Monthly Archives: November 2012

Indian Government ji, wake up – भारत सरकार जी, जागो

पोंटी चड्डा के मामले में मेरी नज़र केवल इस तथ्य पर अटक कर रह गई है कि उनके परिवार के कुछ सदस्यों को एक ही दिन में कई हथियारों के लाइसेंस दे दिए गए. उसके साथ ही बुलंदशहर में एक पति की हत्या (जिसे बदतमीज़ मीडिया अभी भी ऑनर किलिंग कहे जा रहा है) में प्रयोग हुए फायर आर्म्ज़ ने मुझे उन सभी घटनाओं की याद दिला दी है जिनमें यहाँ-वहाँ गली-कूचे में पता नहीं कहाँ से तमंचे, पिस्तौलें, राइफलें निकल आती हैं और खून से सनी लाशें छोड़ जाती हैं.

देश में आर्थिक हालात काफी तेज़ी से बदल रहे हैं. लोगों में ज़बरदस्त असंतोष है और सिस्टम के प्रति घृणा व्याप्त हो रही है. केजरीवाल की एक प्रेस कांफ्रेंस में प्रशांत भूषण ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि देश में गृहयुद्ध के हालात बन रहे हैं. पता नहीं सरकार की मंशा क्या है.
मैं सरकार पर कोई व्यंग नहीं करना चाहता हालाँकि प्रशासन हथियार और लाइसेंस देता है. अब समय आ गया है कि सरकार जारी हथियार वापस ले और उनकी संख्या को न्यूनतम करे. माफिया की नकेल कसे.

देश को भयंकर परिणामों से बचाने की सख़्त ज़रूरत है.

Let us play fire – आओ ठायँ-ठायँखेलें


Ashoka the great – Ravana the great – अशोक महान – रावण महान

बचपन से एक प्रश्न मन में था कि लंका में बनी अशोक वाटिका में क्या कभी सम्राट अशोक रहते थे या यह वाटिका अशोक ने बनवाई थी? सीता-माता जिसमें रह रही थी उस वाटिका को हनुमान ने क्यों नष्ट कर दिया?


खैर ये बच्चे के मन में उठे छोटे-छोटे बेकार प्रश्न हो सकते हैं. फेसबुक पर एक प्रकरण पढ़ा जिसमें तार्किक दृष्टि से मुझे एक नई बात का पता चला. इसमें बड़ा प्रश्न निहित है कि रामायण (जिसे इतिहास से भी पहले का अतिप्राचीन ग्रंथ कहा जाता है) पहले लिखी गई या इतिहास में लिखे बुद्ध पहले हुए. इस बारे में फेसबुक पर अशोक दुसाध ने रामायण में से ही एक उद्धरण दिया है जो इस प्रकार है-

यथा हि चोरः स तथा ही बुद्ध स्तथागतं नास्तीक मंत्र विद्धि तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानाम् स नास्तीके नाभि मुखो बुद्धः स्यातम् -अयोध्याकांड सर्ग 110 श्लोक 34

जैसे चोर दंडनीय होता है इसी प्रकार बुद्ध भी दंडनीय है तथागत और नास्तिक (चार्वाक) को भी यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिए. इसलिए नास्तिक को दंड दिलाया जा सके तो उसे चोर के समान दंड दिलाया ही जाय. परन्तु जो वश के बाहर हो उस नास्तिक से ब्राह्मण कभी वार्तालाप ना करे! (श्लोक 34, सर्ग 109, वाल्मीकि रामायण, अयोध्या कांड.)”
इस श्लोक में बुद्ध-तथागत का उल्लेख होना हैरान करता है और इसके आधार पर मैं इस तर्क को अकाट्य मानता हूँ कि बुद्ध पहले हुए और रामायण की रचना बाद में की गई.  

इसी संदर्भ में फेसबुक पर क्षेत्रीय शक्यपुत्र की एक अन्य पोस्ट देखी जो इस कहानी को अन्य तरीके से कहती है. फिर भी इस बात का ध्यान रखना होगा कि पुरानी कथा-कहानियाँ कई तरीके सुनी-सुनाई जाती रही हैं अतः लिखी बात का अर्थ भी हर व्यक्ति को अलग तरीके से संप्रेषित होता है. (हालाँकि शक्य पुत्र की यह पोस्ट रामायण की कथा में खोज-खुदाई करती है और अशोक के संदर्भ में कुछ समानताओं और विसंगतियों को ढूँढ लाती है, लेकिन इस पोस्ट में अपनी भी कुछ विसंगतियाँ हो सकती हैं.) ब्लॉग की दृष्टि से इसका थोड़ा सा संपादन मैंने किया है.

