Category Archives: Aboriginal tribes of India

Aboriginals of India killed again – भारत के मूलनिवासी फिर मारे गए

अनुसूचित जनजातियों के प्रति हमारा रवैया कैसा है उसका नमूना फिर असम में देखने को मिला. वहाँ हाल ही में हुई हिंसा में अब तक 41 लोग मारे गए हैं और हिंसा दूर-दराज़ के इलाकों में पहुँच गई है. दो लाख आदिवासियों को घर छोड़ कर भागना पड़ा है. हमले का उद्देश्य बोडो आदिवाससियों की ज़मीन पर कब्ज़ा करना था.
हमलावरों को पहले बंगलादेशी मुस्लिम बताया गया लेकिन बाद में पता चला कि वे स्वदेशी हैं और उन स्वदेशियों को इस बात का दुख है कि उन्हें बंगलादेशी कहा गया है.
हमलावर कोई भी रहा हो लेकिन मूलनिवासियों पर हमला हुआ है, उनकी ज़मीनें छीन लेने के लिए हमला हुआ है. चूँकि छीनी गई ज़मीनें अकसर वापस नहीं की जाती हैं अतः इस समस्या को इसी दृष्टि से देखना ज़रूरी है. यदि ये आदिवासी ऐसे ही उजड़ते रहे तो इंसानों की बस्तियों का क्या होगा?

आपको नहीं लगता कि भारत के ये आदिवासी केवल गणतंत्र दिवस पेरेड की झांकियों के लिए ही बचा कर रखे गए हैं और केवल वहीं अच्छे दिखते हैं? नहीं न?
 
काश! इन तक स्वतंत्रता का उजाला पहुँचता, इनके घरों तक विकास पहुँचने दिया जाता और ये भारत के लोकतंत्र में सुरक्षित महसूस करते. यदि ये नागरिक सुरक्षित नहीं, इनके घर सुरक्षित नहीं तो भारत के नागरिक कैसे समझ पाएँगे कि नक्सलवाद के पीछे लगे लोग ग़लत हैं.

Aboriginal tribes of India भारत के आदिवासी (मूलनिवासी)

आदिवासी क्षेत्र के विकास और शिक्षण-पोषण की योजनाएँ भ्रष्टाचार का बहुत बड़ा साधन हैं. योजनाएँ  लाने (मलाई खाने) में एनजीओ और सरकारी विभाग रुचि रखते हैं लेकिन उन्हें ईमानदारी से लागू करने में उनकी कोई रुचि नहीं है. दुराग्रहपूर्ण दृष्टिकोण रखने वाले भारतीय मीडिया ने सभी आदिवासियों को नक्सली छवि में रंग दिया है जिसका टॉप नेतृत्व बेकसूर बना रहता है लेकिन साधारण कार्यकर्ता को पुलिस की बंदूकों के सामने खड़ा किया जाता है. इस व्यवस्था में इनका क्या भला हो सकता है! ज़मीनी सचाई यह है कि इन आदिवासियों (मूलनिवासियों) को देश के मानव संसाधनों में न गिनने की प्रवृत्ति हमारे यहाँ है.
भारत का तथाकथित पढ़ा-लिखा (एक) वर्ग इनके बारे में बहुत कुछ कहता है लेकिन उसमें वास्तविकता के प्रति संवेदनशीलता का अभाव है. पिछले दिनों एक साइट पर भारत की आदिवासी जातियों पर कुछ आलेख देखने को मिले जिनमें सुंदर शब्दों में बहुत कुछ कहा गया था. लेकिन इनकी परंपराएँ (घोटुल) दिखाने के नाम पर आदिवासी महिलाओं के ऐसे ब्लैक एंड व्हाइट चित्रों का प्रयोग किया गया जिनके पास पहनने को कपड़े नहीं थे. लेखक की नीयत साफ़ झलक रही थी. भारत का ग़रीब से ग़रीब व्यक्ति कपड़े पहनता है बशर्ते उसके पास हो. ज़ाहिर है विद्वान लेखक को भारत की छवि नहीं चाहिए थी बल्कि आलेख के लिए मसालाचाहिए था.

