Category Archives: इतिहास

Ancient History of Meghs – मेघों का पुराना इतिहास

पुराना इतिहास

मेरे प्यारे मेघ भाईबहनों और बच्चो! अब तक जो बातें मैंने लिखी हैंजिसके पढ़ने मेंजानने में और सोचने में आपका पर्याप्त समय लग गयाइसलिए लिखी हैं कि आपको विश्वास हो जाए कि आपके अन्दर जो यह इच्छा है कि हम कौन हैंमेघ जाति कब और कैसे बनीठीक है. आप यह सोचने का अधिकार रखते हैं.
इस बात को जानने के लिए पुराने साहित्य का सहारा लेना पड़ता है. मगर अनुभव में आया है कि पुराने साहित्य में जो कुछ लिखा हैउसमें स्वार्थवश तब्दीली की गई है और अब भी करते हैं. अन्य पुस्तकों की बात छोडिये सभी धर्मोंपंथों के पवित्र ग्रथों में कुछ ऐसी बातें लिखी हुई थीं जो समय आने पर यथार्थ सिद्ध न हुईं. उनको या तो निकाल दिया गया या उसका अर्थ बदल दिया गया. दूसरे ये जितनी पुस्तकें हैं सब स्वरों और वर्णों के मेल से लिखी जाती हैं. समय के मुताबिक लोगों के भावोंविचारों में तब्दीली आने के बादवो स्वर वर्ण तब्दील करने पड़ते हैं. ये वर्ण आदमी के बनाए हुए हैं. आदमी की अक्ल से बनी हुई कोई भी चीज़ सदा ठीक नहीं रहती. उसमें समय के मुताबिक तब्दीली लानी पड़ती है. ये पुरानी किताबें समय के मुताबिक लिखी हुई हैं जो देश और समाज के लिए इस समय हानिकारक सिद्ध हो रही हैंउनको बदला जाए. जो बातें अच्छी हैंदेश और समाज के लिए लाभप्रद हैंएकता और प्रेम सिखाती हैंउनको आम लोगों तक पहुँचाया जाए.
सत्ता प्राप्त होने पर कुछ लोगों ने पुराने साहित्य में तब्दीलियाँ  कीं. ऐसा स्वयं को ऊँचा और दूसरों को नीच बनाने के लिए किया गया. जिसकी लाठी उसकी भैंस. बलवान अपने बल के कारण जो चाहे कर सकता है. कमजोर को उसकी माननी पड़ती है. इसी असूल पर यह जातिवाद लिखा गया. ताकि उनकी सत्ता बनी रहे. भारत का इतिहास सिद्ध करता है कि समय-समय पर बाहर से लोग आएआक्रमण किएयहाँ की धरती पर कब्जा कर लिया और यहाँ के प्राचीन या आदिकाल से चलते आए निवासी दबा दिए गए. इसका उदाहरण अपने जीवन में मैंने देखा है. अब तो पाकिस्तान बन गया मगर इससे पहले जिला स्यालकोट में मेरे जन्मस्थान सुन्दरपुर गाँव के पास चिनाब दरिया के किनारे पर एक गांव था जिसका नाम कुल्लूवाल था. वहाँ पर काफी समय से मुसलमान जुलाहे रहते थे. गाँव की ज़मीन को भी वही संभालते थे. कुछ समय के बाद वहाँ हिंदू जाट आ गए और गाँव की जमीन में खेती का काम करना शुरू कर दिया. जुलाहों ने उनके आने पर खुशी मनाई क्योंकि जमीन फालतू पड़ी थी. उन्होंने समझा कि ये भी यहाँ रह करके अपना पेट पालेंगे. मगर जब महकमा माल का बन्दोबस्त आया तो भूमि और गाँव की मिल्कियत का सवाल आया. जुलाहों ने उस वक्त की सरकार के अधिकारियों को कहा कि इस गाँव में पर्याप्त समय से हम रह रहे हैं. हमारा एक पूर्वज जो पहले यहाँ आयाउसका नाम कुल्लु था और जुलाहा था. इसलिए यह गाँव भूमि समेत हमारा है. ये लोग किसान हैंअपना काम करें मगर भूमि के मालिक नहीं हो सकते. उन हिंदू जाटों ने कहा कि महाराज इस गाँव में जो हमारा पूर्वज पहले आया था उस समय यहाँ कोई नहीं था. हमारे पूर्वज ने एक झोंपड़ी या कुल्ली बनाई और फिर उस कुल्ली पर दो-तीन कुल्लियाँ और बना लीं और उस जगह का नाम कुल्लु मशहूर हो गया और गाँव का नाम कुल्लूवाल रखा गया. हम इस गाँव व ज़मीन के मालिक हैं. क्योंकि उनके हाथ में सत्ता थीगिनती में अधिक थेइसलिए बन्दोबस्त में गाँव और ज़मीन के मालिक बन गए. अब उस गाँव का इतिहास कहता है कि वहाँ के मालिक जाट थे जोकि ग़लत था और ज़बरदस्ती बनाया गया था.
इसी तरह हम मेघ जाति का कोई इतिहास किताबों से देखना चाहेंमाल के बन्दोबस्त या और जाति कोषों से पता करना चाहें तो उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता. किताबों में लिखा ग़लत भी हो सकता है और खास तौर पर जो लोग यह जानना चाहते हैं कि हम कौन हैंउनके लिए पुराने पुस्तकीय इतिहास काम नहीं देते. सन्त कबीर जो महान सन्त हुए हैं उन्होंने एक शब्द लिखा हैः-
मेरा तेरा मनुआ कैसे इक होई रे।।
मैं कहता हौं आँखन देखीतू कहता कागद की लेखी ।।
इसमें कबीर साहिब फरमाते हैं कि जो किताबों में लिखा हुआ है उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता.
मैं कहता सुरझावनहारीतू राख्यो उरझाई रे ।।
मैं वो बात कहता हूँ जिसे साक्षात्‌ देखकर पूरी शांति प्राप्त कर सकें और तुम किताबों में पढ़ कर वो बातें करते हो जिससे व्यर्थ उलझन पैदा हो जाए. किताबों में पढ़ कर कोई भी पूरे तौर पर शांति हासिल नहीं कर सकता.
मैं कहता तू जागत रहियोतू रहता है सोई रे।
मैं कहता निर्मोही रहियोतू जाता है मोही रे ।।
जुगन जुगन समझावत हाराकही न मानत कोई रे।
तू तो रण्डी फिरे बिहण्डीसब धन डारे खोई रे ।।
जो लोग किताबों में सच्ची बात या असलीयत की खोज करते हैंवो अपना सब कुछ खो बैठते हैं. ऐसे लोगों को कबीर साहिब रण्डी और बिहण्डी कहते हैं:-
सतगुरु धारा निर्मल बाहैवा में काया धोई रे।
कहत कबीर सुनो भाई साधोतब ही वैसा होई रे ।।
जिस वर्ण को तू जानने का इच्छुक हैउसका पता तो तब लगेगा जब जो शक्ल और वर्ण अपना समझ रखा है उसको धो डालेगा. हमें ये तरह-तरह के वर्ण मिलते हैंइनको धारण करकेधर्म की राह पर चल करहम इन वर्णों को धो सकते हैं और असली वर्ण जान सकते हैं और सच्चा सुख और शांति प्राप्त कर सकते हैं.
कबीर साहिब के इस शब्द से साबित हो गया है कि पुस्तकों में लिखे गए पुराने साहित्य हमारा पता नहीं दे सकते. इसी तरह मेघ वर्ण की बाबत जो कुछ किताबों में लिखा हुआ है उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता. इसलिए मैं आपको मेघ का वो वर्ण या रूप बताना चाहता हूँ जो हम आंखों से देखकर इन जाति-पाति के झगड़ों से निकल सकें.
(From Megh Mala written by Bhagat Munshi Ram)