“1-रावण के कार्यकाल में अशोक वाटिका कहाँ से आती है? कहीं साहित्यकारों ने चक्रवर्ती सम्राट अशोक को रावण के रूप में प्रदर्शित तो नहीं किया? क्योंकि, रावण की कुछ विशेषताएँ थीं जो कि सम्राट अशोक से मिलती जुलती हैं, महान विद्वान, वीर योद्धा, शूर सिपाही, बहुत बड़ा संत, अपने संबंधियों व प्रजा का दयालुता पूर्वक पालनकर्ता, शक्तिशाली पुरुष, वरदानी पुरुष,तना ही नहीं बल्कि रावण एक बौद्ध राजा था ऐसा श्रीलंका स्थित कुछ विद्वान भिख्खुओं का कहना है. आज भी रावण को श्रीलंका में पूजनीय माना जाता है. श्रीलंका में रावण के विहारों में कुछ मूर्तियाँ और कुछ शिल्पकलाएँ पाई जाती हैं जिनमें रावण धम्म का प्रचार करते हुए स्पष्ट नजर आते हैं. इतिहास को एक बार देखा जाए तो श्रीलंका में बौद्ध धम्म को फैलाने वाले और कोई नहीं वे सम्राट अशोक ही थे. रावण ऋषियों से घृणा करते थे. क्यों? क्योंकि वे यज्ञ के नाम पर छल-कपट पूर्ण स्वधर्म नियमानुसार गूँगे पशुओं को आग में बलि दे कर हृदय विदारक अपराध करते थे. तो इसी से यह साफ होता है कि रामायण एक काल्पनिक एवं बम्मनों द्वारा रची हुई नकली कथा है. अगर रावण यज्ञ में चल रहे पशुओं की बलि सह नहीं सकते थे तो क्या वे जटायु नामक पशु को मार सकते हैंरामायण में एक और कथा कही गयी है कि रावण ने सभी देवी-देवताओं को बंदी किया था. यह कथा भी सम्राट अशोक की कथा से मिलती जुलती है. क्योंकि सम्राट अशोक ने भी धम्म में घुसे हुए कुछ नकली लोगों को बंदी बनाकर उन्हें धम्म से हटा दिया था. अगर आप एक बार रामायण पढ़ें तो उसमें आपको दिखाई देगा कि इस नकली एवं काल्पनिक ग्रंथ के लेखक ने खुद रावण की प्रशंसा की है. वह लिखता है कि रावण एक सज्जन पुरुष था. वह सुंदर और उत्साही था. किंतु जब रावण ब्राह्मणों को यज्ञ करते हुए और सोमरस पीते हुए देखते थे तो उन्हें कड़ा दंड देते थे. इसलिए मुझे तो लगता है कि सम्राट अशोक का विद्रूपीकरण करके ही पाखंडियों ने रावण को ऐसा प्रदर्शित किया है. क्योंकि इतिहास तो यही कहता है कि धर्मांध लोगों द्वारा दशहरा माना जाता है. दशहरा का और दस पारमिता का कही कोई संबंध तो नहीं? क्योंकि इसी दिन सम्राट अशोक ने शस्त्र का त्याग कर बुद्ध का धम्म अपनाया था. जिसे आज हम धम्मचक्र प्रवर्तन दिन और अशोक विजयादशमी कहते हैं. आपने रामायण पढ़ी है? उसमें एक श्लोक आता है जो खुद रामायण की रचना करने वाले वाल्मीकि राम के मुख से कहलवाते हैं कि-

यथा हि चोरः स तथा ही बुद्ध स्तथागतं नास्तीक मंत्र विद्धि 

तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानाम् स नास्तीके नाभि मुखो बुद्धः स्यातम् –
                                                                                       (अयोध्याकांड, सर्ग 110, श्लोक 34)

जैसे चोर दंडनीय होता है इसी प्रकार बुद्ध भी दंडनीय है तथागत और नास्तिक (चार्वाक) को भी यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिए. इसलिए नास्तिक को दंड दिलाया जा सके तो उसे चोर के समान दंड दिलाया ही जाय. परन्तु जो वश के बाहर हो उस नास्तिक से ब्राह्मण कभी वार्तालाप ना करे!

