Monthly Archives: August 2011

कोली, कोरी, कोल- भारतीय मूलनिवासी कबीले

पठानकोट से मेरे एक अनजाने मित्र प्रीतम भगत ने मोबाइल पर बताया कि बुद्ध की माता कोली (कोरी) समुदाय से थीं. मेरी रुचि बढ़ी. इंटरनेट ने एक ऐसे आलेख पर पहुँचने में मदद की जो कोली समुदाय के बारे में था. इस आलेख का आरंभ एक जाने-पहचाने वाक्य से हुआ था कि हम कौन हैं? मेरे पुरखे कौन थे? वे कहाँ से आए थे? वे कैसे रहते थे?’ मैं यहाँ इस आलेख के कुछ अंश दे रहा हूँ. पूरा आलेख कोली समुदाय के इतिहास का बढ़िय़ा लेखा-जोखा देता है. यह देखने वाली बात है कि कोली समुदाय भी अपना इतिहास उसी अतीत में ढूँढता है जहाँ आज के सभी दलित पहुँचते हैं. इससे उस कथा का गुब्बारा फट जाता है कि असुरों (सिंधुघाटी सभ्यता के मूलनिवासियों) और सुरों, जो इरान से होते हुए मध्य एशिया से आए थे, के बीच कोई सद्भावनापूर्ण समझौता हुआ था.

ऐसी पौराणिक कहानियाँ हैं जो इंगित करती हैं कि असुरों को सुरों ने गुलाम बना लिया था. ये गुलाम जातियाँ आज भी जातिप्रथा के उन्मूलन के लिए संघर्षशील हैं. वे अति निर्धनता की हालत में जी रही हैं. उनके आज के नाम हैं अन्य पिछड़ी जातियाँ, अनुसूचित जातियाँ और अनुसूचित जनजातियाँ. इन्हें अभी जानकारी नहीं है कि मानवाधिकार क्या होते हैं. यह तथ्य है कि भारत के मूलनिवासी गुलाम बना लिए गए थे और सदियों से उनके साथ अमानवीय व्यवहार होता रहा है. इनमें से अधिकतर गाँवों में रहते हैं और इन्हें अमानवीय स्थिति में रहने के लिए मजबूर किया जाता है. कई लोग शेष विश्व को बहुत अच्छी तस्वीर बना कर दिखा रहे हैं कि भारत बदल चुका है लेकिन यह सच्चाई से बहुत दूर की बात है और दुनिया इसे जान चुकी है.
इस बीच एक ब्लॉगर डोरोथी ने अपने एक कमेंट के द्वारा बताया था कि पूर्वी भारत की कोल जनजाति भी अपना उद्गम सिंधुघाटी सभ्यता को मानती है. इस बारे में मुझे एक लिंक मिला- दि इंडियन एनसाइक्लोपीडियाजिसे इस आलेख में ‘Other Links’के अंत में दिया गया है. यह इस बिंदु की पर्याप्त रूप से व्याख्या कर देता है. इससे यह भी सिद्ध होता है कि भारत के मूलनिवासियों को जनजातियों और जातियों में अलग-अलग नामों के अंतर्गत बाँटना भी एक नकली चीज़ है.
भारत की अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ी जातियों की भाँति कोली, कोरी और कोल भी भारत के मूल निवासी हैं. इनका अतीत एक है. उन्हें धार्मिक प्रतिबंधों (अर्थात मनुस्मृति) के तहत अलग-अलग नाम और व्यवसाय दे कर अलग-अलग समुदाय कहा गया ताकि वे अपने भाइयों से दूर ही रहें. देश में लोकतंत्र और जनतंत्र होने के बावजूद ये अभी इतने अशिक्षित और इतने दबाव में हैं कि अपनी सामाजिक और राजनीतिक एकता के बारे में सोच नहीं पाते.
कुल मिला कर मेघवाल, बुनकर, मेघ, भगत, जुलाहा, अंसारी आदि समुदायों की भाँति कोली और कोरी भी पारंपरिक रूप से जुलाहे हैं (हो सकता है है कि कोल समुदाय को ऐसे ही किसी व्यवसाय में डाला गया हो) और इसी से इन समुदायों की आर्थिक स्थिति की पूरी तस्वीर का पता चलता है. ये लोग कुपोषण और भूख के शिकार हैं. ये अत्यल्प वेतन पर और बलात् श्रम (Forced labor)के तौर पर कार्य करते हैं. (कोल जाति मूलतः अफ़्रीकी मूल की है. ऐसा प्रतीत होता है कि कोली शब्द कोल से ही बना है). ख़ैर, आप इस आलेख के अंश पढ़ना जारी रखें और इन विश्वसनीय तथा प्यारे कोली/कोरी लोगों के बारे में जाने.