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The first Megh – आदि मेघ

आदि मेघ

जिन भाई बहनों ने इस पुस्तक का पहला प्रकरण पढ़ लियासम्भव है उनके अन्दर आश्चर्य उत्पन्न हो कि बात क्या थी और मेघ शब्द की परिभाषा क्या की गई. प्रश्न तो यह है कि आदि मेघ अर्थात्‌ जो आदमी पहले मेघ बनाकहलाया या रूप में आया वो कौन थाक्या वो पहले किसी और जाति का था उसने किसी की सन्तान होते हुए अपना नाम मेघ रख दिया. यह प्रश्न आदि मेघ के शारीरिक रूप से संबंध रखता है.
यह ठीक है कि शारीरिक रूप में आदि मेघ की खोज करनी है ताकि वर्तमान मेघ जाति के भाई-बहनों को अपने आदि का पता लग जाए. यदि किताबों से पढ़ा जाए तब भी हमारी समस्या का हल पूर्ण रूप से समझ नहीं आता. एक जातिकोष नामी पुस्तक है. वह पुस्तक इस समय भी साधु आश्रमहोशियारपुरपंजाब की लाईब्रेरी से पढ़ी जा सकती है. इसके पृष्ठ 77 पर लिखा है कि इनका पूर्वज ब्राह्मण की सन्तान था. वह काशी में रहा करता था. उसके दो पुत्र थे एक विद्वान और दूसरा अनपढ़. पिता ने विद्वान पुत्र को पढ़ाने के लिए कहापर उसने पढ़ाने से इन्कार कर दिया. इस पर विद्वान पुत्र को अलग कर दिया. उसी की सन्तान मेघ है.
अगर यह ठीक है तो ब्राह्मण के विद्वान लड़के की सन्तान का नाम मेघ क्यों रखाक्या यह मेघ नाम बुरा या घृणासूचक है क्योंकि उसने अपने पिता की आज्ञा नहीं मानीक्या आज्ञा न मानने वाले को मेघ कहते हैंदूसरे क्या उस समय पहले से चली आ रही कोई मेघ जाति थी जिससे लोग घृणा करते थे. तो उस जाति के आधार पर घृणा सूचक नाम द्वारा पुकार कर उसका नाम मेघ रख दिया. जिस तरह अगर कोई उच्च जाति का आदमी कोई बुरा काम करे तो उसे नीच या चोर या डाकू या कोई और घृणित नाम से पुकारा जाता है. इस विचार से उस आदमी की जाति नहीं बदली जाती. केवल एक बुरे ख्याल या गाली के तौर पर ऐसा कहा. यदि काशी के ब्राह्मण ने अपने विद्वान पुत्र को इस तरह घृणित समझ कर उसकी सन्तान का नाम मेघ रख दिया और यह मेघ जाति पहले भी थीतो वो ब्राह्मण का विद्वान लड़का आदि मेघ नहीं हो सकता. इसलिए इस किताब में जो कुछ लिखा है उसे बुद्धि नहीं मानती. सम्भव है उसमें मनमानी की गई हो.
इस पुस्तक के शब्दों को ध्यानपूर्वक पढ़ें. इसमें लिखा हुआ है कि इस जाति का पूर्वज ब्राह्मण जाति का था. वह काशी में रहा करता था. उसके दो पुत्र थे. एक विद्वान और एक अनपढ़. जब विद्वान लड़के ने अनपढ़ भाई को पढ़ाने से इन्कार कर दिया तो पिता ने उसको अलग कर दिया. उसी की सन्तान मेघ है. इस जाति का पूर्वज तो ब्राह्मण था और वो विद्वान लड़का भी ब्राह्मण का पुत्र था. उसकी सन्तान मेघ नाम से कैसे मशहूर हो गई. इस समस्या का समाधान मेघ जाति के समझदार आदमी करें.
एक बात और भी है. उस पुस्तक में यह नहीं लिखा कि काशी के ब्राह्मण का विद्वान लड़का जम्मू में आकर बसा या किसी और प्रान्त में चला गया. वहाँ पर उसने किस जाति की स्त्री से विवाह किया. अगर मेघ जाति की स्त्री से शादी की और सन्तान पैदा की तो इसका स्पष्ट अर्थ है कि मेघ जाति पहले भी वहाँ पर थी. इसलिए वो आदमी आदि मेघ नहीं हो सकता है.
हाँएक बात समझ में आती है कि काशी के ब्राह्मण का एक लड़का विद्वान था. जब विचारों को किसी भाषा में लिखा जाता है तो एक-एक बात के कई अर्थ निकलते हैं. विशेषकर जो महापुरुष आध्यात्मिकता का ज्ञान रखते हैंउनकी आध्यात्मिकता की बातों को समझना कठिन है. वो काशी के ब्राह्मण का विद्वान लड़का कौन सी विद्या जानता थायदि वो विद्या इन कग द्वारा अक्षरों से लिखी हुई होती तो उसको दूसरों को पढ़ाना कोई कठिन नहीं था. वो यह बाहर की विद्या तो पढ़ा सकता था. ब्राह्मण दो प्रकार के होते हैं. पहला वह जो ब्राह्मण जाति में उत्पन्न हुआ है और आगे उसने अपनी पत्नी ब्राह्मणी के पेट से सन्तान उत्पन्न की. दूसरा ब्राह्मण वो होता है जो ब्रह्म में रमण करता हैवो किसी भी जाति का हो सकता है.
जाति पांति पूछे नहिं कोय, हर को भजे सो हर का होय।
वो काशी का जो ब्राह्मण थावो ऐसा ब्राह्मण नहीं था जो ब्रह्म में रमण करता हो अगर उसके विद्वान लड़के को सच्चा ब्राह्मण मान लिया जाए तो वह ब्रह्म में रमण करता था और ब्रह्म में रमण करने के कारण उसकी सन्तान वास्तव में ब्रह्म की ही उत्पत्ति कहलाती. जितने भी भाव-विचार ऐसे महापुरुषों के अन्दर उठते हैंवो भी उनकी उत्पत्ति ही होती है या सन्तान ही होती है. हम सब संतान पैदा करते हैंकिसी ख्याल के अधीन ही करते हैं. इस दृष्टि से मेघ जाति के लोग ब्रह्म की ही सन्तान हैं. जैसा कि ऊपर लिख आए हैं कि सारी सृष्टि ब्रह्म से ही पैदा होती है. उस विद्वान लड़के को आत्मज्ञान हो चुका था. आत्मविद्या हर एक को नहीं पढ़ाई जा सकतीचाहे अपने कितने भी निकट संबंधी हों. प्राचीन काल से आप देख सकते हैं कि जो आत्मज्ञान रखते थे वे केवल एकाध को आत्मविद्या पढ़ा सके. ऋषियोंमुनियोंसाधु-सन्तों के इतिहास में यह बात देखी गई है.
आत्मज्ञान की विद्या ग्रहण करने के लिए एक तो अधिकार और संस्कार चाहिए. दूसरेअपनो को यह विद्या पढ़ाने में निज स्वार्थ काम करता है. आत्मज्ञान को निज स्वार्थ के लिए नहीं दिया जा सकता. तीसरेयदि आत्मज्ञान अपनी सन्तानअपने भाई आदि को पढ़ाया जाए तो उनको विश्वास भी नहीं आताक्योंकि वो उसे शारीरिक रूप में संबंधी समझते हैं. ऋषि वेद व्यास जी महाराज ने अपने लड़के शुक देव को स्वयं यह विद्या नहीं पढ़ाईबल्कि उसे इस काम के लिए राजा जनक के पास भेजा. जिसको आत्मज्ञान हो जाता हैउसकी रहनी क्या हो जाती हैगीता के अनुसार वो समझ जाता है कि मेरी आत्मा अजर-अमर है.
न जायते म्रियते वा कदाचिन, न अयं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतः अयं पुराणो, न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।
वो जान जाता है कि आत्मा न जन्मती हैन मरती है. न ही कभी उत्पन्न हुईन हैन होगी. वो अजर हैनित्य है और शरीर के मरने पर भी नहीं मरती. अब आप समझ सकते हैं कि यह विद्या हर एक को पढ़ानी कठिन है. इसी तरह काशी के ब्राह्मण का विद्वान लड़का आत्मज्ञानी होने के कारण अपने अनपढ़ भाई को विद्या न पढ़ा सका. ऐसे लोग अपने आप अलग हो जाते हैं. अलग होने का अर्थ लड़ाई झगड़ा करके घर छोड़ना नहीं है बल्कि इस जाति पांति से अलग होना है. यदि उसने सन्तान पैदा कीतो वो अपनी सन्तान को बुरा संस्कार नहीं देता. अगर उसकी सन्तानें आत्मविद्या की अधिकारी न भी हों तो वो उनका नाम ऐसा रखता है जिससे उनको अच्छा संस्कार मिले. यदि उसने अपनी सन्तान का नाम मेघ रखा तो मेघ नाम कोई बुरा संस्कार देने वाला नहीं है. हर एक नाम अपने-अपने गुणदोष रखता है. मैंने इसलिए मेघ जाति की मेघ से तुलना की कि वह आकाश से वर्षा करता है. यदि उस विद्वान लड़के ने अपनी सन्तान को उन मेघों का संस्कार दिया तो इससे यह समझा जा सकता है कि मेघ आते हैंबरसते हैं और चले जाते हैं. इसी तरह सब मानव जाति के लोग इस संसार में आते हैं अपना काम करते हैं और चले जाते हैं. इसलिए विश्वास हो गया कि जो कुछ मैंने पहले प्रकरण में लिखावह ठीक है.
जम्मू प्रान्त के रहने वाले लोग इस प्रकार की और बातें भी करते हैं. मैं जम्मू में रहा. दो वर्ष वहाँ पढ़ता रहा. वहाँ लोग सुनाया करते थे कि यह मेघ जाति ब्राह्मण की सन्तान है. प्राचीन काल में कोई ब्राह्मण वहाँ गया. उस समय यह मशहूर था कि ब्राह्मण यज्ञों में गौ की बलि देते हैं और बाद में गौ को जीवित कर देते हैं. एक बात समझ में आई कि गौ इन्द्रियों को कहते हैं. सन्त तुलसीदास ने भी लिखा है :-
गो गोचर जहँ लग मन जाई। माया कृत सब जानियों भाई ।।
जहाँ तक ये इन्द्रियाँ और मन काम करता हैसब माया है. माया कहते हैं जो है तो नहींमगर भासती है. जब योग अभ्यास करने वाले महापुरुष सब इन्द्रियों और मन के ख्यालों को समेट कर आत्मिक अवस्था में जाते हैं तो इन्द्रियों को एकाग्र करने का अर्थ गौ की बलि लिया जाता है और जब समाधि से उत्थान होता है इन्द्रियाँ अपनी अपनी जगह काम करने लग जाती हैतो उसको गौ जीवित कर देना कहा गया है यह यज्ञ क्या है. एक तो बाहर में अग्नि जलाकर उसमें सामग्री और घी की आहुति डालते हैं. मगर वास्तविक यज्ञ वो होता है जिसमें अपने अन्दर ज्योति प्रकट करके उसमें अपने मन के विचारों और भावों की आहुति दी जाती है. इसलिए ये कहानियाँ विश्वास योग्य नहीं है. हो सकता है कि अपनी जाति को ब्राह्मणों से जोड़ने के लिए यह कहानियाँ बताई गई हों या जिस तरह मैंने लिखा हैसत्य हो.
मेघ जाति के विषय में एक और भी कथा सुनाई जाती है. पहले इन राजाओं के पास जम्मू रियासत ही थी. यह कश्मीर का इलाका बाद में उन्होंने ख़रीदा था. जम्मू के प्रथम राजा के विषय में सुनाया जाता है कि उसके अंगरक्षक बड़े बहादुर नौजवान थे. जब भी राजा को उनकी सेवा की आवश्यकता होतीआदेश मिलने पर वो एकदम रक्षा करते थे और जिन आदमियों से ख़तरा होता उनको झटपट पकड़ लेते थेसज़ा देते थे. उनसे उधर के लोग बहुत डरा करते थे और उनको कहा करते थे कि ये मेघ हैं मेघ. जिस तरह आकाश से ऊँचे पहाड़ों की तरफ़ से अकस्मात मेघ बरसने शुरू हो जाते हैंऊपर छाये रहते हैंइसी तरह ये अंग रक्षक भी अकस्मात बरसने लग जाते हैं. अपराधी को पकड़ लेते हैं क्योंकि वो लोग भी ऊँचे पहाड़ों पर रहने वाले थे वहाँ की स्थिति के अनुसार और संस्कारों की वजह से उन अंगरक्षकों को मेघ जाति का कहते थे. उसके बाद उन अंगरक्षकों की जो सन्तान हुई वो भी बहादुरी का संस्कार प्रचलित रखने के लिए मेघ कहलाए. ये जातियाँ और उपजातियाँ इसी तरह बनीं. दूसरी सवर्ण जातियों में भी देखा जाता है कि अपने पूर्वजों के नाम प्रचलित हुए. ब्राह्मणों में जिसने एक वेद पढ़ा वो वेदीजिसने दो वेद पढ़े वो द्विवेदीजिसने तीन वेद पढ़े वे त्रिवेदी और जिसने चार वेद पढ़े वो चतुर्वेदी. इसी तरह हर एक जाति और उपजाति के पीछे कोई न कोई घटना हैकोई काम है जिससे उनके नाम मशहूर हो गये. इसलिए इन घटनाओं या कहावत को हम ग़लत नहीं कह सकते. प्राकृतिक संस्कारों के अनुसार भी यह ठीक है.
अब इस प्रश्न को कि मेघ जाति के लोग शारीरिक रूप में कब से बनेआदि मेघ कौन थामैं अपने जीवन के अनुभव के आधार पर लिखूँगा. मेरा जन्म पंजाब में तहसील और जिला स्यालकोट के सुन्दरपुर गांव में 1906 में हुआ. मेरे पिता का नाम श्री मँहगा राम और दादा का नाम श्री नत्थूराम था. ज़मीन अपनी थी. खेती का काम करते थे. कोई समय के बाद मेरे पिता जी ने ठेकेदारी का काम शुरू किया और 40 वर्ष यह काम करते रहे. आर्थिक दशा अच्छी थी. मेरे दादा साधु थे. वे कई तीर्थ स्थानों पर गए और एक दफा सरहन्द में जहाँ गुरु गोविन्द सिंह जी महाराज के दो लड़के दीवार में चिनवाए गए थे वहाँ लगातार एक महीना उस दीवार को तोड़ते रहे. सुबह ईँटें उखाड़ कर सिर पर रख लेते थे और चल देते थे. जहाँ शाम पड़ती थी ईंटें फेंक देते थेऔर दूसरे दिन वापिस सरहन्द आ जाते थे. उस समय हिन्दु और सिख में नाम मात्र को भी भेद नहीं था. हमारी जाति के निकट गाँव के रहने वाले लोग मेरे दादा जी को गुरु मानते थे. यह सुन्दरपुर गाँव नहरअपर चिनाब और चिनाब नदी के किनारे पर था. वहाँ से थोड़ी दूर त्रिवेणी थी अर्थात्‌ तीन नदियाँ चिनाब दरयाजम्मू तवी और मनावर तवी मिलते थे. वहाँ पर कई साधुसन्त-महात्मा आया करते थे और तप किया करते थे. हमें मेघ जाति के और साकोलिया उपजाति का कहा करते थे. जम्मू की तरफ से हमारा ब्राह्मण पुरोहित हर साल आता था और एक मुसलमान मिरासी भी आया करता था. वे हमारी वंशावली पढ़ कर सुनाया करते थे और आखिर में हमारी जाति को सूर्यवंश से मिलाते थे. यह सूर्यवंशी खानदान श्री रामचन्द्र जी के वंश से संबंध रखता है. उस समय मैं नहीं समझ सकता थामगर अब अपने जीवन के अनुभव के आधार पर यकीन होता जा रहा है कि हम मेघ जाति के लोग सब सूरजवंशी हैं.
भगत मुंशीराम 

