चा रेत का घर बनाता है, खुश होता है और उकता कर उसे तोड़ता है. फिर कुछ नया बनाता है.

Kayasthas in Radhasoami Mat – राधास्वामी मत में कायस्थ – Maharishi Shivbrat Lal Varman महर्षि शिवब्रत लाल वर्मन

पहले यह कह देना उचित होगा कि राधास्वामी मत की स्थापना स्वामी जी महाराज ने की थी जो सहजधारी सिख थे. उन्होंने सत्गुरु (सत्ज्ञान) देने का कार्य राय सालिग्राम को दिया दिया था जो कायस्थ थे और राधास्वामी मत का आज का जो स्वरूप है उसे आकार देने वाले राय सालिग्राम ही हैं.
सालिग्राम जी के शिष्य शिवब्रत लाल बर्मन का जन्म सन् 1860 ईस्वी में उत्तर प्रदेश के भदोही ज़िला में हुआ था. वे दाता दयालऔर महर्षि जीके नाम से प्रसिद्ध हुए. वे स्नातकोत्तर (एम.ए., एल.एल.डी.) थे और साथ ही लेखक और आध्यात्मिक गुरु के रूप में ख्याति पाई. उन्होंने विभिन्न विषयों यथा सामाजिक, ऐतिहासिक, धार्मिक और आध्यात्मिक विषयों पर लगभग 3000 पुस्तकें-पुस्तिकाएँ लिखीं और पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया. संतमत, राधास्वामी मत और सुरत-शब्द योग आदि पर अनेक पुस्तकें लिखने के कारण उन्हें राधास्वामी मत का वेद व्यासभी कहा गया.
उनका अपने गुरु में अटल विश्वास था और वे राधास्वामी आध्यात्मिक आन्दोलन के अनुयायी बन गए. सन् 1898 में अपने गुरु के निधन के बाद उन्होंने सन् 1898 से ले कर 1939 तक राधास्वामी आध्यात्मिक आन्दोलन की सेवा की.

उर्दू साप्ताहिक आर्य गज़टके संपादक के तौर पर कार्य करने के लिए वे लाहौर गए थे. 01 अगस्त 1907 को उन्होंने अपनी एक पत्रिका साधुशुरू की. बहुत जल्द यह लोकप्रिय हो गई. एक लेखक के रूप में वे स्थापित हुए. हिंदी के अतिरिक्त इन्होंने उर्दू और अंग्रेज़ी में भी लिखा. ये फ़ारसी के भी अच्छे जानकार थे. इनकी पुस्तकें लाइट ऑन आनंद योग‘, ‘दयाल योगऔर शब्द योगबहुत प्रसिद्ध हुईं.
विश्व में राधास्वामी आध्यात्मिक आंदोलन फैलाने के लिए उन्होंने लाहौर से दुनिया की यात्रा शुरू की. 2 अगस्त 1911 को वे कोलकाता पहुँचे. 22 अक्टूबर 1911 को वे कोलकाता से रंगून की ओर समुद्र से रवाना हुए. 31 अक्तूबर को वे पेनांग पहुँचे और सिंगापुर और जावा होते हुए 22 नवंबर को हांगकांग पहुँचे. इन सभी स्थानों पर वे राधास्वामी आध्यात्मिक आंदोलन का संदेश फैला रहे थे. उसके बाद वे जापान और बाद में सैनफ्रांसिस्को, अमेरिका गये और सैनफ्रांसिस्को में व्याख्यान भी दिए.
सन् 1912 में शिवब्रत लाल जी ने गोपी गंज, मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश, भारत में अपने आश्रम की स्थापना की. उनके प्रेरक प्रवचनों ने समस्त भारत और विदेशों में भी राधास्वामी आंदोलन के चाहने वालों को आकर्षित किया. 23 फरवरी 1939 को उनासी वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ. उनकी पवित्र समाधि गोपी गंज के निकट राधास्वामी धाम में है.
इसके अतिरिक्त और बहुत कुछ है जो दाता दयाल महर्षि के बारे में जानने योग्य है. वे कायस्थ थे. बहुत कम लोग जानते हैं कि भारत की दूसरी टॉकी फिल्म शिवब्रतलाल जी ने बनाई थी जिसका नाम था शाही लकड़हारा जो इन्हीं के एक आध्यात्मिक उपन्यास पर आधारित थी. सुना है कि यह फिल्म इन्होंने अपने दामाद की सहायता करने के लिए बनाई थी.

