Category Archives: Uncategorized

2014 in review

The WordPress.com stats helper monkeys prepared a 2014 annual report for this blog.

Here’s an excerpt:

A San Francisco cable car holds 60 people. This blog was viewed about 1,100 times in 2014. If it were a cable car, it would take about 18 trips to carry that many people.

Click here to see the complete report.

Dalit Politics – दलित राजनीति

दलितों की नुमाइंदगी और उनकी हिस्सेदारी

दलित राजनीति पर बनी एनडी टीवी द्वारा तैयार दो अच्छे वीडियो आप यहाँ इन लिंक्स पर देख सकते हैं.

इसमें डॉ. अंबेडकर की आवाज़ में ऐसा प्रसंग है जिसमें स्पष्ट है कि उनमें और गाँधी में गहरे मतभेद थे.

Ravish Kumar (NDTV) shows political picture of Megh/Bhagat/Ravidasia – रवीश कुमार (एनडीटीवी) ने दिखाई मेघ/भगत/रविदासियों की राजनीतिक तस्वीर

NDTV ने जालंधर के भगतों की एक बड़ी साफ राजनीतिक तस्वीर दी है जिसे रवीश कुमार ने दिखाया है. लीजिए नीचे लिंक हाजिर है. क्लिक कीजिए,  देखिए, समझिए और सोचिए.

आपकी सहूलियत के लिए रवीश की प्रारंभिक टिप्पणी को मैंने लिपिबद्ध करके नीचे दिया है:-.

नमस्कार मैं रवीश कुमार (साथ में एनडी टीवी की सहयोगी रिपोर्टर सर्वप्रिया सांगवान), हिंदुस्तान में सबसे ज़्यादा दलित पंजाब में रहते हैं और पंजाब में गरीबी रेखा से नीचे के जो लोग हैं उनमें से भी सबसे ज़्यादा दलित हैं. लेकिन इसके बावजूद एक तबका दलितों में ऐसा है जो ठीकठाक से बेहद के स्केल पर आर्थिक रूप से समृद्ध हुआ है. लेकिन अगर आप उत्तर प्रदेश से तुलना करेंगी तो उसकी तुलना में पंजाब के दलितों ने राजनीति में अपना वर्चस्व कायम नहीं किया है और उसके अनेक कारण रहे होंगे कि क्यों नहीं किया है. मगर एक कमी यह रह जाती है कि हम अकसर अपनी चुनावी रिपोर्टिंग में जो रिज़र्व सीट है उसके भीतर की विविधता और अंतर्विरोध को बहुत ज़्यादा तवज्जो नहीं देते हैं क्योंकि उन सीटों पर कोई अरविंद केजरीवाल या नरेंद्र मोदी या मुलायम सिंह यादव इस स्तर के नेता नहीं होते हैं और इसका नतीजा यह होता है कि वो सिर्फ गिन लिए जाते हैं कि लोकसभा की 70 से 80 सीटें हैं और उनमें जा कर यह जीतेगी या इस पार्टी ने यह उम्मीदवार दिया है. पंजाब में दलित राजनीति की कामयाबी और उसकी नाकामी दोनों को समझना हो तो जालंधर सबसे अच्छा सेंटर है. यह उसके पूरे संकट को बताता है कि किस तरह से यहाँ का जो दलित है उसको पार्टियों ने रविदासिए समाज में, वाल्मीकि समाज में और बरार समाज में और कबीरपंथी जो अपने आप को भगत कहते हैं उन तमाम तरह के समाजों में बाँट दिया है.

दलित चेतना यहाँ पर अलगअलग सामुदायिकसांप्रदायिक चेतना में बँटी हुई है. दलितों का कोई एक नेतृत्व नहीं है खासकर जब यह अहसास हुआ है कि हमें हिस्सेदारी नहीं मिली, हमारा भी दो लाख वोट है दलितों के भीतर और सिर्फ रविदासियों को मिलता है टिकट, तो उसी से चुनौती मिल रही है. उसने पंजाब की दलित राजनीति को ज़्यादा इंटरेस्टिंग बना दिया है.

Dharmaram Meghwal- our hero – धर्माराम मेघवाल- हमारे अग्रणी

P { margin-bottom: 0.21cm; }A:link { }

धर्माजी मेघ का जन्म एक साधारण मेघवाल परिवार में हुआ था। आपकी माताजी का नाम नैनी बाई और पिताजी का नाम मदाजी था। मदाजी के चार पुत्र और एक पुत्री थी। धर्माजी चौथी संतान थे।

मदाजी के पुरखे ऊँटों पर वर्तमान पाकिस्तान से सामान लाकर जैसलमेर और जोधपुर के इलाकों में बेचते थे। साथ ही गायें-भैसे और भेड़-बकरी पालते थे। वर्षा के दिनों में खेती-बाड़ी के कामों में संलग्न हो जाते थे। औरतें खेती-बाड़ी के कामों से फारिग होने पर कताई-बुनाई का काम करती थीं। उस समय मारवाड़ में सामंतशाही का जोर था और  व्यापक स्तर पर मेघवालों ने और विशेषकर मदाजी  के परिवार वालों ने इसके विरुद्ध आन्दोलन छेड़ रखा था।  इसलिए उनके परिवार को कई बार एक गाँव से दूसरे गाँव भटकना पड़ा। वे मारवाड़ के पिलवा, जूडिया, हापाँ और केतु आदि गाँवों में रहे। उनके कुटुंब के कई लोग सामंतशाही और अकाल के कारन मारवाड़ छोड़कर पाकिस्तान के सिंध हैदराबाद और मीरपुर खास में जा बसे थे। कुछ लोग सौराष्ट्र की मिलों में काम करने चले गए।  उस समय पाकिस्तान और भारत में लोग आते-जाते रहते थे। धर्माजी भी अपने पिताजी के साथ वहाँ कई बार आये और गए।  मदाजी की पहली पत्नी का दो पुत्र और एक पुत्री को  जन्म देने के बाद देहांत हो गया। घर बार को संभालने के लिए मदाजी ने सेतरावा निवासी मेघवाल घमाजी की पुत्री नैनी बाई से विवाह कर लिया। नैनी बाई और मदाजी के दो संतान पैदा हुई। जिसमें धर्माजी बड़े थे।

सन 1925 के अकाल में मदाजी के कुटुम्ब के कई लोग जोधपुर आ गए और और जीवन यापन करने लगे। वर्षा के दिनों में गाँवों में जाकर खेती बाड़ी करते। धर्माजी उस समय बहुत छोटे थे। जोधपुर में रहते हुए वे सरकार की सेवा में आ गए और जब दुनिया का दूसरा प्रसिद्ध जंग छिड़ा तो जोधपुर में अंग्रेजों की सेना में 1942 को भर्ती हो गए। वहाँ से वे कलकत्ता गए, और कलकत्ता से उन्हें जर्मनी और जापान के विरुद्ध बर्मा बॉर्डर पर लड़े जा रहे युद्ध मैदान में भेज दिया।

द्वितीय विश्व युद्ध 1939-1945 के बीच लड़ा गया था, जिसमें वर्तमान राजस्थान के भूभाग से कई मेघ लोग सेना में थे। 01 सितम्बर 1939 से लेकर 02 सितम्बर 1945 तक ब्रिटिश भारतीय सेना बरमा बोर्डेर पर जापान और जर्मनी की हिटलर सेना के विरुद्ध युद्ध रत रही। इस युद्ध में धर्माजी वल्द मदाजी मेघ इसी ब्रिटिश इंडिया आर्मी सेना में सार्जेंट थे। जब बरमा बोर्डेर पर युद्ध तेज हुआ तो उनकी रेजिमेंट के मेजर हुआ करते थे- करिय्प्पा। जो बाद में फील्ड मार्शल जनरल बने। इस सीमा पर 36000 भारत के सैनिक शहीद हुए, 34354 सैनिक घायल हुए और तक़रीबन 67340 युद्ध बंदी बनाये गए। 

धर्माजी युद्ध क्षेत्र में बहादुरी से लड़े। युद्ध की गोलियों को बहादुरी से उन्होंने सहा। उनके एक पैर में कुछ गोलियाँ घुस गयी थीं फिर भी वे डटे रहे। बाद में उनकी जांघ में भी गोलियाँ लगीं। जब करियप्पा साहब को ये सब जानकारी हुई तो उन्होंने धर्मा जी को संभवतः डिब्रूगढ़ मिलिट्री हॉस्पिटल में भर्ती कराया वहाँ गोलियाँ निकल नहीं सकीं। अतः धर्माजी को दीमापुर ले जाया गया। जहाँ उनकी जांघ से मांस काटकर गोलियाँ निकाली गयीं। वहां लम्बे समय तक उनका इलाज चला। धर्माजी को पुरस्कृत किया गया। वे बरमा स्टार और पेसिफिक क्लास्प्स से भी नवाजे गए थे। उन्हें कामैग्न अवार्ड भी मिला। (यह मुझे उन्होंने बताया था, उनके कुछ मैडल मेरे पास हैं; जिनमें से कुछ के फोटो नीचे पोस्ट किये गए हैं).

