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Hans Raj Bhagat, Advocate – हंसराज भगत, एडवोकेट

Hans Raj Bhagat, Advocate हंसराज भगत, एडवोकेट
वही समय था जब 1882 में भारत सरकार द्वारा कराई गई पहली जनगणना से मालूम हुआ कि अछूत कहे जाने वाले कई लाख लोग नाममात्र के हिंदू थे. उन्हें अपनी मनमर्ज़ी के अनुसार कार्य करने और शिक्षा लेने का अधिकार नहीं था. शोर मचाया जा रहा था कि उन्हें ईसाई बनाया जा रहा है.
वही समय था जब 1889 तक पंजाब में आर्यसमाज की स्थापना हो चुकी थी. पंजाब के एक आर्यसमाजी कार्यकर्ता लाला गंगाराम ने बताया कि 1880 में मेघों ने स्यालकोटी आर्यसमाजियों से आवेदन किया था कि उनके सामाजिक स्तर का पुनर्निधारण किया जाए और उसे ऊँचा उठाया किया जाए. उन्होंने ईसाई, इस्लाम और सिख धर्मों के उदाहरण दिए जिनमें जाति और धर्म आधारित भेदभाव नहीं था. लेकिन हिंदुओं ने इसका कटुतापूर्वक लगातार विरोध किया. (मेघों द्वारा ऐसे आवेदन की पुष्टि अभी नहीं हो पाई है). कहा जाता था कि लाला गंगाराम द्वारा लगातार दबाव देने से आर्यसमाज की कार्यकारी समिति ने यह कार्य एक रजिस्टर्ड संस्था आर्य मेघ उद्धार सभाको सौंपने का निर्णय लिया.
वही समय था जब मेघों को शुद्धिकरणकी प्रक्रिया से गुज़ार कर हिंदुओं के सबसे निचले वर्ण में शामिल करते हुए आर्यसमाज में दाख़िल किया गया. दावा किया गया कि आर्यसमाजियों ने स्यालकोट के 36000 मेघों का शुद्धिकरण करके उन्हें आर्य बनाया था. उनके कुछ बच्चों ने आर्समाज द्वारा चलाए जा रहे प्राइमरी स्कूलों में जाना शुरू किया.
अपने स्वभाव के अनुरूपमेघ अपनी गरीबी और विनम्रता के कारण धार्मिक प्रकृति के थे. इसीलिए लाला गंगाराम उन्हें भगतकह देता था. मेघों ने भगतनामकरण स्वीकार कर लिया क्योंकि इस क्षेत्र में आर्यसमाज के आने से पहले अधिकांश मेघवंशी मध्यकालीन संतों कबीर आदि के प्रति आस्था रखते थे. उन संतों को भारतीय समाज सदियों से भगतकहता आ रहा था.
वही समय था जब डालोवालीगाँव के निवासी हंसराज भगत और ननजवाल गाँव के निवासी जगदीश मित्र ने 1935 तक आर्यसमाज के प्रयत्नों से शिक्षा प्राप्त की और दोनों कानून के स्नातक (LLB) हुए.
इसी दौरान सन् 1925 मेंबाबू मंगूराम मुग्गोवालिया, निवासी गाँव मुग्गोवाल, तहसील गढ़शंकर, ज़िला होशियारपुर ने एक संगठन आदधर्म (आदि धर्म) मंडल बनाया और एक आंदोलन शुरू किया. यह अछूतों के इस पक्ष को बताता था कि वे भारत में आर्यों के आने से भी पहले के बाशिंदे हैं जो सप्तसिंधु या ग्रेटर पंजाब में रहते आए थे. इस आंदोलन के प्रभाव को रोकने के लिए आर्यसमाज (हिंदुओं/ब्राह्मणों) ने पूरी शक्ति लगा दी थी. यह आदधर्म आंदोलन मेघ समुदाय को अधिक आकर्षित नहीं कर सका क्योंकि यह समुदाय पहले ही आर्यसमाजी हिंदू विचारधारा के प्रचार से प्रभावित हो चुका था.