उस साइट के लेखक ने इन आदिवासियों के पुराने, ब्लैक एंड व्हाइट, चित्रों का प्रयोग किया है. स्पष्टतः ये चित्र लेखक के नहीं थे. क्या भारत के ये मूलनिवासी लोग अपनी ग़रीबी की ऐसी फोटो खींचने की अनुमति आज देते हैं? नहीं. और क्यों दें? सामाजिक कार्यकर्ता जानते हैं कि बाहरसे यदि कोई आ जाए तो ये लोग पहले अपनी झोंपड़ियों में जाते हैं और जो भी बेहतर कपड़ा हो उसे पहन कर सामने आते हैं. काश लेखक ने इनकी समझदारी का सम्मान किया होता. इस बारे में मैंने उस साइट पर एक टिप्पणी लिखी थी जिसे हटा दिया गया. आपसे शेयर कर रहा हूँ कि जो मैंने लिखा था वह इसी पैरा में है. बाद में पता चला कि लेखक, जो स्वयं को आदिवासी मामलों का विशेषज्ञ बताता है, वास्तव में वहाँ लकड़ी का ठेकेदार है. यानि उन्हीं लोगों में से एक जिन्होंने आदिवासी क्षेत्रों को उजाड़ने के लिए कई हथकंडे अपनाए जिनमें ऐसे आलेख छपवाना भी शामिल था जो यहाँ के निवासियों को मानवता की सीमा से बाहर की चीज़ साबित कर सकें.  
उस साइट पर टिप्पणी करने वालों में ऐसे चेहरे भी दिखे जिन्होंने एक ब्लॉगर पर भद्दी टिप्पणियाँ की थीं. इसलिए उस साइट का लिंक नहीं दे रहा हूँ. यही बेहतर है.

इन क्षेत्रों की समस्या आप इन तीन वीडियोज़ में देख सकते हैं.
Between devil and deep sea-1
Between devil and deep sea-2
Between devil and deep sea-3


Aboriginal Tribes await freedom आज़ादी की बाट जोहते आदिवासी (मूलनिवासी)

Since morning I have sent good wishes to many friends.  But a thought haunts me whether all people In India got the freedom.
Scheduled tribes of India are aboriginals of this land. They were chased away from their places by other tribes from Central Asia who grabbed their lush green land, riches and comfortable positions and settled in Indian areas while aboriginals went bust and settled in difficult areas and climates.These difficult areas include inaccessible mountainous terrain, forests, the island in rivers, plateau terrain, desert, etc. Of course, no winds of social development reached in these areas. However, in the name of industrialization too, they live with their ancient poverty and exploitation. Government and administration at times shows them the provisions and evict them from their homes and habitat whereas contractors, who have intruded into these areas with projects, have with them administration, police, media and everything. With these people there is their poverty and helplessness.
There is no leader of their own who can unite them. In the name of leadership they got naxalism which was never led by members of these tribes. Naxalite leaders are from high castes that live in cities and sit in the parliament.Whenever their local leaders or these people raise local issues (in fact national issue) they are lines up in front of guns of security forces.
Members of these tribes have been victims of atrocities of government officials and the police. In this process they went on withdrawing and were further divided in different names. As a result they never become a vote bank.
Their condition is similar to that of SCs and OBCs but STs are the worst hit.They are victims of hunger and malnutrition. Most of the money provided through government projects is drained by corruption.
Intellectuals reach at a consensus that deliberations should be held on these issues. They still stick to their opinion and it is perhaps sufficient. These natives of India will have to make their path to progress through education and mutual solidarity i.e. vote bank. It is not good to expect from others.

आज सुबह से कई मित्रों को स्वतंत्रता दिवस की बधाई दे चुका हूँ. परंतु मन से एक विचार नहीं जाता था कि क्या भारत में सभी को आज़ादी मिल चुकी है?
भारत के आदिवासी इस भू-भाग के मूलनिवासी हैं. मध्य एशिया से आए अन्य कबीलों ने इन्हें खदेड़ा और इनके हरे-भरे, उपजाऊ और आरामदायक इलाकों में बस गए जबकि उजाड़े गए ये मूलनिवासी कठिन परिस्थितियों वाले क्षेत्रों में चले गए. इन क्षेत्रों में दुर्गम पहाड़ी इलाके, घने जंगल, नदियों के बीच की ज़मीन, बाढ़ वाले इलाके,पठारी इलाके, रेगिस्तानी क्षेत्र आदि शामिल हैं. ज़ाहिर है इन क्षेत्रों तक सामाजिक विकास की बयार नहीं गई. अलबत्ता औद्योगीकरण के रूप में इन क्षेत्रों के प्राकृतिक संसाधनों और इन लोगों की सनातन निर्धनता के शोषण की विषैली हवा चली. शासन तो जब चाहे नियम दिखा कर इन्हें घरों से बेदखल कर देता है जबकि परियोजनाएँ लेकर इनके क्षेत्रों में घुस आए ठेकेदार के साथ शासन, पुलिस, मीडिया आदि सब कुछ है और उसे प्राप्त है छूट सब कुछ लूटने की. इन जनजातियों के साथ भ्रष्टाचारी व्यवस्था से उपजी गरीबी और मजबूरी है.

