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Lord Macaulay – A festival of memories – लॉर्ड मैकाले – स्मृतियों का त्यौहार











मनुवादी लॉर्ड मैकाले से नफरत करते हैं और उनके पास इसका बहुत अच्छा कारण है. यह एक तथ्य यह है कि मैकाले द्वारा 1837 में तैयार किया गया भारत दंड संहिता (आईपीसी) का मसौदा भारतीय नहीं है और इसी ने दलितों को सुमति भार्गव की मनुस्मृति के दमनकारी कानून से बचाया था. आईपीसी के साथ ही तैयार शिक्षा का कार्यवृत्त (1835)’ ने निश्चित ही भारत को ऐसे रास्ते पर ला खड़ा किया जहाँ से हम पृथ्वी पर महानतम देश बनने राह पर निकल पड़े हैं. फिर भीसच्चाई यह है कि आईपीसी हिंदू संस्कृति के लिए पराया है. यही कारण है कि यह अभी भी बहुत अच्छी तरह से काम नहीं पा रहा है. यह सिर्फ समय की बात है कि हम कई ऐसे नियम बना लें कि मैकाले की दंड संहिता बुरी तरह उलझ कर रह जाए और फालतू का बोझ लगने लगे.


क्या आईपीसी को हटाना भारत के लिए दुखद होगा या अच्छा होगाजब हम इस माह 06अक्तूबर, 1860 को शुरू भारतीय दंड संहिता के औपचारिक रूप से लागू होने और मैकाले के जन्मदिन (25 अक्टूबर, 1800) का जश्न मनाएँ तब इस प्रश्न पर अवश्य विचार करना चाहिए.

लॉर्ड थॉमस बैबिंगटन मैकालेगवर्नर जनरल काउंसिल ऑफ इंडिया (1834-38) के पहले कानूनी सदस्य थे. उन्होंने स्वीकार किया है कि उन्होंने आईपीसी का निर्माण आम भारतीयों के लिए किया है ताकि भारत को बर्बाद करने वाली मनुस्मृति और उन ब्रिटिश शासकों के अहंकार से उनकी रक्षा की जा सके जो ख़ुद को नए ब्राह्मण मानते थे और समझते थे कि वे शोषण करने के लिए प्राधिकृत हैं.

आईपीसी का मसौदा प्रस्तुत करते हुए मैकाले ने अपने कवर पत्र में स्पष्ट रूप से अपनी पुस्तक सूची पर आधारित वैश्विक नजरिया दिया था जिसने ब्राह्मणवाद और  ब्रिटिश नस्लवाद दोनों को खारिज कर दिया था.

Manuwadi has a very good reasons to hate Lord Macaulay.