उपर्युक्त श्लोक अपने आप में यह सिद्ध करने में पर्याप्त है कि रामायण की रचना बुद्ध के काल के बाद की है. यही कारण है कि रामायण के रचनाकार ने बुद्ध और नास्तिकों के प्रति अपना आक्रोश प्रकट करने का अवसर भी खोना नहीं चाहा. चाहे राम और रामायण काल्पनिक हो सकते हैं पर अनजाने में लेखक ने जो बुद्ध का उल्लेख किया है उसका क्या? क्या बुद्ध काल्पनिक है? सलिए दोस्तो बम्मनों द्वारा क्या ऐसी कथाएँ सिर्फ बौद्धों के प्रति अपनी घृणा व्यक्त करने के लिए रची जाती हैं? क्योंकि संपूर्ण रामायण में रावण को नास्तिक कहा है और पाखंडियों के मतानुसार तो नास्तिक सिर्फ बौद्ध धम्मीय होते हैं. रावण को भी नास्तिक कहा है. क्या रावण बौद्ध था? क्या सम्राट अशोक को ही रावण के रूप में प्रदर्शित किया है?
2-सम्राट अशोक के पुत्र भदंत महेन्द्र की रामायण में नक़ल!! मोग्लिपुत्त तिष्य की  आज्ञा से सम्राट अशोक ने पहले अपने प्रिय पुत्र महेन्द्र को, इत्तीय, शम्बल, उक्तिय और भादशाल इन चार भिक्षुओं सहित श्रीलंका भेजा. बाद में पुत्री संघमित्रा को भी भेजा. विदिशागिरी में पहुँचने पर महेन्द्र ने अपने माता के भतीजे के पुत्र भंदुको बुद्ध धम्म में दीक्षित कर भिक्षु बनाया और भंदु को साथ लेकर महेन्द्र अपने चार साथियों सहित श्रीलंका में मिस्सक (मिश्रक) पर्वत के समीप पहुँचा. इसी समय श्रीलंका का राजा देवानुप्रिया त्तिष्य अपने 40,000 अनुयायियों के साथ एक हरिण का शिकार करने में लगा था. एक हरिण भागता हुआ मिस्सक (मिश्रक) पर्वत पहुँचा जहाँ महेन्द्र अपने साथियों सहित ठहरा हुआ था. देवानुप्रिया त्तिष्य अपने 40,000 अनुयायियों के साथ हरिण के पीछे-पीछे हो लिया और हरिण महेन्द्र के पास पहुँच कर लुप्त हो गया और इस प्रकार देवानुप्रिया त्तिष्य का भदंत महेन्द्र के साथियों से परिचय हुआ और श्रीलंका का राजा देवानुप्रिया त्तिष्य महेन्द्र और उनके साथियों को लंका लेकर चला गया.

रामायण में इसकी नक़ल इस प्रकार की गई है- 

वनवास के समय, एक रावण (देवानुप्रिया त्तिष्य लंका के राजा को रावण बना दिया) ने सीता का हरण किया था (सही घटना का अर्थ “श्रीलंका का राजा देवानुप्रिया त्तिष्य महेन्द्र और उनके साथियों को लंका लेकर चला गया”). रामायण के अनुसार, सीता और लक्ष्मण कुटिया में अकेले थे तब एक हिरण की वाणी सुन कर सीता परेशान हो गयी और श्रीराम अपनी भार्या की इच्छा पूरी करने हरिण के पीछे-पीछे हो लिए (सही घटना का अर्थ “हरिण की आवाज सुन कर श्रीलंका का राजा देवानुप्रिया त्तिष्य हरिण के पीछे-पीछे हो लिया”). राम को बहुत दूर ले गया. मौका पा कर राम ने तीर चलाया और हिरन बने मारीच का वध कर दिया. मरते-मरते मारीच ने ज़ोर से “हे सीता! कहा (सही घटना का अर्थ “हरिण ने राजा देवानुप्रिया त्तिष्य को मारीच (मिस्सक) पर्वत ले गया जहाँ सम्राट अशोक का बेटा भदंत महेन्द्र अपने साथियों के साथ रुके थे”). रामायण में मारीच नामक इस पर्वत को रावण का मामा मारीचकह कर नाम की नक़ल की गई. वास्तव में मारीच यह पर्वत है जहाँ श्रीलंका का राजा देवानुप्रिया त्तिष्य और सम्राट अशोक के पुत्र महेन्द्र और उनके साथियों में पहली भेंट हुई थी…….देवानुप्रिया त्तिष्य का भदंत महेन्द्र के साथियों के परिचय को काल्पनिक कथा का स्वरूप देकर रामायण के पाखंडी रचनाकार ने “सीता हरण” के नाम से जनमानस के मन-मष्तिक में ठूँस दिया.