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From Megh -Mala – मेघ-माला से

पाकिस्तान में हमारे गाँव के पास एक ढल्लेवाली गाँव था. वहाँ के ब्राह्मणोंहिन्दु जाटों और महाजनों ने चमारों और हरिजनों या सफाई करने वालों को तंग कियाऔर गाँव से निकल जाने के लिए कहा. उन्होंने स्यालकोट शहर में जाकर जिला के डिप्टी कमिश्नर को निवेदन किया. उसने अंग्रेज़ एस. पी. और पुलिस भेजी. वे गाँव से न निकले मगर अपना काम बन्द कर दिया. विवश होकर उन बड़ी जाति वालों को अपने मरे हुए पशु स्वयं उठाने पड़े और अपने घरों की सफाई आप ही करनी पड़ीं. यह काम करने पर भी वे बड़ी जातियों के बने रहे. कोई नीच या अछूत नहीं बन गए. ये सब स्वार्थ के झगड़े हैं. दूसरों को, दूसरी जातियों को आर्थिक या सामाजिक दशा का संस्कार दे देना और उनको दबाए रखनाअपने काम निकालना यह समय के मुताबिक रीति-रिवाज़ बना रहा. अब अपना राज्य हैप्रजातन्त्र है. हर एक व्यक्ति जातिसमाज या देशवासी को यथासम्भव उन्नति करने का अधिकार है. रहने का अच्छा स्तररोटीकपड़ा और मकान प्राप्त करना सब के लिए ज़रूरी है. अभिप्राय यह है कि अपना जीवन अच्छा बनाने के लिए रोटीकपड़े और मकान के लिएआर्थिक दशा सुधारने के लिएअनुसूचित जाति में आने के लिए कई जातियाँ मजबूर थीं. जो लोग उनको नीच या अछूत कहते हैं यह उनकी अज्ञानता है. सबको प्रेमभाव से रहना चाहिए.

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Meghs and Cause of Caste differentiation – जाति भेद का मूल कारण और मेघ