Faqir Library, Hoshiarpur
इनके साहित्य में इनके शिष्य उक्त बाबा फकीर चंद का बहुत बार उल्लेख आता है. इन्होंने एक पूरी पुस्तकफ़कीर शब्दावली लिखी है. पहले कभी सुनने में नहीं आता था कि किसी गुरु ने अपने शिष्य की प्रशंसा में पुस्तकें लिखी हों. ऐसा करना गुरु गद्दी के लिए खतरा बन सकता है. दाता दयाल इन बातों से ऊपर थे और उन्होंने अपने शिष्य की दिल खोल कर तारीफ की है. फकीर ने इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए अपने अनुयायी भगत मुंशीराम की तारीफ में बुहत कुछ कहा है. भगत मुंशीराम जी ने दाता दयाल जी की वाणी और शिक्षा की व्याख्या अपने साहित्य में की है.
Statue of Data Dayal  Ji Maharaj, Hoshiarpu
मैंने स्वयं परम दयाल फकीर चंद जी से सुना है कि जब दाता दयाल जी बहुत बूढ़े हो चुके थे तब भी देश के दूरदराज़ के शहर-गाँव में जाकर राधास्वामी मत का कार्य करते थे. एक बार फकीर ने कहा कि दाता आप इस उम्र में क्यों इतना कष्ट उठाते हैं, अब आप इतनी यात्रा न किया करें तो उन्होंने कहा, फ़कीर, मेरे गाँव के लोग बहुत गरीब हैं. मैं जाता हूँ तो उनके लिए चार पैसे ले आता हूँ. इस पैसे से वे अपने गाँव में एक आश्रम चलते थे जहाँ लोगों को रोज़गार और भोजन मिल जाता था. कमाई के लिए सारी-सारी रात लिखते थे. सहायता स्वरूप दान देने में कभी कोई कमी नहीं आने दी. शिष्यों के दान और चढ़ावे में से अपने लिए कुछ इस्तेमाल नहीं करते थे. फकीर ने भारत और इराक में की हुई अपनी कमाई का बहुत-सा हिस्सा इन्हें भेजा. दाता दयाल जानते थे कि फकीर की कमाई पर उसके परिवार का हक़ है. जब कई वर्ष बाद फकीर घर लौटे तो उनकी पत्नी ने दाता दयाल से शिकायत की कि ये घर में पैसे नहीं देते हैं तो दाता दयाल ने कहा कि किसने कहा है फकीर ने तुम्हारे लिए पैसा नहीं रखा. और उन्होंने बैंक से निकलवा कर 20000/- रुपए फकीर की पत्नी को दिए.
फकीर ने अपने सत्संगों में बताया है कि वे एक बार अपने घर में बहुत कष्टपूर्ण स्थिति में थे और ध्यान दाता दयाल की दया पर लगा था. उस समय दाता दयाल किसी अन्य शहर में सत्संग करा रहे थे. अचानक उन्होंने सत्संग समाप्त करते हुए कहा कि चलो भाई, मेरा फकीर मुसीबत में है. इतनी संवेदनशीलता कितने लोगों में देखने को मिलती है.
दूसरे विश्वयुद्ध में इराक में युद्ध के दौरान एक बार फकीर और उनके साथी शत्रु फौजों से घिर गए. बचने की कोई उम्मीद नहीं थी क्योंकि गोला-बारूद लगभग खत्म हो चुका था. जैसा कि साधक करते आए हैं फकीर ने दाता दयाल जी का ध्यान किया और दाता दयाल का रूप प्रकट हुआ जिसने कुछ हिदायतों के साथ कहा कि विरोधी सेनाओं को उनके मृत फौजियों की लाशें ले जाने दो, वे तुम पर हमला नहीं करेंगे. फकीर ने यह बात सब को बताई जिसका पालन किया गया. वे सभी सुरक्षित रहे. जब वे इराक से लौटते हुए लाहौर स्टेशन पर पहुँचे तो फकीर के कुछ शिष्यों ने उन्हें घेर लिया और कहा कि,हम युद्ध की मुसीबतों में फँस गए थे. हमने आपका ध्यान किया और आपने हमारी मदद की.
फकीर सोच में पड़े कि मैं तो स्वयं मुसीबत में था और दाता दयाल का ध्यान कर रहा था. मैं तो इनकी मदद के लिए गया नहीं. क्या माजरा है कि ये लोग कह रहे हैं कि मेरा रूप इनके यहाँ प्रकट हुआ था. इस घटना ने फकीर की आँखें खोल दीं और उन्हें दाता दयाल की वह बात याद हो आई जो उन्होंने फकीर को कही थी कि सत्संगियों के रूप में तुम्हें सत्गुरु (सच्चे ज्ञान) के दर्शन होंगे. वे जान गए कि कोई गुरु, ईश्वर, अल्लाह बाहर से नहीं आता. वे सब व्यक्ति के भीतर के संस्कार होते हैं जो किसी कठिन परिस्थिति में रूप बन कर प्रकट होते दिखते हैं. तब से फकीर दाता दयाल की सही प्रकार से क़द्र कर पाए. कैलिफोर्निया में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर और धार्मिक पाखंडवाद के विशेषज्ञ डॉ. डेविड सी. लेनने इस पर एक फिल्म बनाई है जिसे इस लिंक पर देखा जा सकता है- Inner Visions and Running Trains.
हैदराबाद के संत श्री पी. आनंद राव जी जिनका ज़िक्र ऊपर किया गया है उन्होंने दाता दयाल के बारे में एक कथा सुनाई थी कि एक बार एक स्त्री उनके पास अपने छह माह के शिशु को ले आई जिसे डॉक्टरों ने मृत घोषित कर दिया था. उस स्त्री को विश्वास था कि दाता दयाल उसे ज़िंदा कर सकते हैं. दाता दयाल ने उसे डॉक्टर की सलाह मानने के लिए कहा लेकिन वह नहीं मानी और शिशु को उनके आश्रम में छोड़ कर चली गई. प्रातः जब वह स्त्री लौटी उस समय शिशु खेल रहा था. ऐसे कई चमत्कार उनके जीवन से जुड़े हैं जिनके बारे में दाता दयाल ने कभी कोई श्रेय नहीं लिया. वे उन्हें स्वाभाविक घटनाएँ बताते रहे.
जीवन में इतना कार्य करने वाले और जीवन भर निस्वार्थ भाव से दूसरों की सहायता करने वाले शिवब्रत लाल जी के जीवन का आखिरी पड़ाव बहुत निर्धनता में बीता. खाना भी पूरा और ठीक से नहीं मिलता था. फकीर ने कहीं लिखा है कि दाता दयाल में फकीरी की अवस्था का बहुत गहरा ख़्याल होने के कारण ऐसा होना स्वाभाविक था. उन्होंने मकाँ जब छुट गया तो क्यों ख़्याले ला मकाँ रखना जैसे शब्दों की रचना की थी.
शिवब्रत लाल जी ने देश-विदेश में खूब भ्रमण किया. इस सिलसिले में उन्होंने कितने शिष्य बनाए इसका सही पता लगाना कठिन है. दाता दयाल जी के चोला छोड़ने के बाद उनके गाँव में उनकी समाधि बना दी गई. किसी महात्मा की मृत्यु के बाद उनकी छोड़ी परंपरा में लोग सब से पहले उसकी संपत्ति देखते हैं. उनकी शिक्षा को जायदाद मानने वाले बिरले होते हैं. बाबा फकीर चंद निस्संदेह प्रमुख शिष्य थे लेकिन वे गोपी गंज जाना नहीं चाहते थे. उन्होंने समय-समय पर लोगों को वहाँ आचार्य नियुक्त किया. पहले एक सज्जन श्री कुबेरनाथ श्रीवास्तव को वहाँ का आचार्य बनाया. लेकिन दाता दयाल के संबंधियों ने उनका विरोध किया. उसके बाद अध्यात्म के क्षेत्र में बहुत ही व्यावहारिक व्यक्ति श्री प्रेमानंद जी को उक्त कार्य दिया लेकिन उन्हें भी कार्य नहीं करने दिया गया.
दाता दयाल जी की वाणी की व्याख्या बाबाफकीर और भगत मुंशीराम ने खूब की है. वर्तमान में मानवता मंदिर में गुरु का कार्य कर रहे दयाल कमल जी महाराज (श्री बी.आर. कमल) भी अपने सत्संग में दाता दयाल की वाणी के आधार पर सत्संग कराते हैं.
दाता दयाल जी के एक अन्य शिष्य श्री मामराज शर्मा ने दाता दयाल जी की जीवनी लिखी है जिसका प्रकाशन मानवता मंदिर, होशियारपुर के ट्रस्ट ने किया था और उसे निःशुल्क वितरित किया था.
दाता दयाल की समाधि पर एक बहुत बड़े स्तंभ का निर्माण किया जा रहा है.
अन्य लिंक्स सहित विस्तृत आलेख यहाँ पढ़ा जा सकता है:-
राधास्वामी मत से जुड़े अन्य कायस्थ सज्जन
संत प्रेमानंद जी (कायस्थ) f/o Shri A.N. Roy
अगम प्रसाद माथुर(कायस्थ) ऱाधास्वामी मत पर इनकी पुस्तकें बहुत उपयोगी सिद्ध हुई हैं.