BAMCEF-3 – बामसेफ-3

बामसेफ-बीएमएम चंडीगढ़ यूनिट की एक साप्ताहिक बैठक 04-11-2012 को अंबेडकर भवन, सैक्टर-37 ए, चंडीगढ़ में आयोजित हुई जिसमें भाग लेने का अवसर मिला. बामसेफ से मेरा संपर्क युवावस्था में हुआ था जब मैंने इसकी एक बैठक ए.जी. ऑफिस सैंक्टर-17 में देखी थी. बाद में माननीय काशीराम जी के देहत्याग के बाद बामसेफ काफी उतार-चढ़ाव में से गुज़री है. अब माननीय वामन मेश्राम के नेतृत्व में इसने काफी प्रगति की है और आरक्षण प्राप्त शूद्र और दलित कर्मचारियों के एक राष्ट्रव्यापी संगठन के रूप में जानी जाती है. बामसेफ दो समाचार पत्रों का प्रकाशन कर रही है. मूलनिवासी नायक जो दैनिक है और बहुजनों का बहुजन भारत जो साप्ताहिक है. इनका प्रकाशन लखनऊ और पुणे से हो रहा है.

प्रकाशनों से स्पष्ट होता है कि बामसेफ की एक सुस्पष्ट विचारधारा है जिसका वह प्रचार करती है और सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन के लिए प्रतिबद्ध है. इसके सामाजिक संगठन का नाम भारत मुक्ति मोर्चा है.

प्रतिभागी- (बैठे हुए बाएँ से) सुश्री संतोष, सर्वश्री दिलीप कुमार अंबेडकर, राजसिंह पारखी, हरिकृष्ण साप्ले, रामभूल सिंह, सतपाल, नंदलाल, अनिल यादव और जयप्रकाश,
(खड़े हुए) जेम्ज़ मसीह गिल, मनोज वर्मा, फूल सिंह, मल्लू राम, अयोध्या प्रसाद, कुलदीप माही, रामबहादुर पटेल और सुरेंद्र कुमार.

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Dalit Community (Today’s Valmikis) were mislead – दलित समुदाय (आज के वाल्मीकियों) को गुमराह किया गया था

इसे पढ़ कर आपकी तीसरी आँख खुल जाएगी-

जब हम इतिहास का अवलोकन करते हैं, तो 1925 से पहले हमें वाल्मीकि शब्द नहीं मिलता. सफाई कर्मचारियों और चूह्डों को हिंदू फोल्ड में बनाये रखने के प्रयोजन से उन्हें वाल्मीकि से जोड़ने और वाल्मीकि नाम देने की योजना बीस के दशक में आर्यसमाज ने बनाई थी. इस काम को जिस आर्यसमाजी पंडित ने अंजाम दिया था, उसका नाम अमीचंद शर्मा था. यह वही समय था, जब पूरे देश में दलित मुक्ति के आन्दोलन चल रहे थे. महाराष्ट्र में डा. आंबेडकर का हिंदू व्यवस्था के खिलाफ सत्याग्रह, उत्तर भारत में स्वामी अछूतानन्द का आदि धर्म हिंदू आन्दोलन और पंजाब में मंगूराम मूंगोवालिया का आदधर्म आन्दोलन उस समय अपने चरम पर थे. पंजाब में दलित जातियाँ बहुत तेजी से आदधर्म स्वीकार कर रही थीं. आर्यसमाज ने इसी क्रांति को रोकने के लिए अमीचंद शर्मा को काम पर लगाया. योजना के तहत अमीचंद शर्मा ने सफाई कर्मचारियों के मोहल्लों में आना-जाना शुरू किया. उनकी कुछ समस्याओं को लेकर काम करना शुरू किया. शीघ्र ही वह उनके बीच घुल-मिल गया और उनका नेता बन गया. उसने उन्हें डा. आंबेडकर, अछूतानन्द और मंगूराम के आंदोलनों के खिलाफ भडकाना शुरू किया. वे अनपढ़ और गरीब लोग उसके जाल में फँस गए. 1925 में अमीचंद शर्मा ने श्री वाल्मीकि प्रकाशनाम की किताब लिखी, जिसमें उसने वाल्मीकि को उनका गुरु बताया और उन्हें वाल्मीकि का धर्म अपनाने को कहा. उसने उनके सामने वाल्मीकि धर्म की रूपरेखा भी रखी.

