Category Archives: अन्य ब्लॉगों से

Caste Census – जाति आधारित जनगणना

दिलीप मंडल (Dilip Mandal) के आलेख का सार-संक्षेप

मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद से ही इस बात की मांग उठने लगी थी कि देश में जाति आधारित जनगणना करायी जाए.  इससे किसी समुदाय के लिए विशेष अवसर और योजनाओं को लागू करने का वस्तुगत आधार और आंकड़े संभव हो जाते हैं. वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी पर विश्वास करें तो इस बार जाति आधारित जनगणना होगी.

लगभग सभी राजनीतिक दल जाति आधारित
जनगणना के समर्थन में आए हैं. जातिगत जनगणना के विरोधी अपने कुतर्कों के साथ अपना पक्ष रख रहे हैं. एक पक्ष जातिगत जनगणना की जगह केवल ओबीसी की गणना कराना चाहता है. ऐसे शार्टकट विचारहीनता ही दर्शाते हैं.

ओबीसी गणना के समर्थकों का तर्क है कि कुल आबादी से दलित
, आदिवासी और ओबीसी आबादी के आंकड़ों को निकाल दें तो इस देश में हिंदू अन्ययानी सवर्णों की आबादी का पता चल जाएगा. सवर्णों के लिए तो इस देश में सरकारें किसी तरह का विशेष अवसर नहीं देतीं अतः सवर्ण जातियों के अलग आंकड़े एकत्रित करने से मिलेगा क्या? जो भी व्यक्ति जनगणना के दौरान खुद को दलित, आदिवासी या ओबीसी नहीं लिखवाएगा, वह सवर्ण होगा. यह अपने आप में ही अवैज्ञानिक विचार है. इस आधार पर कोई व्यक्ति अगर खुद को जाति से ऊपर मानता है और जाति नहीं लिखाता, तो भी जनगणना में उसे सवर्ण (हिंदू अन्य) गिना जाएगा. जबकि वास्तविकता कुछ और होगी.

यदि कोई व्यक्ति
अल्पसंख्यक की श्रेणी में दर्ज छह धर्मों में से किसी एक में अपना नाम नहीं लिखाता, उसे हिंदू मान लिया जाता है. यानी कोई व्यक्ति अगर आदिवासी है और अल्पसंख्यक श्रेणी के किसी धर्म में अपना नाम नहीं लिखाता, तो जनगणना कर्मचारी उसके आगे हिंदूलिख देता है. इस देश के लगभग 8 करोड़ आदिवासी जो न वर्ण व्यवस्था मानते हैं, न पुनर्जन्म और न हिंदू देवी-देवता, उन्हें इसी तरह हिंदू गिना जाता रहा है. उसी तरह अगर कोई व्यक्ति किसी भी धर्म को नहीं मानता, तो भी जनगणना की दृष्टि में वह हिंदू है. अगर जातिगत जनगणना की जगह दलित, आदिवासी और ओबीसी की ही गणना हुई तो किसी भी वजह से जो हिंदूव्यक्ति इन तीन श्रेणियों में अपना नाम नहीं लिखाता, उसे जनसंख्या फॉर्म के हिसाब से हिंदू अन्यकी श्रेणी में डाल दिया जाएगा. इसका नतीजा हमेंहिंदू अन्यश्रेणी की बढ़ी हुई संख्या की शक्ल में देखने को मिल सकता है. अगर हिंदू अन्यका मतलब सवर्ण लगाया जाए तो पूरी जनगणना का आधार ही गलत हो जाएगा. दलित, आदिवासी और ओबीसी की लोकतांत्रिक शक्ति का आकलन नहीं हो पाएगा.  

साथ ही अगर जनगणना फॉर्म में तीन श्रेणियों आदिवासी
, दलित और ओबीसी और अन्य की श्रेणी रखी जाती है, तो चौथी श्रेणी सवर्ण रखने में क्या समस्या है. यह कहीं अधिक वैज्ञानिक तरीका होगा.
जातिगत जनगणना के विरोधियों का विचार है कि जातिगत जनगणना कराने से समाज में जातिवाद बढ़ेगा. यह एक कुतर्क है. क्या धर्म का नाम लिखवाने से ही सांप्रदायिकता बढ़ती है?

भारतीय समाज में राजनीति से लेकर शादी-ब्याह तक के फैसलों में जाति अक्सर
निर्णायक पहलू के तौर पर मौजूद है. ऐसे समाज में जाति की गिनती को लेकर भय क्यों है? जाति भेद कम करने और आगे चलकर उसे समाप्त करने की पहली शर्त यही है कि इसके सच को स्वीकार किया जाए और जातीय विषमता कम करने के उपाय किये जाएं. जातिगत जनगणना जाति भेद के पहलुओं को समझने का प्रामाणिक उपकरण साबित हो सकती है. इस वजह से भी आवश्यक है कि जाति के आधार पर जनगणना करायी जाए.

कहा जाता है कि ओबीसी नेता संख्या बल के आधार पर अपनी
राजनीति मजबूत करना चाहते हैं. लोकतंत्र में राजनीति करना कोई अपराध नहीं है और संख्या बल के आधार पर कोई अगर राजनीति में आगे बढ़ता है या ऐसा करने की कोशिश करता है, तो इस पर किसी को एतराज क्यों होना चाहिए? लोकतंत्र में फैसले अगर संख्या के आधार पर नहीं होंगे, तो फिर किस आधार पर होंगे?