एच एल दुसाध
अंग्रेजों की प्लासी विजय के बाद भारत में लार्ड मैकाले का आगमन शुद्रातिशूद्रों के लिए शुभ साबित हुआमैकाले ने ही भारत में हिन्दू साम्राज्यवाद से लड़ने का मार्ग प्रशस्त कियाअगर उन्होंने कानून की नज़रों में सबको एक बराबर करने का उद्योग नहीं लिया होता तो शुद्रातिशूद्रों को विभिन्न क्षेत्रों में योग्यता प्रदर्शन का कोई अवसर नहीं मिलताजिन हिन्दू भगवानों और शास्त्रों का हवाला देकर वर्णव्यवस्था को विकसित किया गया थामैकाले की आईपीसी ने एक झटके में उन्हें झूठा साबित कर दिया थासबसे बड़ी बात तो यह हुई कि वर्णव्यवस्था के द्वारा हिन्दूसाम्राज्यवाद के सुविधाभोगी वर्ग के हाथ शक्ति के समस्त स्रोतों को हमेशा के लिए आरक्षित करने का जो अर्थशास्त्र विकसित किया गया थाउसे आईपीसी (Indian Penal Codeने एक झटके में खारिज कर दियाकिन्तु सदियों से बंद पड़े जिन स्रोतों को मैकाले ने वर्णव्यवस्था के वंचितों के लिए खोल दियावे हिन्दू साम्राज्यवाद में शिक्षा व धनबल से इतना कमजोर बना दिया गए थे कि वे आईपीसी प्रदत अवसरों का लाभ उठाने की स्थित में ही नहीं रहेइसके लिए उन्हें जरुरत थी विशेष अवसर की.
मैकाले की आईपीसी ने वर्णवादी अर्थशास्त्र को ध्वस्त कर कागज पर जो समान अवसर सुलभ कराया उसका लाभ भले ही मूलनिवासी समाज नहीं उठा पायाकिन्तु आईपीसी के समतावादी कानून के जरिये कुछ बहुजन नायकों नेकठिनाई से ही सहीशिक्षा अवसर का लाभ उठाकर हिन्दू आरक्षण की काट के लिए खुद को विचारों से लैस कियाऐसे संग्रामी बहुजन नायकों के शिरोमणि बने ज्योतिबा फुले19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जिन दिनों श्रेणी समाज के सर्वहाराओं की मुक्ति के सूत्रों का तानाबाना तैयार करने में कार्ल मार्क्स निमग्न रहेउन्हीं दिनों यूरोप से हजारों मील दूर भारत के पूना शहर में शूद्र फुले जाति समाज के सर्वहाराओं के मुक्ति में सर्वशक्ति लगा रहे थेजब सामाजिक क्रांति के पितामह ने सामाजिक परिवर्तन की बाधाओं के प्रतिकार में खुद को निमग्न किया तो उन्हें बाधा के रूप में नज़र आई हिन्दू आरक्षण उर्फ़ वर्णव्यवस्थाउन्होंने हिन्दू आरक्षण को सामाजिक परिवर्तन की बाधा और मूलनिवासियों की दुर्दशा का मूलकारण समझ उसके प्रतिकार के लिए एक वैकल्पिक व्यवस्था को जन्म देने का मन बनायाउन्होंने मार्क्स को बिना पढ़े वर्गसंघर्ष के सूत्रीकरण के लिए जाति/उपजाति के कई हज़ार समाजों में बंटे भारतीय समाज को आर्य’ और आर्येतर’ दो भागों में बांटने का बौद्धिक उपक्रम तो चलाया हीइससे भी आगे बढ़कर कांटे से कांटा निकालने की जो परिकल्पना कीवह आरक्षण रूपी औंजार’ के रूप में 1873 में गुलामगिरी’ के पन्नों से निकलकर जनता के बीच आई.
मूलनिवासी शुद्रातिशूद्रों की दशा में बदलाव के लिए फुले ने आरक्षण नामक जिस औजार को इजाद कियाउसे 26 जुलाई 1902 को एक्शन में लाया शूद्र राजा शाहूजी महाराज नेलेकिन पेरियार ने तो हिन्दू आरक्षण के ध्वंस और बहुजनवादी आरक्षण के लिए संघर्ष चलाकर दक्षिण भारत का इतिहास ही बदल दियादक्षिण एशिया के सुकरात’ और वाइकोम के वीर’ जैसे खिताबों से नवाजे गए थान्थई’ पेरियार ने हिन्दू आरक्षण में संपदासंसाधनों और मानवीय आधिकारों से वंचित किये गए लोगों के लिए जो संघर्ष चलायाउससे आर्यवादी सत्ता का विनाश और पिछड़े वर्गों को मानवीय अधिकार प्राप्त हुआमद्रास प्रान्त में उनकी जस्टिस पार्टी के तत्वाधान में 27 दिसंबर 1929 को पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में 70 प्रतिशत भागीदारी का सबसे पहले अध्यादेश जारी हुआयह अध्यादेश तमिलनाडु के इतिहास में कम्युनल जी..’ के रूप में दर्ज हुआउसमें सभी जाति/धर्मों के लोगों के लिए उनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण का प्रावधान थाभारत में कानूनन आरक्षण की वह पहली व्यवस्था थी.