पूरा आलेख आप नीचे दिए लिंक से देख सकते हैं.

वाल्मीकि जयंती और दलितमुक्ति का प्रश्न

Aborigines (Adivasis) struggle for independence – स्वतंत्रता के लिए मूलनिवासी (आदिवासी) संघर्ष

25 नवंबर 2010 को मैंने भीलों (भील मीणा) मूलनिवासियों की अपनी स्वतंत्रता के लिए किए गए संघर्ष के बारे में एक पोस्ट यहाँ लिखी थी. भीलों की वह कुर्बानी जलियाँवाला बाग़ की घटना से कई गुणा बड़ी है जिसे इतिहासकारों ने समुचित स्थान न दे कर बेईमानी का काम ही किया है क्योंकि वह संघर्ष अंग्रेज़ों के विरुद्ध नहीं था बल्कि उस व्यवस्था के विरुद्ध था जिसने उन्हें ग़ुलाम बनाया हुआ था. अब तो ब्राह्मण भी उस व्यवस्था को ब्राह्मणवादया मनुवादकहने लगे हैं.

उस संघर्ष के तथ्यों को भारत के मूलनिवासियों ने अब भली प्रकार से उठाना शुरू किया है और उन्हें मान्यता मिली है. 17-11-12 को उस शहादत के सौ वर्ष पूरे हो जाएँगे. इस अवसर पर ‘मानगढ़ धाम’ पर कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है और एक पुस्तक शहादत के सौ सालजारी की जाएगी जिसके प्रधान संम्पादक केबिनेट मंत्री महेन्द्रजीत मालवीया हैं. आशा है कि इस पुस्तक से भारत के मूलनिवासियों के अभी भी चल रहे स्वतंत्रता संघर्ष के बारे में और भी तथ्यात्मक जानकारी अवश्य उपलब्ध हो जाएगी.
इस कार्यक्रम की सूचना श्री पी एन बैफलावत ने फेसबुक पर इस प्रकार दी है.
आदिवासी शहादत के सौ सालदिनांक 17-11-1913 को “मानगढ़ पहाड़ी” बांसवाड़ा पर आदिवासी संत गोविन्द गिरी (जिन्हें गोविंद गुरु भी कहा जाता है) के नेतृत्व में अपनी स्वतंत्रता व माँगो के लिए आयोजित मेले पर एकत्रित आदिवासियों के दमन हेतु संत रामपुर, कुशलगढ़, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, सिरोही और मेवाड़ के राजाओं ने अंग्रेज पोलिटिकल एजेन्ट के साथ साज़िश रचकर अंग्रेज सरकार से आदिवासियों की बग़ावत की झूठी शिकायत की. अंग्रेज सरकार ने कर्नल शटन की कमाण्ड में इन राज्यों की सेना के साथ दो अंग्रेज बटालियन भेजी और गोविन्द गिरी और उनके साथियों की गिरफ्तारी व दमन का आदेश दिया. चारों ओर से घेर कर आदिवासियों पर अन्धाधुंध गोलियाँ बरसाई गईं जिसमें हजारों आदिवासी घायल हुए. सरकारी आंकड़ों के अनुसार 1600 सौ आदिवासी मारे गये. यह बलिदान जलियाँवाला बाग हत्याकाँड से चार गुणा बड़ा था. रियासत शासक और मनुवादी लेखकों ने इस घटना को वर्षों तक दबाये रखा. जब जागरूक आदिवासी इस घटना को देश के सामने लाये तब जाकर इसे शहादत की मान्यता मिली. 17-11-2012 को इस शहादत दिवस के शताब्दी वर्ष पर “मानगढ़ धाम” पर श्री रमेश चन्द मीणा एमएलए, टोडाभीम के अथक प्रयास से इस शहादत को नमन करने के लिए दो लाख आदिवासियों की सभा की जा रही है. साथ ही राज्य सरकार की ओर से राजस्थान के इस मानगढ़ धाम पर आजादी के आन्दोलन के दौरान हुए नरसंहार के शताब्दी वर्ष पर प्रकाशित की जा रही पुस्तक “शहादत के सौ साल” कई राज़ खोलेगी. पुस्तक के प्रधान संम्पादक केबिनेट मंत्री महेन्द्रजीत मालवीया हैं. समस्त देश के आदिवासी व अन्य देश प्रेमी इस शहादत को नमन व सम्मान देने अवश्य पधारें.