जनगणना प्रक्रिया में यथास्थिति के समर्थकों का एक तर्क यह है कि
ओबीसी जाति के लोगों को अपनी संख्या गिनवाकर क्या मिलेगा. उनके मुताबिक ओबीसी की राजनीति के क्षेत्र में बिना आरक्षण के ही अच्छी स्थिति है. मंडल कमीशन के बाद सरकारी नौकरियों में उन्हें 27 फीसदी आरक्षण हासिल है. केंद्र सरकार के शिक्षा संस्थानों में भी उन्हें आरक्षण मिल गया है. वे आशंका दिखाते हैं कि हो सकता है कि ओबीसी की वास्तविक संख्या उतनी न हो, जितनी अब तक सभी मानते आए हैं.

अगर देश की कुल आबादी में ओबीसी की
संख्या 27 फीसदी से कम है, तो उन्हें नौकरियों और शिक्षा में 27 फीसदी आरक्षण क्यों दिया जाना चाहिए? यूथ फॉर इक्वैलिटी जैसे संगठनों और समर्थक बुद्धिजीवियों को तो इस आधार पर जाति आधारित जनगणना का समर्थन करना चाहिए!
रोचक है कि जातिगत जनगणना का विरोध करने वाले ये वही लोग हैं, जो पहले नौकरियों में आरक्षण के विरोधी रहे. बाद में इन्होंने शिक्षा में आरक्षण का विरोध किया. ये विचारक इसी निरंतरता में महिला आरक्षण का समर्थन करते हैं. तथ्य यह है कि जाति के प्रश्न ने राजनीतिक विचारधारा के बंधनों को लांघ लिया है. जाति के सवाल पर वंचितों के हितों के खिलाफ खड़े होने वाले कुछ भी हो सकते हैं, वे घनघोर सांप्रदायिक से लेकर घनघोर वामपंथी और समाजवादी हो सकते हैं. जाति संस्था की रक्षा का वृहत्तर दायित्व इनके बीच एकता का बिंदु है. लोकतंत्र की बात करने के बावजूद ये समूह संख्या बल से घबराता है.

अगर
बौद्धिक विमर्श से देश चल रहा होता, तो नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण कभी लागू नहीं होता. जाहिर है लोकतंत्र में जनता की और संख्या की ताकत के आगे किसी का जोर नहीं चलता. इस देश में जातीय जनगणना के पक्ष में माहौल बन चुका है. यह साबित हो चुका है कि इस देश की लोकसभा में बहुमत जाति आधारित जनगणना के पक्ष में है.
पूरा आलेख आप यहाँ पढ़ सकते हैं:- जाति जनगणना का प्रश्‍न- दिलीप मंडल

1 comments:

Deepak Saini said…

जातिगत जनगणना पर अच्छा लेख लिखा है दिलिप मंडल जी ने लेख हम तक पहुचाने के लिए धन्यवाद

LOOKING WITHIN: DALIT MOVEMENT AT THE CROSSROADS

Caste does not only operate along fault lines between the higher and lower caste. It equally afflicts the Scheduled Castes from within. The Scheduled Castes are as much divided among themselves as the other various twice born castes. The similar situation applies to the Other Backward Castes (OBC) too. Baba Sahib Dr. B.R. Ambedkar highlighted this aspect of the caste system in many of his speeches and writings. He was of the opinion that Scheduled castes were as much divided house within as the division between them and rest of the twice born. Irrespective of the fact that they were socially excluded and relegated out of the boundaries of the suffocating caste hierarchy emanated from the Varna system, the Scheduled Caste themselves follow the same logic of social exclusion and discrimination on the pattern of Brahminical graded inequality. Baba Sahib Dr. Ambedkar reiterated that if the Scheduled Castes wanted to get rid of the social exclusion and untouchability, they have to say first good bye to the social evil of untouchability within. Unless and until the internal social division is not taken care of, the requisite unity among the various Dalit castes is difficult to evolve. Unity among the various communities among the Scheduled Castes is the most necessary requirement for any democratic Dalit movement to come forward to take cudgels with the Brahminical Social Order (BSO).

In Punjab at present there are as many as 39 castes among the Scheduled Castes. In the 2001 Census their number was 38. Later on in 2007, another caste of Rai Sikhs was added to the list of Scheduled Caste in Punjab, thus making the figure thirty nine. Scheduled Castes in Punjab like their counterparts in rest of India are not only divided along caste lines, they are equally splintered into various religions. Scheduled Castes in Punjab are Hindus, Sikhs, Christians and Buddhists. Some of them claim to be belonging to their indigenous religion Ad Dharm; though after 1931 census Ad Dharm did not figure in the decennial census of India. The 39 Scheduled Castes of Punjab have their peculiar social hierarchical system whereby they have causally arranged themselves on low-high profile parallel to the prevalent Brahminical caste system in the rest of the country. It was against this social division within that Babu Mangu Ram Mugowalia, the founder of the famous Ad Dharm movement, addressed almost all the then caste members of the ex-untouchables by their specific caste names to come forward on a single platform forgetting their insidious caste factor and fight collectively the monster of untouchability.