अध्यात्म और अनुभव ज्ञान – बाबा फकीर चंद

(कल बहुत दिनों के बाद अपनी गढ़त करने वाली पुस्तकों को छुआ. और बाबा फकीर चंद जी की एक पुस्तक ‘अगम-वाणी’ से यह मिला. यह इसलिए भी अच्छा लगा कि यह MEGHnet पर 200वीं पोस्ट है.) 
“वाणी कहती है कि राधास्वामी अनामीअरंग अरूप की आदि अवस्था में थे जिसे अचरज रूप कहते हैंकेवल इस ख्याल से कि मैं किसी के अन्तर नहीं जातामेरे अन्तर जो रूपरंगदृश्य पैदा होते थे उनको तथा सहसदल कंवलत्रिकुटी आदि को छोड़ने के लिये मैं विवश हुआ क्योंकि वह मुझे मायावी और कल्पित सिद्ध हुएवे दृश्य आदि हमारे मन पर बाह्य प्रभावों से या अपनी प्रकृति के कारण आते हैंशब्द और प्रकाश से गुज़रता हुआ जब इनसे आगे चलता हूँ तो फिर उस मालिक को समझनेदेखने की शक्ति नहीं हैसिवाय अचरज के और कुछ नहीं हैजब वहाँ से उत्थान होता हैशब्द और प्रकाश की चेतनता आती हैवह अगम हैइसी प्रकार मेरी ही नहीं हर एक जीव की या हर एक मनुष्य की यही दशा है. 

तो फिर मेरे जीवन की रिसर्च यह सिद्ध करती है कि उस परमतत्त्वअनामीअकाल पुरुष की अवस्था से यह चेतन का बुलबुला प्रगट हुआ और उसी में समा गया. ‘लब खुले और बन्द हुयेयह राज़े ज़िन्दगानी है’.

अब संसार वालोसोचोमैंने जो खोज की हैक्या वह सत्य नहीं हैआज 80 वर्ष के बाद अपना अनुभव कहता हूँ कि जो कुछ वाणी में लिखा है वह ठीक हैइसकी सचाई का ज्ञान केवल गुरुपद पर आने से हुआजो लोग मेरा रूप अपने मन से या अपनी आत्मा से अपने अन्तर में बनाते है और मैं नहीं होता तो सिद्ध हुआ कि प्रत्येक व्यक्ति के अन्तर जो वह हैवह और है और जो शक्ति उसकी रचना करती हैउसकी अंश हैवह उसकी सत्ता है इसलिये वह जो उस अनामी धामहैरतअकाल पुरुष की सत्ता है वह रचना करती हैतमाम धर्म पंथहर प्रकार के योगीहर प्रकार के विचारवानकिससे काम लेते हैंवह है अपने आपकी सत्ताजो मनरूपी उनके साथ रहती है और उससे काम लेते हैंमनुष्य के अन्तर में उसका मन रचना करता है और ब्रह्मंडब्रह्मंडीय मन उस अकाल पुरुष, परमतत्त्वअनामीआश्यर्चरूप की सत्ता है
प्रत्येक धर्म सम्प्रदाय तथा पंथ वाले उस मालिक को अपने मन से अलग समझकर उसको पूजते हैंकोई कहता है अन्तर में राम मिलता है कोई कहता है उसका अलग मंडल हैअलग लोक हैमैं भी ऐसा ही समझा करता था मगर जब सत्संगियों के कहने से ज्ञान हुआ कि वह अपने अन्तर सूर्यचन्द्रमादेवीदेवताओं के रूप देखते हैं और मेरा रूप भी देखते हैं मगर मैं नहीं होता तो मुझे निश्चय हो गया कि यह सब खेल इनके अपने ही काल रूपी मन का हैइसी प्रकार इस बाहरी रचना में ब्रह्माविष्णुमहेशदेवी देवतालोक-लोकान्तर सब ब्रह्मंडी मन काल ने बनाये हैंजिस तरह मनुष्य का मन अपने अन्तर अपनी रचना करता है और वह रचना हमारी सुरत को भरमाती रहती हैइसी प्रकार यह बाहर की रचना हमको भरमाती रहती हैवास्तव में यह रचना उस असल अकाल पुरुषदयाल पुरुष का प्रतिबिम्ब है और हम उस अकाल पुरुष या दयाल पुरुष की अंश हैयहाँ आकर अपनी रचना में और बाहरी रचना में इसे भूल गयेउस भूल को मिटाने के लिये यह परम संत सत्गुरु का रूप धारण करके जीवों को अपने घर का पता देता है.”बाबा फकीर चंद, अगम वाणी से

Wikipedia : बाबा फकीर चंद

Other Links

 

Baba Faqir Chand- Secret-4 बाबा फकीर चंद – रहस्य-4

Everywhere the same element is widespread and has its own four cells or worlds – physical, mental, spiritual and fourth is the essence. The game or work or self-powered motion of every world creates bodies of various forms made of either solid matter or subtle or causal matter and this texture generates a kind of consciousness or awareness which is called life. This life is physical, mental and spiritual. When parts of a body of any of these bodies get destroyed or become useless, then the life of that body comes to an end and the same parts of that get merged with other bodies or create another body.
The whole world, with all its parts, is a game of nature or God Almighty. The essence, infiniteness or origin of this entire existence (power) cannot be estimated or sensed. No one can see, understand or feel it. The human senses, which are result of acts of gross, subtle and spiritual bodies, cannot go beyond causal matter or spiritual body, so none has right to say what that eternal (reality) is. It is what it is, or, to say it from spiritual angle, it is an absolute wonderful condition.