जापान ने 22 जनवरी 1942 में बर्मा पर आक्रमण किया। भारत की फ़ौज की तादाद बहुत कम थी। एक बार तो ऐसा लगा की भारत की सेनाएँ हार जाएँगी। रसद पानी भी ख़त्म था। परन्तु धर्माजी मेघ जैसे जाबांज़ इस हार को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। उन्होंने कहा कि युद्ध में बंदी बनाये जाने से तो अच्छा है कि युद्ध करते करते मर जाएँ। सैनिकों के इस जज्बे का प्रभाव उनके कमांडरों पर पड़ा। भारत से और थलसेना बुलाई गयी। इम्फाल और कोहिमा में जम कर युद्ध हुआ। जापान पीछे हटने को तैयार नहीं था। जापान ने रंगून पर भी अधिकार कर लिया था। परन्तु धर्माजी जैसे वीर सैनिकों की बदौलत पासा पलट गया और रंगून को भारतीय सैनिकों ने जीत लिया। उधर अमेरिका ने जापान पर बमबारी कर दी। मुझे धर्माजी ने बताया था कि उनके पास युद्ध के पूरे साजो सामान भी नहीं थे। अपने आत्मविश्वास और हौसले से तथा अमेरिकी कार्रवाई की मदद से वे जीत सके थे।

इसी समय धर्माजी मेघ बर्मा और जापान के सैनिकों के संपर्क में आये थे और बौद्ध धर्म की उन्हें जानकारी हुई। जिसे वे हमें यदाकदा बताया करते थे। अमेरिकी सैनिकों के प्रति उनका बड़ा आदर भाव था क्योंकि उनके साथ अमेरिकन सैनिक भी थे जिन्होंने रसद ख़त्म होने पर उन्हें थोड़ा-बहुत डिब्बा बंद रसद दिया था।

सन 1942 में धर्माजी जर्मन-जापान के विरुद्ध ‘मिड वे’ युद्ध मैदान में थे। यूनाइटेड स्टेट्स द्वारा जापान पर अणुबम गिराने के बाद जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया। जर्मनी पहले ही घुटने टेक चुका था। धर्माजी 1942 से लेकर 1945 तक युद्ध भूमि में रहे। दुश्मनों से लड़ते रहे। कई दिनों तक भूखे प्यासे युद्ध करते रहे। उन्होंने बताया कि प्यास बुझाने के लिए पेट्रोल की घूँट भी सैनिकों ने लिए। ब्रिटिश भारत आर्मी का रसद भी ख़त्म था। अमेरिकन सेना के रसद ने उनकी मदद की। 

युद्ध 6 वर्ष से ज्यादा चला। धर्माजी 1942 से 1945 तक युद्ध के मिड वे में डटे रहे। इतनी लम्बी अवधि तक युद्ध मैदान में धर्माजी जैसे शूरवीर ही टिक सके। बात साफ है कि बहादुरी किसी कौम विशेष की बपौती नहीं है। मेघों की बहादुरी ने समय-समय पर वो परवान चढ़ाये हैं जो बहुत कम वीरों को प्राप्त होते हैं।

संभवतः 1946-47 में धर्माजी अंग्रेजी सेना से वापस मारवाड़ में आ गये। देश आजाद हुआ तो उसके बाद पाकिस्तान से 1947-48 में कश्मीर को लेकर युद्ध हुआ। सेना की भर्ती हुई। बहादुर धर्माजी घर बैठे नहीं रह सकते थे। वे दुबारा आर्मी सर्विसेज कोर्प्स (atillery) में 17 जुलाई 1948 को भर्ती हो गए। उनके नम्बर थे- 6437956 और कश्मीर के पाकिस्तान बॉर्डर पर युद्धरत रहे। युद्ध विराम के बाद सेवा निवृत्त हो वे फिर मारवाड़ आ गये। द्वितीय विश्व युद्ध के समय उनका आइ डी नम्बर था-557879. 

अंग्रेजों की सेना में भर्ती होने से पहले धर्माजी जोधपुर रियासत में बतौर सवार थे। रियासत के समय सैनिक/सिपाही को सवार कहा जाता था। द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने पर विभिन्न रियासतों या प्रेसिडेंसी से सैनिक इकट्ठे कर अंग्रेजों ने इम्पीरिअल रेजिमेंट बनायीं थी। जिसमे धर्माजी मेघ भी एक सैनिक थे। उन्हें सार्जेंट कहा जाता था। इस प्रकार से रियासत के मार्फ़त ही वे अंग्रेज सेना के अंग बने थे। 

धर्माजी मेघ ने सेतरावा गाँव में 1979में बड़े पैमाने पर आंबेडकर जयंती का आयोजन किया।a group photo. Dharmaji Megh is in-between group. Me sitting-1979

जुझारू धर्माराम जी-
सम्मान और स्वाभिमान का जीवन
सन 1950 में धर्मरामजी आर्मी सप्लाई कोर्प्स(आर्टिलरी) की सेवा से वापस आये। उस समय राजस्थान में बेगारी व छुआछूत उन्मूलन तथा सामंतशाही के विरुद्ध मेघवालों का आन्दोलन पूरे जोर और जोश में था। मारवाड़ में मेघवालों ने सब जगह अपनी पञ्चायतों के माध्यम से  इसे सख्ती से लागू करवाया था। मेघवालों में जो बाम्भ (बेगारी) करते थे और जो गंदे धंधे करते थे, उन पर मेघवालों की पंचायतों के कठोर रवैये  के कारण राजस्थान में 1952 में पूर्ण प्रतिबन्ध लग गया। इसमें पश्चिमी राजस्थान में तिन्वरी के मेघवाल उम्मेदारामजी कटारिया की सक्रिय भूमिका थी। वे मेघवालों के 84 खेड़ों के सर्वमान्य नेता थे।  सामाजिक सुधार के इन आंदोलनों में अलग अलग पट्टियों में अलग अलग नेता उभरे थे। मेघवालों में जन जागरण को लेकर कई युवा और समाज सेवी घर घर जाकर प्रचार करने लगे। इस समाज सुधार के आन्दोलन को सफल बनाने हेतु उस समय कई लोग उस समय राजनीती में भी आये और कई साधु-सन्यासी भी बने। अजमेर के गोकुलदास जी, सेतरावा के पिपाराम जी आदि इस समय उभरे प्रमुख लोग थे। धर्माजी भी इस आन्दोलन में पूरी तरह से शरीक हो गए और घर-घर एवं ढ़ाणी-ढाणी जाकर बेगारी एवं गंदे धंधों के प्रतिकार करने की चेतना का संचार करने लगे। वे इस प्रतिकार आन्दोलन में कुछ वर्षो तक सक्रिय रूप से जुटे रहे। उधर मारवाड़ में लगातार अकाल पड़ रहे थे। इन परिस्थितियों ने धर्मारामजी को दुबारा कोई जीविका ढूंढने हेतु मजबूर किया। स्वाभिमानी धर्मारामजी कोई भी ऐसा-वैसा धंधा नहीं कर सकते थे। वे कोई उपयुक्त सम्मानजनक रोजगार ढूंढ़ने लगे। उनके भाईयों ने जोधपुर में पत्थर की खदानों को लीज पर लिया और पत्थर का व्यवसाय करने लगे। 
  
उस समय मारवाड़ में अकाल के समय टिड्डियों का भयंकर प्रकोप होता था। जब भी टिड्डियों की महामारी आती, उससे निपटने के कोई साधन नहीं होते थे। अकाल में लोग टिड्डियों को भून कर खाते भी थे। अंग्रेजों ने 1939 के आस-पास इसकी रोकथाम हेतु जोधपुर में एक टिड्डी महकमा लगभग खोल रखा था। एक तरह से यह टिड्डी नियंत्रण और टिड्डी चेतावनी का दफ्तर था। राजस्थान और गुजरात इसकी निगरानी का क्षेत्र था। धर्मारामजी इस दफ्तर में असिस्टेंट ड्राईवर के रूप में भर्ती हो गए। टिड्डी उन्मूलन और उसकी रोकथाम हेतु जोधपुर से ट्रकों में सामान भरकर राजस्थान के जैसलमेर, बीकानेर, बाड़मेर, नागोर, पाली और गुजरात के प्रभावित क्षेत्रों में सामान सप्लाई किया जाता था। धर्मरामजी की ड्यूटी अधिकांशतः जैसलमेर के रूट पर होती थी। उनकी ट्रक का ड्राइवर उसी इलाके का एक राजपूत था। इलाके में भयंकर छुआछात थी। ड्राइवर भी भेदभाव व छुआछात करता था। इसकी शिकायत की, पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। ड्राइवर के पास में ही असिस्टेंट ड्राइवर बैठा करता था। अर्थात धर्मारामजी ड्राइवर के पास ही बैठते थे। छुआछूत के कारण ड्राइवर को यह अच्छा नहीं लगता था। दूसरा, उस समय परिवहन के साधन बहुत कम थे। लोग लम्बी दूरी का सफ़र भी पैदल ही चलकर तय करते थे। रास्ते में कोई राहगीर मिल जाता तो उसे ट्रक में बिठा लेते थे। ज्यादातर समय ड्राइवर ही गाड़ी चलाता था। कभी-कभी धर्मरामजी भी गाड़ी चलाते थे। ड्राइवर को लालच आ गया। वह कभी-कभी जब कोई राहगीर मिलता तो धर्माजी को पीछे बैठने को कहता। पहले-पहल तो धर्माजी ने ऐसा कर लिया परन्तु जब उनको मालूम पड़ा कि ड्राइवर राहगीर को ट्रक की आगे की सीट पर बैठाता है और उससे पैसे लेता है तो इसका विरोध करना शुरू कर दिया। महकमे में भी शिकायत  की गई। कोई विशेष कार्यवाही नहीं हुई।
एक बार वे जोधपुर से जैसलमेर जा रहे थे। सवारी मिलने पर ड्राइवर ने धर्माजी को पीछे बैठने का कहा। आपस में कहा-सुनी हुई। तकरार झगड़े में बदल गयी। धर्माजी ने ड्राइवर को पीट दिया। ऐसा एक दो बार हुआ। महकमे में शिकायत की गयी परन्तु कोई हल नहीं निकला तो आखिर धर्मारामजी ने वह नौकरी भी छोड़ दी।
                  