अगर भारत का इतिहास आरक्षण पर संघर्ष का इतिहास है तो मानना ही पड़ेगा कि डॉआंबेडकर भारतीय इतिहास के महानतम नायक रहेउनका सम्पूर्ण जीवन ही इतिहास निर्माण के संघर्ष की महागाथा हैउन्होंने हिन्दू आरक्षण के खिलाफ स्वयं असाधारण रूप से सफल संग्राम चलाया हीइसके लिए वैचारिक रूप से वर्णव्यवस्था के वंचितों को लैस करने के लिए जो लेखन किया वह सम्पूर्ण भारतीय मनीषा के चिंतन पर भारी पड़ता हैवैदिकों ने मूलनिवासियों पर हिन्दू आरक्षण शस्त्र नहींशास्त्रों के जोर पर थोपा थाशास्त्रों के चक्रांत से ही मूलनिवासी दैविक दास (divine slave) में परिणत हुए. दैविक (divine-slavery) के कारण कर्मशुद्धता का स्वेच्छा से अनुपालन करने वाले शुद्रातिशूद्र जहाँ संपदासंसाधनों पर हिन्दू साम्राज्यवादियों के एकाधिकार को दैविक अधिकार समझकर प्रतिरोध करने से विराट रहेवहीं अपनी वंचना को ईश्वर का दंड मानकर चुपचाप पशुवत जीवन झेलते रहेडॉआंबेडकर ने कुशल मनोचिकित्सक की भाँति मूलनिवासियों की मानसिक व्याधि (दैविक दासत्वके दूरीकरण के लिए विपुल साहित्य रचाचूँकि हिन्दू धर्म में रहते हुए शुद्रातिशूद्र अपनी वंचना के विरुद्ध संघर्ष का नैतिक अधिकार खो चुके थे थेइसलिए उन्होंने हिन्दू धर्म का परित्याग कर उस धर्म के अंगीकरण का उज्जवल दृष्टान्त स्थापित किया जिसमें मानवीय मर्यादा के साथ रुचि अनुकूल पेशे चुनने का अधिकार रहा सबके लिए सामान रूप से सुलभ रहा हैविद्वान् के साथ राजनेता अंबेडकर का संघर्ष भी उन्हें भारतीय इतिहास के श्रेष्ठतम नायक का कद प्रदान करता है.
बहुत से इतिहासकारों का मानना है कि भारत में स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार’ के प्रणेता बाल गंगाधर तिलक और उनके बंधुबांधवों का कथित स्वतंत्रता संग्राम वास्तव में हिन्दुराज’ के लिए संघर्ष थाअगर स्वतंत्रता संग्राम का लक्ष्य वास्तव में हिन्दुराज था तो मानना होगा कि आज के साम्राज्यवाद विरोधियों के स्वतंत्रता सेनानी पुरखे पुनः उस आरक्षण के लिए ही संघर्ष कर रहे थे जो आईपीसी लागू होने के पूर्व उन्हें हिन्दू आरक्षण उर्फ़ वर्णव्यवस्था में सुलभ थालेकिन एक तरफ सवर्ण जहाँ हिन्दुराज के लिए संघर्ष कर रहे थेवहीँ उनके प्रबल विरोध के मध्य डॉअंबेडकर का साइमन कमीशन के समक्ष साक्षी से लेकर गोलमेज़ बैठकोंपूना पैक्ट और अंग्रेजों के अंतर्वर्तीकालीन सरकार में लेबर मेंबर बनने तक उनका सफ़र आरक्षण पर संघर्ष के एकलप्रयास की सर्वोच्च मिसाल हैसचमुच भारत का स्वतंत्रता संग्राम आरक्षण के मुद्दे पर अंम्बेडकर बनाम शेष भारत के संघर्ष का ही इतिहास है.
मित्रो उपरोक्त तथ्यों के आईने में हम निम्न शंकाएं आपके समक्ष रख रहे हैं
1. अगर अंगेजों ने आईपीसी के द्वारा कानून की नज़रों में सबको एक बराबर तथा शुद्रातिशूद्रों को भी शिक्षा के अधिकार से लैस नहीं किया होताक्या फुलेशाहूजीपेरियारबाबा साहेब डॉअंबेडकर इत्यादि जैसे बहुजन नायकों का उदय हो पाता?
2. अगर भारत का इतिहास आरक्षण पर केन्द्रित संघर्ष का इतिहास है तो क्या यह बात दावे के साथ नहीं कही जा सकती कि डॉअंबेडकर भारतीय इतिहास के सबसे बड़े नायक रहे?
3. ब्रिटिश राज के दौरान गाँधीवादीराष्ट्रवादी और मार्क्सवादी खेमे के नेता जहाँ ब्रितानी साम्राज्यवाद’ के खिलाफ संघर्षरत थेवहीं डॉ अंबेडकर ने बहुजनों को हिदू साम्राज्यवाद’ से मुक्ति दिलाने में सर्वशक्ति लगाईतब साम्राज्यवाद विरोधी लड़ाई में शिरकत न करने के लिए मार्क्सवादियों ने उन्हें ब्रिटिश डॉगअंग्रेजों का दलाल इत्यादि कहकर धिक्कृत किया थाअगर अंबेडकर ने उस समय मार्क्सवादियों के बहकावे में आकर साम्रज्यवाद विरोधी लड़ाई’ में ही अपनी सारी ताकत झोंक दी होती तब आज के बहुजनविशेषकर दलित समाज का चित्र कैसा होता?

4. आज जबकि शक्ति के सभी स्रोतों पर 21 वीं सदी के साम्राज्यवाद विरोधियों के सजातियों का 80-85 % कब्ज़ा हैबहुजनों को अपनी ऊर्जा अदृश्य साम्राज्यवाद विरोध में लगानी चाहिए या शक्तिशाली हिन्दू साम्राज्यवादियों से अपनी हिस्सेदारी हासिल करने में?