एक ही तत्व सर्वत्र व्यापक है और जिसके अपने ही चार कोष या लोक हैं – शारीरिक, मानसिक, आत्मिक और चौथा सार तत्व हैं. प्रत्येक लोक का खेल या कार्य अथवा स्वयं संचालित गति या तो स्थूल पदार्थ के या सूक्ष्म या कारण पदार्थ के विभिन्न रूप वाले शरीर बनाती है और इस बनावट से एक प्रकार की चेतना या बोध उत्पन्न होता है जिसको जीवन कहते हैं. वह शारीरिक, मानसिक और आत्मिक होता है. जब इन शरीरों में से किसी शरीर के अंग नष्ट हो जाते हैं अथवा नाकारा हो जाते हैं, तो उस शरीर का जीवन भी नाश हो जाता है और उस शरीर के वही अंग या तो दूसरे शरीरों से मिल जाते हैं अथवा दूसरे शरीर बना लेते हैं.

संसार अपने समस्त अंगों सहित प्रकृति या सर्वशक्तिमान ईश्वर का एक खेल है. इस समस्त अस्तित्व (सत्ता) के सार तत्व, अनन्तता या उद्गम का न अनुमान किया जा सकता है और न बोध. न कोई उसे देख सकता है, न समझ सकता है न महसूस कर सकता है. मनुष्य की इन्द्रियाँ जो स्थूल, सूक्ष्म और आत्मिक शरीरों के कृत्यों का परिणाम हैं, कारण पदार्थ या आत्मिक शरीर के आगे नहीं जा सकतीं, इसलिये किसी को यह कहने का अधिकार नहीं है कि वह अनन्त (असलियत) क्या है. वह जो है सो है अथवा मानसिक और आत्मिक दृष्टि से कहने के लिये एक परम आश्चर्यजनक दशा है.

नोट- (पुस्तक सच्चाई प्रथमतः 1948 में अंग्रेज़ी में छपी फिर उसका उर्दू अनुवाद 1955 में छपा. हिंदी अनुवाद का प्रकाशन अलीगढ़ की शिव पत्रिका ने 1957-58 में किया.)

Baba Faqir Chand- Secret-3 बाबा फकीर चंद – रहस्य-3

(In the last Post ‘Secret-2’, the secret of mental life force was mentioned, which got prominence   in Rhonda Byrne’s book ‘The Secret’.  Seekers have expressed their experiences pertaining to life beyond mind and thoughts. This area was not in the perspective of Rhonda Byrne nor did she emphasize this in her book. It was not required. This state is attainable by a person not having worldly desires. It is here in words of Faqir.

पिछली पोस्ट Secret-2’ में मानसिक जीवन शक्ति के रहस्य का उल्लेख था जिसे रॉण्डा बर्न (Rhonda Byrne) की पुस्तक ‘The Secret’ में मुख्य रखा गया था. मन-विचार से आगे के जीवन के बारे में साधकों ने अपने-अपने अनुभव व्यक्त किए हैं. यह क्षेत्र रॉण्डा बर्न के परिप्रेक्ष्य में नहीं था न ही उसने अपनी पुस्तक में इस पर बल दिया है. इसकी आवश्यकता भी नहीं थी. इस अवस्था में वही व्यक्ति जा सकता है जिसकी सांसारिक इच्छाएँ न हों. इसे फकीर के शब्दों में सुने.) :-

Spiritual life – In addition to the life realization described above there is another life where there is no awareness of body or mind. There is no thought in that life and it is independent of the body and mind. When a person gets accustomed to the experiences of physical and mental senses, it becomes natural desire for him to enter such a state where he may get complete rest, just like a man desires joy of deep sleep after a day of hard work. Same way his desire to search a state of complete physical and mental rest is natural i.e. going beyond the reach of physical and mental senses which is the first step toward spiritual enlightenment.
Until a person works to the extent that the physical and mental fatigue is properly experienced, he cannot enjoy deep sleep. Similarly a person who does not obtain mental and physical peace in his physical and mental life and until he is totally fed up with the game of Maya, he cannot desire for spiritual enjoyment, a state of peace and bliss.
आत्मिक जीवन – जीवन के बोध के अतिरिक्त जिस को मैंने ऊपर वर्णन किया है, एक और जीवन है जहाँ शरीर या मन का बोध नहीं है. उस जीवन में विचार नहीं रहता और वह शरीर और मन के बोध से स्वतंत्र है. जब कोई व्यक्ति शारीरिक व मानसिक इन्द्रियों का अनुभव करते-करते अभ्यस्त हो जाता है तो उसके लिए ऐसी अवस्था की अभिलाषा स्वाभाविक हो जाती है जहाँ कि उसे पूर्ण विश्राम मिले, जैसे कि दिन भर के कठिन परिश्रम के पश्चात मनुष्य गहरी नींद का आनन्द उठाना चाहता है. जैसे मानसिक व शारीरिक कठिन परिश्रम के पश्चात एक व्यक्ति के लिए गहरी नींद की इच्छा स्वाभाविक होती है ठीक उसी प्रकार ऐसी अवस्था की खोज जहाँ कि उसे शारीरिक व मानसिक पूर्ण विश्राम मिल सके, स्वाभाविक होती है अर्थात् शारीरिक व मानसिक इन्द्रियों की पहुँच के परे जाना है जो आत्मिक ज्ञान की ओर पहला कदम है.
जब तक कोई व्यक्ति ठीक इतना कार्य नहीं करता कि वह शारीरिक व मानसिक थकान का भान न करने लगे, वह गहरी नींद का आनन्द नहीं उठा सकता. ठीक इसी प्रकार एक व्यक्ति जिसको अपने शारीरिक व मानसिक जीवन में सच्ची मानसिक व आत्मिक शान्ति प्राप्त नहीं होती और माया के खेल खेलते हुये पूर्णतया उकता नहीं जाता, वह अध्यात्म (रूहानियत) की जो शान्ति और आनन्द का भंडार है, जिज्ञासा नहीं कर सकता.
नोट- (पुस्तक सच्चाई प्रथमतः 1948 में अंग्रेज़ी में छपी फिर उसका उर्दू अनुवाद 1955 में छपा. हिंदी अनुवाद का प्रकाशन अलीगढ़ की शिव पत्रिका ने 1957-58 में किया.)