ऊपर बताए गए दो युवकों में से भगत जगदीश मित्र की जीवन अवधि छोटी रही.भगत हंसराज स्यालकोट में वकालत करने लगे.भगत हंसराज आदधर्म आंदोलन के प्रति आकर्षित थे और उन्होंने एक आदधर्मीलड़की सेविवाह भीकिया. आर्यसमाजियोंको यह बात पसंद नहीं आई. सीकारण भगत हंसराज के आर्यसमाजी मित्र उनकेविवाह समारोह में शामिल नहीं हुए खासकरयहतर्क दे करकि शुद्ध किए गए मेघ भगततुलनात्मक रूप सेऊँची जाति के लोग हैं और किआदधर्मियों के साथ उनका रोटीबेटीका संबंध नहीं है. तब तक भगत हंसराज जीडॉ. भीमरावअंम्बेडकर और बाबू मुग्गोवालियाके विचारों से बहुत प्रभावित हो चुकेथे. यह बात आर्यसमाजियों को रास नहीं आ रही थी.अंबेडकर के विचारों के अनुरूपभगत हंसराज चाहते थे कि दलित लोग जाति व्यवस्था से ऊपर उठें.
उधर लाला गंगाराम ने मेघ उद्धार सभाबना कर अंग्रेज़ सरकार से सभा के लिए कुछ बंजर ज़मीन लीज़ पर ली जो तहसील खानेवाल, ज़िला मुल्तान में पडती थी. इस पर कुछ मेघ परिवारों को बसा कर उन्हें खेती करने के लिए रखा गया. इस भूखंड को मेघ नगरनाम दिया गया. खेती करने वाले मेघों को फसल का 50 प्रतिशत हिस्सा मिलता था. आगे चल कर मेघ टेनेंट्स ने दबाव बनाया कि उनका हिस्सा दो तिहाई किया जाए. लाला गंगाराम इस पर राज़ी नहीं था और उसके साथ कुछ हाथापाई भी हुई.
कानून के जानकार हंसराज भगत मेघ उद्धार सभा‘ (जो लाला गंगाराम के नेतृत्व में ही बनी थी)के नाम से बने ट्रस्ट द्वारा इन बँटाईदार (Share cropper) मेघों के शोषण की वास्तविक कथा जानते थे. यह ज़मीन अंग्रेज़ सरकार ने ट्रस्ट को लीज़ पर दी थी और बँटाईदार के तौर पर मेघों को बहुत कम मेहनताना मिल रहा था. समाजसेवा के इस प्रत्यक्ष नाटक के पीछे कुछ गलत था कि जो इसके विरुद्ध आवाज़ उठी. हाथापाई हुई. एक केस एडवोकेट हंसराज की अगुवाई में कोर्ट ले जाया गया. ट्रस्ट का प्रतिनिधित्व गंगाराम कर रहा था. एडवोकेट हंसराज केस जीत गए. स्पष्ट शब्दों में कहें तो उन्होंने यह केस मेघों के तथाकथित महान सुधारक लाला गंगाराम के विरुद्ध जीता था. केस जीतने के बाद वे बँटाईदारमेघ किसान ज़मीनों के मालिक बन गए.
यहाँ इस बात का उल्लेख करना ज़रूरी है कि भगत हंसराज निवासी गाँव डालोवालीको 1935 तक अपनी बीएएलएलबी की शिक्षा के लिए आर्यसमाज से वित्तीय सहायता मिलती रही थी. यद्यपि वे अपनी शिक्षा के लिए आर्यसमाज के आभारी थे लेकिन स्वाभाविक ही वे देश भर के दलितों के इतिहास और उनकी स्थिति संबंधी डॉ. अंबेडकर के विचारों और उनके साहित्य के प्रति आकर्षित थे और बाबू मंगूराम के आदधर्म आंदोलन से लगाव रखने लगे थे. इसे उन आर्यसमाजियों ने नापसंद किया जो शिक्षा के लिए हंसराज को दी वित्तीय सहायता के बदले उनमें एक ज़बरदस्त हिंदूवादी आर्यसमाजी कार्यकर्ता देखने का सपना पाले हुए थे. असल में वे विश्वास ही नहीं कर पा रहे थे कि वह युवक मेघ भगतों को न्याय दिलाने के लिए अदालत चला जाएगा और केस जीत जाएगा.
शिक्षित व्यक्तियों में से भगत हंसराज ही अपने समुदाय में शायद ऐसे थे जिन्होंने उन दिनों अंबेडकर की भाँति अंतर्जातीय विवाह किया था. इसी कारण से मेघों सहित उनके कुछ आर्यसमाजी मित्र बुलावे के बावजूद उनके विवाह में नहीं आए और बहिष्कार करते हुए हंसराज जी को बिरादरी से छेक दिया गया.