आजादी के बाद मिलिट्री की नौकरी छोड़ने के बाद धर्मारामजी जोधपुर पुलिस में भी सिपाही के रूप में नौकरी करने लगे। कुछ समय जोधपुर पदस्थापन के बाद उनकी पोस्टिंग ग्रामीण इलाके के फलोदी क़स्बे के थाने में हो गयी। वहां पर भयंकर भेदभाव और छुआछुत व्याप्त थी। मेघवालों सहित सभी निम्न कही जाने वाली जातियां इस बुराई से पीड़ित थी। बेगारी और गंदे धंधे करने या न करने का निर्णय पूर्णतयः आदमी के ऊपर निर्भर करता था। मेघवालों ने इन सब का जबरदस्त निषेध कर रखा था। वे कोई ऐसा काम नहीं करते थे फिर भी उनके साथ सार्वजनिक स्थानों, होटलों और कुओं आदि पर भेदभाव पूर्ण दुर्व्यवहार और छुआछूत बरती जाती थी। वे कुँए पर जहाँ सवर्ण पानी भरते थे, वहां पानी नहीं भर सकते थे बल्कि जहाँ जानवर आदि पानी पीते थे , वहां खैली में पानी भरते थे। उन्होंने थाने से जाकर जायजा लिया और खुद ने जहाँ से सवर्ण जातियां पानी भरती थी, वहां से पानी भरना  शुरू किया। धर्माजी ने मेघवालों आदि को समझाया कि यह बराबरी के  हक़ की बात है। बेगारी और गंदे  धन्धे छोड़ना बहुत कुछ आपके वश में था पर छुआछूत और भेदभाव मिटाना बहुत कुछ आप पर नहीं निर्भर करत्ता है।  इसलिए जो लोग भेदभाव करते हैं, उनके दिमागों को ठीक करना जरूरी है। यह बीमारी भेदभाव करने वालों के दिमाग में है। कुछ दिन तो ठीक-ठाक रहा पर ब्राह्मण आदि सवर्ण जातियों  में सुगबुगाहट शुरू हो गयी और उनमें रोष पैदा हो गया।
क़स्बे में हलचल मच गयी। कई लोग पक्ष में और कई लोग विरोध में हो गए। धर्मा रामजी ने वहाँ के मेघवालों और दलित लोंगों को उत्साहित किया। एक दिन  धर्मरामजी और उनके सहयोगी बराबरी से पानी भर रहे थे। सवर्ण लोग लामबद्ध होकर आये और धर्माजी पर हमला कर दिया।
धर्माजी मल्ल-युद्ध और लाठी चलाने में पारंगत थे। पकड़ पकड़ कर कईयों को मारा। बर्तन-भांडे फूट गए। अचानक किसी ने उनके ऊपर लाठी से वार कर दिया। हाथ से वार को रोका, तब तक उनके ललाट में लग गई। खून निकलता देख लोग तितर-बितर हो गए.
धर्माजी थाने आये और केस दर्ज किया काफी समय तक केस चला। कुछ लोग पक्ष द्रोही (hostile) हो गए । फिर भी  वे वहां पर छुआछूत उन्मूलन हेतु लोगों को प्रेरित करते रहे और खुद भी लगे रहे। ऐसी हालात में कुछ महीनों के बाद नौकरी से इस्तीफा देकर घर आ गए।
          
धर्मरामजी के पिताजी श्री मदारामजी के देहावसान के बाद सभी भाई-बहिनों की शादी होने के बाद उनकी शादी पाली देवी से हुई। अक्सर उसे पालु कहते थे। शादी के समय उनके बड़े भाई ने अपने हाथ से बहु के लिए वरी का सालू और पवरी बुनी, जिसमें चांदी के तार बुने गए थे। वे उस समय सेतरावा अपने ननिहाल में थे। नई नई शादी के बाद पालि देवी औरतों के साथ गांव के कुंए पर पानी भरने गई। वह नया पीला पोमचा (ओढना) ओढ कर  नख शिख तक गहने पहन कर गयी थी। एक ही कुंए पर सभी जाति के लोग अलग अलग पानी भरते थे।
जब राजपूत औरतों ने सजी धजी नई नवेली दुल्हन को नए कपड़ों और पीले ओढ़ने में देखा तो उनका गुस्सा सातवें आसमान चढ़ गया। वे मेघवाल औरतों को भला-बुरा कहने लगी। उनके पूछने पर  बताया  कि  यह  नैनी बाई के बेटे धर्माजी की बहु है। धर्माजी के सभी भाई बलिष्ठ और साहसी थे। धर्माजी के अक्खड़ और स्वाभिमानी स्वाभाव के चर्चे गाँव में पहले ही बहुत हो चुके थे।  धर्माजी और उनके  परिवार से कोई सीधे-सीधे पंगा भी  नहीं लेना चाहता था। फिर भी सवर्ण औरतों ने चेतावनी के लहजे में कहा– ‘अगर एक मेघवाल औरत पीला ओढ़ना और गहने पहन कर आयेगी तो हम क्या पहनेगी? मेघवालों में और हमारे में फर्क ही क्या रह जायेगा?’
सभी मेघवाल औरतें सहम गयीं। कुंए से पानी भर कर मटके अपने-अपने घर रख कर धर्माजी के घर इकट्ठी हुई और कुंए पर हुई कहासुनी का वृतांत सुनाया और बोली की बिनणी  की वजह से बेरे (कुंए) पर झगडा हो गया। अब उन्हें पानी भरने  जाने में भी डर लागता है। धर्माजी ने उन औरतों का हौसला बंधाया और कहा कि कोई  किसी को गहने और ओढ़ने से नहीं रोक सकता और कोई किसी को पानी भरने से भी नहीं रोक सकता। मैं तुम्हारे साथ चलता हूँ। ऐसा कहते हुए खुद घड़ा लेकर पाली देवी और कुछ औरतों को साथ लेकर कुंए पर पानी भरने गए।
धर्माजी की बहादुरी और योगदान चिरस्मरणीय है।

मेघ लोग एक बहादुर कौम रही है। महाराजा गुलाब सिंह के समय के कश्मीर और पंजाब के मेघों का भी मैंने प्रमाण सहित उद्धरण दिया था कि किस तरह से मेघों की सैनिक बहादुरी से महाराजा युद्धों में जीते थे और उन्होंने अपनी सेना में मेघों की नफ़री बढ़ायी थी। यह 1857 और प्रथम विश्वयुद्ध की कई डिस्चपैच में उल्लेखित है। मेरा निवेदन उन सभी से है जो इस समाज से जुड़े हैं कि वे उस इतिहास को उजागर करें और उन वीर पुरुषों पर फ़ख़्र करें। यह काम बहुत ही पेचीदा और कठिन है। ‘जम्मू एंड कश्मीर टेरिटरी: ज्योग्राफिकल अकाउंट’ नामक पुस्तक फ्रेडेरिक ड्रियू ने 1875 में लन्दन से प्रकाशित की। ‘द पंजाब, नार्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस एंड कश्मीर’ नामक पुस्तक 1916 में सर James Douie ने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित की। इन दोनों पुस्तकों में मेघ सैनिकों का जिक्र है और उनकी बहादुरी की प्रशंसा है। ये महत्वपूर्ण पुस्तकें 1857 के गदर में और प्रथम विश्वयुद्ध में मेघों की बहादुरी पर गौरवपूर्ण टिप्पणियाँ अंकित करती हैं। जो लोग मेघों के जज्बात और बहादुरी पर टीका टिपण्णी करते हैं, उन्हें इनको देखना चाहिए और अपने मतिभ्रम को दूर करना चाहिए। It is only conversation to Hinduism, which degraded Meghs, none else. Hope new generation will think about it seriously.