Doomsday – Prophecies of Saints – प्रलय – सन्तों की भविष्यवाणियाँ

Bhagat Munshi Ram
Here is gist of an article written by Bhagat Munshi Ram. It is regarding prophecies made by saints including Baba Faqir Chand.
In 1976 Baba Faqir Chand, in Vaisakhi discourses said that within 5-6 years world population would be reduced to 30-40 percent. That time has passed. The world population did not reduce in India or in the world. Why did he say so?
In Islam it is written that after thirteenth century Doomsday will come. But nothing happened. Lord Buddha had estimated life of Buddhism to be 500 years. Today, the number of followers of Buddhism in the world is higher.
The thought of reduction in world population keeps occurring to people doing inner practices, yogis, sages and saints. Such views come during dreams, inner practices or lower level Samadhi. In year 1966-67, my friend Yogiraj Rameshwar Giri had predicted the world ending up with one third of population remaining.
It rather reveals a mystery. At the time these great men experienced such visions their bodies were in the process of dying. Possibly that was the cause behind such visions. It is a popular saying- ‘It is dooms day when one dies himself’. When the last day falls on someone he thinks the whole world is going to end. It’s natural.
Prof. Vashishth of Chandigarh asked Baba Faqir Chand what would happen to the world. His own body was about to end and he died. There could have been its effect on the brain of Baba Faqir.
While making such prophesies saints have good intentions and there is nothing against the world.”
Hope it explains the truth of prophecies as the world continues.
  
संतों की भविष्यवाणियों के बारे में भगत मुंशीराम जी के एक आलेख का सार नीचे दिया है. यह बाबा फकीर सहित अन्य संतों की भविष्यवाणियों के बारे में है.
सन् 1976 के वैसाखी सत्संगों में बाबा फकीर चंद ने कहा था कि 5-6 वर्ष में जनसंख्या 30-40 प्रतिशत रह जाएगी. वह समय गुज़र चुका है. दुनिया की जनसंख्या में कमी नहीं आई. न भारत में और न संसार में. उन्होंने ऐसा क्यों कहा.
इस्लाम धर्म में लिखा है कि तेरहवीं सदी के बाद कयामत आ जाएगी. मगर कयामत नहीं आई. महात्मा बुद्ध ने कहा था कि बौद्धधर्म 500 साल चलेगा. आज संसार में बौद्धधर्म मानने वाले लोग बहुत अधिक हैं.
विश्व की जनसंख्या कम हो जाने के विचार अभ्यासियों, योगियों, साधुओं और सन्तों को आते रहते हैं. स्वप्न में, अभ्यास में या नीचे की समाधियों में ऐसे दृश्य आते हैं. वर्ष 1966-67 में मेरे मित्र योगीराज रामेश्वर गिरी ने कहा था कि संसार की आबादी एक तिहाई रह जायेगी.
इससे एक गहरा रहस्य समझ आता है. इन महापुरुषों ने जब ये दृश्य देखे तो इनके शरीर छूटने वाले थे. संभव है ये दृश्य इसी कारण से हों. कहा भी गया है कि आप मरे जग परलो. जब किसी के अंतिम दिन आते हैं तो वह समझता है कि सारी दुनिया मर गई. यह स्वाभाविक बात है.
चंडीगढ़ के प्रोफैसर वसिष्ठ ने परम दयाल जी से पूछा था कि महाराज दुनिया का क्या होगा. उनका अपना शरीर समाप्त होने को था और वह चला गया. हो सकता है इसका प्रभाव परम दयाल जी के मस्तिष्क पर रहा हो.
जब संत ऐसी भविष्यवाणी करते हैं तो उनकी भावना शुभ होती है. वे संसार के अहित में कोई विचार नहीं रखते.

इससे भविष्यवाणियों की सच्चाई स्पष्ट हो जानी चाहिए क्योंकि दुनिया चल रही है.

MEGHnet

Baba Faqir Chand and The Secret-2

Baba Faqir Chand

 

(The previous post contained the secret and the importance of physical vitality. Rhonda Byrne’s book ‘The Secret’ did not give it a special importance. This post opens the mystery of mental power which was main point of Ronda Byrne’s book. The explanation of texture of thought and resolution by Baba Faqir is a shining example of his maturity regarding his internal analysis, which I’m convinced of).

(पिछली पोस्ट में शारीरिक जीवन शक्ति का महत्व और उसका रहस्य था. इसे रॉण्डा बर्न (Rhonda Byrne) की पुस्तक ‘The Secret’ में कोई विशेष महत्व नहीं दिया गया. इस पोस्ट में मानसिक जीवन शक्ति के रहस्य का उद्घाटन है जिसे रॉण्डा बर्न ने अपनी पुस्तक का मुख्य बिंदु रखा है. विचार और संकल्प की जो बनावट बाबा फकीर ने बताई है वह उनके आंतरिक विश्लेषण की परिपक्वता का ज्वलंत उदाहरण है जिसका मैं कायल हूँ.)