जाति भेद का मूल कारण

इस संसार में जो भी जीव-जन्तु हैंकई रूपरंगवर्ण रखते हैं. उनके समूह को ही जाति कहा गया है. जलथलआकाश के जीव अपनी-अपनी जातियाँ रखते हैं. पशु-पक्षियों और जल में रहने वाले मच्छकच्छव्हेल मछली जैसी जातियाँ पाई जाती हैं. मनुष्य जाति में अनेक जातियाँ बन गई हैं. अलग-अलग देश और प्रांत होने के कारणकर्मभाषावेशभूषा के कारण कई जातियाँ बन गईं जिनकी गणना सरकार का काम है. अलग-अलग और नाना जातियाँ बनने का मूल कारण यह है कि ये जितने रंगरूप और शरीर वाले जीव हैंये स्थूल तत्त्वों से बने हैं. इनके मनबुद्धिचित्तअहंकारविचारभाव सूक्ष्म तत्त्वों से बने हैं. इनकी आत्माएँ कारण तत्त्वों से बनी हैं और प्रत्येक जीव जन्तु में ये जो पाँच तत्त्व हैंपृथ्वीजलअग्निवायु और आकाश. इनका अनुपात एक जैसा नहीं होता. सबका अलग-अलग है. किसी में वायु तत्त्व और किसी में आकाश तत्त्व अधिक है. इन्हीं के अनुसार हमारे गुणकर्मस्वभाव अलग-अलग होते हैं. गुण तीन हैं. सतोगुणरजो गुण और तमोगुण. किसी के अन्दर आत्मिक शक्तिकिसी में मानसिक शक्तिकिसी में शारीरिक शक्ति अधिक होती है. इसी तरह कर्म भी कई प्रकार के होते हैं. अच्छेबुरेचोरडाकूकामक्रोधलोभमोहअहंकार भी किसी में अधिक, किसी में कम. किसी में प्रेम और सहानुभूति कम है किसी में अधिक. इस वक़्त संसार में कई देश चाहते हैं कि हम दूसरों पर विजय पा लें. तरह-तरह के ख़तरनाक हथियार बन रहे हैं. इन सब चीजों का यही मूल कारण है. यह प्राकृतिक भेद है. कहा जाता है कि जो जैसा बना है वैसा करने पर मजबूर है. जिस महापुरुष का शरीरमन और आत्मा इन तत्त्वों से इस प्रकार बने हैंजो समता या सन्तुलित रूप में हैं, उस महापुरुष को संत कहते हैं. प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर वासना उठती है और उसी वासना (कॉस्मिक रेज़) से सकारात्मक व नकारात्मक शक्तियाँ पैदा होती हैं जो स्थूल पदार्थों की रचना करती रहती हैं. वासना एक जैसी नहीं होती. इसलिए भिन्न-भिन्न प्रकृति के लोग उत्पन्न हो जाते हैं और नाना जातियाँ बन जाती हैं.
अब प्रश्न पैदा होता है कि क्या इसका कोई उपाय हो सकता है कि संसार में (पशुपक्षीऔर मच्छकच्छ को छोड़ दें) मनुष्य जाति में प्रेमभाव पैदा हो जाए और सब एक-दूसरे की धार्मिकसामाजिकजातीय और घरेलू भावनाओं का सत्कार करते हुए आप भी सुखपूर्वक जीएँ और दूसरों को सुखपूर्वक जीने दें. मेरी आत्मा कहती है कि हाँइसका हल है और वह है मेघ जाति को समझना कि यह जाति कब और कैसे और किस लिए बनीजिसको मैं इस लेख में विस्तारपूर्वक वर्णन करने का यत्न अपनी योग्यता अनुसार करूँगा. दावा कोई नहीं.
मेघ जाति
आप इस लेख को अब तक पढ़ने से समझ गए होंगे कि जातियों के नाम कहीं देशकहीं प्रान्तकहीं आश्रमकहीं वेशभूषाकहीं भाषा और कहीं रंग से हैं. जैसे आजकल दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद को लेकर गोरे और काले रंग के लोगों की जाति वालों में लड़ाई झगड़े हो रहे हैं. अभिप्राय यह है कि जातियों के नाम किसी न किसी कारणवश रखे गए और कोई नाम देना पड़ा. अब सोचना यह है कि मेघ जाति का मेघ नाम क्यों रखा गयाक्या यह कर्म पर या किसी और कारण से रखा गया? मनुष्य द्वारा बनाई गई भाषा के अनुसार मेघ एक गायन विद्या का राग भी हैजिसे मेघ राग कहते हैं. मेघ बादल को भी कहते हैं. जिससे वर्षा होती है और पृथ्वी पर अन्नवनस्पतियाँवृक्षफलफूल पैदा होते हैं. नदी नाले बनते हैं. जब सूखा पड़ता हैअन्न का अभाव हो जाता है तो धरती पर रहने वाले बड़ी उत्सुकता से मेघों की तरफ देखते हैं कि कब वो अपना जल बरसाएँ. जब मेघ आकाश में आते हैं और गरजते हैं तो लोग खुश हो जाते हैं और प्रार्थना करते हैं कि जल्दी वर्षा हो जाए. जब वर्षा होती है तो उसकी गर्जना भी होती है. योगी लोग जब योग अभ्यास करते हैं वो योग अभ्यास चाहे किसी प्रकार का भी हो उन्हें अपने अन्दर मेघ की गर्जना सुनाई देती है. उस जगह को त्रिकुटी का स्थान कहते हैं. गायत्री मंत्र के अनुसार यही सावित्री का स्थान हैः-
ओं भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
इसका अर्थ यह है कि जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति से परे जो सूरज का प्रकाश है उसको नमस्कार करते हैं. वही हमारी बुद्धियों का प्रेरक है. उस स्थान पर लाल रंग का सूरज दिखाई देता है और मेघ की गर्जना जैसा शब्द सुनाई देता है. सुनने वाले आनन्द मगन हो जाते हैं क्योंकि वो  सूक्ष्म सृष्टि के आकाश में सूक्ष्म मेघों की सूक्ष्म गर्जना होती है सुनने से मन एकत्रित हो जाता है. यह गर्जना हमारे मस्तिष्क में या सिर में सुनाई देती है. तीसरे, हर एक आदमी हर वस्तु को ध्यानपूर्वक देख कर उसका ज्ञान प्राप्त करना चाहता है कि यह कैसे और किन-किन तत्त्वों से बनी है. जिस तरह हिमालय पर बर्फ होती है ऊपर जाने पर या वहाँ रहने वालों को बर्फ का ज्ञान होता हैउससे लाभ उठाते हैं. बर्फ पिघल करपानी की शक्ल में बह करनीचे आकर भूमि में सिंचाई के काम आती है. इसी तरह मेघालय हमारे भारत देश का प्रांत है जो बहुत ऊँचे पहाड़ों से घिरा हुआ है. वहाँ के रहने वाले लोगों को मेघ का ज्ञान होता हैवहाँ मेघ छाए रहते हैंगरजते हैंवर्षा करते हैं इत्यादि. इसी के नाम पर मेघालय उसका नाम है. सम्भव है वहाँ के वासी भी मेघ के नाम से पुकारे जाते हों.
तो मेघ शब्द क्यों और कैसे बनाजितना हो सका लिख दिया. प्राचीन काल से हिन्दू जाति में यह नाम बहुत लोकप्रिय है. अपने नाम मेघ रखा करते थे. अब भी मेघ नाम के कई आदमी मिले. रामायण काल में भी यह नाम प्रचलित था. रावण उच्च कोटि के ब्राह्मण थेउन्होंने अपने लड़के का नाम मेघनाद रखा. उन्होंने अपने लड़के को बजाए मेघ के मेघनाद का संस्कार दिया. वो बहुत ऊंचे स्वर से बोलता था. जब लंका पर वानर और रीछों ने आक्रमण किया तो मेघनाद गरजे और रीछों और वानरों को मूर्छित कर दिया. पूरा हाल आप राम चरित मानस से पढ़ लें. नाद का अभिप्राय यह भी है कि ऊँचे स्वर से बोलकर या कड़क कर हम दूसरों को परास्त कर सकते हैं जैसे मेघ जब कड़क कर गर्जन करते हैं तो हृदय में कम्पन पैदा होता हैघबराहट आ जाती है. कई सन्तों ने मेघों के बारे में लिखा है. इनकी आवश्यकता और प्रधानता दर्शाई हैः-
सुमरिन कर ले मेरे मनातेरी बीती उमर हरिनाम बिना।
देह नैन बिनरैन चन्द्र बिनधरती मेघ बिना ।
जैसे तरुवर फल बिन होनावैसा जन हरिनाम बिना।
कूप नीर बिनधेनु क्षीर बिनमन्दिर दीप बिना।
जैसे पंडित वेद विहीनावैसा जन हरिनाम बिना ।।
काम क्रोध मद लोभ निवारोछोड़ विरोध तुम संशय गुमाना।
नानक कहे सुनों भगवंताइस जग में नहीं कोऊ अपना ।।
इन शब्दों में गुरु नानक देव जी ने मेघ की महिमा गाई है. धरती मेघ के बिना ऐसे ही है जैसे हमारा जीवन हरिनाम बिना निष्फल और अकारथ हो जाता है. इसमें और भी उदाहरण दिए हैं ताकि मेघ की महानता का पता लग सके. कबीर सहिब का भी कथन हैः-
तरुवरसरवरसन्तजनचौथे बरसे मेंह।
परमारथ के कारणेचारों धारें देह ।।
साध बड़े परमारथीघन ज्यों बरसे आय,
तपन बुझावे और कीअपना पौरुष लाय ।।
मेघ जाति का नामकरण संस्कार
प्राचीन काल में मनुष्य जाति के कुछ लोग जम्मू प्रदेश में ऊँचे पहाड़ी भागों में निवास करते थे. उस समय दूसरे गाँव या दूसरे पहाड़ी प्रदेश के लोगों से मिलना नहीं होता था. जहाँ जिसका जन्म हो गयाउसने वहीं रहकर आयु व्यतीत कर दी. हमने आपनी आयु में देखा हैलोग पैदल चलते थेदूर जाने के कोई साधन नहीं थे. बच्चों को पढ़ाया भी नहीं जाता था. कोई स्कूल नहीं थे. रिश्ते नाते छह-सात मील के अन्दर हो जाते थेजहाँ पैदल चलने की सुविधा होती थी. उस समय जो लोग ऊँचे पहाड़ी प्रदेशों में थेउनको भी वहीं पर ज्ञान हो जाता था. दूर की बातें नहीं जानते थे. इन ऊँचे पहाड़ी इलाकों में मेघ छाए रहते थे और बरसते रहते थे. वहाँ के वासियों के जीवन मेघों का संस्कार ग्रहण करते थे. उनको केवल यही समझ होती थी कि ये मेघ कैसे और किन-किन तत्त्वों के मेल से बनकर आकाश में आ जाते हैं और इनके काम से क्या-क्या लाभ होते हैं और क्या-क्या हानि होती है. जैसी वासी वैसी घासी. मेघों के संस्कार उन लोगों के हृदय और अन्तःकरण में घर कर जाते थे. जो मेघों का स्वभावपरोपकार का भावठंडकआप भी ठंडे रहना और दूसरों को भी ठंडक पहुँचानाउन लोगों की वैसी ही रहनी हो जाती थी क्योंकि दूसरे लोग जो उनके सम्पर्क में आ जाते थे उनको शांतिखुशीठंडक मिलती थी. इसलिए वो उन ऊँचे पहाड़ों पर रहने वाले लोग स्वाभाविक तौर पर मेघ के नाम से पुकारे जाते थे. यह नाम किसी व्यवसाय या कर्म के ख्याल से नहीं है. यह मेघ नाम मेघों से लिया गया और वहाँ के वासियों को भी मेघ कहा गया. ज्यों-ज्यों उनकी संतान की वृद्धि होती गईवे नीचे आकर अपनी जीवन की यात्रा चलाने के लिए रोटीकपड़ा और मकान की ज़रूरत के अधीन कई प्रकार के काम करने लगे. किसी ने खेतीकिसी ने कपड़ाकिसी ने मज़दूरीऔर वो अब नक्शा ही बदल गया. अब इस जाति के लोग धीरे-धीरे उन्नति कर रहे हैं. पुराने काम काज छोड़ कर समय के मुताबिक नए-नए काम कर रहे हैं और मालिक की दया से और भी उन्नति करेंगेक्योंकि इनको मेघों से ऊँचा संस्कार मिला. ऊपर जो कुछ लिखा है उससे यही सिद्ध होता है कि समय-समय पर हर जाति के लोग अपना काम भी बदल लेते हैं. मेघ जाति का यह नाम प्राकृतिक हैस्वाभाविक ही पड़ा. यह किसी विशेष कार्य से संबंध नहीं रखता.
मेघ कैसे बनते हैं
इस धरती पर सूरज की गरमी से जब धरती में तपन पैदा हो जाती है तो स्वाभाविक ही वो ठंडक चाहती है और ठंडक जल में होती है. वह गर्मी समुद्र की तरफ स्वाभाविक ही जाती है और वहाँ की ठंडक गर्मी की तरफ जाने लग जाती है और इससे वायु की गति बन जाती है और वह चलने लग जाती है. हवा तेज़ होने पर अपने साथ जल को लाती है या वह अपने गर्भ में जल भर लेती है और उड़ कर धरती की तपन बुझाने के लिए उसका वेग बढ़ जाता है. मगर उन हवाओं में भरा जल तब तक धरती पर नहीं गिर सकता जब तक कि जाकर वो ऊँचे पर्वतों से न टकराएँ. उसका वेग बंद हो जाता है. आकाश में छा जाता है. जब यह दशा होती है कि अग्निवायु और जल इकट्‌ठे हो जाते हैंइनकी सम्मिलित दशा को मेघ कहते हैं. मेघ केवल अग्नि नहीं हैकेवल वायु नहींकेवल जल नहींबल्कि इन सबके मेल से मेघ बनते हैं. जब ऊपर मेघ छाए रहते हैंतो हवा को हम देख सकते हैंअग्नि को भी देख सकते हैंइन सबके मेल से जो मेघ बना था उसे भी देख सकते हैं. जब वर्षा खत्म हो गईमेघ जल बरसा लेता हैतो न मेघ नज़र आता हैन वायुन अग्नि. आकाश साफ़ हो जाता है. वो मेघ कहाँ गयाइसका वर्णन आगे किया जायेगा कि वे कहाँ गए. मेघ ने अपना वर्ण खोकर पृथ्वी की तपन बुझाई. पृथ्वी पर रहने वाले जीवों की आवश्यकताओं को पूरा किया और उनको सुखी बनाया. आकाश से वायु बनीआकाश और वायु से अग्नि बनीआकाश और वायु और अग्नि से जल बनाआकाशवायु अग्नि और जल से पृथ्वी बनी. जब सृष्टि को प्रलय होती है तो पहले धरती जल मेंफिर धरती और जल अग्नि मेंधरतीजल और अग्नि वायु मेंधरतीजलअग्नि और वायु आकाश में सिमट जाते हैं. आकाश का गुण शब्द हैवायु का गुण स्पर्श हैअग्नि का गुण रूप हैजल का गुण रस है और पृथ्वी का गुण गंध है. इन्हीं गुणों को सूक्ष्म भूत भी कहते हैं. ये गुण ब्रह्म की चेतन शक्ति से बनते हैं. ब्रह्म प्रकाश को ही कहते हैं. ब्रह्म का काम है बढ़नाजैसे प्रकाश फैलता है. वो प्रकाश या ब्रह्म शब्द से बनता है. यह सारी रचना शब्द और प्रकाश से बनती है. शब्द से ही प्रकाश और शब्द-प्रकाश से ही आकाशवायु, अग्निजल और पृथ्वी बन जाते हैं. तो इस सृष्टि या त्रिलोकी के बनाने वाला शब्द है :-
शब्द ने रची त्रिलोकी सारी
आकाश का यही गुण अर्थात शब्द इन सब तत्त्वों में काम करता है. जो त्रिकुटी में मेघ की गर्जना सुनाई देती हैवो भी उसी शब्द के कारण है. मेघ नाम या मेघ राग या दुनिया के प्राणी जो भी बोल सकते हैंवो आवाज़ उसी शब्द के कारण है. विज्ञानियों ने भी सिद्ध किया है कि यह सृष्टि आवाज़ और प्रकाश से बनी है.
जिस व्यक्ति को इस शब्द का और ब्रह्म का और इस सारे काम का जो ऊपर लिखा हैपता लग जाता हैज्ञान हो जाता हैअन्तःकरण में यह बात गहरी घर कर जाती हैउस व्यक्ति को इन्सान कहते हैं. इन्सानियत की इस दशा को प्राप्त करने के लिए या तो योग अभ्यास करके आकाश के गुण को जाना जाता है या जिस महापुरुष के शरीरमन और आत्मा इन सब तत्त्वों की सम्मिलित संतुलित दशा से बने हैंउसे संत भी कहा गया हैउसकी संगत से हम इन्सानियत को प्राप्त कर सकते हैं. जो इन्सान बन गया उसके लिए न कोई जातिन कोई पाति और न कोई भेदभाव रह जाता है. उसके लिए सब एक हो जाते हैं. उसमें एकता आ जाती है. वो किसी भी धर्म-पंथ का नहीं रहता. उसके लिए इन्सानियत ही सब कुछ है. हम सब इन्सान हैं. मानव जाति एक है. तो वो शब्द और प्रकाश जिससे यह सृष्टि पैदा हुईतरह-तरह के वर्ण बन गएमेघ वर्ण भी उसी से बना है. जब इन्सान में मानवता आ जाती है तो उसके लक्षण संतों ने बहुत बताए हैं. परोपकारसबको शांतिवाणी ठंडक देने वाली बन जाती है. धरती पर रहने वाले प्राणियों की तपन बुझ जाती है. इस विषय पर कबीर साहिब का एक शब्द है :-
अव्वल अल्लाह नूर उपायाकुदरत के सब बन्दे।
एक नूर से सब जग उपज्याकौन भले को मंदे।
सबसे पहले शब्द ने ही प्रकाश अर्थात ब्रह्म को उत्पन्न किया और शब्द ब्रह्म की चेतन शक्ति से ये पाँचों तत्त्व बन जाते हैं और वो चेतन शक्ति ही इन सब तत्त्वों में विद्यमान हैतभी यह तत्त्व रचना कर सकते हैं.
लोगा भरम न भूलो भाई,
खालिकख़लकख़लक में खालिकपूर रहयौ सब ठाई।
भ्रम में आकर यह नहीं भूलना चाहिए कि वो स्रष्टा और सृष्टि उत्पन्न करने वाला और उत्पत्ति सब एक ही वस्तु है. वेदों में भी लिखा है :-
एको ब्रह्म द्वितीय नास्ति
शास्त्रों में भी कहा है कि ब्रह्म एक चेतन शक्ति हैवो आप तो नज़र नहीं आती मगर उसके कारण यह दृश्यमान जगत बना है. इन सब में वही है. इस मेघ वर्ण का निर्माण भी उसी चेतन शक्ति से हुआ.
माटी एक अनेक भाँति कर साजी साजनहारे।
न कछु पोच माटी के भांडेन कछु पोच कुम्हारे ।।
कुम्हार एक ही मिट्‌टी से कई प्रकार के बर्तन बना लेता हैहै वो मिट्‌टीमगर मिट्‌टी की शक़्लें बदल जाती हैं. मिट्‌टी कई नामोंरूपों में आ जाती है :-
सबमें सच्चा एको सोईतिस का किया सब कुछ होई।
हुकम पछाने सो एको जाने बन्दा कहिये सोई ।।
सबमें वो शब्द ही काम कर रहा है उसी से सब कुछ बना है और वही सब कुछ करता है. जो उसको जान जाता है वही इन्सान है. हुक्म भी प्रकाश का ही नाम है क्योंकि परम तत्त्व से ही पहले शब्द पैदा होता है और शब्द से आगे फिर रचना शुरू हो जाती है इसी को हुक्म कहा गया है.
अल्लाह अलख नहीं जाई लखिया गुर गुड़ दीना मीठा।
कहि कबीर मेरी संका नासी सर्व निरंजन डीठा ।।
कबीर साहिब फरमाते हैं कि गुरु की दया से सब भ्रम और शंकाएँ समाप्त होते हैं और वो जो अलख था (शब्द को देखा नहीं जा सकता इसलिए उसे अलख कहा है)उसे कोई सत्गुरु ही लखा सकता है और फिर वो न नज़र आने वाला नजर आने लग जाता है.
आइये अब कुछ विख्यात शब्दकोषों के अनुसार मेघ शब्द का विचार करें.
हिन्दी शब्द सागर
1. मेघ–घनी भाप को कहते हैं जो आकाश में जाकर वर्षा करती है (भाप ठोस या तरल पदार्थ की वह अवस्था है जो उनके बहुत ताप पाने पर विलीन होने पर होती है–भौतिक शास्त्र)
2. मेघद्वार–आकाश
4. मेघनाथ–स्वर्ग का राजा इन्द्र
5. मेघवर्तक–प्रलय काल के मेघों में से एक मेघ का नाम
6. मेघश्याम–राम और कृष्ण को कहते हैं
7. मेघदूत–कालीदास महान कवि हुए हैं. उन्होंने अपने काव्य में मेघदूत का वर्णन किया है. इसमें कर्तव्यच्युति के कारण स्वामी के शाप से प्रिया वियुक्त एक विरही यक्ष ने मेघ को दूत बनाकर अपनी प्रिया के पास मेघों द्वारा संदेश भेजा है.
हिन्दी पर्याय कोष
1. मेघ और जगजीवन दोनों एक ही अर्थ के दो शब्द हैं.
हिन्दी राष्ट्रभाषा कोष
1. जगजीवन–जगत का आधारजगत का प्राणईश्वरजलमेघ.