इन्हें संगठित करने वाला इनका अपना कोई नेता भी दिखाई नहीं देता. नेतृत्व के नाम पर इन्हें नक्सलवाद ज़रूर मिला लेकिन उसका नेतृत्व इन मूलनिवासियों के पास नहीं है. इनके शीर्षस्थ नेता ऊँची जाति के हैं जो संसद में, शहरों में विराजमान रहते हैं. जब-जब ये मूलनिवासी अपने मुद्दों पर संगठित होने लगते हैं व्यवस्था इनके शीर्ष नक्सलवादी नेतृत्व को बौद्धिक समर्थक कह कर आँखें मूँदे रहती है लेकिन इनके स्थानीय नेताओं और साधारण आदिवासियों को सुरक्षा बलों की बंदूकों के सामने पंक्तिबद्ध करना नहीं भूलती.
आम आदिवासी सरकारी अधिकारियों और पुलिसिया अत्याचारों का जितना शिकार हुआ है उतना और कोई नहीं. मार खाते-खाते ये सिमटते गए हैं और साथ ही नामों के आधार पर बँटते गए हैं. यही कारण है कि इनका संगठित वोट बैंक नहीं है.
इनसे मिलता जुलता हाल अनुसूचित जातियों और अन्य पिछड़ी जातियों का भी है. लेकिन आदिवासियों की स्थिति सब से खराब है. ये कठिन भौगोलिक परिस्थितियों, समाजिक और शारीरिक अत्याचार, अशिक्षा, भुखमरी और कुपोषण का शिकार हैं और सरकारी विकास/राहत परियोजनाओं का अधिकतर पैसा भ्रष्टाचार द्वारा बीच में ही सोख लिया जाता है.

सारा बुद्धिजीवी वर्ग इस बात पर सहमत होता रहा है कि इनकी समस्याओं पर विचार मंथन होना चाहिए. इतना समय बीत जाने पर भी विचार मंथन पर सहमति कायम है, यह बड़ी बात है.
आगे का रास्ता मूलनिवासियों को शिक्षा, संगठन, राजनीतिक एकता और अपने वोट बैंक के ज़रिए स्वयं बनाना होगा. किसी से आशा करना ठीक नहीं.

जंगल चीता बन लौटेगा :  उज्जवला ज्योति तिग्गा

जंगल आखिर कब तक खामोश रहेगा
कब तक अपनी पीड़ा की आग में
झुलसते हुए भी
अपने बेबस आंसुओं से
हरियाली का स्वप्न सींचेगा
और अपने अंतस में बसे हुए
नन्हे से स्वर्ग में मगन रहेगा
….

पर जंगल के आंसू इस बार
व्यर्थ न बहेंगे
जंगल का दर्द अब
आग का दरिया बन फ़ूटेगा
और चैन की नींद सोने वालों पर
कहर बन टूटेगा
उसके आंसुओं की बाढ़
खदकती लावा बन जाएगी
और जहां लहराती थी हरियाली
वहां बयांवान बंजर नजर आएंगे
….

जंगल जो कि
एक खूबसूरत ख्वाब था हरियाली का
एक दिन किसी डरावने दु:स्वपन सा
रूप धरे लौटेगा
बरसों मिमियाता घिघियाता रहा है जंगल
एक दिन चीता बन लौटेगा
….

और बरसों के विलाप के बाद
गूंजेगी जंगल में फ़िर से
कोई नई मधुर मीठी तान
जो खींच लाएगी फ़िर से
जंगल के बाशिंदो को उस स्वर्ग से पनाहगाह में
……..
……..