The Secret-2
Mental life – The resolution originates formation of the matter. Mind is made up of the same elements that made the body. The only difference is that body is made of gross matter and the mind is made of subtle matter. The way tasty food destroys physical health, same way the mental health is lost if there is concentration on romantic ideas, which are sexually explicit or meaningless gossip. To maintain the health of mind saints have prescribed unspoken repetition of holy name, the purpose being good and less thinking.
A person habitual of erotic thoughts or mental immorality or chewing unnecessary thoughts can never attain real mental peace. Finally, yes, he may become victim of misfortune.
I have, in many ways, experienced this quote “As you sow, so shall you reap” and found it true. Here, sowing means thinking.
The actual meaning of hating, criticizing others and thinking against them is that we are sowing seeds of those thoughts within us and we are sure to get the result of that.  Thoughts are more powerful than our deeds because they have the power to generate gross physical substance. So, entertaining unfair, dirty and nasty thoughts lead to bad results. Therefore, the Saints have set the following rules: –
So think purposefully. Eat for appetite. Work to the purpose and think of only such things which are necessary and lead you to the goal.
If, people, those have taken shelter in Nam (holy name), do not follow the above principles, they will not achieve anything. They will actually destroy themselves, because, in case, their wishes are not fulfilled by holy name, they will say badly about Saints or have hateful feelings for them and complain against their teaching, which will again because of their own ignorance. Finally in accordance with the philosophy of thoughts, their own thoughts will destroy them.
People of the present day are absolutely ignorant of the power of thought.  I will try to describe briefly the subject- ‘What are thoughts’?

Thought

The present day science has reached atoms i.e. an energy which produces gross matter found in the entire universe. Now, I have to say that the readers must think about their origin. Before entering the womb of your mother you were in father’s brain in the form of a germ in his semen. The germs were formed from the blood and semen produced by food eaten by your father. The food had been received from the earth. The earth cannot produce food without heat and light. Sun and other stars are the origin of heat and light. Therefore your physical life is nothing but light and heat mixed in gross matter and makes other organs of body. Your mind is the creator of your body. Similarly universal mind, also called the form of light is the creator of the five gross matters (Panch Mahabhoot). Therefore, whatever man thinks in a state of concentrated mind, whether in anger or in happy mood, it will create the same sort of effect because the power of thought is sure to transform into gross matter. So, what you sow, so shall you reap or your thinking will transform into you. I hope you know that and must have understood what I said. I have fully realized that whatever happens to us or the creation is the result of our own thoughts.
रहस्य-2

मानसिक जीवन – संकल्प से ही भौतिक पदार्थ की उत्पत्ति होती है. मन भी उन्हीं तत्त्वों से बना है जिनसे कि देह बना है. अंतर केवल इतना है कि देह के बनाने वाले तत्त्व स्थूल पदार्थ के होते हैं और मन के बनाने वाले तत्त्व सूक्ष्म पदार्थ के होते हैं. जिस प्रकार स्वाद के वशीभूत अधिक खाने से शरीर की आरोग्यता नष्ट हो जाती है, ठीक उसी प्रकार मन रसिक विचारों पर, जो कामोत्तेजक हों या व्यर्थ की गपशप के हों, ध्यान करने से अपनी आरोग्यता नष्ट कर बैठता है. मन के स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिए संतों ने अजपा-जाप का साधन बताया है जिसका प्रयोजन कम और श्रेष्ठ बातों का सोचना है.
जो कामोत्तेजक विचारों के ध्यान में निमग्न रहता हो अथवा मानसिक व्यभिचारी हो अथवा जो अनावश्यक बातों पर मनन करता है, वह वास्तविक मानसिक शान्ति कभी प्राप्त नहीं कर सकता. हाँ, अंत में आपत्ति-विपत्ति का शिकार अवश्य होगा.
मैंने इस कहावत – ‘‘जैसा बोओगे वैसा काटोगे’’ का अनुभव अनेकों प्रकार से किया है और इसे सच पाया है. यहाँ बोने से अभिप्राय सोचने से है.
दूसरों से घृणा करना, दूसरों की चुगली करना और दूसरों का बुरा सोचने का वास्तविक अर्थ यही है कि उन विचारों का बीज हम अपने अंतर में बोएँ और अनजान रूप से उनका फल पाएँ. विचार स्वयं हमारे कार्यों से अधिक शक्तिशाली है क्योंकि यह स्थूल भौतिक पदार्थ का उत्पन्न करने वाला है. अतः अनुचित विचार और मलिन व गंदी बातों के ध्यान से मनुष्य पर आपत्तियाँ आती हैं. इसलिए संतों ने निम्नलिखित नियम निर्धारित किए हैं: –
इतना सोचो जिससे प्रयोजन सिद्ध हो. इतना खाओ जितने से आवश्यकता की पूर्ति हो. इतना काम करो जिससे प्रयोजन पूरा हो सके अथवा वही सोचो जो आवश्यक और लक्ष्य तक हो.
जिन्होंने नाम का आश्रय लिया है, यदि वे उपरोक्त सिद्धान्तों का पालन नहीं करते तो उनको कुछ प्राप्त नहीं होगा. वे वास्तव में अपने आपको नष्ट-भ्रष्ट कर लेंगे, क्योंकि जब नाम द्वारा उनकी वासनायें पूरी न होंगी, जो यह उनके अपने अज्ञान का कारण होगा, तो वे या तो संतों के बारे में बुरा-भला सोचेंगे या घृणित भावों से उनकी शिक्षा की शिकायत करेंगे. अन्त में विचार की फिलॉसफी के अनुसार उनके अपने विचार ही उन्हें नष्ट-भ्रष्ट कर देंगे.
वर्तमान समय के लोग विचार की शक्ति से नितान्त अनभिज्ञ हैं. विचार क्या है इस विषय पर मैं आगे संक्षिप्त रूप में वर्णन करने का प्रयत्न करूँगा.
 विचार
वर्तमान विज्ञान अणुओं यानि एक प्रकार की शक्ति तक पहुँचा है जो ब्रह्माण्ड व्यापी स्थूल पदार्थ को उत्पन्न करने वाली है. अब मेरा का यह कहना है कि पाठक अपनी उत्पत्ति के विषय पर विचार करें. तुम अपनी माँ के गर्भ में प्रवेश करने से पहले अपने पिता के मस्तिष्क में वीर्य के कीटाणु थे. वह कीटाणु उस भोजन से बने जो तुम्हारे पिता ने खाया और जिससे रक्त और वीर्य बना. यह खाद्य पदार्थ पृथ्वी से प्राप्त किये गये थे. गर्मी और प्रकाश के बिना पृथ्वी खाद्य पदार्थ उत्पन्न नहीं कर सकती. सूर्य और अन्य तारागण गर्मी और प्रकाश के मूल उद्गम हैं. इस प्रकार तुम्हारा शारीरिक जीवन वास्तविक रूप से स्थूल पदार्थ से मिला हुआ गर्मी और प्रकाश है और शारीरिक इन्द्रियों को उत्पन्न करता है. तुम्हारा मन ही तुम्हारे शरीर का रचने वाला है. इसी प्रकार ब्रह्माण्डी मन, जो ज्योति स्वरूप कहलाता है और सारी सृष्टि का रचने वाला है, स्थूल पदार्थों (पंच महाभूतों) को उत्पन्न करता है. इसलिए मनुष्य जो कुछ मन की एकाग्र अवस्था में सोचता है, चाहे वह क्रोध की सूरत में हो अथवा प्रसन्नता के रूप की दशा में हो, उसका वैसा ही प्रभाव अवश्य उत्पन्न होगा, क्योंकि विचार जो एक शक्ति है स्थूल पदार्थ में बदल जाती है. अतएव जो व्यक्ति जो कुछ बोएगा वैसा ही काटेगा अथवा जैसा तुम सोचोगे वैसा ही बनोगे. तुमको इन बातों का भली प्रकार ज्ञाता समझकर मैं यह आशा करता हूँ कि तुमने मेरे मन्तव्य को समझ लिया होगा. मैंने पूर्णतया यह अनुभव कर लिया है कि जो कुछ हम पर या सृष्टि पर गुज़रती या पड़ती है वह हमारे अपने ही विचारों का फल है.