Bharat Jansandesh भारत जनसंदेश – Dalit Media-4 – दलित मीडिया-4 –

दलित मीडिया पर कुछ पोस्ट्स मैंने यहाँ, यहाँ, और यहाँ लिखी हैं. इस विषय में कई लोगों और संगठनों से बात हुई है. सभी का मत एक है कि दलितों (शूद्रों का भी कहना होगा) का अपना मीडिया होना चाहिए जो उनका पक्ष ईमानदारी से रखे.
हर राजनीतिक पार्टी का अपना एक मुख-पत्र है. ऐसे ही कई संगठनों, जैसे आरएसएस, शिवसेना, बामसेफ आदि के मुख-पत्र हैं.
04-11-2012 को बामसेफ की एक बैठक में संयोग से एक सज्जन जय प्रकाश से भेंट हुई जिन्होंने भारत जनसंदेश की एक प्रति मुझे दी. यह इस समाचार-पत्र के पहले अंक (25 सितंबर से 24 अक्तूबर 2012) की प्रति थी जिसके पृष्ठों के फोटो नीचे दिए हैं.
अब तक दलित समुदायों के जितने समाचार-पत्र मेरी जानकारी में आए हैं यह उनसे बेहतर है, लगभग संपूर्ण समाचार-पत्र.
पहली नज़र में यह बसपा का मुख-पत्र प्रतीत होता है लेकिन अभी इसकी पुष्टि नहीं हो पाई. पहले एडिशन से इसके भावी रूप-रंग का संकेत मिल जाता है. अभी उसके विस्तार में नहीं जाना चाहता. फिलहाल शुभकामनाएँ.

फेसबुक से प्राप्त फोटो जानकारी

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Manuvadi hate Lord Macaulay – मनुवादी मैकाले से घृणा करते हैं

Here is an article namely Macaulay v/s Manu-


मनुवादी लॉर्ड मैकाले से नफरत करते हैं और उनके पास इसका बहुत अच्छा कारण है. यह एक तथ्य यह है कि मैकाले द्वारा 1837 में तैयार किया गया भारत दंड संहिता (आईपीसी) का मसौदा भारतीय नहीं है और इसी ने दलितों को सुमति भार्गव की मनुस्मृति के दमनकारी कानून से बचाया था. आईपीसी के साथ ही तैयार शिक्षा का कार्यवृत्त (1835)’ ने निश्चित ही भारत को ऐसे रास्ते पर ला खड़ा किया जहाँ से हम पृथ्वी पर महानतम देश बनने राह पर निकल पड़े हैं. फिर भी, सच्चाई यह है कि आईपीसी हिंदू संस्कृति के लिए पराया है. यही कारण है कि यह अभी भी बहुत अच्छी तरह से काम नहीं पा रहा है. यह सिर्फ समय की बात है कि हम कई ऐसे नियम बना लें कि मैकाले की दंड संहिता बुरी तरह उलझ कर रह जाए और फालतू का बोझ लगने लगे.

क्या आईपीसी को हटाना भारत के लिए दुखद होगा या अच्छा होगा? जब हम इस माह 06अक्तूबर, 1860 को शुरू भारतीय दंड संहिता के औपचारिक रूप से लागू होने और मैकाले के जन्मदिन (25 अक्टूबर, 1800) का जश्न मनाएँ तब इस प्रश्न पर अवश्य विचार करना चाहिए.

लॉर्ड थॉमस बैबिंगटन मैकाले, गवर्नर जनरल काउंसिल ऑफ इंडिया (1834-38) के पहले कानूनी सदस्य थे. उन्होंने स्वीकार किया है कि उन्होंने आईपीसी का निर्माण आम भारतीयों के लिए किया है ताकि भारत को बर्बाद करने वाली मनुस्मृति और उन ब्रिटिश शासकों के अहंकार से उनकी रक्षा की जा सके जो ख़ुद को नए ब्राह्मण मानते थे और समझते थे कि वे शोषण करने के लिए प्राधिकृत हैं.