लोग बताते हैं कि जिस मेघ समूह ने आदधर्मी लड़की से शादी करने पर हंसराज भगत का सामाजिक बहिष्कार किया था उसी समूह ने राज्य की विधानसभा के चुनाव में हंसराज भगत के विरुद्ध खड़े चौधरी सुंदर सिंह के हक में सक्रिय रूप से प्रचार करके मेघों के वोट दिलाए. ये सुंदर सिंह आदधर्मी थे. इससे मेघ समुदाय के व्यवहार का अजीब अंतर्विरोध सामने आता है.
कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली द्वारा अक्तूबर 1966 में प्रकाशित डॉ. अंबेडकर का साहित्य और संभाषण‘ (Writings and Speeches of Dr. Ambedkar, published by Ministry of Welfare, G.O.I., New Delhi, Oct. 1966 Edition) से यह रुचिकर बात पता चलती है कि पंजाब के आर्य हिंदू इस बात पर असहमत थे कि मेघों जैसे समुदाय अछूतों में आते थे. फिर भी डॉ. अंबेडकर से समर्थन प्राप्त भगत हंसराज के प्रयासों के कारण मेघों को अनुसूचित जातियों में रखा गया. यदि आर्य हिंदू सफल हो जाते तो आज़ादी के बाद मेघों को नौकरियों में आरक्षण का लाभ नहीं मिल पाता जिसका महत्व और असर आज सबके सामने है.
यहाँ इस बात का पुनः उल्लेख आवश्यक है भगत जी ने कि आज़ादी से पहले 1937 में स्टेट असेंबली चुनावों में यूनियनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में इलैक्शन लड़ा लेकिन वे कांग्रेस के चौधरी सुंदर सिंह से चुनाव हारे. इसकी वजह यह रही कि चिढ़े हुए आर्यसमाजियों ने गाँव पोथाँ, ज़िला स्यालकोट के निवासी भगत गोपीचंद को उनके विरुद्ध चुनाव में खड़ा कर दिया और मेघों के वोट बँट गए. आगे चल कर 1945 में भगत हंसराज को आदधर्मी समुदाय का समर्थन मिला और वे यूनियनिस्ट पार्टी की ओर से विधान परिषद के सदस्य मनोनीत हो गए और अनुसूचित जातियों का प्रतिनिधित्व किया.
पंजाब के हिंदू, मुसलमानों, दलितों और सिखों के हितों का ध्यान रखने के लिए गठित दस सदस्यीय पंजाब स्टेट फैंचाइज़ कमिटिमें एडवोकेट हंसराज भगत और के. बी. दीन मोहम्मद को सदस्य नियुक्त किया गया. हिंदुओं में सर छोटू राम और पंडित नायक चंद (सनातनी आर्यसमाजी प्रतिनिधित्व) भी इसमें सदस्य थे. समिति के नौ सदस्यों (हिंदू और एक सिख प्रतिनिधि) ने रिपोर्ट दी कि यह कहना असंभव था कि उस समय के अविभाजित पजाब में कोई दलित समुदाय था जिनके धर्म को लेकर उनके सिविल अधिकारों का उल्लंघन हुआ हो. तथापि उन्होंने यह भी जोड़ा कि गाँवों में ऐसे वर्ग थे जिनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति निश्चित रूप से दयनीय थी. उन्होंने यह भी रिपोर्ट किया कि हालाँकि मुस्लिमों में कोई दलित नही हैं फिर भी हिंदुओं और सिखों में दलित थे और उस समय के अविभाजित पंजाब में उनकी कुल जनसंख्या 1,30,709 थी.
