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Interesting and dreadful images take away your money – रोचक और भयानक तस्वीरें आपका धन ले जाती हैं


यह तस्वीर शिव की है जिसके हाथ में त्रिशूल (हथियार) है, गले में साँप है, माथे पर चंद्र (Luna) है.  रंग काला है. कुछ गहने पहने हैं. कुछ दूरी पर शिवलिंग है. एक रोचक और भयानक बिंब. इस बिंब को बेचने वाला कितना धन कमाता है अनुमान लगाना कठिन है. कहते हैं कि भारत में सबसे अधिक मंदिर शिव के नाम से बने हैं.

बस में कार्यालय जाते समय रास्ते में एक हवेली आती थी जिसके बाहर बहुत बड़े बोर्ड पर लिखा था- बालब्रह्मचारिणी विषकन्या योगिनी. इसकी ओर ध्यान खिंचता था. एक दिन अपने सहकर्मी मूर्ति (एक ब्रह्मण) को कहा, देखिए भाई साहब, यह नाम कितना रोचक और भयानक लगता है. उन्होंने तुरत कहा, जी हाँ, और आकर्षित भी करता है.

धर्म किसी मानवोचित गुण को धारण करने का नाम है. लेकिन रोचक और भयानक धार्मिक कथाओं/चित्रों के साथ किसी को आकर्षित करना उससे जुड़ी एक प्रकार की दूकानदारी है, ठीक उसी प्रकार जैसे फिल्मों और टीवी सीरियलों का व्यापार. आकर्षक और रोचक विज्ञापन बनाना और उसे बार-बार दिखा कर लोगों, विशेषकर बच्चों के मन को आकर्षित/प्रभावित करना दार्घावधि में व्यापार को बढ़ाता और धन लाता है.

एक विज्ञापन की वास्तविक सफलता 25-30 वर्ष बाद दिखती है जब उसे देखने वाले बच्चे विज्ञापन से मिले विचारों को लेकर बड़े हो चुके होते हैं और उस उत्पाद या विज्ञापनदाता को धन देने की हालत में आ जाते हैं.

धर्म के क्षेत्र में विज्ञापन का विचार नया नहीं है. इसका प्रयोग सदियों से होता आया है. धार्मिक विज्ञापनों के माध्यम से धन कमाने वालों की संताने आज अरबपति हैं. विज्ञापनों के ज़रिए धन चढ़ाने का भाव स्वयं में पैदा कर चुके लोग करोड़ों में हैं. रिटेल में पैसा चढ़ाने वाले ये लोग उन लोगों को इतना अमीर बनाते हैं कि आगे चल कर ख़ुद उनकी अमीरी का मुकाबला नहीं कर पाते. यह ठीक उसी प्रकार होता है जैसे फिल्में बनाने वाले अमीर हो जाते हैं और फिल्में देखने वाले केवल टिकट पर खर्च करते हैं. कहने का मतलब है कमाऊ और बड़ा कमाऊ होना अधिक ज़रूरी है.

इन दिनों फेसबुक पर देखा है कि मेघ बच्चे और स्याने देवी-देवताओं की रोचक और भयानक फोटो यहाँ-वहाँ पेस्ट करते हैं. ये फोटो अधिकतर भयानक होती हैं. यानि ये लोग उन चित्रों से प्रभावित हैं और अन्य को भी उससे प्रभावित करना चाहते हैं. यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि एक डरा हुआ व्यक्ति दूसरों को अपने डर की ओर खींचता है.

ईश्वर से प्रार्थना है ये मेघ सज्जन पौराणिक कथाओं और देवी-देवताओं के भय से मुक्त हो जाएँ और इस बात को जानने की कोशिश करें कि इन धार्मिक प्रतीकों पर ध्यान देने के कारण गया हुआ पैसा अपने समुदाय के कल्याण के लिए कैसे वापस आ सकता है.

मेघों को ऐसा होना होगा कि  बचपन से ही उनकी सांसारिक विकास की तीसरी आँख खुली रहे.




Megh Bhagat


New face of casteism – जातिवाद का नया चेहरा


इस समस्या पर हम जब भी सोचते हैं
आशंकाओं के साथ सोचते हैं. यदि हम कहें कि जातिपाति जल्दी समाप्त होने वाली है तो ऐसा नहीं है. हमारी वर्तमान शासन व्यवस्था सदियों से मनुस्मृति से संचालित रही है. उसके प्रावधानों का हमारी परंपराओं पर गहरा प्रभाव है.
हमारे देश में छुआछूत एक अपराध है. लेकिन तत्संबंधी नियमों का उल्लंघन होने पर किसी को आज तक कोई दंड मिला हो ऐसा देखने में नहीं आया. आमिर खान के शो में और अन्यत्र भी दिया जा चुका अंतर्जातीय विवाहों का सुझाव एक कारगर उपाय है जो प्राकृतिक रूप से ज़ोर पकड़ रहा है. लेकिन उसके प्रभावी होने में काफी समय लगेगा.
मुख्य मुद्दा है धन के प्रवाह का. यदि सरकार आरक्षण के माध्यम से अनुसूचित जातियों/जनजातियों/अन्य पिछड़ी जातियों की ओर धन का प्रवाह होने देती है तो देश के मध्यम और धनाढ्य वर्ग के साथ-साथ उद्योग जगत को सस्ते श्रम (cheap labor) की उपलब्धता खतरे में दिखने लगती है. इसी लिए इन वर्गों की शिक्षा के स्तर को अच्छा नहीं होने दिया जाता चाहे उसके लिए कपिल सिब्बलाना सुधार ही क्यों न लागू करने पड़ें. इन वर्गों से टीचरों की भर्तियाँ कम ही की जाती हैं. गाँवों में टीचिंग स्टाफ स्कूल से अनुपस्थित रहता है और देश में एक जैसे पाठ्यक्रम लागू नहीं किए जाते. ये सब कुछ संकेत मात्र है कि सरकार इन ग़रीब वर्गों की हालत सुधारने के लिए प्रतिबद्ध नहीं है बल्कि इन वर्गों को ग़रीब और सस्ता श्रम बनाए रखने में ही उसकी रुचि लगती है.
सरकार का दूसरा हथकंडा है कि सरकार शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र को भी प्राइवेट सैक्टर के हाथों में सौंपती जा रही है. जबकि लोकतंत्र-प्रजातंत्र में सरकार की पहली ज़िम्मेदारी है कि वह पब्लिक को शिक्षा और स्वास्थ्य की सेवाएँ उचित कीमत पर देने की खुद व्यवस्था करे क्योंकि यह व्यवसाय के क्षेत्र में नहीं आता. कई पूँजीवादी व्यवस्था वाले देशों की सरकारें इस कर्तव्य का निर्वाह कर रही हैं. 

यदि सरकार यह नहीं कर सकती तो लोकतंत्र का अर्थ ही क्या रह जाता है. तब तो इसे निजीतंत्र का नाम देना उचित होगा जिसमें आम आदमी के हित में कोई नीति बनती ही नहीं.