Where are we standing today? Are we not a divided house? Take for example marriages. There is hardly any inter-caste marriage within the Scheduled Castes. Ad Dharmi will prefer to marry within the Ad Dharmi caste. In the matrimonial advertisements it is common to find that marriage alliances are sought strictly within castes. One hardly finds marriages between the Chamar and Balmiki castes. Buddhists Dalits like all other Dalits belonging to different religions equally follow the criterion of caste endogamy in the marriages. All this has prevented unity among the Scheduled Castes. Probably this may be one of the most important reasons behind the failure of the Scheduled Caste in Punjab to come into political power despite their large numbers. Let us think beyond caste and forge a strong unity to empower ourselves.
Posted on January 1, 2011

Courtesy: Editor, Ambedker Times

March 1 at 8:22am “LOOKING WITHIN: DALIT MOVEMENT AT THE CROSSROADS”

Other links from this blog

MEGHnet

Caste based census in India – जाति आधारित जनगणना

दिलीप मंडल के आलेख का सार-संक्षेप

मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद से ही इस बात की मांग उठने लगी थी कि देश में जाति आधारित जनगणना करायी जाए.  इससे किसी समुदाय के लिए विशेष अवसर और योजनाओं को लागू करने का वस्तुगत आधार और आंकड़े संभव हो जाते हैं. वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी पर विश्वास करें तो इस बार जाति आधारित जनगणना होगी.
लगभग सभी राजनीतिक दल जाति आधारित जनगणना के समर्थन में आए हैं. जातिगत जनगणना के विरोधी अपने कुतर्कों के साथ अपना पक्ष रख रहे हैं. एक पक्ष जातिगत जनगणना की जगह केवल ओबीसी की गणना कराना चाहता है. ऐसे शार्टकट विचारहीनता ही दर्शाते हैं.
ओबीसी गणना के समर्थकों का तर्क है कि कुल आबादी से दलित, आदिवासी और ओबीसी आबादी के आंकड़ों को निकाल दें तो इस देश में हिंदू अन्ययानी सवर्णों की आबादी का पता चल जाएगा. सवर्णों के लिए तो इस देश में सरकारें किसी तरह का विशेष अवसर नहीं देतीं अतः सवर्ण जातियों के अलग आंकड़े एकत्रित करने से मिलेगा क्या? जो भी व्यक्ति जनगणना के दौरान खुद को दलित, आदिवासी या ओबीसी नहीं लिखवाएगा, वह सवर्ण होगा. यह अपने आप में ही अवैज्ञानिक विचार है. इस आधार पर कोई व्यक्ति अगर खुद को जाति से ऊपर मानता है और जाति नहीं लिखाता, तो भी जनगणना में उसे सवर्ण (हिंदू अन्य) गिना जाएगा. जबकि वास्तविकता कुछ और होगी.
यदि कोई व्यक्ति अल्पसंख्यक की श्रेणी में दर्ज छह धर्मों में से किसी एक में अपना नाम नहीं लिखाता, उसे हिंदू मान लिया जाता है. यानी कोई व्यक्ति अगर आदिवासी है और अल्पसंख्यक श्रेणी के किसी धर्म में अपना नाम नहीं लिखाता, तो जनगणना कर्मचारी उसके आगे हिंदूलिख देता है. इस देश के लगभग 8 करोड़ आदिवासी जो न वर्ण व्यवस्था मानते हैं, न पुनर्जन्म और न हिंदू देवी-देवता, उन्हें इसी तरह हिंदू गिना जाता रहा है. उसी तरह अगर कोई व्यक्ति किसी भी धर्म को नहीं मानता, तो भी जनगणना की दृष्टि में वह हिंदू है. अगर जातिगत जनगणना की जगह दलित, आदिवासी और ओबीसी की ही गणना हुई तो किसी भी वजह से जो हिंदूव्यक्ति इन तीन श्रेणियों में अपना नाम नहीं लिखाता, उसे जनसंख्या फॉर्म के हिसाब से हिंदू अन्यकी श्रेणी में डाल दिया जाएगा. इसका नतीजा हमेंहिंदू अन्यश्रेणी की बढ़ी हुई संख्या की शक्ल में देखने को मिल सकता है. अगर हिंदू अन्यका मतलब सवर्ण लगाया जाए तो पूरी जनगणना का आधार ही गलत हो जाएगा. दलित, आदिवासी और ओबीसी की लोकतांत्रिक शक्ति का आकलन नहीं हो पाएगा.  
साथ ही अगर जनगणना फॉर्म में तीन श्रेणियों आदिवासी, दलित और ओबीसी और अन्य की श्रेणी रखी जाती है, तो चौथी श्रेणी सवर्ण रखने में क्या समस्या है. यह कहीं अधिक वैज्ञानिक तरीका होगा.
जातिगत जनगणना के विरोधियों का विचार है कि जातिगत जनगणना कराने से समाज में जातिवाद बढ़ेगा. यह एक कुतर्क है. क्या धर्म का नाम लिखवाने से ही सांप्रदायिकता बढ़ती है?
भारतीय समाज में राजनीति से लेकर शादी-ब्याह तक के फैसलों में जाति अक्सर निर्णायक पहलू के तौर पर मौजूद है. ऐसे समाज में जाति की गिनती को लेकर भय क्यों है? जाति भेद कम करने और आगे चलकर उसे समाप्त करने की पहली शर्त यही है कि इसके सच को स्वीकार किया जाए और जातीय विषमता कम करने के उपाय किये जाएं. जातिगत जनगणना जाति भेद के पहलुओं को समझने का प्रामाणिक उपकरण साबित हो सकती है. इस वजह से भी आवश्यक है कि जाति के आधार पर जनगणना करायी जाए.
कहा जाता है कि ओबीसी नेता संख्या बल के आधार पर अपनी राजनीति मजबूत करना चाहते हैं. लोकतंत्र में राजनीति करना कोई अपराध नहीं है और संख्या बल के आधार पर कोई अगर राजनीति में आगे बढ़ता है या ऐसा करने की कोशिश करता है, तो इस पर किसी को एतराज क्यों होना चाहिए? लोकतंत्र में फैसले अगर संख्या के आधार पर नहीं होंगे, तो फिर किस आधार पर होंगे?
जनगणना प्रक्रिया में यथास्थिति के समर्थकों का एक तर्क यह है कि ओबीसी जाति के लोगों को अपनी संख्या गिनवाकर क्या मिलेगा. उनके मुताबिक ओबीसी की राजनीति के क्षेत्र में बिना आरक्षण के ही अच्छी स्थिति है. मंडल कमीशन के बाद सरकारी नौकरियों में उन्हें 27 फीसदी आरक्षण हासिल है. केंद्र सरकार के शिक्षा संस्थानों में भी उन्हें आरक्षण मिल गया है. वे आशंका दिखाते हैं कि हो सकता है कि ओबीसी की वास्तविक संख्या उतनी न हो, जितनी अब तक सभी मानते आए हैं.
अगर देश की कुल आबादी में ओबीसी की संख्या 27 फीसदी से कम है, तो उन्हें नौकरियों और शिक्षा में 27 फीसदी आरक्षण क्यों दिया जाना चाहिए? यूथ फॉर इक्वैलिटी जैसे संगठनों और समर्थक बुद्धिजीवियों को तो इस आधार पर जाति आधारित जनगणना का समर्थन करना चाहिए!
रोचक है कि जातिगत जनगणना का विरोध करने वाले ये वही लोग हैं, जो पहले नौकरियों में आरक्षण के विरोधी रहे. बाद में इन्होंने शिक्षा में आरक्षण का विरोध किया. ये विचारक इसी निरंतरता में महिला आरक्षण का समर्थन करते हैं. तथ्य यह है कि जाति के प्रश्न ने राजनीतिक विचारधारा के बंधनों को लांघ लिया है. जाति के सवाल पर वंचितों के हितों के खिलाफ खड़े होने वाले कुछ भी हो सकते हैं, वे घनघोर सांप्रदायिक से लेकर घनघोर वामपंथी और समाजवादी हो सकते हैं. जाति संस्था की रक्षा का वृहत्तर दायित्व इनके बीच एकता का बिंदु है. लोकतंत्र की बात करने के बावजूद ये समूह संख्या बल से घबराता है.
अगर बौद्धिक विमर्श से देश चल रहा होता, तो नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण कभी लागू नहीं होता. जाहिर है लोकतंत्र में जनता की और संख्या की ताकत के आगे किसी का जोर नहीं चलता. इस देश में जातीय जनगणना के पक्ष में माहौल बन चुका है. यह साबित हो चुका है कि इस देश की लोकसभा में बहुमत जाति आधारित जनगणना के पक्ष में है.
पूरा आलेख आप यहाँ पढ़ सकते हैं:- जाति जनगणना का प्रश्‍न- दिलीप मंडल