इस प्रकार पंजाब की समिति ने सीधे तौर पर बहुमत से इंकार कर दिया कि पंजाब में दलितों या अछूतों का कोई अस्तित्व था. वास्तव में अछूत‘ (untouchable) शब्द का प्रयोग दलितशब्द के स्थान पर किया गया था ताकि किसी की भावनाओं को चोट न पहुँचे. तथापि एडवोकेट हंसराज ने अपने अलग से प्रस्तुत असहमति (dissenting) नोट में उल्लेख किया कि दलित समुदायों की सूची अपूर्ण थी क्योंकि मेघों सहित कई समुदायों को इससे बाहर रखा गया था. आगे चल कर उनके असहमति नोट को महत्व दिया गया और उस पर सकारात्मक कार्रवाई करते हुए पंजाब के दलित समुदायों को अनुसूचित जातियों में शामिल किया गया.
श्री यशपाल, आईईएस से बातचीत के दौरान पता चला है कि हंसराज जी ने अपने एक नज़दीकी रिश्तेदार की बेटी को गोद लिया था जिसकी शादी आगे चल कर मेघ समुदाय के श्री खज़ानचंद जी से तय हुई थी जो उन दिनों रेलवे में स्टेशन मास्टर (शायद मेघों में पहले) के पद पर नियुक्त हुए थे. लेकिन विवाह से कुछ ही पहले उनका निधन हो गया.
स्वतंत्र भारत में आने पर हंसराज भगत दिल्ली के करोल बाग में रहने लगे. वे वकील के रूप में कार्य करते रहे. करोल बाग में ही भगत गोपीचंद के बेटे महिंदर पाल ने 1965 से 1966 के बीच उनसे भेंट की. उनके जन्म और देहांत की सही तिथि ज्ञात नहीं हो सकी है न ही कोई फोटो प्राप्त हो सकी है. संभवतः हंसराज जी का परिवार विदेश में बस गया था.
अंत में यह बताना भी ज़रूरी है कि भारत विभाजन के बाद सेटेलमेंट मंत्रालय में एडवाइज़र सुश्री रामेश्वरी नेहरू, भगत हंसराज और श्री दौलत राम (मेघ) भगत गोपीचंद और भगत बुड्ढामल सभी ने समन्वित प्रयास किया और स्यालकोट से भारत में आए मेघों को अलवर (राजस्थान) आदि जगहों पर ज़मीनें दिला कर बसाया गया. भगत हंसराज राजनीति रूप से सक्रिय थे, श्री दौलत राम सेटेलमेंट ऑफिसर थे. इस टीम ने बहुत अच्छा कार्य किया और सफल रही. लाभ उठाने वाले भगतों में वे लोग भी शामिल थे जो कभी हंसराज भगत के विरोधी रहे थे.
आर्यसमाज और लाला गंगाराम का प्रयोजन और उद्देश्य चाहे कुछ भी क्यों न रहा हो, उन्होंने मेघों की शिक्षा के लिए जितना भी किया वह मेघों के लिए लाभकारी हुआ हालाँकि आज़ादी के बाद मेघ समुदाय आर्यसमाज के एजेंडा में कहीं नहीं दिखता. दूसरी ओर एडवोकेट भगत हंसराज और डॉ. अंबेडकर ने पंजाब के मेघों और अन्य दलित जातियों को अनुसूचित जातियों की अनुसूची में शामिल कराने के लिए जो संघर्ष और कार्य किया उसने उनकी आर्थिक हालत को सुधारने में बहुत मदद की और आज उनके कार्य के कारण पंजाब के कई लाख दलित निम्न मध्यम और मध्यम वर्ग मे आ चुके हैं. इस लिए सभी दलित समुदायों के साथसाथ मेघों के पक्ष से उनके अग्रणी हीरो एडवोकेट भगत हंसराज हैं. जिनके संघर्ष का लाभ मेघों की आने वाली पीढ़ियाँ महसूस करेंगी.
(उक्त जानकारियाँ सर्वश्री आर.एल. गोत्रा, यशपाल जी, मोहिंदर पाल और डॉ. ध्यान सिंह के सौजन्य से प्राप्त हुई हैं. उनका आभार. एडवोकेट भगत हंसराज जी के बारे में बेसिक जानकारी उपलब्ध नहीं हो पाई है. यदि कोई सज्जन उसकी तथ्यात्मक जानकारी दे सकें तो इस ईमेलbhagat.bb@gmail.comपर भेज सकते हैं.)