अशोक महान कोरी कबीले से थे
कोली (Story Of India’s Historic People – The Kolis)
एक समय आता है जब हममें से प्रत्येक व्यक्ति पूछता है, ‘मैं कौन हूँ?मेरे पुरखे कौन थे? वे कहाँ से आए थे?वे कैसे रहते थे? उनकी बड़े कार्य क्या थे और उनके सुख-दुख क्या थे?’ ये और अन्य कई मूलभूत सवाल हैं जिनके बारे में हमें उत्तर पाना होता है ताकि हम अपने मूल को पहचान सकें.
भारत के मूलनिवासी कबीलों के बारे में अध्ययन करते हुए हमारे विद्वानों ने अति प्राचीन रिकार्ड और दस्तावेज़ वेद, पुराण, विभिन्न भाषाओं के महाकाव्य, कई पुरातात्विक रिकार्ड और नोट्स और अन्यान्य प्रकाशन देखे हैं.
इतिहास और एंथ्रपॉलॉजी के विद्यार्थियों ने प्रागैतिहासिक और भारत के स्थापित इतिहास में भारत के प्राचीन कबीले का चमकता अतीत पाया है और शोध की निरंतरता में और भी बहुत कुछ मिल रहा है.
यह आलेख गुजराती में लिखे मुख्यतः तीन प्रकाशनों पर आधारित है. भारत का एक प्राचीन कबीला कोली कबीले का इतिहासइस पुस्तक का संपादन श्री बचूभाई पीतांबर कंबेद ने किया था और भावनगर के श्री तालपोड़ा कोली समुदाय ने प्रकाशित किया था (पहला संस्करण 1961 और दूसरा संस्करण 1981), 1979 में बॉम्बे समाचारमें प्रकाशित श्री रामजी भाई संतोला का एक आलेख और डॉ. अर्जुन पटेल द्वारा 1989 में लिखा एक विस्तृत आलेख जो उन्होंने 1989 में हुए अंतर्राष्ट्रीय कोली सम्मेलन में प्रस्तुत करने के लिए तैयार किया था.
भगवान वाल्मीकि और उनकी रामायण

प्राचीनतम राजा मन्धाता, एक सर्वोपरि और सार्वभौमिक राजा था जिसका प्रताप भारत में सर्वत्र था और जिसके शौर्य और यज्ञों की कथाएँ मोहंजो दाड़ो (मोहन जोदड़ो) के शिलालेखों पर अंकित हैं, वे इसी कबीले के थे. प्राचीनतम और पूज्य ऋषि वाल्मीकि जिन्होंने रामायण लिखी वे इसी कबीले से थे. महाराष्ट्र राज्य में आज भी रामायण को कोली वाल्मीकि रामायण कहा जाता है. रामायण की शिक्षाएँ भारतीय संस्कृति का आधार हैं. 