यदि आप ध्यान से पढ़ें तो इन शब्द कोषों में मेघ का अर्थ जो लिखा गया है वो ईश्वर और नाना ईश्वरीय शक्तियों के मेल से रसायनिक प्रतिक्रिया होने पर जो हालतें या वस्तुएँ उत्पन्न होती है उनमें से एक को मेघ कहा गया है. इसलिए जो कुछ ऊपर लिखा गया है कि मेघ ब्रह्म से ही उत्पन्न होते हैं और उसी में समा जाते हैंठीक है. इससे सिद्ध हुआ कि मेघ शब्द कोई बुरा नहीं है और इसी के नाम पर उन्हीं के संस्कारों को ग्रहण करते हुए मेघ जाति बनी.

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Koli, Kori, Kol – Aboriginal tribes of India

An unknown friend Mr. Pritam Bhagat from Pathankot told me over mobile that mother of Buddha was a Koli (Kori). It interested me. Internet helped me in going to an article regarding Koli community. The article began with a very familiar sentence ‘हम कौन हैं?मेरे पुरखे कौन थे? वे कहाँ से आए थे? वे कैसे रहते थे?’ (‘Who am I? Who were my forefathers? Where did they come from? How did they live?). I am giving below excerpts of the article. Full article is very fair account of history of Koris. It is interesting to note that Koris trace their history to the past where all present day downtrodden reach. This again bursts the myth that there was an amicable agreement between Asuras(aboriginals of Harappan Civilization and Indus Valley Civilization) and Suras who came fromCentral Asia via Iran.
There are mythical stories indicating that Asuras were made slaves by Aryans. These slave races are still struggling for annihilation of caste system. They live in abject poverty. Their latest names are ‘Scheduled Castes’, ‘Scheduled Tribes, and ‘Other Backward Castes’. They are yet to learn what ‘Human Rights’ are. The fact is that aboriginals of India were enslavedand they have been subjected to inhuman treatment through centuries. Most of them still live in villages and they are coerced to live in wretched and inhuman conditions. The facts are now known to the outer world despite efforts by some to prove it contrary to the facts.
(Meanwhile, Dorothy, a blogger, through her comment informed that Kol tribe of eastern India also traces its roots in Indus Valley Civilization. I could trace a link- ‘The Indian Encyclopedia’ given under ‘Other Links’ at the end of this article which sufficiently describes the point. It also proves that division of aboriginals of India into castes and tribes is also artificial. )
‘Kolis, Koris and Kols are aboriginals (Mulnivasi, मूलनिवासी) of India like all other SCs, STs and OBCs. Their past is same. They had been given different name and profession through religious sanctions (i.e. Manusmriti) and termed as different community so that they remain away from other sister communities. Despite this nation being democratic republic, these people are so illiterate and under so much pressure that they cannot think of their social and political unity.  
Broadly, Kolis and Koris are traditional weavers (like Meghwal, Bunkar, Megh, Bhagat, Julaha, etc.) (Kols, originally an African tribe, may have been forced to similar or other such activities. The word Koli seems to be derived from Kol itself.) and that precisely gives the entire picture of their present economic condition. All these people suffer from malnutrition and hunger.  They work for paltry wages and also work as forced labor. Anyhow, keep on reading the excerpts of the article and know about trustworthy and lovable Koli/Kori (कोली/कोरी) people.