अवश्य पढ़ें
हम भी मुंह में जुबान रखते हैं – जनगणना का आदिवासी पक्ष
-गंगा सहाय मीणा 
2011 की जनगणना का पहला (घरों की गिनती का) चरण चल रहा है. मंडल आयोग के बाद से ही ओबीसी की सही संख्‍या जानने की उत्‍सुकता सभी के अंदर है. उच्‍चतम न्‍यायालय भी इस संदर्भ में कई बार अपनी चिंता जाहिर कर चुका है. 2001 की जनगणना में इसका प्रस्‍ताव भी आया लेकिन तत्‍कालीन राष्‍ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने इसे खारिज कर दिया. उन दिनों सत्‍ता में उसी विचारधारा का बोलबाला था जो आज कह रहे हैं कि हम सब हिन्‍दुस्‍तानी हैं, इसलिए हमें हिन्‍दुस्‍तानी के रूप में गिनो’. उनके हिन्‍दुस्‍तानमें मुसलमानों के लिए क्‍या जगह है, इसका प्रमाण 2002 के गुजरात में मिल चुका है. उनके हिन्‍दुस्‍तानमें दलितों के लिए क्‍या जगह है, इसका प्रमाण लगभग रोजाना देश के किसी न किसी कोने में मिलता रहता है, जिसकी ताजा कडी हरियाणा का मिर्चपुर गांव है, जहां पिछले दिनों वाल्‍मीकि समुदाय के 25 घर जला दिए गए और उन घरों के साथ एक बाप-बेटी भी जिंदा जला दिए गए. उनके हिन्‍दुस्‍तानमें आदिवासियों के लिए क्‍या जगह है, इसका प्रमाण आए दिन झारखंड और छत्‍तीसगढ के जंगलों में पुलिस द्वारा आदिवासी महिलाओं का बलात्‍कार कर दिया जाता है. अब अगर कोई ये कहे कि गुजरात या मिर्चपुर या गोहाना या झारखंड या छत्‍तीसगढ आदि में हिन्‍दुस्‍तानियों ने हिन्‍दुस्‍तानियों के साथ अमानवीयता और नृशंसता बरती, तो समझिये कि वह आपको और हमें बेवकूफ बनाने की कोशिश कर रहा है.     
दरअसल जाति भारतीय समाज की एक सच्‍चाई है, दैनिक समाचार पत्रों के साथ छपने वाले वैवाहिकी परिशिष्‍टभी इसका एक बडा प्रमाण है. उल्‍लेखनीय है कि वैवाहिक विज्ञापन देने वालों में सर्वाधिक संख्‍या तथाकथित ऊंची जातियों की होती है. जो लोग वर/वधु ढूंढते वक्‍त कुल, जाति, उपजाति, गोत्र आदि का पूरा ध्‍यान रखते हैं, वही अब चिल्‍ला रहे हैं कि हम जाति नहीं मानते‘. जाति और गोत्र को न मानने वाले युवक-युवतियों की हत्‍या तक कर दी जाती हैं. ये ऑनर किलिंगया इज्‍जत के नाम पर हत्‍याएं दलित-आदिवासियों द्वारा नहीं, बल्कि अधिकांशतः सवर्ण समाज के लोगों द्वारा ही की जाती हैं. प्रेमचंद ने शुद्धि आंदोलन के दिनों एक कहानी लिखी थी- मंत्र. इसमें उत्‍तर भारत से दलितों की शुद्धिके लिए दक्षिण भारत गए एक पंडितजी से वहां के दलित यही सवाल पूछते हैं- अगर आप हमें समान मानते हैं तो क्‍या हमारे घर अपनी बेटी ब्‍याहेंगे… प्रेमचंद समझ गए थे कि जाति व्‍यवस्‍था के खात्‍मे का सबसे सशक्‍त माध्‍यम अंतर्जातीय विवाह है. डा. अंबेडकर ने भी जाति तोडने का यही रास्‍ता सुझाया.     
क्‍या बात है कि जनगणना में जाति का सवाल पूछे जाने का कोई दलित या आदिवासी विरोध नहीं कर रहा है? इस वक्‍त जाति से दंश से सबसे ज्‍यादा प्रभावित तो दलित ही हैं. उन्‍हें तो खुशी होनी चाहिए कि देश के बडे नेता से लेकर बडे अभिनेता, बुद्धिजीवी तक सभी देश के समस्‍त नागरिकों को हिन्‍दुस्‍तानी के रूप में गिनने के लिए आवाज उठा रहे हैं! इसका कारण संभवतः यह है कि अब धीरे-धीरे देश के दलित-आदिवासी भी इस बात को समझने लगे हैं कि जो लोग सभी को हिन्‍दुस्‍तानीऔर मानवके रूप में गिनने के लिए चिल्‍ला रहे हैं, इसके पीछे गहरी साजिश छिपी है. हिन्‍दुस्‍तानीकी वकालत करने वाले मानवतावादीवही लोग हैं जो दलितों के घर जलाए जाने या महिलाओं से बलात्‍कार होने पर भी अपनी ऐयाशी में जरा भी कमी करना बर्दाश्‍त नहीं करते. उन्‍हें कोई फर्क नहीं पडता. जबकि वे चाहें तो ऐसी घटनाओं के अवसर पर सक्रिय होकर पूरे माहौल को बदल सकते हैं. मीडिया उनकी बात सुनता है. लेकिन वे नहीं बोलते. अब अचानक उनका राष्‍ट्रधर्म जाग उठा है. उनको अपनी करोडों की इंडस्‍ट्री में बैठे-बैठे जनगणना के बाद फैलने वाले संभावित जातिवाद का खतरा सताने लगा है! जातिवार जनगणना के मुद्दे पर दलित और आदिवासी चिंतकों की भागीदारी अपेक्षाकृत कम है. इस पूरे मसले में स्त्रियों का भी कोई पक्ष हो सकता है, इसकी चिंता किसी को नहीं है. ये सभी लोग भूल रहे हैं कि जब तक सभी उत्‍पीडित अस्मिताएं एक-दूसरे के प्रति सद्भाव और सहयोग नहीं रखेंगी, तब तक मुक्ति का कोई भी आख्‍यान अधूरा है.     