नोट- (पुस्तक सच्चाई प्रथमतः 1948 में अंग्रेज़ी में छपी फिर उसका उर्दू अनुवाद 1955 में छपा. हिंदी अनुवाद का प्रकाशन अलीगढ़ की शिव पत्रिका ने 1957-58 में किया.)

MEGHnet

Baba Faqir Chand and The Secret-1

Two years ago I had read Rhonda Byrne’s book ‘The Secret’. I liked it very much. It described mystery of power of thought in great detail. Wikipedia showed that in the background of the book, there was literature of William Walker Atkinson, a lawyer. Atkinson was influenced by an Indian yogi. Two names emerged there, a yogi Ramachakar and another Bharat. In article it was written that the two individuals had no record in the United States. Well!! He must have known the mystery from somebody. This secret can be lost but cannot be unknown to humanity.
Few days ago I was working on Baba Faqir Chand’s book ‘Sachchai’ (The Truth) that I again came across the same ‘secret’ and that too in a very simple form. Atkinson had not learnt the first part of the mystery and had much troubled life. I am dedicating this ‘secret’ in two installments through Baba Faqir Chand.
The Secret -1
Body Life – It is sense (Sensation) of the body. This awareness substance of life will be according to the material which made the body. Climate and food the parents had during the pregnancy and the food he takes during life play a big role in physical senses. Physical sufferings which people have are due to irregular and adverse food habits i.e. light, air, water and vegetables etc. Such individuals cannot attain any peace or happiness by Naam only as they live in bodies developed through irregular and adverse food. Therefore, the right way to get rid of all the physical suffering is that they should live in such way that leads to healthy life. This understanding or knowledge and its practice are part of “Naam”. The main rules are that: –
1. Take less food – Do not eat for taste but eat to survive. Do not live to eat.
2. Protection of Life force (celibacy) – No individual should unnecessarily waste his life force which keeps the body healthy, disease free and in peaceful state.
Even if a person does repetition of holy name and goes to gurus and does inner practices as per their directions, his physical suffering will not go away until he protects his life force.
Ancient books of our great men and scriptures, in various forms, support the above statement.

*******
मैंने रॉण्डा बर्न (Rhonda Byrne)  की पुस्तक The Secret’ दो वर्ष पूर्व पढ़ी थी. बहुत अच्छी लगी. इसमें विचार शक्ति के रहस्य को काफी विस्तार से बताया गया है. विकिपीडिया से पता चला कि इस पुस्तक की पृष्ठभूमि में विलियम वॉकर एटकिन्सन (William Walker Atkinson) नामक वकील का लिखा साहित्य था. एटकिन्सन किसी भारतीय योगी से प्रभावित था. वहाँ दो नाम उभर कर आए हैं, एक बाबा भारत और दूसरा योगी रामचाकर. आलेख में लिखा है कि इन दोनों व्यक्तियों के अमेरिका में होने का कोई रिकार्ड नहीं मिला. चलो सही. किसी से तो उन्होंने इस रहस्य को जाना होगा. मानवता के लिए यह रहस्य कभी खोया हुआ हो सकता है परंतु अनजाना नहीं है. 
पिछले दिनों बाबा फकीर चंद की पुस्तक सच्चाई पर कार्य कर रहा था तो वही रहस्य फिर सामने आया और बहुत ही सरल रूप में. पढ़ कर लगा कि एटकिन्सन ने इस रहस्य के प्रथम भाग को नहीं सीखा था और बहुत कष्ट उठाया. ये रहस्य बाबा फकीर चंद के माध्यम से दो किस्तों में समर्पित कर रहा हूँ.
रहस्य-1
“शारीरिक जीवन – यह देह का बोध (Sensation) है. जीवन का यह बोध भौतिक पदार्थ, जिससे यह देह बना है, के अनुसार होगा. जलवायु और खाद्य पदार्थ जो माँ-बाप ने गर्भ के समय खाये हों तथा वह पदार्थ, जिनको खाकर वह जीवन व्यतीत करता है, शारीरिक बोध में बहुत बड़ा कार्य करते हैं. देह के कष्ट, जिनसे लोग दुखी हैं, अनियमितता और प्रतिकूल भोजन अर्थात् प्रकाश, वायु, जल और साग-सब्जी आदि के कारण से हैं, केवल नाम, ऐसे व्यक्ति को, जो अनियमितता और प्रतिकूल भोजन से विकसित देह में रहता है, किसी प्रकार शान्ति अथवा सुख चैन नहीं दे सकता. अतः समस्त शारीरिक कष्टों से छुटकारा पाने या उनको दूर करने का सच्चा मार्ग यह है कि ऐसे ढंग से जीवन व्यतीत करे कि जिससे उसका जीवन स्वस्थ रह सके. यह समझ या ज्ञान तथा इसका अभ्यास नाम का एक अंग है. इसके लिए मुख्य नियम ये हैं-
(अ) कम खाना – स्वाद के लिए न खाओ किन्तु जीवित रहने के लिए खाओ. खाने के लिए मत जीओ.
(ब) जीवन शक्ति (ब्रह्मचर्य) की रक्षा – किसी व्यक्ति को अपनी जीवन शक्ति को जो शरीर को स्वस्थ, नीरोग और शांतमय अवस्था में रखती है, व्यर्थ नष्ट नहीं करना चाहिए.
कोई व्यक्ति चाहे नामका सुमिरन करे अथवा गुरुओं के पास जाय और उनके आदेशानुसार अभ्यास करे किन्तु जब तक वह अपनी जीवन शक्ति की रक्षा नहीं करेगा, उसके शारीरिक कष्ट दूर नहीं होंगे.