Koli- Story Of India’s Historic People – The Kolis

Ashoka The Great was
from Kori Tribe

अशोक महान कोरी कबीले से थे
“A time comes when each one of us asks, ‘Who am I? Who were my forefathers? Where did they come from? How did they live? What were their triumphs and tribulations?’ These and a number of others are some of the fundamental questions that we must find answers to, to get to learn about our roots.
In studying the aboriginal tribes of India, scholars have consulted our most ancient records and documents – the Vedas, the Puranas, the epics in different languages, many archaeological records and notes, and various other publications.
Students of history and anthropology have found numerous instances recorded in all prehistoric and established history of India, of a glowing past of this ancient tribe of India and more is being uncovered as research continues.
This article is based mainly on three publications written in Gujarati. ‘An ancient Tribe of Bharat – The History of Koli Tribe’ a book edited by Shree Bachoobhai Pitamber Kambed and published by Shree Talpoda Koli Community of Bhavnagar (First Edition 1961 and Second Edition 1981), an article by Shree Ramjibhai Santola published in Bombay Samachar in 1979 and a lengthy paper prepared by Dr. Arjun Patel in 1989 for presentation at the International Koli Samaj Conference in 1989.
The most ancient King Mandhata, a supreme and universal ruler whose reputation spread far and wide throughout India and whose stories of valor and yajna were described in the stone carvings of Mohanjo Daro, belonged to this tribe.
The most ancient and revered sage Valmiki, the author of Ramayana belonged to this tribe.
Koli Valmiki Ramayana 
कोली वाल्मीकि रामायण
Even today Ramayana is referred to as Koli Valmiki Ramayan in Maharashtra State. Teachings from Ramayan form the basis of Indian culture.
The great king Chandra Gupta Mourya, and his line of descendant kings belonged to the Koli tribe.
Lord Budhha’s mother and his wife belonged to the Koli tribe.
Sant Kabir, a weaver by trade, ended several of his ‘bhajans’ as ‘kahet kabir kori’ was a self-confessed Koli. Bhaktaraj Bhadurdas and Bhaktaraj Valram from Saurastra, Girnari Sant Velnathji from Junagadh, Bhaktaraj Jobanpagi, Sant Sri Koya Bhagat, Sant Dhudhalinath, Madan Bhagat, Sany Kanji Swami of 17th and 18th Century all belonged to the Koli tribe.
Their life and reputation were described in books of their life and in articles published in Mumbai Samachar, Nutan Gujarat, Parmarth etc.
In the State of Maharashtra, Sivaji’s Commander-in-Chief and several of his Generals belonged to this tribe. ‘A History of the Marathas’ note with pride the bravery of Sivaji’s army consisting mainly of Mavalis and Kolis. His General, Tanaji Rao Malusare, who was always referred to by Sivaji as ‘My Lion’ was a koli. When Tanaji fell fighting for and winning the ‘Kodana Fort’, Sivaji renamed the fort as ‘Sinhghadhh’ in his memory.
In the 1857 uprising a number of Koli women fighters played an important role in trying to save the life of the ‘Rani of Jhansi’. Among them was a very close colleague of the queen named Jhalkari. The Koli Samaj, thus, has given India and the world, great sons and daughters whose teachings are of universal import and of relevance to modern day living.
Mandhata Temple of Onkareshwar  
ओंकारेश्वर का मानधाता मंदिर
Legend of our Ancient King Mandhata
Shree Ram is said to born as 25th generation after Mandhata. Ishvaku was another great King of the ‘Sun Dynasty Koli Kings’ and so Mandhata and Shree Ram were said to be of Ishvaku Sun Dynasty. This Dynasty later got divided into nine major sub groups, all claiming their roots to the Kshtria Caste. They are: Malla, Janak, Videhi, Koliye, Morya, Lichchhvi, Janatri, Vajji, and Shakya.’
Archaeological findings, when pieced together, show Mandhata as belonging to Ishvaku – Sun Dynasty and his descendants were known as ‘Sun Dynasty Koli Kings’. They were known to be brave, illustrious and just rulers. Buddhist texts have numerous references proving this beyond doubt. The descendants of Mandhata played a vital role and our ancient Vedas, epics and other relics mention their important contributions in the art of war and state administration. They are referred to in our ancient Sanskrit books as Kulya, Kuliye, Koli Serp, Kolik, Kaul etc.
Early history – After Buddha

Lord Buddha   ईश बुद्ध
It was during the year 566 BC, when the Hindu religion became cruel and thoroughly degraded that Prince Gautam, later known to the world as Buddha (the enlightened one) was born in a little Kingdom by the river Rohini in a Himalayan valley in northwest India. Lord Buddha’s mother, Maha Maya was a Koli princess.
The teachings of Lord Buddha were seen as a threat to vested interests of the upper-caste Hindus. Soon, the teachings of Buddha was completely banished from India.
It appears that Koli Kingdoms with their relationship and affinity to Buddha suffered most from this persecution. Although the vast majority never embraced Buddhist teachings, they been cold shouldered by others and suffered neglect from the rulers.
2000 Years After Lord Buddha
The upheaval must have proved too much for the Koli kingdoms. It appears that because of prolonged deprivations in the highly complex Hindu society, a once powerful tribe, hardworking, skilled, loyal, self-sufficient but easily provoked into war, lost its central position. A tribe that founded and built Bombay – named after the name of their Goddess, Mumba Devi, finds it hard even to this day to get into positions of political or academic influence. For centuries now, other tribes have looked down upon them and the resulting psychological effects were devastating for this entire community of Kshtrias.
The Present
In present day India, Kolis are found from Kashmir to Kanya Kumari and are known by slightly different names according to the languages of the regions. The following are some of the major groups: Koli Kshtria, Koli Raja, Koli Rajput, Koli Suryavanshi, Nagarkoli, Gondakoli, Koli Mahadev, Koli Patel, Koli Thakor, Bavraya, Tharkarda, Pathanvadia, Mein Koli, Koyeri, Mandhata Patel etc.

Koli Fishermen of Maharashtra
महाराष्ट्र के कोली मछुआरे
As an original tribe of India preferring to live in open agricultural landscape and coastal regions as clansman, the present day Kolis are a product of much intermarriage. It has been estimated that there are over 1040 subgroups all lumped together as Koli in the population census. Vast majority have very little in common except that they are Hindus, that the upper class Hindus have always accepted that a Koli’s touch does not defile and Koli chiefs of pure blood are difficult to distinguished from the Kshtria Rajputs among whom there are regular intermarriage.
Kolis of Gujarat
Writers Anthovan and Dr. Wilson believe that the original settlers in Gujarat were Kolis and Adivasi Bhils. Ravbahadur Hathibhai Desai confirms this to be so at the time of ruler Vanraj some 600 years ago. The very diverse ethnic groups represented now in the Gujarati population is said to be Vedic or Dravidian. These include the Nagar Brahman, Bhatia, Bhadela, Koli, Rabari, Mina, Bhangi,  Dubla, Naikda, and Macchi-Kharwa tribes. Parsis, originally from Persia, represent a much later influx. The rest of the population is the Adivasi Bhil tribe.
Bhils of Gujrat
गुजरात के भील


Dandi March    डाँडी मार्च
When on 9th January 1920, Bapu returned to India from South Africa a number of people who were with him there returned also. Bapu had personal knowledge of the character of our people. So when the time came to decide the destination of the 1930 Salt March it was no accident that he chose Dandi, from among a number of choices and pressures from other interested parties. He was convinced of the courage and the depth of understanding of our people in completing a project successfully. And so it proved.
In Conclusion
We cannot wholly blame the upper castes for our present conditions. History records with unceasing regularity the downfall of once powerful people who may have completely disappeared or reduced to pittance. In a world where survival of the fittest is the norm a people has to make great effort and sacrifice to unite under a wise leadership and start writing history again.
We have thousands of graduates and professionals, highly qualified doctors, dentists, lawyers, and skilled technocrats, living in their adopted countries and in India. They all seem to be using their skills to make money and in a race to acquire material goods and other minor pleasures. Material comforts are necessary but our priority must also be to guard our religion, culture and tradition.
The cream of our present generation must see themselves as the torch-bearers of our Samaj and make every effort to communicate, unite and become a formidable force to reclaim our past glory. This is now our challenge.”

For full article please click here- http://www.kolisamaj.org/myhistory/historyofkolis.html

RDTGR Blog
Koli Kori of India
मेघवंश एक सिंहावलोकन : लेखक आर. पी. सिंह (पीडीएफ पाठ)
Google Books
Kori Caste

Wikipedia : Caste

The Bible of Aryan Invasion
Indian Tribal Heritage
Hindu Civilization is Guilty
Untouchables – Caste System In India 
The Black Untouchables of India  – Dr. Velu Annamalai
Dravidians and Africans one people 
Runoko Rashidi
African presence in early Asia – google book 
 

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Human Rights Day special – (Jotiba Phule) – मानवाधिकार दिवस पर विशेष- महात्मा जोतीबा फुले

Mahatma Jotiba Phule (Photo Wikipedia)
महात्मा जोतीबा फुले को सत्य शोधक समाज’ (Satya Shodhak Samaj) की स्थापना, महिलाओं के अधिकारों (Women Rights) के लिए संघर्ष और श्रमिक जागृति के लिए किए गए कार्य के लिए जाना जाता है. उनकी पुस्तक गुलामी’ (Slavery) की चर्चा मैंने सुनी थी परंतु इसे तभी देखा जब बलीजन सांस्कृतिक आंदोलन (Balijan Cultural Movement) के बारे में जानकारी प्राप्त हुई. हाल ही में इसे पढ़ने का मौका मिला. इसे पढ़ कर अहसास हुआ कि मेरी जानकारी कितनी कम थी जब मैं मेघनेट और मेघ भगत पर आलेख लिख रहा था. उन आलेखों में कई ऐसे थे जो मुझे अपना आइडियालगे. परंतु उनमें से बहुत से आइडियामहात्मा फुले की सन् 1873 में लिखी पुस्तक में उपलब्ध थे. पुस्तक के कई पृष्ठ एक ही बैठक में पढ़ गया. इसमें राजा बली (Mahabali, Maveli), उसके पूर्वजों, उसके उत्तराधिकारियों, उसकी प्रजाओं और उनकी आज की स्थिति के बारे में एक साफ़ तस्वीर उभर कर आई. देश की बहुसंख्यक आबादी (majority of the people) के ग़रीब होने और उनकी दासता की बेड़ियों का ताना-बाना और ताना-पेरा समझ में आने लगा. आर्य (Aryans) आक्रमणकारियों ने इस देश के मूल निवासियों (aboriginals) को ग़ुलाम बनाने के लिए कैसे-कैसे हिंसक तरीके (violence) अपनाए इसका खुलासा मिला. साथ ही उन्होंने अपने हिंसक तरीकों को कैसे धर्म’ (Religion) में लपेटे रखा उसका भी पता चला. महात्मा फुले आगे चल कर डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर (Dr. Baba Sahab Ambedkar) के वृहत् कार्य का आधार बने.  इस बीच महेश्वरी समाज की वेबसाइट पर एक आलेख मिला जिसे प्रोफेसर वी.जे. नाइक (Prof. J.V. Naik, Renowned Scholar-Historian and Ex-Chairman, Indian History Congress) ने लिखा था Mahatma Phule – India’s First Social Activist and Crusader for Social Justice.