जनगणना में आदिवासियों से जुडे कुछ मसलों को लगातार उपेक्षित किया जाता रहा है, यहां उनका जिक्र भी जरूरी है. आदिवासियों को जबरन हिन्‍दूके रूप में गिनना और विस्‍थापित एससी/एसटी को सामान्‍यश्रेणी में गिनना जनगणना की पूरी प्रक्रिया की बहुत बडी गडबडियां हैं, जिन्‍हें तुरंत दुरुस्‍त करने की जरूरत है. यह देश के तमाम शहरी और पढे-लिखे लोगों को समझने की आवश्‍यकता है कि देश में आदिवासियों की जनसंख्‍या लगभग 10 करोड है और उनमें से नब्‍बे फीसदी से अधिक आदिवासी किसी भी धर्म को नहीं मानते. उनके धर्म को कोई सामूहिक नाम देना हो तो उसे आदि धर्मया आदिवासी धर्मकहा जा सकता है. उल्‍लेखनीय है कि जनगणना फॉर्म में हिन्‍दू धर्म के पंथों तक के लिए कॉलम है लेकिन आदि धर्मके लिए कोई जगह नहीं है. क्‍या 10 करोड की आबादी के लिए जनगणना फॉर्म में एक कॉलम नहीं बढाया जा सकता? आदिवासी हिन्‍दू धर्म के किसी रीति-रिवाज, देवी-देवता या कर्मकांड को नहीं मानते लेकिन जनगणक उन्‍हें हिन्‍दू की श्रेणी में गिन लेता है. चतरा और हजारीबाग के बिरहोर आदिवासी यह समझ भी नहीं पाते कि उन्‍हें हिन्‍दू के रूप में गिना जा रहा है. अगर वे समझ पाते तो किसी न किसी रूप में इसका प्रतिरोध जरूर करते. जनगणना की दूसरी बडी गडबडी यह है कि देश के विभिन्‍न हिस्‍सों से काम की तलाश में दिल्‍ली आदि महानगरों में आ बसे एसी/एसटी को सामान्‍य श्रेणी में गिना जाता है. क्‍या शहर की झुग्‍गी में आ बसने से किसी दलित या आदिवासी की स्थिति में रातों-रात परिवर्तन आ जाता है? दरअसल जनगणना में ये घपले सवर्णों और हिन्‍दुओं की संख्‍या में इजाफा दिखाने के लिए सायास किये जा रहे हैं. जातिवार जनगणना का इसीलिए विरोध किया जा रहा है कि इससे सभी जातियों की वास्‍तविक स्थिति सामने आ जाएगी और मुट्ठीभर लोगों द्वारा देश के अधिकांश संसाधनों के उपभोग की बात जाहिर हो जाएगी. जनगणना की इन दोनों भीषण गडबडियों पर सरकार को अपना रुख स्‍पष्‍ट करना चाहिए और इनके निवारण हेतु शीघ्राति‍शीघ्र आवश्‍यक कदम उठाए जाने चाहिए.     
इस बार जनगणना के साथ एक यूनिक आइडेंटिटी कार्डबनने की प्रक्रिया भी चल रही है. अभी घरों को गिना जा रहा है, दूसरे चरण में फरवरी 2011 में उन्‍हीं घरों में दोबारा जाया जाएगा जिन्‍हें गिना जा चुका है. मुझे चिंता उन लोगों और घुमन्‍तु जातियों की है जिनके पास न तो कोई अपना घर है, न ही कोई स्‍थाई ठिकाना. उन्‍हें भारत के नागरिक के रूप में गिना जाएगा या नहीं? यूनिक आइडेंटिटी कार्ड बनवाकर वे भारत के नागरिक बन पायेंगे या नहीं? एक संभावना ये भी बनती है कि इनमें से कोई भी अगर यूनिक आई कार्ड नहीं बनवा पाया उसे सरकार घुसपैठिया घोषित कर दे. मूल निवासियों को घुसपैठिया बनाने की यह प्रक्रिया काफी दिलचस्‍प होगी.     
आज हमारे सामने मूल सवाल यह है कि समाज से जातिगत भेदभाव कैसे खत्‍म किया जाए और पिछडी जातियों का जीवन-स्‍तर कैसे ऊंचा उठाया जाए! इस लक्ष्‍य की प्राप्ति में जातिवार जनगणना सहायक होगी या जातिरहित जनगणना? जातिवार जनगणना के विरोधी कह रहे हैं कि जाति तो खत्‍म हो चुकी है, जनगणना में जाति का सवाल जोडने से इसका फिर उभार हो सकता है. उपर्युक्‍त बातों से जाहिर होता है कि उनकी यह बात बेतुकी है. जाति भारतीय समाज की एक कडवी सच्‍चाई है. दस साल में एक बार होने वाली जनगणना में धर्मभाषालिंगव्यवसाय आदि के साथ-साथ जाति की भी गणना की जानी चाहिए. इससे भयभीत होने का कोई तर्कसंगत कारण नहीं है। धर्म के आधार पर यह देश एक बार टूट चुका है और भाषाई दंगों का भी लंबा इतिहास रहा है। लेकिन इस आधार पर धर्म और भाषा को जनगणना से हटाया नहीं गया। धर्म की गिनती से अगर सांप्रदायिकता नहीं बढ़ती और भाषाओं की गिनती से भाषिक वैमनस्य नहीं फैलता,  तो जाति गिनने से जातिवाद कैसे बढ़ेगा उलटेजातियों की गिनती के संगठित विरोध के पीछे कठोर जातिगत पूर्वग्रह हो सकते हैं। उनका सुझाव है कि हम कोई जाति-पांति नहीं मानते, इसलिए हमें हिन्‍दुस्‍तानीके रूप में गिना जाए. जनगणना फॉर्म में जाति के कॉलम में एक विकल्‍प ऐसे लोगों के लिए भी बनाया जाए जो जाति नहीं मानने का दावा कर रहे हैं ताकि उनकी वास्‍तविक संख्‍या भी पता चल जाए.
     
