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Capitalism and Brahmanism – पूँजीवाद और ब्राह्मणवाद

भूखे व्यक्ति का खाने की चीज़ चुराना कानून के विरुद्ध है लेकिन सारे गोदाम खाने की चीज़ों से भरे होने पर भी किसी को भूखे मरने देना पूरी तरह से कानूनी है.

इसे आम तौर पर ‘पूँजीवाद’ कहा जाता है. इसकी ‘अति’ ही संपत्ति का पूर्णाधिकार (absolute right to property) है. भारत में इसका नाम ‘मनुस्मृतिवाद (मानव धर्म)’, ‘ब्राह्मण-बनियावाद’ या ‘सामंतवाद’ है. अब यह इस बात पर निर्भर करता है कि जनता इस व्यवस्था के विरुद्ध कितनी असरदार आवाज़ उठाती है और आने वाली सरकारों से नीतियाँ बदलवाती है.

New face of casteism – जातिवाद का नया चेहरा


इस समस्या पर हम जब भी सोचते हैं
आशंकाओं के साथ सोचते हैं. यदि हम कहें कि जातिपाति जल्दी समाप्त होने वाली है तो ऐसा नहीं है. हमारी वर्तमान शासन व्यवस्था सदियों से मनुस्मृति से संचालित रही है. उसके प्रावधानों का हमारी परंपराओं पर गहरा प्रभाव है.
हमारे देश में छुआछूत एक अपराध है. लेकिन तत्संबंधी नियमों का उल्लंघन होने पर किसी को आज तक कोई दंड मिला हो ऐसा देखने में नहीं आया. आमिर खान के शो में और अन्यत्र भी दिया जा चुका अंतर्जातीय विवाहों का सुझाव एक कारगर उपाय है जो प्राकृतिक रूप से ज़ोर पकड़ रहा है. लेकिन उसके प्रभावी होने में काफी समय लगेगा.
मुख्य मुद्दा है धन के प्रवाह का. यदि सरकार आरक्षण के माध्यम से अनुसूचित जातियों/जनजातियों/अन्य पिछड़ी जातियों की ओर धन का प्रवाह होने देती है तो देश के मध्यम और धनाढ्य वर्ग के साथ-साथ उद्योग जगत को सस्ते श्रम (cheap labor) की उपलब्धता खतरे में दिखने लगती है. इसी लिए इन वर्गों की शिक्षा के स्तर को अच्छा नहीं होने दिया जाता चाहे उसके लिए कपिल सिब्बलाना सुधार ही क्यों न लागू करने पड़ें. इन वर्गों से टीचरों की भर्तियाँ कम ही की जाती हैं. गाँवों में टीचिंग स्टाफ स्कूल से अनुपस्थित रहता है और देश में एक जैसे पाठ्यक्रम लागू नहीं किए जाते. ये सब कुछ संकेत मात्र है कि सरकार इन ग़रीब वर्गों की हालत सुधारने के लिए प्रतिबद्ध नहीं है बल्कि इन वर्गों को ग़रीब और सस्ता श्रम बनाए रखने में ही उसकी रुचि लगती है.
सरकार का दूसरा हथकंडा है कि सरकार शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र को भी प्राइवेट सैक्टर के हाथों में सौंपती जा रही है. जबकि लोकतंत्र-प्रजातंत्र में सरकार की पहली ज़िम्मेदारी है कि वह पब्लिक को शिक्षा और स्वास्थ्य की सेवाएँ उचित कीमत पर देने की खुद व्यवस्था करे क्योंकि यह व्यवसाय के क्षेत्र में नहीं आता. कई पूँजीवादी व्यवस्था वाले देशों की सरकारें इस कर्तव्य का निर्वाह कर रही हैं. 

यदि सरकार यह नहीं कर सकती तो लोकतंत्र का अर्थ ही क्या रह जाता है. तब तो इसे निजीतंत्र का नाम देना उचित होगा जिसमें आम आदमी के हित में कोई नीति बनती ही नहीं.