Tulsidas knew the art of loving his people – तुलसीदास अपने समुदाय से प्रेम करना जानते थे

(1)

कक्षाओं में तुलसीदास

कक्षाओं को पढ़ाते हुए डॉ. गोविंदनाथ राजगुरु कहा करते थे कि तुलसीदास कवि बहुत अच्छे हैं लेकिन थिंकर (चिंतक) के तौर पर बेकार हैं. थिंकर के तौर पर कबीर बेमिसाल हैं.
डॉ. वीरेंद्र मेंहदीरत्ता कहा करते थे कि तुलसी की हर बात को माफ़ किया जा सकता है लेकिन इस बात को नहीं- ‘जाके प्रिय न राम वैदेही, सो छाँडिए कोटि बैरी सम जदपि परम सनेही’. सही है. स्नेही पर धर्म-आस्था का कोड़ा बरसाना अच्छी बात नहीं. तुलसी ने ही कहीं लिखा है- ‘देखत ही हरषे नहीं, नैनन नाहिं स्नेह, तुलसी तहाँ न जाइए, कंचन बरसे मेह’. तो तुलसी का त्यागा हुआ परम स्नेही व्यक्ति जिसकी अपनी आस्था पर राम-वैदेही की छवि उकेरी हुई नहीं है, तुलसी के घर क्यों आएगा? यह बात और है कि राम-वैदेही के मंदिरों ने तुलसी के समाज को अच्छी आजीविका दी है.
डॉ. लक्ष्मीनारायण शर्मा कहा करते थे, “तुलसीदास का यह कथन- ‘ढोर, गँवार, शूद्र, पशु, नारी, ते सब ताड़न के अधिकारी’- यह वास्तव में रामचरित मानस में समुद्र के मुँह से कहलवाया गया है जो राम के मार्ग में बाधक था और उस समय विलेन था. जरूरी नहीं कि विलेन का कथ्य तुलसी का भी कथ्य हो.” चलिए, आपकी बात भी मानते चलते हैं पंडित जी.
डॉ. पुरुषोत्तम शर्मा इसे कौमा-डैश का हेर-फेर मानते हुए कहते थे कि तुलसीदास का इससे तात्पर्य था- ‘ढोर, गँवार-शूद्र, पशु-नारी, ते सब ताड़न के अधिकारी’. यानि अगर शूद्र गँवार हो या नारी पशु जैसी हो तो वे ताड़ना के अधिकारी हैं. बहुत खूब. इसके निहित संदर्भों की व्याख्या रुचिकर होगी क्योंकि तब शूद्र और नारी के लिए शिक्षा की मनाही थी. अतः उन्हें ‘गँवार’ और ‘पशु’ की श्रेणी में रखने का रिवाज़ रहा होगा.
कुछ बात तो है कि ब्राह्मण समाज तुलसीदास को सिर पर उठाए फिरता है और दूसरों को भी ऐसा करने की सलाह देता है. लेकिन यह तय है कि समय के साथ तुलसी साहित्य की व्याख्याएँ बदलती रहीं. संभव है कि तुलसी के साहित्य में हेर-फेर भी किया गया हो.

(2)

कक्षाओं से बाहर तुलसीदास

तुलसी के साहित्य से ऐसे कई उद्धरण हैं जिन्हें आज विभिन्न लेखक अलग दृष्टि से पहचानते हैं. एक सज्जन ने जातिवादी दृष्टि से तुलसी की इन पंक्तियों- ‘पूजिए विप्र ज्ञान गुण हीना, शूद्र ना पूजिए ग्यान प्रवीना.‘- की व्याख्या की और तुलसी पर जम कर बरसे और फिर इस पर ब्राह्मणवादी प्रवृत्ति का ठप्पा लगा दिया. चलिए जी, ठीक है जी……

लेकिन मैं तुलसी के उक्त कथन को बहुत महत्व देता हूँ.
‘पूजिए विप्र जदपि गुन हीना’ (अर्थात् ब्राह्मण यदि गुणहीन भी है तो भी पूजनीय है). स्पष्ट है कि यहाँ विद्वान, ज्ञानी, दूसरों का भला करने वाले व्यक्ति की बात नहीं हो रही बल्कि ब्राह्मण समुदाय के किसी व्यक्ति की बात है जो सिर्फ़ अनाज का दुश्मन है.
अब मैं सोचता हूँ कि तुलसीदास ने क्या लिखा. वे ब्राह्मण थे और वे अपने समुदाय के गुणहीन व्यक्ति को भी पूजनीय कह रहे हैं तो इसमें उनकी उदार दृष्टि और प्रेम भावना झलकती है. इसमें ग़लत क्या है? वे अपने समुदाय की छवि को ऊँचा उठाते रहे और उनका समुदाय आज उन्हें उठाए-उठाए फिरता है.

अपने समुदाय के सदस्यों के कार्य, कला, ज्ञान और उत्पाद (product) की जानकारी लें और परस्पर चर्चा करें. फिर जहाँ भी अवसर आए उसकी यथोचित प्रशंसा करें. यह सब को अच्छा लगेगा. इस प्रकार एक-दूसरे का आवश्यक सामाजिक-आर्थिक सहयोग अपने आप होता रहता है.

संत तुलसीदास सामुदायिक उन्नति के इस सरलतम मार्ग को जानते थे. उनकी सभी बातें आप माने या न माने, केवल अपने समुदाय के प्रति आदर और प्रेम-भावना को घना करके हृदय तक उतार लें तो समुदाय के विकास का रास्ता अधिक प्रशस्त होगा. आपकी उन्नति और सफलता निश्चित है.