(Countributed by Sh. Tararam s/o Sh. Dharmaram Megh)

(रामसा कडेला मेघवंशी द्वारा विशेष नोट:

ताराराम जी धर्माराम जी के बेटे हैं। जहाँ धर्माराम जी ने देश व समाज की अस्मिता की रक्षा करके अपने जीवन को प्रेरणादायी बना दिया वहीं श्री ताराराम जी ने भी मेघों का इतिहास- “मेघवंश इतिहास और संस्कृति” लिख कर अपने समुदाय पर उपकार किया है। इनके परिवार को हमारा नमन और साधुवाद. जय मेघवीर धर्माराम जी और सभी मेघ वीरों की। जय मेघ)

Rajaram Meghwal – राजाराम मेघवाल

P { margin-bottom: 0.21cm; }

P { margin-bottom: 0.21cm; }

पुस्तक समीक्षा
विशाल जोधपुर किले की नींव में दलितों की बलि की दास्तान
राजस्थान में राजा रजवाड़ों के जमाने से तालाबों, किलों, मंदिरों व यज्ञों में ज्योतिषियों की सलाहपर शूद्रों को जीवित गाड़कर या जलाकर बलि देने की परम्परा थी। अमर शहीद राजा राम मेघवाल भी उनमें से एक है। जोधपुर के राजा राव जोधा के शासन काल में जोधपुर की पहाड़ियों पर विशाल मेहरानगढ़ किले का निर्माण हुआ था। इसी गगनचुम्बी भव्य किले की नींव में ज्योतिषी गणपतदत्त की सलाह पर 15 मई 1459 को दलित राजाराम मेघवाल उसकी माता केसर व पिता मोहणसी को नींव में चुना गया। राजपूत राजाओं में यह अंधविश्वास चला आ रहा था कि यदि किसी किले की नींव में कोई जीवित पुरूष की बलि दी जाय तो वह किला हमेशा राजा के अधिकार में रहेगा, हमेशा विजयी होगा और राजा का खजाना हमेशा भरा रहेगा। उस काल में सामाजिक व धार्मिक व्यवस्था के अनुसार अछूत की छाया तक से घृणा की जाती थी लेकिन जब नर बलि की बात आती थी तो हमेशा अछूतों को पकड़ कर जिंदा गाड़ा जाता था। शूरवीर कहलाने वाले न क्षत्रिय आगे आते थे, न विद्वान कहलाने वाले पंडित और न ही राजा का गुणगान करने वाले चाटुकार अपनी नरबलि के लिए तैयार होते थे।
राजाराम के इस महान बलिदान को जातिवादी मानसिकता के इतिहासकारों ने सिर्फ डेढ़ लाइन में समेट लिया। जहां राजाराम की बलि दी गई थी उस स्थान के ऊपर विशाल किले का खजाना व नक्कारखाने वाला भाग स्थित है। किले में रोजाना हजारों देशीविदेशी पर्यटक आते हैं लेकिन उन्हें उस लोमहर्षक घटना के बारे में कुछ भी नहीं बताया जाता है। एक दीवार पर एक छोटासा पत्थर जरूर चिपकाया गया है जो किसी पर्यटक को नजर ही नहीं आता है उस पत्थर पर धुंधले अक्षरों में राजाराम की शहादत की तारीख खुदी हुई है। राजाराम मेघवंशी की शहादत जैसी घटनाओं की अनगिनत कहानियां राजस्थान के हर कोने में बिखरी पड़ी हैं। महाराणा प्रताप की सेना में लड़ने वाले दलित आदिवासियों का महान योगदान रहा है। विदेशी आक्रमणकारियों की गुलामी से देश को आजाद कराने में न जाने कितने दलितों आदिवासियों ने कुर्बानी दी लेकिन इतिहास में उनका कहीं भी नामोनिशान नहीं है। दलित चिंतकों, संतों, क्रांतिकारियों व बलिदानियों को इतिहास में पूरी तरह से हाशिए पर रखा। अब दलितों द्वारा अपना गौरवषाली इतिहास लिखा जा रहा है। इसी कड़ी में अमर शहीद राजाराम मेघवालनामक पुस्तक उस लोमहर्षक घटना की सच्चाई को सामने लाने वाली है जिसमें राव भाटों की बहियों, शिलालेखों व कई ऐतिहासिक दस्तावेजों को शामिल किया गया है। डा. एल.एल. परिहार द्वारा लिखित पुस्तक जहां एक ओर दलितों में वैचारिक जागृति पैदा करती है वहीं दूसरी ओर राजा, शासक, अमीर या आम व्यक्ति को यह सीख देती है कि धार्मिक कुप्रथाओं, अंधविश्विसों व अमानवीय परम्पराओं के आगे नतमस्तक न हों व अपने विवेक, तर्क व बुद्धि का प्रयोग कर वैज्ञानिक सोच के साथ मानव कल्याण की राह चलें। महा मानव बुद्ध की राह चलें। करुणा, दया, प्रेम, मैत्री व शील का पालन करें। अंधविश्वासों, पाखण्डों, कर्मकांडों व कुप्रथाओं से समाज व देश का भारी नुकसान हुआ है। जिसका सबसे अधिक खामियाजा दलित वंचित वर्ग को भुगतना पड़ा है। इतिहास की यह लघु पुस्तक आवश्यक चित्रों के कारण काफी पठनीय व रोचक बन गई है। मूल्य मात्र 60 रूपये रखा ताकि मजदूर भी खरीदकर पढ़ सके।
समीक्षकसुनील कुमार


प्रकाशकबुद्धम पबिलशर्स, 21-, धर्मपार्क श्यामनगर, जयपुर 302019 मो. 9414242059


Not ‘downtrodden’ but ‘aborigines’ – ‘दलित’ नहीं ‘मूलनिवासी’

इस विषय में अपनी बात कह सकता हूँ कि शूद्र और दलित शब्द से पीछा छुड़ाना अजा, अजजा और अपिजा के लिए कठिन हो गया है तब ये क्या करें?

फेसबुक पर एक सज्जन ने सुझाया है कि दलित जैसे शब्द का प्रयोग न करके ये जातियाँ अपने लिए मूलनिवासी शब्द का प्रयोग करें. मुझे यह सुझाव ठीक प्रतीत होता है क्योंकि यह ऐतिहासिक रूप से सार्थक है.