5. 1942-45 तक कम्युनिस्ट जर्मनी और जापान के सहयोग से ब्रितानी साम्राज्य के खिलाफ सक्रिय सुभाष बोस और उनके अनुयायियों के कट्टर विरोधी रहेउन्होंने अंग्रेजों के कट्टर विरोधी नेताजी सुभाष को जयचंद भी कहने में संकोच नहीं कियाऐसा करके एक तरह से उन्होंने खुद को साम्राज्यवाद समर्थकों की पंक्ति में खड़ा कर लिया थाबहरहाल वर्षों बाद उन्हें अपनी उस ऐतिहासिक भूल का एहसास हुआ और नेताजी को देशद्रोही कहने के लिए माफ़ी भी माँगीकिन्तु भारत रत्न डॉअंबेडकर को ब्रिटिश डॉग कहने के लिए माफ़ी नहीं माँगाआखिर क्यों?

तो मित्रोअभी इतना हीमिलते हैं फिर कुछ और नई शंकाओं के साथ
दिनांक :12 जून, 2013
(लार्ड मैकाले का आगमन शुद्रातिशूद्रों के लिए शुभ साबित हुआ (गैरमार्क्सवादियों से संवाद18)
डॉ.आंबेडकर भारतीय इतिहास के सर्वश्रेष्ठ नायक से)
मैकाले अगर संस्कृत बनाम इंग्लिश की लड़ाई हार जाता और गुरुकुलों की जीत हो जाती, तो देश के कितने प्रतिशत लोग वहां पढ़ रहे होते?
मैकाले से ज्यादा शिकायत इसलिए कि उसने भारत में पहली बार IPC बना दी, जिसमें 302 का अपराधी किसी भी जाति को हो, उसे फांसी पर टांगा जा सकता है. वरना पहले तो ब्रह्महत्या की बात सोचना भी महापाप माना जाता था. IPC से साथ भारत में पहली बार समान अपराध के लिए समान दंड की व्यवस्था हुई.
पलासी की लड़ाई में जीत कर ब्रिटिश साम्राज्यवाद की नींव रखने वाला क्लाइव किसी मुहावरे में, किसी लोकोक्ति में विलन नहीं है. 1857 का विलेन डलहौजी भी गालियों का पात्र नहीं है…. लेकिन मैकाले के कुत्ते, मैकाले की औलाद जैसी गालियां हैं…. इसलिए मामला देशभक्ति का है ही नहीं.

मैकाले से आलोचक अपने बच्चों को किस मीडियम के स्कूल में पढा़ रहे हैं?

दिलीप. सी. मंडल


दलितोंपिछड़ों की बात छोड़ दीजिये अगर मैकाले की शिक्षा पद्धति भारत में लागू नहीं होती तो विवेकानंद जैसे हिन्दू शिरोमणि शिकागो में ZERO पर भव्यभाषण किस भाषा में देते, संस्कृत में? वैसे विवेकानंद की भारत में उस समय इतनी भी हैसियतनहीं बनी थी कि कोई हिन्दू (ब्राह्मण/द्विज) धर्म संस्था उन्हें अपना प्रतिनिधि मानता. मैकाले की दूसरी क्रांति यह थी कि आई. पी. सी. के समक्ष सबको बराबर कर दिया, मनु के दिन उसी दिन से लद गए. इस क्रांतिदूत की जयंती कल बिहार दलित विकास समिति, पटना के प्रांगन में भव्य ढंग से मनाया गई और उनके कृतित्व और व्यक्तित्व को स्मरण किया गया. उपस्थित बुद्धिजीवियों में मान्यवर बुद्ध शरण हंस, डॉ विजय कुमार त्रिशरण, डॉ राजीव, भीम शरण हंस, फादर एंटो, माला देवी, विशाल सिन्हा और अशोक दुसाध ने भी विचार विमर्श में सहभागिता निभाई. चीफ गेस्ट बिहार अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष मान्यवर विद्या नन्द विकल ने बहुत ही सारगर्भित तरीके से अपनी बात रखी. उपस्थित सैकड़ों लोगो की तालियों की गड़गड़ाहट से ऑडीटोरियम सुबह 11 बजे से शाम 5 बजे तक गूँजता रहा. पहले महिषासुर और अब लार्ड मैकाले लगता है बहुजन संस्कृति आकार लेने लगी है. – अशोक दुसाध


Manuvadi hate Lord Macaulay – मनुवादी मैकाले से घृणा करते हैं

Here is an article namely Macaulay v/s Manu-


मनुवादी लॉर्ड मैकाले से नफरत करते हैं और उनके पास इसका बहुत अच्छा कारण है. यह एक तथ्य यह है कि मैकाले द्वारा 1837 में तैयार किया गया भारत दंड संहिता (आईपीसी) का मसौदा भारतीय नहीं है और इसी ने दलितों को सुमति भार्गव की मनुस्मृति के दमनकारी कानून से बचाया था. आईपीसी के साथ ही तैयार शिक्षा का कार्यवृत्त (1835)’ ने निश्चित ही भारत को ऐसे रास्ते पर ला खड़ा किया जहाँ से हम पृथ्वी पर महानतम देश बनने राह पर निकल पड़े हैं. फिर भी, सच्चाई यह है कि आईपीसी हिंदू संस्कृति के लिए पराया है. यही कारण है कि यह अभी भी बहुत अच्छी तरह से काम नहीं पा रहा है. यह सिर्फ समय की बात है कि हम कई ऐसे नियम बना लें कि मैकाले की दंड संहिता बुरी तरह उलझ कर रह जाए और फालतू का बोझ लगने लगे.