मीडिया के तमाम प्रतिक्रियावादी प्रयासों के बावजूद जातिवार जनगणना के मुद्दे पर चारों तरफ बहस का माहौल है. बहसकर्ता विद्वानों में से कुछ यह समझाने की भी कोशिश कर रहे हैं कि सिर्फ ओबीसी की जनगणना हो. इस मांग के निहि‍तार्थ खतरनाक हैं. इसके पीछे वही मानसिकता काम कर रही है जो देश में सवर्णों की संख्‍या अधिक से अधिक दिखाकर संसाधनों पर उनके अधिकारों को जायज ठहराने की कोशिश कर रही है. अगर सिर्फ ओबीसी की जनगणना होती है तो एससी, एसटी (इनकी जनगणना हर बार होती है) और ओबीसी की श्रेणी से बाहर जो भी बचेगा, उसे स्‍वाभाविक रूप से सामान्‍यमान लिया जाएगा. फिर इन्‍हीं सामान्‍यश्रेणी के लोगों की संख्‍या को सवर्णों की संख्‍या के रूप में पेश किया जाएगा. इसलिए जनगणना सिर्फ ओबीसी जातियों की नहीं, बल्कि सभी जातियों की होनी चाहिए ताकि सामान्‍यकी वस्‍तुस्थिति समझने में भी मदद मिले.     
इस संदर्भ में यह भी दिलचस्‍प है कि जहां भारतीय संसद में जातिवार जनगणना के पक्ष में आम सहमति का माहौल है, वहीं मीडिया इसके खिलाफ आम सहमति प्रदर्शित करने की पूरी कोशिश कर रहा है. मीडिया के बारे में यह किसी से छिपा नहीं है कि वहां उपेक्षित समुदायों की भागीदारी नगण्‍य है. उन्‍हें उचित भागीदारी के लिए उनके दरवाजे पर दस्‍तक दे रहे दलित-आदिवासी और पिछडे समुदायों का भय सताने लगा है, इसलिए वे एकजुट हो गए हैं. वे अपनी राय को इस रूप में पेश कर रहे हैं मानो वह पूरे देश की राय हो. संभवतः जनसत्‍ताऔर द हिन्‍दूको छोडकर किसी ने भी जातिवार जनगणना का पक्ष लेने वाला कोई आलेख नहीं छापा है.     
हमारे देश के नेताओं ने 80 साल यही सोचकर निकाल दिए कि जाति की गणना नहीं होने से जातिवाद खत्‍म हो जाएगा. लेकिन परिणाम उल्‍टे निकले. अब क्‍यों न एक बार जातिवार जनगणना करके देख ही लिया जाए, कौन जाने जातिगत भेदभाव को खत्‍म करने का कोई रास्‍ता इसी में से निकल जाए ! जनगणना के दौरान समाज और उसकी विविधता के बारे में आंकड़े जुटाना विकास की योजनाओं के लिए जरूरी है। जातिवार जनगणना से तमाम जातियों की आर्थिक स्थिति, देश के संसाधनों व नौकरियों में उनकी भागीदारी की असली तस्‍वीर हमारे सामने आ सकेगी. जाहिर है उपेक्षित समुदायों को उनका हक दिलाया जाएगा और उसी से क्रमशः जातिगत भेदभाव कम होगा.
यह आलेख जी एस मीणा से लिया गया है 