ईश बुद्ध
ईश बुद्ध की पत्नी कोली कबीले से थी. महान राजा चंद्रगुप्त मौर्य और उसके कुल के राजा कोली कबीले के थे. संत कबीर, जो पेशे से जुलाहे थे, के कई भजनों में लिखा है- कहत कबीर कोरी”, उन्होंने स्वयं को कोरी कहा है. सौराष्ट्र के भक्तराज भदूरदास और भक्तराज वलराम, जूनागढ़ के गिरनारी संत वेलनाथजी, भक्तराज जोबनपगी, संत श्री कोया भगत, संत धुधालीनाथ, मदन भगत, संत कंजीस्वामी जो 17वीं और 18वीं शताब्दी के थे, ये सभी कोली कबीले के थे. उनके जीवन और ख्याति के बारे में मुंबई समाचार‘, ‘नूतन गुजरात‘, ‘परमार्थआदि में छपे आलेखों से जानकारी मिलती है.
महाराष्ट्र राज्य में शिवाजी के प्रधान सेनापति और कई अन्य सेनापति इसी कबीले के थे. ‘A History of the Marathas’ (मराठा इतिहास) मुख्यतः मवालियों और कोलियों से भरी शिवाजी की सेना का शौर्य गर्वपूर्वक कहता है. शिवाजी का सेनापति तानाजी राव मूलसरे जिसे शिवाजी हमेशा मेरा शेरकहा करते थे, एक कोली था. जब तानाजी कोडना गढ़को जीतने के लिए लड़ी लड़ाई में शहीद हुआ तो शिवाजी ने उसकी स्मृति में उस किले का नाम बदल कर सिंहाढ़रख दिया.  
सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्रम में बहुत सी कोली महिला योद्धाओं ने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के प्राण बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. उनमें एक उसकी बहुत करीबी साथी थी जिसका नाम झलकारी बाई था. इस प्रकार कोली समाज ने देश और दुनिया को महान बेटे और बेटियाँ दी हैं जिनकी शिक्षाओं का सार्वभौमिक महत्व और प्रासंगिकता आज आधुनिक जीवन में भी है.
हमारे प्राचीन राजा मन्धाता की कथा