प्राचीन काल के महापुरुषों की रचनाएँ व हमारे ग्रंथ विभिन्न रूपों में उपरोक्त कथन का समर्थन करते हैं.”

नोट- (पुस्तक सच्चाई प्रथमतः 1948 में अंग्रेज़ी में छपी फिर उसका उर्दू अनुवाद 1955 में छपा. हिंदी अनुवाद का प्रकाशन अलीगढ़ की शिव पत्रिका ने 1957-58 में किया.)

MEGHnet

Religious Unity- Baba Faqir Chand

“What for there are religious conflicts? What for you have divided human race on the basis of religions and sects? It is ignorance. Government may take million of measures, it is very difficult to bring about unity, and we can say that it is impossible. In 1921 Hindus and Muslims drank water in a shared cup at a function held at Delhi’s Jama Masjid and then same Hindus and Muslims beheaded each other in 1947. Unity is not unity if there is greed or fear at its base. This is a temporary unity. When it was matter of forming self government Hindus and Muslims made a unity but after getting it they divided it into pieces.  They made it split into Pakistan and India. Mankind immersed in the ignorance. The only remedy to it is teaching of Santmat, the teaching of our sages. People opine that religion should not be mingled with politics. I say that if there is no religion in the politics of governing body, it will not be possible to administer governance.” (from Sat Sanatan Dharm: by Baba Faqir Chand)
किस लिये धार्मिक जगत में आकर झगड़ा मचाया हुआ है? तुमने किस लिये मानवजाति को विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों में बाँट दिया है? यह सब अज्ञान है. गवर्नमैंट लाख प्रयत्न करे, बिना इस अज्ञान के मिटाये एकता लाना महाकठिन है या यूँ कह लो असम्भव है. 1921 में हिन्दू-मुसलमानों ने दिल्ली की जामा मस्जिद में एक प्याले में पानी पिया और फिर उन्हीं हिन्दू-मुसलमानों ने 1947 में एक-दूसरे के सिर काटे. जो एकता लालच देकर की जाती है या डरा कर की जाती है, वह एकता नहीं है. यह अस्थाई एकता है. जब स्वराज लेना था तो हिन्दू-मुसलमान इकट्ठे हो गये और जब मिल गया तो टुकड़ों की तरह बाँट लिया. कहीं पाकिस्तान बना. कहीं कुछ बना. मानव जाति इस अज्ञान में डूब गयी. इसका एक मात्र इलाज है सन्तमत की शिक्षा, हमारे ऋषियों की शिक्षा. लोग कहते हैं राजनीति (Politics) को धर्म से अलग रखो. मैं कहता हूँ कि जब शासन की राजनीति में धर्म नहीं रहेगा, शासन नहीं चलेगा.(बाबा फकीर चंद, पुस्तक सत सनातन धर्मसे.)

MEGHnet

9 comments:

संजय भास्कर said…

bahut bahut aabhar bhushan ji.. hume to baba fakir chand ji ke bare me pata hi nahi tha

Bhushan said…

@ संजय जी, अब आप जान जाएँगे. समय आ रहा है.

ZEAL said…

इसका एक मात्र इलाज है सन्तमत की शिक्षा, हमारे ऋषियों की शिक्षा… I agree ! .

प्रवीण पाण्डेय said…

लड़ाई मन में होती है, हम धर्म का आधार दे देते हैं।

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said…

आदरणीय भूषण जी प्रणाम ~ जब शासन की राजनीति में धर्म नहीं रहेगा, शासन नहीं चलेगा। बाबा फकीर चंद ने सही कहा । … और उनसे परिचय के लिए आपका आभार ! ~*~नव वर्ष २०११ के लिए हार्दिक मंगलकामनाएं !~*~ शुभकामनाओं सहित – राजेन्द्र स्वर्णकार

वीना said…

अज्ञान के मिटाये एकता लाना महाकठिन है या यूँ कह लो असम्भव है…. सच कहा है

Dorothy said…

संतो की निर्मल वाणी ही हमारे मनों में बसे असहिष्णुता और वैमनस्य के कलुष को धो उसमें एकता और मेल मिलाप की धारा प्रवाहित कर सकती है जिससे हमारे मन आपस में सदैव मिले रहें एवं एकता के सूत्र में बंधे रहें.बाबा फ़कीर चंद जी के अति उत्तम विचार बांटने के लिए आभार. सादर डोरोथी.

boletobindas said…

सर दरअसल जब से धर्मदंड कमजोर हो गया तब से ही राजदंड उनमुक्त होकर शासन कर रहा है। विवेकानंद को पढ़ने के बाद लगा कि राजदंड अभी और नीच लोगो के हाथ में जाना शेष है। उसके बाद पुन धर्मदंड अपनी तपस्या की ताकत को जीवित करेगा। वैसे भी आज धर्मदंड जाने कहां छुपा हुआ है। धर्म के नाम पर पाखंड के अलावा कुछ नहीं रह गया है। बस चंद सच्चे सनातनी लोग अलग-अलग मत. चाहे सनातन धर्म हो, इस्लाम हो या ईसाई मत या कोई औऱ को मानने वाले…..ये सब मिलकर धर्म की ज्योति को मंद नहीं होने दे रहे। जबतक की राजदंड को अनुशाषित करने वाला धर्मदंड फिर से उज्जव चरित्र के लोगो के हाथ में न आ जाए। पर अभी समय शेष है।

Bhushan said…

दिव्या, प्रवीण, राजेंद्र,वीणा, डोरोथी और रोहित जी, आपका आना और टिप्पणी करना अच्छा लगा. आप सभी के विचारों का मैं हृदय से सम्मान करता हूँ.