आईपीसी का मसौदा प्रस्तुत करते हुए मैकाले ने अपने कवर पत्र में स्पष्ट रूप से अपनी पुस्तक सूची पर आधारित वैश्विक नजरिया दिया था जिसने ब्राह्मणवाद और ब्रिटिश नस्लवाद दोनों को खारिज कर दिया था.

Matua Movement – मतुआ आंदोलन


दिनांक 23-09-2012 को बामसेफ (मेश्राम) के एक दिवसीय कार्यक्रम के समय उनकी एक पत्रिका ‘बहुजन भारत’ का मार्च 2012 का विशेषांक खरीद लाया था. 22वें बामसेफ और राष्ट्रीय मूलनिवासी संघ के संयुक्त राष्ट्रीय अधिवेशन में विभिन्न राज्यों से आए प्रतिनिधियों द्वारा प्रस्तुत आलेखों का सार इसमें दिया गया है. यह अधिवेशन गुलबर्गा (कर्नाटक) में 24 दिसंबर से 28 दिसंबर 2011 तक आयोजित किया गया था.
उक्त पत्रिका से मतुआ धर्म (आंदोलन) की जानकारी मिली.


मतुआ आंदोलन

आज से 200 वर्ष पूर्व मतुआ धर्म की स्थापना नमोशूद्र हरिचंद (हरिचाँद) ने सन् 1812 में की थी. इस धार्मिक आंदोलन का एक ही संदेश था कि खुद खाओ या न खाओ, लेकिन बच्चों को शिक्षा दो. इस आंदोलन ने बंगाल में अपनी एक अलग परंपरा बनाई. जब ये लोग घरों से निकलते थे तो हाथों में क्रांति का प्रतीक लंबा लाल झंडा लेकर निकलते थे और साथ में डंका बजाते चलते थे. इनके डंके की आवाज़ से ब्राह्मण बहुत चिढ़ते थे.

हरिचंद का जन्म फरीदपुर नामक गाँव में हुआ था जो अब बंग्लादेश में है. उन्होंने लोगों को कबीर की भाँति समझाया कि वेदों, शास्त्रों, उपनिषदों, पुराणों, गीता महाभारत, रामायण आदि ग्रंथों पर विश्वास न करना. अपनी बुद्धि और सोच-समझ से अपना रास्ता बनाना.

बंगाल की परंपरा के अनुसार हरिचंद-गुरुचंद (पिता-पुत्र) को सम्मानपूर्वक ठाकुर की उपाधि दी गई. यह उपाधि समाज हित में कार्य करने वालों को दी जाती है. (रवींद्रनाथ ठाकुर साहित्य का नोबल पुरस्कार पाने वाले भारत के प्रथम साहित्यकार थे और वे शूद्र जाति से थे. हरिचंद-गुरुचंद की भाँति वे भी पीरल्ली जाति के थे जो घृणा के निशाने पर रही है और उन्हें जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया गया था.)

हरिचंद-गुरुचंद नामक इन दोनों ठाकुरों ने बंगाल, बिहार, असम और ओडिशा में डेढ़ हज़ार प्राइमरी स्कूल खोल कर ब्राह्मणों को चुनौती दी. इसके बाद आठ से अधिक उच्च विद्यालय (हाई स्कूल) खोले गए. शिक्षा देने के साथ उन्होंने चांडाल आंदोलन, नील आंदोलन और भूमि आंदोलन का भी नेतृत्व किया. सन् 1865-66 में  हरिचंद ने ब्रिटिश को साथ लेकर ज़मींदारों के विरुद्ध भूमि आंदोलन किया था. इन आंदोलनों को ब्राह्मण इतिहासकारों ने इतिहास से दूर रखा. हरिचंद और गुरुचंद ने उन क्षेत्रों में अंग्रेज़ों के विरुद्ध भी किसान आंदोलन चलाया जहाँ अंग्रेज़ किसानों को नील की खेती करने के लिए मजबूर करते थे जिससे उनकी ज़मीन तबाह हो जाती थी.