ओंकारनाथेश्वर में मन्धाता मंदिर
कहा जाता है कि श्री राम का जन्म मन्धाता के बाद 25वीं पीढ़ी में हुआ था. एक अन्य राजा ईक्ष्वाकु सूर्यवंश के कोली राजाओं में हुए हैं अतः मन्धाता और श्रीराम ईक्ष्वाकु के सूर्यवंश से हैं. बाद में यह वंश नौ उप समूहों में बँट गया, और सभी अपना मूल क्षत्रिय जाति में बताते थे. इनके नाम हैं: मल्ला, जनक, विदेही, कोलिए, मोर्या, लिच्छवी, जनत्री, वाज्जी और शाक्य.
पुरातात्विक जानकारी को यदि साथ मिला कर देखें तो पता चलता है कि मन्धाता ईक्ष्वाकु के सूर्यवंश से थे और उसके उत्तराधिकारियों को सूर्यवंशी कोली राजा के नाम से जाना जाता है. कहा जाता है कि वे बहादुर, लब्ध प्रतिष्ठ और न्यायप्रिय शासक थे. बौध साहित्य में असंख्य संदर्भ हैं जिससे इसकी प्रामाणिकता में कोई संदेह नहीं रह जाता. मन्धाता के उत्तराधिकारियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और हमारे प्राचीन वेद, महाकाव्य और अन्य अवशेष उनकी युद्धकला और राज्य प्रशासन में उनके महत्वपूर्ण योगदान का उल्लेख करते हैं. हमारी प्राचीन संस्कृत पुस्तकों में उन्हें कुल्या, कुलिए, कोली सर्प, कोलिक, कौल आदि कहा गया है.
प्रारंभिक इतिहास बुद्ध के बाद
वर्ष 566 ई.पू. के दौरान, जब हिंदू धर्म निर्दयी हो चुका था और पूर्णतः पतित हो चुका था, तब राजकुमार गौतम जिसे बाद में विश्व ने बुद्ध (the enlightened one) के रूप में जाना,का जन्म उत्तर-पश्चिमी भारत में हिमायलन घाटी में रोहिणी नदी के किनारे हुआ. ईश बुद्ध की माता महामाया एक कोली राजकुमारी थीं.
ईश बुद्ध की शिक्षा को ऊँची जाति के हिंदुओं के निहित स्वार्थ के लिए ख़तरे के तौर पर देखा गया. शीघ्र ही बुद्ध की शिक्षाओं को भारत से पूरी तरह बाहर कर दिया गया.
ऐसा प्रतीत होता है कि कोली साम्राज्यों का बुद्ध से संबंध और प्रेम होने के कारण उन्हें सबसे अधिक अत्याचार सहना पड़ा. यद्पि अधिकतर लोगों ने बौध शिक्षा को नहीं अपनाया था लेकिन अन्य ने उन्हें दूर किया और शासकों ने भी उनकी उपेक्षा की.
ईश बुद्ध के 2000 वर्ष बाद
इस संघर्ष ने कोली साम्राज्यों को बहुत हानि पहुँचाई होगी. ऐसा प्रतीत होता है कि बहुत ही क्लिष्ट हिंदू समाज में पदच्युति के बाद कभी बहुत शक्तिशाली रहा यह कबीला, जो बहुत परिश्रमी, कुशल, निष्ठावान्, आत्मनिर्भर साथ ही आसानी से भड़क कर युद्ध पर उतारू होने वाला था, अपनी केंद्रीय स्थिति खो बैठा. एक समाज जिसने अपनी देवी मुंबा देवी के नाम से मुंबई की स्थापना और निर्माण किया उसे आज राजनीतिक और शिक्षा की प्रभावी स्थिति में आना कठिन हो गया है. अब तो कई शताब्दियों से अन्य कबीलों ने इसे नीची नज़र से देखा और इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव इस समस्त क्षत्रिय समुदाय को तबाह करने वाला था.
वर्तमान
महाराष्ट्र के कोली मछुआरे
आज के भारत में कश्मीर से कन्याकुमारी तक कोली पाए जाते हैं और क्षेत्रीय भाषा के प्रभाव के कारण उनके नाम तनिक परिवर्तित हो गए हैं. कुछ मुख्य समूह इस प्रकार हैं: कोली क्षत्रिय, कोली राजा, कोली राजपूत, कोली सूर्यवंशी, नागरकोली, गोंडाकोली, कोली महादेव, कोली पटोल,कोली ठाकोर, बवराया, थारकर्ड़ा, पथानवाडिया, मइन कोली, कोयेरी, मन्धाता पटेल आदि.
भारत के मूलनिवासी कबीले के तौर पर खुले कृषि भू-भागों और समुद्र तटीय क्षेत्रों में रहने को पसंद करने वाला यह क्लैन्ज़मन है. आज के कोली कई कबीलाई अंतर्विवाहों से हैं. अनुमान लगाया गया है कि जनगणना में 1040 से भी अधिक उप-समूह हैं जिन्हें एक मुश्त रूप से कोली कहा जाता है. हिंदू होने के अतिरिक्त इन अधिकांश समूहों में सामान्य कुछ नहीं है, और कि ऊँची जाति के हिंदुओं यह स्वीकार करते हैं कि कोली स्पर्श से वे भ्रष्ट नहीं होते और शुद्ध वंश के कोली मुखियाओं की क्षत्रिय राजपूतों से अलग पहचान करना कठिन है जिनके साथ उनके नियमित अंतर्विवाह होते हैं.  
गुजरात के कोली
लेखक द्वय अंथोवन और डॉ. विल्सन मानते हैं कि गुजरात में मूलरूप से बसने वाले कोली और आदिवासी भील थे. रायबहादुर हाथीभाई देसाई पुष्टि करते हैं कि यह 600 वर्ष पूर्व शासक वनराज के समय में था. गुजराती जनसंख्या में बिल्कुल अलग जातीय समूहों का प्रतिनिधित्व करने वाले या तो वैदिक हैं या द्रविडियन हैं. इनमें नागर ब्रह्मण, भाटिया, भडेला, कोली,राबरी, मीणा, भंगी, डुबला, नैकडा, और मच्छी खारवा कबीले हैं. मूलतः पर्शिया से आए पारसी बहुत बाद में आए. शेष आबादी मूलनिवासी भीलों की है.