Other links from this blog

MEGHnet

Meghvanshis resolve to eradicate social evils – सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए कृतसंकल्प मेघवंशी

बीकानेर में मेघवंशियों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया जिस में सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए संकल्प लिया गया. इसे नीचे दिए लिंक पर देखा जा सकता है:-

मेघवंशियों का सम्मेलन

MEGHnet

Human Rights Day special – (Jotiba Phule) – मानवाधिकार दिवस पर विशेष- महात्मा जोतीबा फुले

Mahatma Jotiba Phule (Photo Wikipedia)
महात्मा जोतीबा फुले को सत्य शोधक समाज’ (Satya Shodhak Samaj) की स्थापना, महिलाओं के अधिकारों (Women Rights) के लिए संघर्ष और श्रमिक जागृति के लिए किए गए कार्य के लिए जाना जाता है. उनकी पुस्तक गुलामी’ (Slavery) की चर्चा मैंने सुनी थी परंतु इसे तभी देखा जब बलीजन सांस्कृतिक आंदोलन (Balijan Cultural Movement) के बारे में जानकारी प्राप्त हुई. हाल ही में इसे पढ़ने का मौका मिला. इसे पढ़ कर अहसास हुआ कि मेरी जानकारी कितनी कम थी जब मैं मेघनेट और मेघ भगत पर आलेख लिख रहा था. उन आलेखों में कई ऐसे थे जो मुझे अपना आइडियालगे. परंतु उनमें से बहुत से आइडियामहात्मा फुले की सन् 1873 में लिखी पुस्तक में उपलब्ध थे. पुस्तक के कई पृष्ठ एक ही बैठक में पढ़ गया. इसमें राजा बली (Mahabali, Maveli), उसके पूर्वजों, उसके उत्तराधिकारियों, उसकी प्रजाओं और उनकी आज की स्थिति के बारे में एक साफ़ तस्वीर उभर कर आई. देश की बहुसंख्यक आबादी (majority of the people) के ग़रीब होने और उनकी दासता की बेड़ियों का ताना-बाना और ताना-पेरा समझ में आने लगा. आर्य (Aryans) आक्रमणकारियों ने इस देश के मूल निवासियों (aboriginals) को ग़ुलाम बनाने के लिए कैसे-कैसे हिंसक तरीके (violence) अपनाए इसका खुलासा मिला. साथ ही उन्होंने अपने हिंसक तरीकों को कैसे धर्म’ (Religion) में लपेटे रखा उसका भी पता चला. महात्मा फुले आगे चल कर डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर (Dr. Baba Sahab Ambedkar) के वृहत् कार्य का आधार बने.  इस बीच महेश्वरी समाज की वेबसाइट पर एक आलेख मिला जिसे प्रोफेसर वी.जे. नाइक (Prof. J.V. Naik, Renowned Scholar-Historian and Ex-Chairman, Indian History Congress) ने लिखा था Mahatma Phule – India’s First Social Activist and Crusader for Social Justice.