हरिचंद ठाकुर ने जब स्कूल बनवाए तब सबसे पहले उन्होंने गोशाला में पढ़ाने की व्यवस्था की. गाय चरने चली जातीं तो जगह को साफ करके स्कूल में परिवर्तित कर दिया जाता. उन्होंने 1500 से अधिक खोले.  हरिचंद के बाद इस कार्य का बीड़ा उनके सुपुत्र गुरुचंद ने उठाया. आश्चर्य की बात है कि शिक्षा के क्षेत्र में हुए इतने बड़े आंदोलन को पाठ्यक्रम में जगह नहीं दी गई.

महात्मा फुले और डॉ. अंबेडकर ने ब्राह्मणों द्वारा लक्षित स्वाधीनता आंदोलन को मूलनिवासियों का स्वतंत्रता आंदोलन कभी नहीं माना. गुरुचंद का दृष्टिकोण भी यही था. एम. के. गाँधी ने सी.आर. दास को गुरुचाँद के पास संदेश भिजवाया था कि वे गाँधी द्वारा चलाए जा रहे स्वतंत्रता आंदोलन में साथ दें. गुरुचंद ने उत्तर भिजवाया कि यह आंदोलन हमारा नहीं है. पहले अस्पृश्यता समाप्त करो फिर साथ आएँगे. सी.आर. दास को खाली हाथ लौटना पड़ा.

लगभग उसी समय आस्ट्रेलिया से ईसाई धर्म का प्रचारक फादर मीड भारत आया था. उसे जानकारी मिली कि ब्राह्मण धर्म (मनुवाद) के विरोध में गुरुचंद ठाकुर आंदोलन कर रहे हैं. फादर मीड ने गुरुचंद ठाकुर से संपर्क साधा. गुरुचंद ठाकुर इस बात पर दृढ़ रहे कि पहले दलितों की शिक्षा का प्रबंध किया जाए. बाद में लोग स्वयं निर्णय करेंगे की उन्हें क्या करना है. उनकी बात से प्रभावित हो कर फादर मीड गुरुचंद के आंदोलन से जुड़ गया.

ब्राह्मणवाद के विरुद्ध खड़े हुए इस आंदोलन को ब्राह्मणों ने भक्ति आंदोलन का नाम दे दिया. आज बंगाल में हरिचंद-गुरुचंद के नाम पर हज़ारों संगठन हैं लेकिन वे नामों में बँटे हुए हैं. इस ठाकुर द्वय के सामाजिक आंदोलन को धर्म का रूप देकर ब्राह्मण उस पर काबिज़ हो गए और धर्म की दूकानें खोल ली. आगे चल कर ब्रह्मणों ने हरिचंद-गुरुचंद को भगवान घोषित करके मंदिरों ने बिठा दिया और उन्हें भगवान विश्वासी कह दिया. इस प्रकार आंदोलन के वास्तविक कार्य को धर्म का नाम दे कर वास्तविकता को पीछे रख दिया गया.
हरिचंद अनपढ़ अवश्य थे लेकिन अशिक्षित नहीं थे. उन्होंने हरिलीलामृत नामक ग्रंथ की रचना करके उसे प्रकाशित कराया. मतुआ धर्म और बौध धर्म का दर्शन एक ही है. मतुआ आंदोलन को नमोशूद्र आंदोलन के नाम से भी जाना जाता है. अपने शुद्ध स्वरूप में यह भारत के मूलनिवासियों का स्वतंत्रता आंदोलन रहा.

ऐसा माना जाता है कि यह हरिचंद-गुरुचंद के आंदोलन का ही प्रभाव था कि उस बंग्लाभाषी क्षेत्र में योगेंद्रनाथ मंडल और मुकुंद बिहारी मलिक ने अपूर्व त्याग करके डॉ. भीमराव अंबेडकर को अविभाजित बंगाल से चुनाव जितवा कर संविधान सभा में भेजा था जबकि वे महाराष्ट्र से चुनाव हार चुके थे.

इतिहास के हाशिए से बाहर रखा गया मतुआ आंदोलन अपनी सही पहचान के साथ लौट आया है.

बंगाल में मतुआ धर्म मानने वालों की संख्या 1.2 करोड़ है जबकि देश भर में इनकी संख्या 4 करोड़ के लगभग है.

(Note: यह आलेख बामसेफ की उक्त पत्रिका में छपे सर्वमान्यवर जगदीश राय, शैलेन गोस्वामी, के.एल.विश्वास, ए.टी. बाला और शरद चंद्र राय के आलेखों से प्राप्त जानकारी के आधार पर लिखा गया है.)


मतुआ आंदोलन से संबंधित अन्य उपयोगी लिंक-