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All India Satguru Kabir Sabha (1958) – आल इंडिया सत्गुरु कबीर सभा – (1958)

कल 03-08-2012 को आर्य समाज मंदिर, सैक्टर-16, चंडीगढ़ में श्रीमती तारा देवी की रस्म क्रिया के बाद भगत प्रेम चंद जी ने एक स्मारिका (Souvenir/सुवेनेयर – 2012-13) मुझे दी. 

आल इंडिया सत्गुरु कबीर सभा (1958), मेन बाज़ार, भार्गव नगर, जालंधर का नाम सुना था लेकिन मेरी जानकारी में नहीं था कि सभा (AISKS) ने इस वर्ष ऐसी स्मारिका का प्रकाशन किया है. इस स्मारिका को देख कर सुखद आश्चर्य हुआ.
सुखद आश्चर्य इस लिए कि ये स्मारिकाएँ संस्था द्वारा संपन्न कार्यों का प्रकाशित दस्तावेज़ होता है. इसमें कार्यों की भूमिका, उनके महत्व, संबंधित विषयों पर आलेख, कार्यकर्ताओं और संगठन की गतिविधियों के बारे में जानकारी आदि होते हैं जो धीरे-धीरे एक इतिहास का निर्माण करते हैं. इस स्मारिका में यह सब कुछ दिखा.
यह स्मारिका सत्गुरु कबीर के 614वें प्रकाशोत्सव (04-06-2012) के अवसर पर जारी की गई थी. इसका संपादन श्री विनोद बॉबी (Vinod Bobby) ने किया है और उप संपादक श्री गुलशन आज़ाद (Gulshan Azad) हैं.
इस स्मारिका में काफी जानकारियाँ हैं. लेकिन जो मुझे अपने नज़रिए से महत्वपूर्ण लगीं उनका उल्लेख यहाँ कर रहा हूँ. इसका संपादकीय जालंधर में कबीर मंदिरों (Kabir Temples) के विकास की संक्षिप्त कथा कहता है और इसमें शामिल आलेख कबीर से संबंधित जानकारी देते है. राजिन्द्र भगत द्वारा श्री अमरनाथ (आरे वाले) पर लिखा आलेख सिद्ध करता है कि अपने समाज के अग्रणियों पर अच्छा लिख कर हम आने वाली संतानों के लिए आदर्श जीवनियों का साहित्य निर्माण कर सकते हैं. यह अच्छी भाषा में लिखा आलेख है. ‘अंतर्राष्ट्रीय संस्कृति पीठ – कबीर भवन’ पर लिखा आलेख प्रभावित करता है.
स्मारिका में प्रकाशित विज्ञापन बताते हैं कि मेघ भगतों ने इसके प्रकाशन में खूब सहयोग दिया है. बहुत-बहुत बधाई, क्योंकि यह करने योग्य कार्य है.
इस सभा के संस्थापकों में आर्यसमाज के अनुयायी मेघ भी कबीर सभा की इस स्मारिका में दिखे जो मेघ समाज में हो रहे परिवर्तन का द्योतक है. आर्यसमाजी विचारधारा के कारण मेघ भगत समाज ने कबीर और डॉ. भीमराव अंबेडकर को बहुत देर से अपनाया. यह देख कर अच्छा लगा कि इस स्मारिका में विवादास्पद लेखक श्री एल. आर. बाली (L.R. Bali) (‘भीम पत्रिका’ के संपादक) का आलेख भी छापा गया है जिन्होंने अपना पूरा जीवन अंबेडकर मिशन को समर्पित कर दिया है. मुझे आशा है कि मेघ भगत देर-सबेर डॉ. अंबेडकर, जो स्वयं कबीरपंथी थे, को जाने-समझेंगे.
स्मारिका में सभा के कार्यकर्ताओं का टीम अन्ना के साथ दिखना राजनीतिक संकेत करता है और यह अच्छा है.

आशा है कि मेघ भगतों के अन्य संगठन भी ऐसी स्मारिकाएँ छापने के बारे में विचार करेंगे. 