गुजरात के भील
डाँडी मार्च
जब बापू (एम.के. गाँधी) 9 जनवरी 1920 को दक्षिण अफ्रीका से लौटे तो उनके साथ वहाँ जो लोग थे वे भी लौट आए. बापू को हमारे लोगों के चरित्र के बारे में व्यक्तिगत जानकारी थी. इसलिए जब 1930 के डाँडी मार्च के स्थान का निर्णय करने का समय आया तो डाँडी को चुना जाना अचानक नहीं हुआ क्योंकि उस समय कई विकल्प थे और अन्य स्वार्थी पक्षों का दबाव भी था. बापू किसी परियोजना को सफलतापूर्वक पूरा करने में हमारे लोगों के साहस और गहरी समझ संतुष्ट थे. और यह प्रमाणित भी हो गया.
निष्कर्ष
अपनी वर्तमान स्थिति के लिए हम उच्च जातिओं पूरी तरह दोष नहीं दे सकते. इतिहास में यह होता आया है कि कभी शक्तिशाली रहे लोग पतन को प्रात हुए और पूरी तरह अदृश्य हो गए या अकिंचन बना दिए गए. इस संसार में जहाँ योग्ययतम की जीतका नियम है वहाँ लोगों को महान प्रयास करने होते हैं और कुर्बानियाँ देनी होती हैं ताकि वे बुद्धिमान नेतृत्व में एक हों और फिर से इतिहास लिखना शुरू करें.
हमारे पास हज़ारों स्नातक और व्यवसायी हैं, उच्च योग्यता वाले डॉक्टर, डेंटिस्ट, वकील और कुशल टेक्नोक्रैट हैं जो भारत और अन्य देशों में रह रहे हैं. वे सभी अपनी कुशलता का प्रयोग पैसा बनाने और भौतिक पदार्थों और अन्य छोटे सुखों के लिए कर रहे प्रतीत होते हैं. भौतिक सुविधाएँ आवश्यक हैं परंतु हमारी प्राथमिकता अपने धर्म, संस्कृति और परंपरा को बचाने की भी अवश्य होनी चाहिए.
हमारी वर्तमान पीढ़ी के संपन्न लोग स्वयं को अपने समाज के मशालची के तौर पर देखें और ऐसे सभी प्रयास करें कि आपसी संवाद स्थापित हो, एकता हो और अपने अतीत के गौरव को पुनः प्राप्त करने की ज़बरदस्त शक्ति बना जाए. अब यह हमारे लिए चुनौती है.  
पूरे आलेख (अँग्रेज़ी) के लिए कृपया यहाँ क्लिक करेंhttp://www.kolisamaj.org/myhistory/historyofkolis.html

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Koli Kori of India
मेघवंश एक सिंहावलोकन : लेखक आर. पी. सिंह (पीडीएफ पाठ)
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Aboriginal Tribes await freedom आज़ादी की बाट जोहते आदिवासी (मूलनिवासी)

Since morning I have sent good wishes to many friends.  But a thought haunts me whether all people In India got the freedom.
Scheduled tribes of India are aboriginals of this land. They were chased away from their places by other tribes from Central Asia who grabbed their lush green land, riches and comfortable positions and settled in Indian areas while aboriginals went bust and settled in difficult areas and climates.These difficult areas include inaccessible mountainous terrain, forests, the island in rivers, plateau terrain, desert, etc. Of course, no winds of social development reached in these areas. However, in the name of industrialization too, they live with their ancient poverty and exploitation. Government and administration at times shows them the provisions and evict them from their homes and habitat whereas contractors, who have intruded into these areas with projects, have with them administration, police, media and everything. With these people there is their poverty and helplessness.
There is no leader of their own who can unite them. In the name of leadership they got naxalism which was never led by members of these tribes. Naxalite leaders are from high castes that live in cities and sit in the parliament.Whenever their local leaders or these people raise local issues (in fact national issue) they are lines up in front of guns of security forces.
Members of these tribes have been victims of atrocities of government officials and the police. In this process they went on withdrawing and were further divided in different names. As a result they never become a vote bank.
Their condition is similar to that of SCs and OBCs but STs are the worst hit.They are victims of hunger and malnutrition. Most of the money provided through government projects is drained by corruption.
Intellectuals reach at a consensus that deliberations should be held on these issues. They still stick to their opinion and it is perhaps sufficient. These natives of India will have to make their path to progress through education and mutual solidarity i.e. vote bank. It is not good to expect from others.

आज सुबह से कई मित्रों को स्वतंत्रता दिवस की बधाई दे चुका हूँ. परंतु मन से एक विचार नहीं जाता था कि क्या भारत में सभी को आज़ादी मिल चुकी है?
भारत के आदिवासी इस भू-भाग के मूलनिवासी हैं. मध्य एशिया से आए अन्य कबीलों ने इन्हें खदेड़ा और इनके हरे-भरे, उपजाऊ और आरामदायक इलाकों में बस गए जबकि उजाड़े गए ये मूलनिवासी कठिन परिस्थितियों वाले क्षेत्रों में चले गए. इन क्षेत्रों में दुर्गम पहाड़ी इलाके, घने जंगल, नदियों के बीच की ज़मीन, बाढ़ वाले इलाके,पठारी इलाके, रेगिस्तानी क्षेत्र आदि शामिल हैं. ज़ाहिर है इन क्षेत्रों तक सामाजिक विकास की बयार नहीं गई. अलबत्ता औद्योगीकरण के रूप में इन क्षेत्रों के प्राकृतिक संसाधनों और इन लोगों की सनातन निर्धनता के शोषण की विषैली हवा चली. शासन तो जब चाहे नियम दिखा कर इन्हें घरों से बेदखल कर देता है जबकि परियोजनाएँ लेकर इनके क्षेत्रों में घुस आए ठेकेदार के साथ शासन, पुलिस, मीडिया आदि सब कुछ है और उसे प्राप्त है छूट सब कुछ लूटने की. इन जनजातियों के साथ भ्रष्टाचारी व्यवस्था से उपजी गरीबी और मजबूरी है.

इन्हें संगठित करने वाला इनका अपना कोई नेता भी दिखाई नहीं देता. नेतृत्व के नाम पर इन्हें नक्सलवाद ज़रूर मिला लेकिन उसका नेतृत्व इन मूलनिवासियों के पास नहीं है. इनके शीर्षस्थ नेता ऊँची जाति के हैं जो संसद में, शहरों में विराजमान रहते हैं. जब-जब ये मूलनिवासी अपने मुद्दों पर संगठित होने लगते हैं व्यवस्था इनके शीर्ष नक्सलवादी नेतृत्व को बौद्धिक समर्थक कह कर आँखें मूँदे रहती है लेकिन इनके स्थानीय नेताओं और साधारण आदिवासियों को सुरक्षा बलों की बंदूकों के सामने पंक्तिबद्ध करना नहीं भूलती.
आम आदिवासी सरकारी अधिकारियों और पुलिसिया अत्याचारों का जितना शिकार हुआ है उतना और कोई नहीं. मार खाते-खाते ये सिमटते गए हैं और साथ ही नामों के आधार पर बँटते गए हैं. यही कारण है कि इनका संगठित वोट बैंक नहीं है.
इनसे मिलता जुलता हाल अनुसूचित जातियों और अन्य पिछड़ी जातियों का भी है. लेकिन आदिवासियों की स्थिति सब से खराब है. ये कठिन भौगोलिक परिस्थितियों, समाजिक और शारीरिक अत्याचार, अशिक्षा, भुखमरी और कुपोषण का शिकार हैं और सरकारी विकास/राहत परियोजनाओं का अधिकतर पैसा भ्रष्टाचार द्वारा बीच में ही सोख लिया जाता है.

सारा बुद्धिजीवी वर्ग इस बात पर सहमत होता रहा है कि इनकी समस्याओं पर विचार मंथन होना चाहिए. इतना समय बीत जाने पर भी विचार मंथन पर सहमति कायम है, यह बड़ी बात है.
आगे का रास्ता मूलनिवासियों को शिक्षा, संगठन, राजनीतिक एकता और अपने वोट बैंक के ज़रिए स्वयं बनाना होगा. किसी से आशा करना ठीक नहीं.

जंगल चीता बन लौटेगा :  उज्जवला ज्योति तिग्गा

जंगल आखिर कब तक खामोश रहेगा
कब तक अपनी पीड़ा की आग में
झुलसते हुए भी
अपने बेबस आंसुओं से
हरियाली का स्वप्न सींचेगा
और अपने अंतस में बसे हुए
नन्हे से स्वर्ग में मगन रहेगा
….

पर जंगल के आंसू इस बार
व्यर्थ न बहेंगे
जंगल का दर्द अब
आग का दरिया बन फ़ूटेगा
और चैन की नींद सोने वालों पर
कहर बन टूटेगा
उसके आंसुओं की बाढ़
खदकती लावा बन जाएगी
और जहां लहराती थी हरियाली
वहां बयांवान बंजर नजर आएंगे
….

जंगल जो कि
एक खूबसूरत ख्वाब था हरियाली का
एक दिन किसी डरावने दु:स्वपन सा
रूप धरे लौटेगा
बरसों मिमियाता घिघियाता रहा है जंगल
एक दिन चीता बन लौटेगा
….

और बरसों के विलाप के बाद
गूंजेगी जंगल में फ़िर से
कोई नई मधुर मीठी तान
जो खींच लाएगी फ़िर से
जंगल के बाशिंदो को उस स्वर्ग से पनाहगाह में
……..
……..