क्या आईपीसी को हटाना भारत के लिए दुखद होगा या अच्छा होगा? जब हम इस माह 06अक्तूबर, 1860 को शुरू भारतीय दंड संहिता के औपचारिक रूप से लागू होने और मैकाले के जन्मदिन (25 अक्टूबर, 1800) का जश्न मनाएँ तब इस प्रश्न पर अवश्य विचार करना चाहिए.

लॉर्ड थॉमस बैबिंगटन मैकाले, गवर्नर जनरल काउंसिल ऑफ इंडिया (1834-38) के पहले कानूनी सदस्य थे. उन्होंने स्वीकार किया है कि उन्होंने आईपीसी का निर्माण आम भारतीयों के लिए किया है ताकि भारत को बर्बाद करने वाली मनुस्मृति और उन ब्रिटिश शासकों के अहंकार से उनकी रक्षा की जा सके जो ख़ुद को नए ब्राह्मण मानते थे और समझते थे कि वे शोषण करने के लिए प्राधिकृत हैं.

आईपीसी का मसौदा प्रस्तुत करते हुए मैकाले ने अपने कवर पत्र में स्पष्ट रूप से अपनी पुस्तक सूची पर आधारित वैश्विक नजरिया दिया था जिसने ब्राह्मणवाद और ब्रिटिश नस्लवाद दोनों को खारिज कर दिया था.

Martyrdom Day of Mahishasur – महिषासुर का शहीदी दिवस

Mahishasur the King

Everything changes with time. As a child, I thought that Asuras and Rakshasas had been very bad to us. With the increase of knowledge I came to know that in fact we were the Asuras and Rakshasas who had been defeated at the hands of outside invaders i.e. Aryans. Due to the continuity of our struggle to come back to power, we were made targets of immense hatred. Our image was distorted through mythical stories.

Today, due to the spread of education, Dalits, tribals and OBCs know better about themselves. Last year Mahishasur’s Martyrdom Day was celebrated at Jawaharlal Nehru University. This year too, preparations are underway at several other places. It is mentionable that Asur is a tribe/caste (aborigines of India) in Jharkhand and Bengal. In Bengal, this Asur tribe mourns the death of Mahishasur during the Durga Puja days.

I have read at some places that such programs are held as a reaction to Durga Puja. This makes no sense to me. Everyone has a right to respect his forefathers. There cannot be any justification if there is any sense of opposition to Durga Puja.

For more information about the Mahishasura Martyrdom Day please see the link below.


समय के साथ बहुत कुछ बदलता रहता है. बचपन में मैं असुरों और राक्षसों को बहुत बुरा समझता था. जैसे-जैसे जानकारी बढ़ी वैसे-वैसे पता चला कि ये तो हमीं हैं जो प्राचीन समय में आक्रांता आर्य कबीलों से युद्ध में हारे थे. हमारे संघर्ष की निरंतरता के कारण हमें घृणा के निशाने पर रख दिया गया. पौराणिक कथा-कहानियों के माध्यम से हमारी छवि खूब बिगाड़ी गई.
शिक्षा के प्रसार के कारण अब दलित, आदिवासी और ओबीसी अपने बारे में बेहतर जानते हैं. पिछले वर्ष जवाहर लाल नेहरू यूनीवर्सिटी में महिषासुर का शहादत दिवस मनाया गया था. इस वर्ष इसकी तैयारी कई अन्य स्थानों पर भी चल रही है. उल्लेखनीय है कि असुर एक जाति है जो झाड़खंड में और बंगाल में पाई जाती है. बंगाल में यह जाति दुर्गा पूजा के दिनों के दौरान अपने घरों में शोक मनाती है.

कुछ स्थानों पर पढ़ा है कि ऐसे आयोजन दुर्गा पूजा की प्रतिक्रिया स्वरूप किए जाते हैं. इससे सहमत नहीं हुआ जा सकता. अपने पुरखों को सम्मान देने का अधिकार सभी को है. यदि दुर्गा पूजा के प्रति विरोध की कोई भावना है तो उसका कोई औचित्य नहीं.

महिषासुर के शहादत दिवस के बारे में अधिक जानकारी के लिए नीचे दिए लिंक पर देखें.