इस आलेख को पढ़ कर भारत के मेघ समुदाय (Meghvansh) का ध्यान आया जो अभी तक इस प्रश्न के साथ जूझ रहा है कि वह कौन है, उसका इतिहास क्या है, उसकी जनसंख्या कितनी है, उनकी शिक्षा का स्तर क्या है, उसका धर्म क्या है आदि. उसे आज तक कुछ भी तो पता नहीं. महात्मा फुले को उक्त पुस्तक लिखे 138 वर्ष हो चुके हैं. शिक्षा से वंचित रखे इस समुदाय के 98 प्रतिशत लोगों (जिसमें SC,ST और OBC शामिल हैं) को महात्मा फुले का नाम पता नहीं होगा. ऐसे समाज को अपनी गुलामी का अहसास कराना कितना कठिन है. अब शिक्षा इतनी मँहगी कर दी गई है कि ये मेघवंशी समुदाय शताब्दियों तक इसके साथ कदम मिला कर नहीं चल सकते. नतीजा यही कि वे लंबी अवधि के लिए ग़ुलामी का जीवन जीते हुए सस्ता श्रम बन कर रह जाएँगे. इस कुचक्र का नाम है:-
‘Costly education in India helps continuity of system of slavery in the form of cheap labor.’ (भारत में मँहगी शिक्षा दासता की प्रथा को सस्ते श्रम के रूप में जारी रखने में सहायता करती है.) 
A link for information on Human Rights Day (10-12-2010)


All links retrieved on 09-12-2010
MEGHnet  

Struggle Against Social Evils – सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध संघर्ष

मृत्यु भोज (Death Feast) का किया विरोध


डबवाली (लहू की लौ) मेघवाल महासभा की एक बैठक रविवार को बाबा रामदेव मंदिर धर्मशाला में हुई. जिसकी अध्यक्षता हल्का मलोट के पूर्व एम.एल.ए. श्री नत्थू राम ने की.

बैठक को मेघवाल सभा श्रीगंगानगर के (सर्वश्री) अध्यक्ष अभय सिंह, पूर्व अध्यक्ष कांशी राम चौहान, मेघवाल महासभा हरियाणा के धन्ना दास ऋषि, लीलू राम मेघवाल सदस्य अखिल भारतीय मेघवाल महासभा, बुध राम जिला परिषद सदस्य, मास्टर किशन चन्द्र गंगा, आत्मा राम सुढा चौटाला, चानन सिंह ब्लाक अध्यक्ष औढ़ां, राजेन्द्र राठी ब्लाक अध्यक्ष डबवाली, इन्द्राज सिंह मेघवाल, बलकौर सिंह, राजा राम आदि ने संबोधित किया. वक्ताओं ने अपने संबोधन में मेघवाल समाज के सदस्यों को संगठित होने का आह्वान किया. समाज में फैली कन्या भ्रूण हत्या, दहेज प्रथा, नशा खोरी तथा मृत्यु भोज जैसी बुराई को खत्म करने की शपथ दिलाई.

मेघवाल (Meghwal) कौन हैं

श्री इन्द्राज सिंह मेघवाल ने मेघवालों के संदर्भ में बताया कि मेघवाल, मेघ ऋषि (Megh Rishi) के वंशज  हैं. जिन्होंने सर्वप्रथम कपड़ा तैयार किया. कुछ समय पूर्व इन्हें चमार (चमड़ा प्रयोग करने वाले) कहकर पुकारा जाता था. लेकिन मेघवालों का कार्य चमड़े का न होकर कपड़ा बनाना है. माननीय सुप्रीम कोर्ट ने भी चमार को अपमानित शब्द की संज्ञा दी है. इस प्रकार अब उनके जाति प्रमाण-पत्रों में चमार की अपेक्षा मेघवाल शब्द का प्रयोग होने लगा है. मेघवाल अनुसूचित जाति से संबंध रखते हैं. पूरे भारत में इनकी संख्या तकरीबन 10 करोड़ है. जिनमें से करीब 15 लाख मेघवाल हरियाणा राज्य में रहते हैं.
साभार – लहू की लौ

Linked to MEGHnet