 स्मारिका की पूरी पीडीएफ फाइल आप नीचे दिए इस लिंक पर क्लिक करके देख सकते हैं


Souvenir (p. 1-32)

Souvenir (p. 33-64)

मेघ भगत

Gotras of Megh Bhagats – मेघ भगतों के गोत्र

डॉ. ध्यान सिंह, पीएचडी

डॉ. ध्यान सिंह का शोधग्रंथ कई मायनों में उपयोगी है. इसमें मेघ भगतों के गोत्रों को भी समेकित किया गया है. इस विषय में मुझे कुछ जानकारी तो थी लेकिन डॉ. सिंह द्वारा तैयार गोत्रों की सूची से बहुत कुछ नया भी मिला. गोत्रों की सूची इस मायने में महत्वपूर्ण है कि इससे संकेत मिलते हैं कि हम कौन हैं, कहाँ से आए थे और हमारे पूर्वज क्या करते थे. इस सूची में दिए नाम सिद्ध करते हैं कि हमारे कुछ पूर्वज अस्सीरिया से संबंधित थे. इस दृष्टि से अस्सरिया और एरियन शब्द अपनी कहानी कहते हैं. इसी प्रकार इस सूची में केशप (कश्यप) और प्राशर (पराशर) ऋषियों के नाम से गोत्र होना और विवाहों आदि में हमारा ऋषि गोत्र के रूप में भारद्वाज, अत्रि आदि ऋषियों का नाम बताना एक शोध का विषय हो सकता है क्योंकि कुछ अन्य ऋषियों के नाम हमारे समुदाय से जुड़े नहीं हैं.
सूची से स्पष्ट है कि गोत्रों का नामकरण कई प्रकार से हुआ है. गोत्र के मूल में गाँव, रेस, ऋषि, व्यवसाय, किसी नई जाति विशेष से संपर्क में आने के बाद नया नाम, रंग और छवि, विशेष आदत, गुण विशेष, क्षेत्र विशेष, पशु-पक्षी (व्यवसाय के रूप में भी), इष्ट,शारीरिक बनावट, महँगे पत्थरों आदि के नाम हैं. बहुत से गोत्रों के नाम ऐसे हैं जो संभवतः कभी शुद्ध रूप में तत्सम् (संस्कृत स्पैलिंग के अनुसार) रहे हैं और बाद में अन्य जातियों ने उनका रूप ज़बरदस्ती बिगाड़ दिया है या वे घिसते हुए इस तद्भव रूप को प्राप्त हुए हैं.
अंत में एक बात जोड़ना चाहूँगा कि गोत्रों की सूची को मैंने शब्दकोश विज्ञान (Lexicography) के नियम के अनुसार वर्णक्रम में लगा दिया है. आने वाले समय में शोधकर्ता इसका वैज्ञानिक तरीके से प्रयोग कर सकेंगे.
भारत भूषण, चंडीगढ़
ईमेल- bhagat.bb@gmail.com
मेघ भगतों के गोत्रों की सूची
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अगर, अस्सरिया,
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एरियन,
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कंगोत्रा, ककड़, कतियाल, कड़थोल, कपाहे, कम्होत्रे, कलसोंत्रा, कलमुंडा, करालियाँ, कांचरे, कांडल, काटिल, काले, किलकमार, कूदे, केशप, कैले, कोकड़िया, कोण,
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खंगोतरे, खंडोत्रे, खड़िया, खढ़ने, खबरटाँगिया, खरखड़े, खलड़े, खलोत्रा, खोखर, खोरड़िये,
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गंगोत्रा, गाँधी, गुटकर, गड़गाला, गड़वाले, गिद्धड़, गोत्रा, गौरिये,
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घई, घराई, घराटिया, घराल, घुम्मन,
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चखाड़िये, चगोत्रा, चगैथिया, चबांते, चलगौर, चलोआनियाँ, चितरे, चोकड़े, चोपड़ा, चोहड़े, चोहाड़िए, चौदेचुहान, चौहान,
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छापड़िया, छोंके,
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जजूआं, जल्लन, जल्लू,
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टंभ, टनीना, टुंडर, टुस्स, टेकर, टोंडल,
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डंडिये, डंबडकाले, डग्गर, डांडिये, डोगरा, डोगे,
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ढम, ढींगरिये,
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तरपाथी, तराहल, तरियल, तित्तर,
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थंदीरा, थिंदीआलिया, थापर,
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दत्त, दमाथियां, दलवैड, दरापते,
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धूरबारे,
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नजोआरे, नजोंतरे, नमोत्रा,
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पंजगोत्रे, पंजवाथिए, पंजाथिया, पकाहे, पटोआथ, पडेयर, पराने, परालिये, पलाथियाँ, पवार, पहाड़ियाँ, पाड़हा, पानोत्रा, पाहवा, पूंबें, पौनगोत्रा, प्राशर (पराशर),
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बकरवाल, बजगोत्रे, बजाले, बदोरू, बक्शी, बग्गन, बाखड़ू, बादल, बटैहड़े, बरेह, बिल्ले, बैहलमें,
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भगोत्रा, भलथिये, भसूले, भिंडर, भिड्डू,
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मंगलीक, मंगोच, मंगोतरा, मंजोतरे, मड़ोच, मनवार, मन्हास, ममोआलिया, मल्लाके, मांडे, मुसले, मैतले,
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रतन, रत्ते, रमोत्रा, रूज़म,
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लंगोतरा, लंबदार, लालोतरा, लचाला, लचुंबे, लसकोतरा, लातोतरा, लासोतरा, लीखी, लुड्डन, लेखी, लोंचारे,
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शौंके,
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संगलिया, संगवाल, संगोत्रे, सकोलिया, सपोलिया, समोत्रा, सलगोत्रे, सलगोत्रा, सलहान, सलैड, सांगड़ा, साठी, सिरहान, सीकल, सीहाला, सोहला, सुंबरिये, सेह्,
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हरबैठा, हितैषी.
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(गोत्रों की यह सूची डॉ. ध्यान सिंह के पीएचडी के लिए स्वीकृत शोधग्रंथ पंजाब में कबीरपंथ का उद्भव और विकाससे ली गई है.)