कबीर के बारे में बहुत भ्रामक बातें साहित्य में भर दी गई हैं. अज्ञान फैलाने वाले कई आलेख कबीरधर्म में आस्था, विश्वास और श्रद्धा रखने वालों के मन को ठेस पहुँचाते हैं. यह कहा जाता है कि कबीर किसी विधवा ब्राह्मणी (किसी चरित्रहीन ब्राह्मण) की संतान थे. ऐसे आलेखों से कबीरधर्म के अनुयायियों की सख्त असहमति स्वाभाविक है क्योंकि कबीर ऐसा विवेकी व्यक्तित्व है जो भारत को छुआछूत, जातिवाद, धार्मिक आडंबरों और ब्राह्मणवादी संस्कृति के घातक तत्त्वों से उबारने वाला है और उसकी छवि बिगाड़ने वालों की कमी नहीं.
कबीर जुलाहा परिवार से हैं. कबीर ने स्वयं लिखा हैकहत कबीर कोरी. मेघवंशियों की भाँति यह कोरीकोली समाज भी पुश्तैनी रूप से कपड़ा बनाने का कार्य करता आया है. स्पष्ट है कि कबीर एक कोरी परिवार (मेघवंश) में जन्मे थे जो छुआछूत आधारित ग़रीबी और गुलामी से पीड़ित था और जातिवाद के नरक से निकलने के लिए उसने इस्लाम अपनाया था.
स्पष्ट शब्दों में कहें तो कबीर मेघवंशी थे. यही कारण है कि जुलाहों के वंशज या भारत के मूलनिवासी स्वाभाविक ही कबीर के साथ जुड़े हैं और कई कबीरपंथी कहलाना पसंद करते हैं. 
आज के भारत में देखें तो कबीर भारत के मूलनिवासियों के दिल के बहुत करीब हैं. हाँ, भारत में बसी विदेशी मूल की जातियों को कबीर से परहेज़ रहा है.
चमत्कारों, रोचक और भयानक कथाओं से परे कबीर का सादासा चमत्कारिक जीवन इस प्रकार है:-
कबीर का जीवन
बुद्ध के बाद कबीर भारतके महानतम धार्मिकव्यक्तित्व हैं. वे संतमत के और सुरतशब्द योग के प्रवर्तक और सिद्ध हैं. वे तत्त्वज्ञानी हैं. एक ही चेतन तत्त्व को मानते हैं और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी हैं. अवतार, मूर्ति, रोज़ा, ईद, मस्जिद, मंदिर आदि धार्मिक गतिविधियों को वे महत्व नहीं देते हैं. लेकिन भारत में धर्म, भाषाया संस्कृतिकिसी की भी चर्चा कबीरकी चर्चा के बिना अधूरी होती है.
उनकापरिवार कोरीजाति सेथा जोब्राह्मणवादीजातिप्रथा केकारण हुएअत्याचारों सेतंग आकरमुस्लिम बनाथा. कबीर का जन्म नूर अली और नीमा नामक दंपति के यहाँ लहरतारा के पास सन् 1398 में हुआ (कुछ वर्ष पूर्व इसे सन् 1440 में निर्धारित किया गया है) और बहुत अच्छे धार्मिक वातावरण में उनका पालनपोषण हुआ.
युवावस्था में उनका विवाह लोई (जिसे कबीर के अनुयायी माता लोई कहते हैं) से हुआ जिसने सारा जीवन इस्लाम के उसूलों के अनुसार पति की सेवा में व्यतीत कर दिया. उनकी दो संताने कमाल (पुत्र) और कमाली (पुत्री) हुईं. कमाली की गणना भारतीय महिला संतों में होती है. संतमत की तकनीकी शब्दावली में उन दिनों नारी से तात्पर्य कामना या इच्छा से रहा है और इसी अर्थ में प्रयोग होता रहा है. लेकिन मूर्ख पंडितों ने कबीर को नारी विरोधी घोषित कर दिया. कबीर हर प्रकार से नारी जाति के साथ चलने वाले सिद्ध होते हैं. उन्होंने संन्यास लेने तक की बात कहीं नहीं की. वे गृहस्थ में सफलतापूर्वक रहने वाले सत्पुरुष थे. 
कबीर स्वयंसिद्ध अवतारी पुरूष थे जिनका ज्ञान समाज की परिस्थितियोंमें सहज ही स्वरूप ग्रहण कर गया.वे किसी भी धर्म, सम्प्रदाय और रूढ़ियों की परवाह किये बिना खरी बात कहते हैं. मुस्लिम समाज में रहते हुए भी जातिगत भेदभाव ने उनका पीछा नहीं छोड़ा इसी लिए उन्होंने हिंदूमुसलमान सभी में व्याप्त जातिवाद के अज्ञान, रूढ़िवाद तथा कट्टरपंथ का खुलकर विरोध किया. कबीर आध्यात्मिकता से भरे हैं और जुझारू सामाजिकधार्मिक नेता हैं.
कबीर भारत के मूनिवासियों का प्रतिनिधित्व करते हैं. ब्राह्मणवादियों और पंडितों के विरुद्ध कबीर ने खरीखरी कही जिससे चिढ़ कर उन्होंने कबीर की वाणी में बहुत सी प्रक्षिप्त बातें ठूँस दी हैं और कबीर की भाषा के साथ भी बहुत खिलवाड़ किया है. आज निर्णय करना कठिन है कि कबीर की शुद्ध वाणी कितनी बची है तथापि उनकी बहुत सी मूल वाणी को विभिन्न कबीरपंथी संगठनों ने प्रकाशित किया है और बचाया है. कबीर की साखी, रमैनी, बीजक, बावनअक्षरी, उलटबासी देखी जा सकती है. साहित्य में कबीर का व्यक्तित्व अनुपम है. जनश्रुतियों से ज्ञात होता है कि कबीर ने भक्तोंफकीरों का सत्संग किया और उनकी अच्छीबातों को हृदयंगम किया.
कबीरने सारीआयु कपड़ाबनाने काकड़ा परिश्रमकरके परिवारको पाला. कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया.सन् 1518 ने देह त्याग किया.
उनके ये दो शब्द उनकी विचारधारा और दर्शन को पर्याप्त रूप से इंगित करते हैं:-
(1)
आवे न जावे मरे नहीं जनमे, सोई निज पीव हमारा हो
न प्रथम जननी ने जनमो, न कोई सिरजनहारा हो
साध न सिद्ध मुनी न तपसी, न कोई करत आचारा हो
न खट दर्शन चार बरन में, न आश्रम व्यवहारा हो
न त्रिदेवा सोहं शक्ति, निराकार से पारा हो
शब्द अतीत अटल अविनाशी, क्षर अक्षर से न्यारा हो
ज्योति स्वरूप निरंजन नाहीं, ना ओम् हुंकारा हो
धरनी न गगन पवन न पानी, न रवि चंदा तारा हो
है प्रगट पर दीसत नाहीं, सत्गुरु सैन सहारा हो
कहे कबीर सर्ब ही साहब, परखो परखनहारा हो
(2)
मोको कहाँ ढूँढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास में
न तीरथ में, न मूरत में, न एकांत निवास में
न मंदिर में, न मस्जिद में, न काशी कैलाश में
न मैं जप में, न मैं तप में, न मैं बरत उपास में
न मैं किरिया करम में रहता, नहीं योग संन्यास में
खोजी होए तुरत मिल जाऊँ, एक पल की तलाश में
कहे कबीर सुनो भई साधो, मैं तो हूँ विश्वास में
कबीर की गहरी जड़ें
कबीर को सदियों हिंदी साहित्य से दूर रखा गया ताकि लोग यह वास्तविकता न जान लें कि कबीर के समय में और उससे पहले भी भारत में धर्म की एक समृद्ध परंपरा थी जो तथाकथित हिंदू परंपरा से अलग थी और कि भारत के वास्तविक सनातन धर्म जैन और बौध धर्म हैं. कबीरधर्म, ईसाईधर्म तथा इस्लामधर्म के मूल में बौधधर्म का मानवीय दृष्टिकोण रचाबसा है. यह आधुनिक शोध से प्रमाणित हो चुका है. उसी धर्म की व्यापकता का ही प्रभाव है कि इस्लाम की पृष्ठभूमि के बावजूद कबीर भारत के मूलनिवासियों के हृदय में ठीक वैसे बस चुके हैं जैसे बुद्ध. 
भारत के मूलनिवासी स्वयं को वृत्र का वंशज मानते हैं जिसे चमड़ा पहनने वाली आर्य नामक जनजाति ने युद्ध में पराजित किया और बाद में सदियों की लड़ाई के बाद जुझारू मूलनिवासियों को गरीबी में धकेल कर उन्हें नाग, ‘असुरऔर राक्षसजैसेनाम दे दिए. उपलब्ध जानकारी के अनुसार हडप्पा सभ्यता से संबंधित ये लोग कपड़ा बनाने की कला जानते थे. यही लोग आगे चल कर विभिन्न जातियों, जनजातियों, अन्य पिछड़ी जातियों (आज के SCs, STs, OBCs) आदि में बाँट दिए गए ताकि इनमें एकता स्थापित न हो. कबीर भी इसी समूह से हैं. इन्होंने ऐसी धर्म सिंचित वैचारिक क्रांति को जन्म दिया कि शिक्षा पर एकाधिकार रखने वाले तत्कालीन पंडितों ने भयभीत हो कर उन्हें साहित्य से दूर रखने में सारी शक्ति लगा दी.
कबीर का विशेष कार्य निर्वाण
निर्वाण शब्द का अर्थ है फूँक मार कर उड़ा देना. भारत के सनातन धर्म अर्थात् बौधधर्ममें इस शब्द का प्रयोग एक तकनीकी शब्द के तौर पर  हुआ है. मोटे तौर पर इसका अर्थ है मन के स्वरूप को समझ कर उसे छोड़ देना और मन पर पड़े संस्कारों और उनसे बनते विचारों को माया जान कर उन्हें महत्व न देना. दूसरे शब्दों में दुनियावी दुखों का मूल कारण संस्कार(impressions and suggestions imprinted on mind) है  जिससे मुक्ति का नाम निर्वाण है. इन संस्कारों में कर्म फिलॉसफी आधारित पुनर्जन्म का सिद्धांत भी है जो ब्राह्मणवाद की देन है. भारत के मूलनिवासियों को जातियों में बाँट कर गरीबी में धकेला गया और शिक्षा से भी दूर कर दिया गया. ब्राह्मणों ने अपने ऐसे पापों और कुकर्मों को एक नकली कर्म आधारित पुनर्जन्म के सिद्धांत से ढँक दिया ताकि उनकी ओर कोई आरोप की उँगली न उठाए. वास्तविकता यह है कि संतमत के अनुसार निर्वाण का अर्थ कर्म फिलॉसफी आधारित गरीबी और पुनर्जन्म के विचार से पूरी तरह छुटकारा है.
कबीर की आवागमन से निकलने की  बात करना और यह कहना कि साधो कर्ता करम से न्याराइसी ओर संकेत करता है. भारत का सनातन तत्त्वज्ञान दर्शन (चेतन तत्त्व सहित अन्य तत्त्वों की जानकारी) कहता है कि जो भी है इस जन्म में है और इसी क्षण में है. बुद्ध और कबीर अबऔर यहींकी बात करते हैं. जन्मों की नहीं. इस दृष्टि से कबीर ऐसे ज्ञानवान पुरुष हैं जिन्होंने ब्राह्मणवादी संस्कारों के सूक्ष्म जाल को काट डाला है. वे चतुर ज्ञानी और विवेकी पुरुष हैं, सदाचारी हैं और सद्गुणों से पूर्ण हैं…..और जय कबीरइस भाव का सिंहनाद है कि कबीर ने ब्राह्मणवाद से मूलनिवासियों की मुक्ति का मार्ग खोला है.
अब क्या हो?
 