दुर्गा नहीं महिषासुर की जय

Resurrecting Mahishasur – Deccan Herald dt.30-10-2012


30-10-2012
PRESS NOTE, AIBSF


“जेएनयू में मनाया गया महिषासुर का शहादत दिवस


• अगले सप्ताह महिषासुर-दुर्गा : एक मिथक का पुनर्पाठवि‍षय पर पुस्तिका जारी की जाएगी

• इतिहास में जो छल करते रहे उन्हीं को देवत्व का तमगा मिल गया है और जिन्होंने अपनी सारी ऊर्जा समाज सुधार और वंचित तबकों के उत्थान के लिए झोंक दी उन्हें असुर या राक्षस करार दे दिया गया.

जेएनयू 30 अक्टूबर 2012 : विवादित विषयों पर बहस की अपनी पुरानी परंपरा को बरकरार रखते हुए जेएनयू के पिछडे समुदाय के छात्रों के संगठन ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट्स फोरम (एआईबीएसएफ) के बैनर तले सोमावार (29 अक्टूबर) रात को महिषासुर का शहादत दिवस मनाया गया.

देर रात तक चले इस समारोह में देश भर से आए विद्वानों ने महिषासुर पर अपने विचार रखे. इस अवसर पर प्रसिद्ध चित्रकार लाल रत्नाकर द्वारा बनाये गये महिषासुर के तैलचित्र पर माल्यार्पण किया गया.

समारोह को संबोधित करते हुए आदिवासी मामलों की विशेषज्ञ और युद्धरत आम आदमीकी संपादक रमणिका गुप्ता ने कहा कि इतिहास में जो छल करते रहे उन्हीं को देवत्व का तमगा मिल गया है और जिन्होंने अपनी सारी ऊर्जा समाज सुधार और वंचित तबकों के उत्थान के लिए झोंक दी उन्हें राक्षस करार दे‍ दिया गया. ब्रह्मणवादी पुराणकारों/ इतिहासकारों ने अपने लेखन में इनके प्रति नफरत का इज़हार का भ्रम का वातावरण रच दिया है. आखिर समुद्र मंथन में जो नाग के मुँह की तरफ थे और जिन्हें विष मिला वे राक्षस कैसे हो गए? कामधेनु से लेकर अमृत के घडों को लेकर भाग जाने वाले लोग किस आधार पर देवता हो सकते हैं?‘ उन्होंने कहा कि वंचित तबका इन मिथकों का अगर पुनर्पाठ कर रहा है तो किसी को दिक्कत क्यों हो रही है?’

जेएनयू की प्रो. सोना झरिया मिंज ने कहा कि हिन्दू धर्मग्रंथों में वर्णित कहानियों के समानांतर आदिवासी समाज में कई कहानियाँ प्रचलित हैं. इन कहानियों के नायक तथाकथित असुर या राक्षस कहे जाने वाले लोग ही हैं जिन्हें कलमबद्ध करने की जरूरत है.

प्रसिद्ध समाजशास्त्री प्रो. विवेक कुमार ने कहा कि मिथकों की राजनीति और राजनीति के मिथक पर बहस बहुत जरूरी है. हमारे नायकों को आज भी महिषासुर की भाँति बदनाम करने की साजिश चल रही है.

इतिहास-आलोचक ब्रजरंजन मणि ने कहा कि शास्त्रीय मिथकों से कहीं ज्यादा खतरनाक आधुनिक विद्वानों द्वारा गढे जा रहे मिथक हैं. पौराणिक मिथकों के साथ-साथ हमें आधुनिक मिथकों का भी पुनर्पाठ करना होगा.

मंच का संचालन करते हुए एआईबीएसएफ के अध्यक्ष जितेंद्र यादव ने कहा कि पिछड़ा तबका जैसे-जैसे ज्ञान पर अपना अधिकार जमाता जाएगा वैसे-वैसे अपने नायकों को पहचानते जाएगा. महिषासुर का शहादत दिवस इसी कडी में है. संगठन महिषासुर शहादत दिवस को पूरे देश में मनाने के लिए प्रयत्नशील है.

संगठन के जेएनयू प्रभारी विनय कुमार ने कहा कि अगले सप्ताह महिषासुर-दुर्गा : एक मिथक का पुनर्पाठवि‍षय पर पुस्तिका जारी की जाएगी, जिसका संपादन अकादमिदक जगत में लोकप्रिय पत्रिका फारवर्ड प्रेसके संपादक प्रमोद रंजन ने किया है. गौरतलब है कि फारवर्ड प्रेसमें ही पहली बार वे महत्वपूर्ण शोध प्रका‍शित हुए थे, जिससे यह साबित होता है असुरएक (आदिवासी) जनजाति है, जिसका अस्तित्व अब भी झाड़खंड व छत्तीसगढ में है और महिषासुर राक्षस नहीं थे बल्कि इस देश के बहुजन तबके के पराक्रमी राजा थे. उन्होंने कहा कि पुस्तिका में महिषासुर और असुर जा‍ति के संबंध में हुए नये शोधों को प्रकाशित किया जाएगा तथा इसे विचार-विमर्श के लिए उत्तर भारत की सभी प्रमुख यु‍निवर्सिटियों में वितरित किया जाएगा.