इस आलेख को पढ़ कर भारत के मेघ समुदाय (Meghvansh) का ध्यान आया जो अभी तक इस प्रश्न के साथ जूझ रहा है कि वह कौन है, उसका इतिहास क्या है, उसकी जनसंख्या कितनी है, उनकी शिक्षा का स्तर क्या है, उसका धर्म क्या है आदि. उसे आज तक कुछ भी तो पता नहीं. महात्मा फुले को उक्त पुस्तक लिखे 138 वर्ष हो चुके हैं. शिक्षा से वंचित रखे इस समुदाय के 98 प्रतिशत लोगों (जिसमें SC,ST और OBC शामिल हैं) को महात्मा फुले का नाम पता नहीं होगा. ऐसे समाज को अपनी गुलामी का अहसास कराना कितना कठिन है. अब शिक्षा इतनी मँहगी कर दी गई है कि ये मेघवंशी समुदाय शताब्दियों तक इसके साथ कदम मिला कर नहीं चल सकते. नतीजा यही कि वे लंबी अवधि के लिए ग़ुलामी का जीवन जीते हुए सस्ता श्रम बन कर रह जाएँगे. इस कुचक्र का नाम है:-
‘Costly education in India helps continuity of system of slavery in the form of cheap labor.’ (भारत में मँहगी शिक्षा दासता की प्रथा को सस्ते श्रम के रूप में जारी रखने में सहायता करती है.) 
A link for information on Human Rights Day (10-12-2010)


All links retrieved on 09-12-2010
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1500 Bhil Meena sacrificed their lives for independence – स्वतंत्रता के लिए 1500 भील मीणा हुए थे शहीद

Govind Guru

(This post is based upon an article published in a magazine ‘Meena Bharati’, September-October 2007 issue. I came to know about it through my colleague Vasundhara Meena. I am grateful to her.)
Govind Guru (Govind Guru) was born on December 30, 1858 in Basipa Village, District Dungarpur in a Banjara (gypsy) family. In the area of Bhils in Southern Rajasthan, Gujarat and Madhya Pradesh this aboriginal community was slave of two masters. They were slaves to the British but more sadly they were slaves to local feudal, vassals and petty self made kings those not only exploited this community but also went to the lowest levels of moral values to keep this tribe in abject poverty.  An incident of massacre on the occasion of a religious ceremony held at Mangarh hill is an apt example.
Guru Govind, a socially conscious and religious personality, had launched a different kind of struggle against social evils prevailing in Bhils and Garasis. At that time an organization named Samp Sabha was the symbol of unity of tribes in Gujrat. The number of devotees in the organization had reached 5lakhs. A goal of this organization was to get their tribe free from the system of forced labor. The movement was getting momentum and was strong enough to end the rule of feudal and vassals etc. From the other end feudal and vassals were conspiring to crush it. They propagated that Guru Govind was a threat to British rule and got him arrested. The tribe took it as a challenge and they had to release Guru Govind. It did not end here. Atrocities against the tribals were increased. In addition to violent attacks the main objective was to shut down their schools. The British masters were misinformed and told that tribals had been organizing mutiny against the British rule and wanted to establish their own State. During that period one Bhil Punja Dhira killed a policeman (thanedar) of Gathra village, Santrampur, Gujrat because Thanedar was giving them brutal treatment and tribals were fed up with him. The incident was promoted as treason and military assistance from the British was requested.
In December 1908, like every year, a religious ceremony ‘Magh Purnima’ was prearranged on Mangadh hill. Bhil Meena (including women, children and old men) had gathered for religious ceremony. Those Bhil Meena, influenced by the freedom movement, were also raising slogans against the British, vassals, feudals and petty kings.
False rumors were spread that the half million Bhils had gathered on the hill and intended to attack Santrampur district. The army of the British and the feudal surrounded the hill from three sides and millions of unarmed people were indiscriminately fired at. In order to save their lives many people ran towards Khaidapa valley and were killed in stampede.
It is said that 1500 Bhil Meena died in this massacre.(Most of the references mention 1500 as the number). After the massacre the area was declared ‘restricted area’. The purpose was to destroy evidence and prevent documentation. But – “Blood is blood after all, if dropped it remains in earth.” Now people celebrate this martyrdom day on 17 November every year. 
In Jallianwala Bagh incidence 379 people had died.Shouldn’t Mangadh incidence be given the same place in history as was given to Jallianwala Bagh incidence? These brave people are aboriginal tribe of India. Is their sacrifice and sense of freedom less important? 
This struggle makes the real sense of ‘Vande Mataram’ of freedom struggle of Bhils because this land belongs to them. They are aboriginals of this land. Their struggle is not yet over. Their land is still grabbed and the law is not in their favor. 
Mangadh Hill is undoubtedly memorial of martyrs of Independence. Magh Purnima festival is held even today.
Another reference can be seen on the blog of Mr. Madhav Hada. (It was reported by Mr. Pramod Pal Singh) -> धूणी तपे तीर: Author Mr. Hariram Meena
(यह पोस्ट एक पत्रिका मीना भारती के सितंबर-अक्तूबर 2007 के अंक में छपी थी जिसकी जानकारी मुझे अपनी सहकर्मी वसुंधरा मीणा (Vasundhara Meena) से मिली. उनके प्रति आभार)

30 दिसंबर 1858 में बासीपा ग्राम, ज़िला डूँगरपुर (Dungarpur) के एक बंजारा (gypsy) परिवार में गोविंद गुरु (Govind Guru) का जन्म हुआ था. दक्षिणी राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेश में भीलों का क्षेत्र दो तरफा गुलामी झेल रहा था. अंग्रेज़ों की और उनके एजेंट स्थानीय रजवाड़ों, सामंतों, जागीरदारों आदि की जो स्वयं तो इनका शोषण करते ही थे साथ ही इन्हें गरीबी की हालत में रखने के लिए हद दर्जे तक गिर जाते थे. इसका एक उदाहरण मानगढ़ (Mangarh) पहाड़ी पर धार्मिक समारोह के दौरान हुए भीषण नरसंहार (massacre) की घटना में देखा जा सकता है.
सामाजिक रूप से जागरूक और धार्मिक व्यक्तित्व वाले गोविंद गुरु, भीलों और गरासियों (Garasi) में व्याप्त कुरीतियों से एक अलग लड़ाई लड़ रहे. तब गुजरात में गठित संप सभा (Samp Sabha) आदिवासियों (tribes) की एकता का प्रतीक थी. इस सभा में भक्तों की संख्या 5 लाख तक पहुँच चुकी थी. इस सभा का एक लक्ष्य आदिवासियों से कराई जा रही बेगार (forced labor) से मुक्ति प्राप्त करना था. यह सामंतों, रजवाड़ों की ज़ड़ों को हिलाने वाला आंदोलन बन रहा था. वे इसे कुचलने का षडयंत्र रच रहे थे. उन्होंने गोविंद गुरु को एक खतरा बता कर गिरफ्तार कराया परंतु आदिवासियों ने इसे चुनौती के रूप में लिया और गोविंद गुरु को रिहा करना पड़ा. इसका अंत यहीं नहीं हुआ. इसके बाद आदिवासियों पर अत्याचार बढ़ा दिए गए. हिंसात्मक हमलों के अलावा उनकी पाठशालाओं को बंद कराना एक बड़ा प्रयोजन था. अंग्रेज़ आकाओं के सामने यह रोना रोया गया कि आदिवासी राजद्रोह करके एक अलग राज्य की स्थापना करना चाहते हैं. इन्हीं दिनों गठरा गाँव, संतरामपुर (Santrampur), गुजरात (Gujrat) के एक क्रूर थानेदार की हरकतों से तंग आ चुके भील पूँजा धीरा (Punja Dhira/Poonja Dhira) ने उसकी हत्या कर दी. इसे राजद्रोह के तौर पर प्रचारित किया गया और अंग्रेज़ों से सैनिक मदद माँगी गई.
प्रति वर्ष की भाँति दिसंबर 1908 में माघ पूर्णिमा के दिन मानगढ़ पहाड़ी पर धार्मिक समारोह पूर्वनिर्धारित था. धार्मिक समारोह के लिए भील मीणा (स्त्रियों, बच्चों, बूढ़ों सहित) एकत्रित थे. स्वतंत्रता आंदोलन से प्रभावित वे भील मीणा अंग्रेज़ों, जागीरदारों, सामंतों और रजवाड़ों के विरुद्ध भी आवाज़ उठा रहे थे. झूठी अफ़वाह फैला दी गई कि पहाड़ी पर एकत्रित होने वाले डेढ़ लाख भील संतरामपुर जिले पर हमला करने वाले हैं. अंग्रेज़ और सामंती सैनिकों ने पहाड़ी को तीन ओर से घेर लिया और निहत्थे आदिवासियों पर गोलियों की बौछार कर दी. लाखों लोगों पर अंधाधुँध गोलीबारी की गई. जान बचाने के लिए कई लोग खैड़ापा खाई की ओर भागे और भगदड़ में मारे गए. इस कांड में कहा जाता है कि गोलीबारी में 1500 भील मीणा शहीद हुए. (अधिकतर संदर्भों में यह संख्या 1500 ही बताई गई है) नरसंहार के बाद इस क्षेत्र को प्रतिबंधित क्षेत्र घोषित कर दिया गया. इसका उद्देश्य साक्ष्य मिटाना और दस्तावेज़ीकरण को रोकना था. लेकिन- ख़ून फिर ख़ून है, टपकेगा तो जम जाएगा.’ अब हर वर्ष अंग्रेज़ी माह नवंबर की 17 तारीख को उन शहीदों को यहाँ श्रद्धांजलि देने के लिए लोग एकत्रित होते हैं.
जलियाँवाला काँड (Jallianwala Bagh) में 379 लोग शहीद हुए थे. उसे इतिहास में जो जगह दी गई है क्या मानगढ़ काँड को उससे अधिक महत्व का स्थान नहीं मिलना चाहिए था? ये शहीद लोग भारत के मूल निवासी हैं. इनकी आज़ादी की भावना या स्वतंत्रता के लिए दी गई प्राणों की आहुती क्या कम महत्वपूर्ण है? यह आंदोलन काँड बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय (Bankim Chandra Chatterjee) के उपन्यास आनंदमठ’ (Anandmath) में लिखे राष्ट्रगान वंदेमातरम्’ (Vande Matram) को सही संदर्भ देता है कि भारत के मूलनिवासियों का स्वतंत्रता-सघर्ष अभी चल रहा है. उनकी ज़मीनें आज भी छीनी जा रही हैं और कानून उनकी मदद नहीं करता.
मानगढ़ पहाड़ी निस्संदेह स्वतंत्रता के दीवाने शहीदों का स्मारक (Monument of Martyrs) है. माघ पूर्णिमा का मेला आज भी आयोजित होता है.