कबीर कहीं भी पैदा हुए हों इससे कोई अंतर नहीं पड़ता. उनका प्रकाश दिवस (जन्मदिन) निर्धारित करना बेहतर होगा ताकि बहस करने वालों का मुँह बंद हो जाए. (यह दिन अक्तूबरनवंबर में देशी माह की नवमी के दिन रखें. फिर किसी पंडित ज्योतिषी की न सुनें.) जो सज्जन कबीर को इष्ट के रूप में देखते हैं उन्हें चाहिए कि कबीर को जन्ममरण से परे माने.कबीर के साथ सत्गुरु (सत्ज्ञान) शब्द का प्रयोग करें या केवल कबीर लिखें. कबीर दास लिखना उतना ही हास्यास्पद है जितना अनवर दास लिखना. यदि किसी धर्मग्रंथ, पुस्तक, फिल्म, सीरियल आदि में कबीर को समुचित तरीके से पेश नहीं किया जाता तो उसका विरोध करें. कबीर हमारी आस्था का केंद्र हैं. उस पर किसी भी आक्रमण का पूरी शक्ति से विरोध करें. 
कबीर के गुरु कौन थे यह जानना कतई ज़रूरी नहीं है. आवश्यकता यह देखने की है कि कबीर ने ऐसा क्या किया जिससे पंडितवाद घबराता है. कबीर के ज्ञान पर ध्यान रखें उनके जीवन संघर्ष पर ध्यान केंद्रित करें. उन्होंने सामाजिक, धार्मिक तथा मानसिक ग़ुलामी की ज़जीरों को कैसे काटा और अपनी तथा अपने मूलनिवासी भारतीय समुदाय की एकता और स्वतंत्रता का मार्ग कैसे प्रशस्त किया, यह देखें. 
धर्मचक्र और सत्ता का पहिया
एक तथ्य और है कि कबीर द्वारा चलाए संतमत की शिक्षाएँ और साधन पद्धतियाँ बौधधर्म से पूरी तरह मेल खाती हैं. कबीर ने अपनी नीयत से जो कार्य किया वह डॉ. भीमराव अंबेडकर के साहित्य में शुद्ध रूप से उपलब्ध है. डॉ अंबेडकर स्वयं कबीरपंथी (धर्मी) परिवार से थे.
इष्ट के तौर पर कैसै बनाएँ. उसे विष्णु की कथा वाला या विष्णु का अवतार न मान कर ब्रह्मा, विष्णु, महेश और देवीदेवताओं से ऊपर माने. सब कुछ देने वाला माने.
कबीर को किसी रामानुज नामक गुरु का शिष्य न माने. ये दोनों समकालीन नहीं थे. 
कबीर की छवि पर छींटे 
यह तथ्य है कि कबीर के पुरखे इस्लाम अपना चुके थे. इसलिए कबीर के संदर्भ में या उनकी वाणी में जहाँ कहीं हिंदू देवीदेवताओं या हिंदू आचार्यों का उल्लेख आता है उसे संदेह की दृष्टि से देखना आवश्यक हो जाता है. पिछले दिनों कबीर के जीवन पर बनी एक एनिमेटिड फिल्म देखी जिसमें विष्णुलक्ष्मी की कथा को शरारतपूर्ण तरीके से जोड़ा गया था. कहाँ इस्लाम में पढ़ेबढ़े कबीर और कहाँ विष्णुलक्ष्मी. यह कबीरधर्म की मानवीय छवि पर पंडितवादी गंदा रंग डालने जैसा है. ऐसा करना ब्राह्मणवाद और मनुस्मृति के नंगे विज्ञापन का कार्य करता है. ज़ाहिर है इससे भारत के मूलनिवासियों के आर्थिक स्रोतों को धर्म के नाम पर सोखा जाता है. कबीर के जीवन को कई प्रकार के रहस्यों से ढँक कर यही कवायद की जाती है ताकि उसके अनुयायियों की संख्या को बढ़ने से रोका जाए और दलितों के धन को कबीर द्वारा प्रतिपादित कबीरधर्म, दलितों की गुरुगद्दियोंडेरों आदि ओर जाने से रोका जाए. इस प्रयोजन से कबीर के नाम से देशविदेश में कई दुकानें खोली गई हैं.
कबीरधर्म को कमज़ोर करने के लिए स्वार्थी तत्त्व आज भी इस बात पर बहस कराते हैं कि कबीर लहरतारा तालाब के किनारे मिले या गंगा के तट पर. उनके जन्मदिन पर चर्चा कराई जाती है. कबीर के गुरु पर विवाद खड़े कर दिए जाते हैं. रामानंद नामी ब्राह्मण को उनके गुरु के रूप में खड़ा कर दिया गया. कबीर को ही नहीं अन्य कई मूलनिवासी जातियों के संतों को रामानंद का शिष्य सिद्ध करने के लिए साहित्य के साथ बेइमानी की गई. उनमें से कई तो रामानंद के समय में थे ही नहीं. तथ्य यह है कि रामानंद के अपने जन्मदिन पर भी विवाद है.इसके लिए सिखी विकि में यहाँ(पैरा 4) देखें (Retrieved on 02-07-2011).उस कथा के इतने वर्शन हैं कि उस पर अविश्वास करना सरल हो जाता है. वे किसी विधवा ब्राह्मणी की संतान थे या बहुत धार्मिक मातापिता नूर अली और नीमा के ही घर पैदा हुए इस विषय को रेखांकित करने की कोशिश चलती रहती है. ऐसी कहानियों पर विश्वास करने का कोई कारण नहीं क्योंकि इन्हें कुत्सित मानसिकता ने बनाया है. इसमें अब संदेह नहीं रह गया है कि कबीर नूर अलीनीमा की ही संतान थे और उनके जन्म की शेष कहानियाँ ब्राह्मणवादी बकबक है.
अन्य लिंक :-

Sonali-Jeet Rawal Charitable Trust – सोनाली-जीत रावल चैरीटेबल ट्रस्ट

1984 में पंजाब यूनीवर्सिटी, चंडीगढ़ में एक लड़के से मुलाकात हुई थी. बहुत ही मिलनसार निकला. जब मैंने उडुपि में सिंडीकेट बैंक में ज्वाइन किया तो कुछ दिनों के बाद वही लड़का वहाँ दिखा. बहुत खुशी हुई. उसके बाद मैं उडुपि में जम गया और वह लड़का कर्नाटक के शहर बेलगाम में तैनात हुआ.
कुछ माह बाद मेरा नाबार्ड में चयन हुआ और मैं हैदराबाद चला गया. उसके बाद हम दोनों कुछ समय तक चंडीगढ़ में तैनात रहे. तभी पता चला कि जीत की एकमात्र संतान, उसकी बिटिया सोनाली, को थर्ड स्टेज का कैंसर था. दिल्ली के डॉक्टरों ने प्रयोगात्मक दवाओं के लिए उसे चुना और पिता ने सहमति दे दी क्योंकि यही उम्मीद बची थी. लेकिन डॉक्टर उसे नहीं बचा पाए.
महज़ चार दिन के बाद ही जीत की पत्नी पति का घर छोड़ कर मायके चली गई. जीत का एकाकी जीवन प्रारंभ हुआ जो इस आयु में काफी कष्टकर होता है.
यही समय था जब जीत रावल को प्रेरणा मिली और उन्होंने वालंटरी रिटायरमेंट ले लिया और लुधियाना के पास अपने गाँव समराला में आ गए. उन्होंने एक ट्रस्ट बनाया‘सोनालीजीत रावल चैरीटेबल ट्रस्ट’- और 10 मार्च 2013 को उसका विधिवत् उद्घाटन कर दिया. शुरुआत में ही ट्रस्ट ने 21 लड़कियों की पढ़ाई का ख़र्च उठाना शुरू किया और आज 40 लड़कियों की पढ़ाई आदि का खर्च उठा रहा है. 23-05-2013 को वे डॉ. वीरेंद्र मेंहदीरत्ता के जन्मदिवस के अवसर पर मिले थे और कह रहे थे कि अब मेरी 40 बेटियाँ हैं. रिटायरमेंट पर मिली समस्त धनराशि और पेंशन को वे इसी कार्य में खर्च कर रहे हैं.
एक होम्योपैथिक अस्पताल और पुस्तकालय भी बनवाया गया है. 26-05-2013 को वे एक कार्यक्रम करने जा रहे हैं. उसकी जानकारी मिलने पर यहाँ दूँगा.

 डॉ. राव के प्रेरणा स्रोत

Dr. Virendra Menhdiratta and Dr. Kanta Menhdiratta (Left)

Milkhi Ram Bhagat, PCS

 Milkhi Ram Bhagat (12 November, 1912 – 04 March, 1978)
एक परिचय
भारत विभाजन के बाद स्यालकोट से विस्थापित होकर पंजाब (भारत) में आए मेघ भगतों में से एक चेहरा भीड़ में बहुत ऊँचा हैश्री मिल्खी राम भगत. अपने समुदाय के लिए बहुत कुछ करने के जज़्बे से भरे हुए श्री मिल्खी राम जी को लोग आज भी बहुत सम्मान और आदर के साथ याद करते हैं. वे मेघ भगत समुदाय का एकमात्र ऐसा व्यक्तित्व हैं जिसने नौकरियाँ प्राप्त करने में एकदो नहीं बल्कि अपने समुदाय के हज़ारों नौजवानों की मदद की. वे नौजवान आज ऊँचे ओहदों और पोज़िशन में हैं और आगे उनके बच्चे अच्छी शिक्षा प्राप्त करके देश की सेवा में लगे हैं. भगत जी के कार्य और व्यक्तित्व ने केवल मेघ समुदाय बल्कि अन्य समुदायों की हज़ारों ज़िंदगानियों को प्रभावित किया है.
श्री मिल्खी राम जी का जन्म 12 नवंबर 1918 में हुआ. उनकी प्रारंभिक पढ़ाई स्यालकोट के आर्य समाज स्कूल में हुई. फिर वे ईसाई स्कूल में पढ़े. उन्होंने डीएवी कालेज, लाहौर से 1939 में इंगलिश ऑनर्स के साथ बी.. किया. 1940 में उन्होंने अविभाजित पंजाब के गवर्नर के कार्यालय में क्लर्क के तौर पर करियर की शुरुआत की. भारत विभाजन के बाद 19-9-1047 को उन्होंने शिमला में सहायक के तौर पर कार्यभार संभाला. 1950 में पंजाब सरकार में मंत्री रहे पृथ्वीसिंह आज़ाद की अनुशंसा पर वे पीसीएस नामित हुए और एक्स्ट्रा असिसटेंट कमिश्नर के पद पर रहे. उसके बाद भगत जी के प्रयासों से कई अन्य मेघ भगत भी पीसीएस सेवाओं में आए.
भगत मिल्खी राम जी का गाँव गोहतपुर था जो स्यालकोट (अब पाकिस्तान में) के पास ही था. भगत जी के दादा का नाम श्री भोलानाथ था और पिता का नाम श्री अमींचंद. माता का नाम मोहताब देवी था. उनकी एक बहन वीराँदेवी हैं जो 85 वर्ष की हैं. नौकरी के सिलसिले में मिल्खी राम जी का परिवार चंडीगढ़ में बसा. पंजाब सरकार के शिड्यूल्ड कास्ट वेल्फेयर कार्पोरेशन में डायरेक्टर के पद पर रहते हुए अनुसूचित जातियों और अपने समुदाय के लिए उन्होंने बहुत कार्य किया.

Mr. Milkhi Ram Bhagat, Magistrate (Dharamshala)
1953 में उन्होंने गुरदासपुर में मजिस्ट्रेट फर्स्ट क्लास के तौर पर कार्य किया. फिर वे 1955 में स्थानांतरित हो कर बटाला में रेज़िडेंट मैजिस्ट्रेट हुए जहाँ उनके पास दंड देने की जूडीशियल शक्तियाँ थीं. 1956 में वे करनाल के डीसी के जी. मैजिस्ट्रेट बने. 1959 में कंडाघाट (अब हिमाचल प्रदेश में) में एसडीएम नियुक्त हुए और नियमित डीसी की अनुपस्थिति में दो माह तक डीसी का कार्यभार भी संभाला. 1962 में फूड एंड सप्लाईज़ के तथा 1964 में इंडस्ट्रीज़ विभागों के अंडर सेक्रेटरी रहे. 13 नवंबर 1976 को वे सेहत विभाग, पंजाब सरकार से डिप्टी सैक्रेटरी के पद से सेवानिवृत्त हुए. उनके सुपुत्र कर्नल राजकुमार ने बताया है कि भगत जी अपने लंबे करियर के अनुभव का लाभ सरकार को देना चाहते थे और उनकी हार्दिक इच्छा थी कि सेवानिवृत्ति के बाद शिड्यूल्डकास्ट कार्पोरेशन, रोपड़ में मानद (honorary) सेवा दें. लेकिन ऐसा नहीं हो सका. इससे वे बहुत निराश हुए और शायद यही उनकी सेहत के बिगड़ने का एक बड़ा कारण था. 04 अप्रैल 1978 को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया.
श्रीमती बलबीर भगत (15 November 1927 – 20 October 1980)

मिल्खी राम जी का विवाह 1944 में हुआ था. इनकी धर्मपत्नी का नाम श्रीमती बलबीर देवी भगत था. समाज सेवा के साथसाथ ये भगत दंपति परिवार के लिए भी उतना ही समर्पित था. बच्चों की शिक्षा इनकी पहली प्राथमिकता थी. इनके मार्गदर्शन में पूरे परिवार ने खूब प्रगति की है.
Family Photos


इनके सबसे बड़े पुत्र श्री राज कुमार आर्मी के कर्नल पद से रिटायर हुए. दूसरे पुत्र श्री विजय भगत लीगल मीटरॉलॉजी, फूड एंड सप्लाइज़ एंड कन्ज़यूमर अफ़ेयर्ज़ विभाग से असिसटेंट कंट्रोलर के पद से रियाटर हो चुके हैं. सब से छोटे पुत्र श्री प्रदीप भगत इस समय चंडीगढ़ में आर्किटेक्चर कॉलेज के प्रिंसिपल हैं और विद्यार्थियों के बीच लोकप्रिय होने के साथ अपने क्षेत्र में अच्छा नाम कमा रहे हैं. सब से बड़ी बेटी शशि भाटिया कैनेडा में बसी हैं जो फाइन आर्ट्स में स्नातक हैं. इन्होंने फेडरल और प्रेविंशियल स्तर के कई अर्धन्यायायिक बोर्डों और ट्राइब्यूनलों में कार्य किया है जिनमें से दो प्रमुख हैं “इम्मीग्रेशन एंड रिफ्यूजी बोर्ड” और “सोशल बेनेफिट ट्राइब्यूनल”. वर्तमान में ये कैनेडा के एसोसिएट नेशनल डिफेंस मिनिस्टर की ‘पॉलिसी एडवाइज़रआऊटरीच’ के तौर पर कार्य कर रही हैं. इसके अतिरिक्त ये ICCAD (Indo Canadian Cultural Association of Durham, Inc.) की चेयरपर्सन भी हैं. सबसे छोटी बेटी स्नेहलता कुमार आईएएस हैं और हाल ही तक दिल्ली में ट्राइबल अफेयर्स मंत्रालय में अतिरिक्त सचिव और ट्राइफेड के प्रबंध निदेशक के तौर पर तैनात रही हैं. स्नेहलता ने मध्यप्रदेश के सुदूर जनजातीय इलाकों की समस्याओं के समाधान के लिए बहुत कार्य किया है. वर्तमान में वे आयोजना आयोग में कन्सल्टेंट के तौर पर कार्यरत हैं. मँझली बेटी सुनीता (एलएलबी) सफल अधिवक्ता (वकील) और अपने क्षेत्र की बहुत लोकप्रिय सरपंच रहीं. उनका कुछ वर्ष पूर्व दिल का दौरा पड़ने से देहांत हो गया था.
मेघ समुदाय को जब भी किसी सरकारी योजना (आरक्षण आदि) का लाभ मिलने के हालात बनते थे तभी अन्य समुदाय इन्हें ब्राह्मण कह कर उन लाभों से वंचित कर देते थे. आज़ादी के बाद भी ऐसा हुआ. जब दलित जातियों की अनुसूची बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई तब मेघ भगतों को इस सूची से निकालने की कवायद शुरू हो गई. यह बात मिल्खी राम जी को दिल्ली से टेलिफोन पर एक मित्र से मालूम हुई. बिना समय खोए उन्होंने अपने साथियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ दिल्ली जाकर लॉबिंग की और अपने समुदाय के हितों की रक्षा करने में सफल रहे. आरक्षण का लाभ मिलने से देश में बसे हज़ारों मेघ भगतों के जीवनस्तर और जीवन की गुणवत्ता में उल्लेखनीय सुधार आया है. इसका श्रेय भगत मिल्खी राम जी को जाता है.
वे मेघों की व्यक्तिगत समस्याओं के हल के लिए हमेशा सक्रिय रहते थे. एक युवा मेघ को चंडीगढ़ के वेरका मिल्क प्लांट में अधिकारी की नौकरी मिली थी. लेकिन उसकी जाति के कारण उसके अधिकारियों ने उसका नौकरी करना मुश्किल कर दिया. वह भगत जी के पास गया. भगत जी ने उसी समय फोन मिला कर वेरका के प्राधिकारी से पूछा, “आपके यहाँ स्टाफ में कितने शिड्यूल्ड कास्ट हैं?” उत्तर मिला, “एक.” भगत जी ने दूसरा सवाल पूछा, “क्या आप लोगों से एक आदमी भी बर्दाश्त नहीं होता?” अगले दिन युवा मेघ के हालात में सुधार आया.