इस मौके पर इन साइट फाउंडेशनद्वारा महिषासुर पर बनाई गई डाक्युमेंट्री भी दिखाई गई.

समारोह को एआईबीएसएफ कार्यकर्ता रामएकबाल कुशवाहा, आकाश कुमार, मनीष पटेल, मुकेश भारती, संतोष यादव, श्री भगवान ठाकुर आदि ने भी संबोधित किया.

प्रेषक : विनय कुमार, जेएनयू अध्यक्ष, एआईबीएसएफ, 158, साबरतमी जेएनयू मोबाइल 9871387326″



MEGHnet
 



Aryans do not belong to Indus Valley Civilization – आर्य सिंधुघाटी सभ्यता के नहीं हैं.

जब महात्मा ज्योतिराव फुले ने 1880 के आसपास आर्य आक्रमणों का अपने तौर पर विवरण (जिसे फुले का ‘बीजक’ कहा जा सकता है) दिया तब से कई आर्यों/ब्राह्मणों ने इतिहास और साहित्य में मन वाँछित तर्क-कुतर्क से प्रमाणित करने की कोशिशें शुरू कर दीं कि आर्य सिंधुघाटी सभ्यता के ही हैं, न कि बाहर से आए हैं. बामसेफ (BAMCEF) के साहित्य में भी इस बात का खुल कर उल्लेख होने लगा कि आर्य बाहर से आए हैं और इनकी जड़ें भारत की नहीं हैं और न ही कभी इन्होंने भारत को अपनी भूमि माना. ये यहाँ के मूलनिवासियों के साथ आज तक घृणा का व्यवहार करते आए हैं. इन्होंने ही अन्य बाहरी आक्रमणकारियों जैसे मुग़लों, अंगरेज़ों आदि को यहाँ लूट मचाने के लिए उत्साहित किया और हर प्रकार से उनका साथ देते रहे. ऐतिहासिक रूप से यह प्रमाणित भी हो चुका है कि आर्य भारत के नहीं हैं. ये बाहर से आए हैं.
देश में आर्य जाति के विरुद्ध बन रहे वातावरण के कारण अब आर्यों द्वारा ऐसा साहित्य लिखा जा रहा है जो सिद्ध करने की कोशिश करता है कि आर्य भारत भूमि की संतानें हैं. इसके लिए इंटरनेट का जम कर प्रयोग किया जा रहा है.
इसी सिलसिले में अनार्यों (एससी, एसटी, ओबीसी आदि) की ओर से तर्क जुटाए गए हैं कि आर्य वास्तव में ही भारत के नहीं हैं और उन्होंने न केवल इस देश को लुटाया बल्कि लूटा भी है. और आज तक लूट रहे हैं.
इसी सिलसिले में फेस बुक के माध्यम से एक अकाट्य तर्क सामने आया है जो प्रदीप नागदेव के माध्यम से पहुँचा है :-
सिंधुघाटी की सभ्यता जिसे आर्य अपनी सभ्यता बता रहे हैंयदि ये इनके बाप -दादा की सभ्यता है तो इन आर्यों से मेरा दावा है आप अपनी लिपि (सिंधुघाटी की) को आज तक पढ़ क्यों नही पाए? आर्य तो संस्कृत भाषी थे कितु ये सभ्यता संस्कृत भाषी नही थी. आर्यों से काफी विकसित और उन्नत सभ्यता थी. इन विकसित सभ्यता के लोगों को ये विदेशी आर्यदैत्यदानवअसुर और राक्षस कहते आ रहे हैं. क्योंकि इनकी सभ्यता आर्यों से भिन्न और विकसित तथा उन्नत भी थी, सिंधुघाटी के लोग नाग तथा प्रकृति की पूजा करते थे. खुदाई में आज तक कोई भी हिंदू देवी-देवताओं की मूर्ति नहीं मिली है. न ही आज तक सिंधुघाटी सभ्यता की लिपि को कोई आर्य पढ़ पाया है. फिर भी विदेशी आर्यों का इसे अपनी सभ्यता कहना पागलपन की हदें पार करना ही है. दरअसल सिंधुघाटी की सभ्यता आर्यों से पृथक है. इसी कारण आर्यों और सिन्धुघाटी सभ्यता के लोगों में दो भिन्न संस्कृति के कारण ही अनेकों युद्ध होते आये हैं. सिंधुघाटी के लोगजिन्हें आर्य लोगदैत्यराक्षसअसुरदानव कहते आ रहे हैं वे सब SC/ST/OBC के हमारे पूर्वज हैं जिन्हें आज भूदेवताओं ने शूद्र कहकर प्रचारित कर रखा हैसिंधुघाटी तथा मोहनजोदड़ो की विकसित और उन्नत सभ्यता हमारी सभ्यता है. जय भीम ……!!!! जय प्रबुद्ध भारत ….!!!! जय मूलनिवासी …!!!!
इस पैरा में सिंधुघाटी सभ्यता की लिपि वाला तर्क ध्यान देने योग्य है. इसके अनुसार यदि आर्य जाति के लोग और उनके पूर्वज वाकई सिंधुघाटी के थे और उस भाषा/लिपि का प्रयोग करते थे जो वहाँ की खुदाई में मिली है तो वे उसे आज स्वयं ही पढ़ क्यों नहीं पाते? वे संस्कृत में लिखे वेदों को धरती का प्राचीनतम ग्रंथ कहते हैं. 

प्रमाण मिल चुके हैं कि सिंधुघाटी सभ्यता की लिपि सबसे पुरानी है जिसे डी-कोड करने के प्रयास अमेरिका आदि देशों में अभी हो रहे हैं. कंप्यूटरों की सहायता ली जा रही है. 

भारत में बसे आर्य अपनी ही भाषा-लिपि न पढ़ पाते हों यह हैरानगी की बात है. दूसरी ओर ये स्वयं को दुनिया की पहली पढ़ी-लिखी और संस्कृत, जिसे इन्होंने ईश्वरीय भाषा कह कर प्रचारित किया है, जानने वाली जाति कहते हैं. सिंधुघाटी या हड़प्पा सभ्यता को यदि इन्होंने ही विकसित किया था तो परंपरागत रूप से स्वयं को सदा शिक्षित कहने वाले आर्य अपनी लिपि कैसे भूल गए जबकि देवनागरी लिपि में लिखी संस्कृत इन्हें याद रह गई जिसे ये सबसे प्राचीन भाषा कहना नहीं भूलते.

इस बीच भारत में असुरों/राक्षसों को गोरे रंग का दिखाया जाने लगा है जैसे- रावण. पता नहीं अचानक काले रंग के असुर और राक्षस गोरे कैसे होने लगे. रावण जैसे असुर और राक्षस चरित्रों को सदियों से काले रंग का दिखाया जाता रहा है. अब रामायण पर बने सीरियलों में राम और रावण दोनों गोरे होते हैं जबकि राम काले थे. इस दृष्टि से राम के काले/श्याम होने का संकेतात्मक अर्थ यह निकलता है कि काले ने गोरे को हराया और मारा). 

इसका एक ही कारण हो सकता है कि राम काले थे ही और रावण, जिसे ब्राह्मण भी कहा जाता है, को कुछ ग्रंथों में आर्य लिखा लिया गया है. अब उस लिखे को निभा ले जाने में कतिपय कठिनाइयाँ हैं. कुछ आर्यों ने असुरों को आर्यों की ही एक जाति बताने के प्रयास शुरू कर दिए हैं जो हास्यास्पद है.

एक समय था जब राम और रावण दोनों का रंग काला दर्शाया जाता था. ऐसे ही कृष्ण और कंस और उसकी दूतियों का भी समझ लीजिए. कहा जाता रहा है कि आर्यों ने काले को काले के हाथों मरवा कर हमेशा अपना स्वार्थ साधा है. ऐसी तार्किक बातें अब पढ़े-लिखे (ब्राह्मण भी) कहने लगे हैं. कुछ सच्चाई का सामना करने की बजाय भय के कारण मिथकों को नए रंग देने के प्रयास में लगे हैं. इस प्रकार पौराणिक/ऐतिहसिक तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने-दरेड़ने का कार्य होने लगा है.
अब समय आ गया है कि ऐसी बातों को भूल कर ये आर्य या ब्राह्मण (जो देश की राजनीति, उद्योग, अफसरशाही, शिक्षा, न्याय व्यवस्था आदि में बहुतायत से बैठे हैं) देश में हो रहे भ्रष्टाचार को समाप्त करने में अधिक सहयोग करें. यदि वे इस देश को अपना मानने लगे हैं तो आम लोगों के लिए बनी विकास योजनाओं को उन तक पहुँचने दें. अपने पुराने कुंद हो चुके धार्मिक साहित्य पर अधिक ज़ोर न देकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण और मानवीयता अपनाएँ.