The monument

श्री माधव हाड़ा (Madhav Hada) के ब्लॉग पर इसका एक संदर्भ इस प्रकार है (इसकी सूचना श्री प्रमोद पाल सिंह ने अपनी टिप्पणी से दी है) —धूणी तपे तीर : लेखक श्री हरिराम मीणा (Hariram Meena)

Further reading:
The Bible of Aryan Invasion
Bhilistan Movement- Lull before the storm
Scheduled Tribes Protest Rally at  Delhi

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Jhalkari Bai was a Meghvanshi – झलकारी बाई मेघवंशी थी

A month ago I got a call from Girdhari Lal Bhagat, Pathankot. Citing a book he told that there was a Megvanshi Amazon in the army of Rani Lakshmi Bai of Jhansi. She resembled the queen. I found reference on a blog. There was yet another reference on Wikipedia. Jhalkari Bai belonged to Kori community. She helped Lakshmi Bai escape from the fort and after that she fought bravely as Queen and was killed while fighting. Government of India issued a stamp in her honor. This is an example that Megvanshi men and women have their identity as brave warriors in the forces.

महीना भर पहले मुझे पठानकोट से श्री गिरधारी लाल भगत का फोन आया था. उन्होंने एक पुस्तक का उदाहरण देते हुए कहा था कि एक मेघवंशी वीरांगना झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की सेना में थी और उसकी हमशक़्ल थी. आज उसके बारे में एक ब्लॉग के माध्यम से संदर्भ मिला और विकिपीडिया से दूसरा संदर्भ भी मिल गया कि वे कोरी (मेघ) समुदाय की थी. लक्ष्मी बाई को किले से बच कर निकलने में उसने न केवल सहायता की बल्कि उसी के रूप में वीरता से लड़ते हुए वहीं शहीद हुई. भारत सरकार ने उसके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया था.  दोनों संदर्भ नीचे दिए गए हैं. यह एक उदाहरण है कि मेघवंशी पुरुष और महिलाएँ योद्धा के रूप में सेनाओं में अपनी पहचान रखते रहे हैं.
2. झलकारी बाई Retrieved on 18-11-2010
3. यू-ट्यूब पर झलकारी बाई Retrieved on 18-11-2010

(22-11-2012 को फेस बुक से प्राप्त जानकारी

Kuldeep Wasnik)


“4 जून 1858 को जनरल ट्युरोज के शब्द थे “अगर हिंदुस्तान की एक फीसदी लड़कियाँ भी झलकारी की तरह हो जाए तो हमे ये देश छोड़कर भागना पड़ेगा”.
लक्ष्मीबाई कभी भी अंग्रेजों से नहीं लड़ी बल्कि उसके भेष में बहुजन समाज की कोरी जाति की झलकारी देवी ही बहादुरी से लड़ी. बल्कि लक्ष्मीबाई किले के भंडारी गेट से भागती हुई मारी गई. ब्राह्मण इतिहासकारों ने झांसी की ब्राह्मणकन्या लक्ष्मीबाई, जो कि रानी भी नहीं थी बल्कि मामूली जागीरदारन थी, को न केवल रानी करार दिया बल्कि उसके किले के तट से घोड़े के साथ छलाँग लगाने की बात का भी झूठा प्रचार किया. लक्ष्मीबाई को घोड़े पर ठीक से बैठना भी नहीं आता था. घोड़े पर बैठने के लिए उसे सहायकों की मदद दरकरार थी अंग्रेजों के हमला करने के बाद अंग्रेजों से लड़ना तो दूर वह अपनी जान बचाने भाग खड़ी हुई. उसके बावजूद झलकारी देवी की युद्ध कला में निपुणता निर्भीकता और वीरता देख कर अंग्रेज सेनापति आश्चर्यचकित हो उठे. ऐसी महान वीरांगणा झलकारी देवी का जन्म 22 नवंबर 1830 को झाँसी जनपद के भोजला ग्राम में तीरंदाज सदोबा अहीरवार कोरी परिवार में हुआ था. आज उनकी 182 वीं जयंती पर उनकी स्मृति को विनम्र अभिवादन.”

मचा झाँसी में घमासान चहुँ ओर मची किलकारी थी

अँग्रेजों से लोहा लेने रण में कूदी झलकारी थी

मचा झाँसी में घमासान चहुँ ओर मची किलकारी थी

अँग्रेजों से लोहा लेने रण में कूदी झलकारी थी

जाकर रण में ललकारी थी वह तो झाँसी की झलकारी थी

गोरों से लड़ना सिखा गयी रानी बन जौहर दिखा गयी है

इतिहास में झलक रही वह भारत की सन्नारी थी

(फेस बुक से आर.डी. पांधी के सौजन्य से)

Those looted temples – वे लुटे हुए मंदिर

मैंने श्री पा.ना. सुब्रमणियन को मेघनेट पर बहुत सकारात्मक टिप्पणीकार के रूप में देखा है. उनका लिखा आलेख मेरे लिए कुछ नई सूचनाएँ दे गया है. पाली (छत्तीसगढ़) का शिव मंदिरनामक आलेख में वे लिखते हैं:-
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि मंदिर के अन्दर श्रीमद जाजल्लादेवस्य कीर्ति रिषम3 जगह खुदा हुआ है. इसके आधार पर यह माना जाता रहा कि मंदिर का निर्माण कलचुरी वंशीय यशस्वी राजा जाजल्लदेव प्रथम के समय 11 वीं सदी के अंत में हुआ होगा.  19 वीं सदी में भारत के प्रथम पुरातात्विक सर्वेक्षक श्री कन्निंघम की भी यही धारणा रही.  परन्तु 20 वीं सदी के  उत्तरार्ध में डा. देवदत्त भंडारकर जी ने मंदिर के गर्भ गृह के द्वार की गणेश पट्टी पर बहुत बारीक अक्षरों में लिखे एक लेख को पढने में सफलता पायी. इस लेख का आशय यह है कि महामंडलेश्वर मल्लदेव के पुत्र विक्रमादित्य ने  यह देवालय निर्माण कर कीर्तिदायक काम कियाभंडारकर जी को अपने शोध/अध्ययन के आधार पर मालूम था कि बाणवंश में विक्रमादित्य उपाधि धारी 3 राजा हुए हैं.  पाली में उल्लिखित विक्रमादित्य, महामंडलेश्वर मल्लदेव का पुत्र था अतः जयमेरूके रूप में उसकी पहचान बाणवंश के ही दूरे शिलालेखों के आधार पर कर ली गयी. जयमेरू का शासन  895 ईसवी तक रहा. अतः पाली के मंदिर का निर्माण 9 वीं सदी का है. परन्तु कलचुरी शासक जाजल्लदेव (प्रथम) नें 11 वीं सदी में पाली के मंदिर का जीर्णोद्धार  ही करवाया था न कि निर्माण.
शिल्पों की विलक्षण लावण्यता के दृष्टिकोण से यह मंदिर भुबनेश्वर के मुक्तेश्वर मंदिर (10 वीं सदी) से टक्कर लेने की क्षमता रखता है. वैसे बस्तर (छत्तीसगढ़) के नारायणपाल के मंदिर से भी इसकी तुलना की जा सकती है. यह मंदिर भी शिल्पों से भरा पूरा रहा होगा पर अब लुटा हुआ दीखता है.
वहां भी मंडप गुम्बदनुमा  ही रहा जो क्षतिग्रस्त हो गया. परन्तु इस मंदिर का निर्माण नागवंशी राजाओं के द्वारा 12 वीं सदी में किया गया था.
मुझे जो महत्व का लगा उसे मैंने मोटे अक्षरों में कर दिया है.
पूरा आलेख आप इस लिंक पर पढ़ सकते हैं– पाली छत्तीसगढ़ का शिव मंदिर
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Meghvansh Ek Singhavlokan

About the writer
I was fascinated by the book Meghvansh Ek Singhavlokan written by Mr. R.P. Singh an I.P.S. officer from Rajasthan cadre. It has been written in Hindi with Rajasthani flavor. The writer has a literary background. The book contains cultural, mythological and historical material on Meghvansh. The book got into controversy and there was agitation against its content, of course a part not liked by a few traditionalists. Review of the book is not intended here, however, I feel that the content and language of the book needs rearrangement and rephrasing.
Some selected parts have been given at Megh Bhagat and Meghvansh Ek Singhavlokan .

There is a site on Meghvanshis. Link is here Megh Rishi and Meghvansh
Please see this link for full PDF version of this Hindi  book –  मेघवंश एक सिंहावलोकन 

(SPECIAL REQUEST: I wish to make a special request to all the writers belonging to Meghvansh to ensure that the Hindi material is composed in Unicode Mangal font only. It helps take it to internet instantly. Please…please…please keep away from the chaos of other Hindi fonts and softwares. It will save lot of time and energy. You may visit Wikipedia for help.)

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