जिन विभागों का कार्यभार इन्होंने सँभाला वहाँ कार्य का बोझ काफी अधिक था. लेकिन इन्होंने सभी उत्तरदायित्व पूरी कार्यकुशलता से निभाए. इन सभी नियमित व्यस्तताओं और थकान के बावजूद ये मेघ समुदाय के सदस्यों की बात ठंडे मन से सुनते और यथाशक्ति उनकी मदद करते. ऐसी परिस्थितियों में कार्य करते हुए मैंने स्वयं उन्हें देखा है.
जहाँ तक इनकी धार्मिक मान्यताओं का प्रश्न है ये बहुत उदारमना रहे. सभी धर्मस्थलों पर खुले मन से जाते थे. बचपन की शिक्षा का ही प्रभाव था कि ये आर्य समाज में भी उतनी ही श्रद्धा से जाते जितना चर्च में.
जीवन भर इन्होंने अपने समुदाय की अथक और निस्वार्थ सेवा की और ज़रूरतमंदों को प्रश्रय दिया. इनके इसी प्रेमभाव के कारण हज़ारों लोग आज भी इन्हें आदरपूर्वक याद करते हैं. इनका जीवन और कार्य हमारे आने वाली पीढ़ियों और समाज सेवियों को हमेशा उजाले की राह दिखाएगा. उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि.
उक्त जानकारी देने में श्रीमती शशि भाटिया, कर्नल राजकुमार, श्री विजय भगत और श्रीमती वीराँदेवी ने अमूल्य सहयोग दिया है. उनका हार्दिक आभार.
Drawing room of Bhagat ji’s house
जिन विभागों का कार्यभार इन्होंने सँभाला वहाँ कार्य का बोझ काफी अधिक था. लेकिन इन्होंने सभी उत्तरदायित्व पूरी कार्यकुशलता से निभाए. इन सभी नियमित व्यस्तताओं और थकान के बावजूद ये मेघ समुदाय के सदस्यों की बात ठंडे मन से सुनते और यथाशक्ति उनकी मदद करते. ऐसी परिस्थितियों में कार्य करते हुए मैंने स्वयं उन्हें देखा है.
जहाँ तक इनकी धार्मिक मान्यताओं का प्रश्न है ये बहुत उदारमना रहे. सभी धर्मस्थलों पर खुले मन से जाते थे. बचपन की शिक्षा का ही प्रभाव था कि ये आर्य समाज में भी उतनी ही श्रद्धा से जाते जितना चर्च में.
जीवन भर इन्होंने अपने समुदाय की अथक और निस्वार्थ सेवा की और ज़रूरतमंदों को प्रश्रय दिया. इनके इसी प्रेमभाव के कारण हज़ारों लोग आज भी इन्हें आदरपूर्वक याद करते हैं. इनका जीवन और कार्य हमारे आने वाली पीढ़ियों और समाज सेवियों को हमेशा उजाले की राह दिखाएगा. उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि.
उक्त जानकारी देने में श्रीमती शशि भाटिया, कर्नल राजकुमार, श्री विजय भगत और श्रीमती वीराँदेवी ने अमूल्य सहयोग दिया है. उनका हार्दिक आभार.

Col. RajKumar

Mrs. Shashi Bhatia

    

(Late) Sh. Vijay Bhagat
Mr. Pradeep Bhagat

Notes of Shashi Bhatia received through email – शशि भाटिया के ईमेल से प्राप्त नोट्स
 
Anyone who knew Bauji still remembers him fondly. Even in Canada many people of my father’s era speak about him with so much respect.  His passion, commitment and dedication to the needs of people was commendable and widely admired by those with whom he came in contact.

As a magistrate my Father always believed in reforming rather than sentencing. I have a vivid childhood memory of Bauji while serving as a magistrate in Karnal bringing a young man home from the law courts to our house because he had nowhere to go and was without a family to go to. My mother asked him to take Bauji’s clothes to the Dhobi. Instead the young man took off with Bauji’s clothing and never returned. Of course Mamaji was quite upset. But typically my father urged forgiveness and understanding of the lad’s circumstances and of course this episode did nothing to change my father’s  passion to help people.

While serving in Chandigarh I remembered Bauji was always encouraging young people to pursue higher education. He became a local guardian of many children from Himachal Pradesh who came to further their education in Chandigarh. My parents provided the comforts of home to those children supporting and guiding them. Many of them went on to successful and fulfilling lives and in later years would often return to express their appreciation for the assistance my father unselfishly gave them.

On the home front not only did he provide all his children with a nurturing, very protective and comfortable life but there was an additional element somewhat unusual for the time. Its fair to say that in those days Indian society followed traditional practices in which girls and boys were treated differently and faced different expectations. Today we would call it sexism. Thanks to my father’s progressive views all his children were treated equally. As a result his three daughters all received a higher education and were inspired to go on to lead productive professional lives.

Both my sisters and I have followed the path our father prepared. Sunita became a lawyer and successful and well liked politician who was elected Sarpunch and Sneh became a civil servant of the highest rank. In my case, although I graduated in “fine arts”, was my father disappointed with my choice of study? On the contrary not only did he support me in making my own decisions as to what to study but he always encouraged my every effort stressing that the important thing was to take responsibility for your actions and be the best that you can be.

It was that confidence which allowed me to be fully integrated into Canadian life.

On September 14, 2012 on behalf of Her Majesty Queen Elizabeth II I was honored to be awarded the with the Queen Elizabeth Diamond Jubilee Medal for my service to the community and Canada. I was humbled to receive this recognition and its no surprise that I dedicated it to his memory for at heart he made it possible.

जो कोई भी बाऊ जी को जानता था वह उन्हें बहुत प्रेम से आज भी याद करता है. यहाँ तक कि कैनेडा में भी उनके समय के कई लोग हैं जो उन्हें बहुत आदर से याद करते हैं. लोगों के प्रति उनका अनुराग, प्रतिबद्धता और समर्पण अनुकरणीय भी है और प्रशंसनीय भी.
मेरे पिता ने हमेशा सज़ा की बजाय सुधार में विश्वास रखा.  मुझे बाऊ जी की एक घटना की याद आती है जब वे करनाल में मजिस्ट्रेट थे. वे एक युवा को घर ले आए क्योंकि जिसका कोई पता-ठिकाना नहीं था (पक्का नहीं कि उसका कोई घर-परिवार था). मेरी माँ ने उसे बाऊ जी के कपड़े धोबी को देने के लिए दिए. वह युवा बाऊ जी के कपड़े बजाय धोबी के पास जाने के भाग गया और कभी नहीं लौटा. इससे परेशानी तो हुई लेकिन इससे लोगों की मदद करने वाले मेरे पिता के उत्साह में कोई कमी नहीं आई.
मुझे याद है कि चंडीगढ़ में नौकरी के दौरान बाऊ जी युवाओं को उच्चतर शिक्षा के लिए प्रोत्साहित करते थे. वे उन कई बच्चों के स्थानीय अभिभावक बन गए थे जो शिक्षा प्राप्ति के लिए हिमाचल प्रदेश से चंडीगढ़ आए थे. मेरे माता-पिता ने उन बच्चों को घर जैसी सुविधाएँ दीं, सहायता की और मार्गदर्शन दिया. उनमें से कई आज बहुत अच्छा जीवन व्यतीत कर रहे हैं.
उन्होंने अपने सभी बच्चों को बहुत सुरक्षित और सुविधाजनक जीवन दिया. 
मैं यह भी कहना चाहूँगी कि जब उनकी तीनों बेटियाँ बड़ी हो रही थीं उस समय लड़कियों का घर से निकलना बहुत सुरक्षित नहीं माना जाता था. लेकिन मेरे परिवार में ऐसा नहीं था. मेरी दोनों बहनों को और मुझे जीवन को रचनात्मक तथा व्यावसायिक बनाने के लिए प्रेरणा घर में मिली. सुनीता सफल अधिवक्ता (वकील) और बहुत लोकप्रिय सरपंच रहीं और स्नेह उच्चतम सिविल सेवा में हैं और मेरे मामले में, यद्पि मैने फाइन आर्ट्स में स्नातक किया था, क्या मेरे पिता मेरे चुने हुए अध्ययन विषय से निराश थे? नहीं इसके विपरीत उन्होंने मुझे अपना निर्णय लेने में सहायता की कि मुझे किन विषयों का अध्ययन करना चाहिए और मेरे प्रत्येक प्रयास को उनका समर्थन मिला. यही वह विश्वास था जिसने मुझे कैनेडा के जीवन में पूरी तरह रम जाने की शक्ति दी.
14 सितंबर, 2012 को मुझे महारानी एलिज़ाबेथ-IIकी ओर से क्वीन एलिज़ाबेथ डायमंड जुबली मेडल दिया गया है जो समुदाय और कैनेडा की सेवा के लिए प्रदान किया गया है. मैं इस सम्मान को विनम्रता से ले रही हूँ और यह सम्मान मैं अपने पिता को समर्पित कर रही हूँ. 
यह सब इसलिए कह रही हूँ कि बात बच्चों की परवरिश की थी और मेरे पिता का दृष्टिकोण बहुत सकारात्मक था. 

Linked to Our Pioneers