Megh/Megh Bhagat : Known history

MEGHnetब्लॉग पर मैंने दलितों के इतिहास से संबंधित आलेख (चिट्ठे) लिखे हैं जो पुस्तकों और इंटरनेट से उपलब्ध सामग्री के आधार पर हैं. ये इतिहास नहीं हैं परंतु कई पौराणिक और आधुनिक सूत्रों को समझने तथा उन्हें एक जगह एकत्रित करने का प्रयास है. अन्य से ली गई सामग्री के लिए संबंधित लेखक या वेबसाइट के प्रति विधिवत् आभार प्रकट किया गया है. मेघनेट के बहुत से आलेख कई अन्य वेब साइट्स और ब्लॉग्स पर मेघनेट के साभार डाले गए हैं जो बहुत संतोष देने वाला है
कपूरथला के डॉ. ध्यान सिंह को जब मैं मिला था तब उन्हें अपनी मंशा बता कर उनका पीएचडी थीसिस मैं उनसे ले आया था और उसे एक अन्य ब्लॉग ‘Hisory of Megh Bhagats’ या पंजाब में कबीरपंथ का उद्भव और विकासके नाम से काफी देर से इंटरनेट पर रखा हुआ है. इस ब्लॉग पर कई जिज्ञासु आए हैं.
मन में यह इच्छा थी कि डॉ. ध्यान सिंह के संपूर्ण थीसिस को या उसके कुछ अंशों को यूनीकोड में टाईप कर करके इंटरनेट पर डाला जाए जिससे उसे कोई भी हिंदी में पढ़ सकें. इसमें एक खतरा भी था कि कोई भी शोधग्रंथ की सामग्री को आसानी से ब्लॉग से कॉपी कर सकता था और प्रयोग कर सकता था. क्योंकि यह सामग्री मूलतः ध्यान सिंह जी की है अतः मेरा कर्तव्य था कि इसे यथा संभव सुरक्षित रखा जाए और पीडीएफ बना कर लिंक के रूप में अपने विभिन्न ब्लॉग्स पर रख दिया जाए ताकि जिज्ञासु इसे पढ़ सकें. आप इस फाइल का प्रिंट आऊट लेकर पढ़ सकते हैं.
शोधग्रंथ का यह एक ही अध्याय है जो प्रस्तुत किया जा रहा है लेकिन निश्चित है कि इसमें मेघ भगतों का ज्ञात इतिहास है. मेघों का प्रचीन इतिहास कथा-कहानियों के रूप में है. उन्हें संकेत माना जा सकता है. वास्तविक/विस्तृत इतिहास या तो लिखा ही नहीं गया या उसे आक्रमणकारी कबीलों ने नष्ट कर दिया. अतः जो ज्ञात है उसे पहले जाना जाए.
डॉ. ध्यान सिंह के साभार और उनके कर कमलों से उनके शोधग्रंथ का तीसरा और मुख्य अध्याय मेघवंशियों को समर्पित है.
डॉ. ध्यान सिंह
 
उक्त ज्ञात इतिहास को पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें.