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This rally was more than a rally – यह रैली, रैली से अधिक थी

लखनऊ में ओबीसी, एससी और एसटी मिल कर आरक्षण समर्थक रैली कर रहे हैं. मेरी दृष्टि से यह भविष्य के अंतर्जातीय सहयोग की पहली झलक है.

काफी समय से एक सपना है कि कश्मीर से केरल तक और महाराष्ट्र से मेघालय तक मेघ ऋषि की संतानें आपसी भ्रातृत्व को पहचाने और राजनीतिक एकता के लिए देश भर के ओबीसी, एससी और एसटी एक मंच पर आ जाएँ
 
पिछले दिनों ब्राह्मणवादी न्यायव्यवस्था ने आरक्षण व्यवस्था की भावना को फिर से चोट पहुँचाई है जिसने यूपी के पिछड़े वर्ग के युवाओं को भड़काया है. आरक्षण जैसे मुद्दों को लेकर बहुत लंबा आंदोलन नहीं चलाया जा सकता, हाँ समयसमय पर उसके साथ अन्य मुद्दे (धार्मिक और सांस्कृतिक, महँगी शिक्षा, आर्थिक विकास, ग़रीब समूहों का समन्वित संघर्ष आदि) जुड़ते जाते हैं और सत्ता का सपना आकार ग्रहण करने लगता है. राजनीतिक बेचैनी यह कार्य करती है.
इलाहाबाद से शुरू हो कर लखनऊ पहुँचा यह आंदोलन अपने साथ विशिष्ट लक्षण ले कर आया है जो स्वयं आलोकित हैं. इनके लिए नीचे दिए यूट्यूब लिंक को अवश्य देखें.
 
ये फोटो जन संस्करणकी यूट्यूब पर लोडिड वीडियोके साभार हैं.

 

 MEGHnet

Reservation in services – नौकरियों में आरक्षण

आरक्षण के विरोध में – आरक्षण के हक़ में.

डॉ. दिव्या श्रीवास्तव ने सरकारी नौकरियों में पदोन्नतियों में आरक्षण पर एक पोस्ट लिखी जिसे पढ़ कर कोई भी भावुक हो सकता था. मैं भी. उस पोस्ट को आप ऊपर दिए चित्र पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं. उनकी पोस्ट पढ़ने के बाद मैं कमेंट लिखने से स्वयं को रोक नहीं सका. मुझे लगा कि आरक्षण की समस्या का एक ऐसा पहलू भी है जिसे पाठकों तक पहुँचना चाहिए. डॉ. दिव्या के कमेंट्स उनकी पोस्ट पर देखे जा सकते हैं. 

सारी समस्या पर चर्चा करने के लिए यह स्थान पर्याप्त नहीं है तथापि कुछ बिंदु नीचे दिए हैं.
1. यदि भारतीय समाज दलित और सवर्ण के रूप में बँटा न होता तो आरक्षण की आवश्यकता ही नहीं होती.
2. आरक्षण प्रावधान जानबूझ कर कमज़ोर रखे गए हैं. जो हैं उन्हें कभी तरीके से लागू नहीं किया जाता और न ही आरक्षण के नियम बनाने की संसद ने कोशिश की.
3. आज भी आरक्षित पदों के सही आँकड़े ब्यूरोक्रेसी तैयार नहीं कराती कि कहीं दलितों की प्रशासन में सहभागिता (participation) न बढ़ जाए.
4. उत्कृष्ट कार्य करने वाले दलितों की रिपोर्टें आमतौर पर मध्यम दर्जे की लिखी जाती हैं. संघर्ष करने और प्रमाण देने या वकीलों को मोटी रकम  देने के बाद अदालत के ज़रिए कठिनाई से रिपोर्टों को ठीक किया जाता है. इससे उनकी शक्ति, समय और धन तीनों बर्बाद होते हैं.
5. मैरिट में आए दलित अधिकारियों को हतोत्साहित और अप्रभावी करने के सभी हथकंडे अपनाए जाते हैं. उनके स्थांतरण से पहले ही उनकी जाति की सूचना नए सेंटर पर पहुँच जाती है. वहाँ नित नए ढंग से और बहुत ही सभ्य से तरीके से उन्हें उनकी जाति याद दिलाई जाती है.
6. दलित यदि जनरल में कंपीट करके नौकरी में आ जाए तो उसके सिर पर सही सूचना छिपाने की तलवार लटकती रहती है. जाति पहचान छिपती नहीं.
7. दलित कर्मचारियों की पोस्टिंग के बारे में सीक्रेट अनुदेश या मौखिक आदेश जारी किए जाते हैं जो नियमों पर भारी पड़ते हैं.
8. जिन दलितों की पदोन्नतियाँ होने वाली होती हैं उनके विरुद्ध झूठी शिकायतें करवा दी जाती हैं.
9. आजकल नया ट्रैंड चला है कि रिटायरमेंट से एक-दो दिन पहले उनके सस्पेंशन के आदेश निकलवा कर पेंशन लाभ रुकवा दिए जाते हैं ताकि उन्हें सरकारी नौकरी करने का अंतिम मज़ा चखाया जा सके. ये सारी बातें एससी/एसटी कमिशन की जानकारी में हैं.
10. एक मैरिट वाले दलित और गैर-मैरिट वाले दलित में से पदोन्नति के लिए चुनाव करना हो तो कोशिश की जाती है कि गैर-मैरिट वाले को प्रोमोट किया जाए और उसे आरक्षण का नमूना बना कर कहीं भी बैठा दिया जाए.
11. सरकारी कार्यालयों में जो होता है उसके केवल संकेत यहाँ दिए हैं. समस्या टेढ़ी है और केवल आरक्षण या पदोन्नतियों में आरक्षण का विरोध करके उसका हल नहीं निकल सकता. किसी जूनियर को पदोन्नत करके किसी वरिष्ठ के ऊपर बिठाना अन्याय है. लेकिन दलित की वरिष्ठता की रक्षा कौन करेगा, यह प्रश्न कार्यालयों में पसरे जातिवादी वातावरण में अनुत्तरित रहता है.
इस पर डॉ. दिव्या ने एक और टिप्पणी लिखी जिसके बाद मैंने लिखा-
मैं (दलित) अपने आपको हिंदू कहता हूँ लेकिन हिंदू दायरे में मेरी जो जगह है वह असुविधाजनक और पीड़ादायक है.
नौकरियों में आए दलित ने हिंदुओं का अधिकार नहीं मारा है बल्कि दलित अपने अधिकारों से वंचित लोग है जिन्हें आरक्षण का एक कमज़ोर सा अस्थाई सहारा दिया गया है.
दलित जानते हैं कि नौकरियों समेत इस देश के विभिन्न संसाधनों पर उनके अधिकार को सदियों पहले समाप्त कर दिया गया था. आरक्षण के विरोध का भी यही अर्थ है कि उसे मिलने वाले लाभ को रोकने का प्रयास किया जाए.
कई शूद्र और दलित स्वयं पर हिंदू होने का ठप्पा स्वीकार कर चुके हैं लेकिन निरंतर रूप से चल रहे जातिवादी व्यवहार उन्हें बार-बार निराशा की स्थिति में धकेल देता है. ऐसी हालत में वे अपना परंपरागत धर्म छोड़ कर मुस्लिम बने दलितों में स्वयं को सुरक्षित महसूस करते हैं. ब्राह्मणों से धर्मांतरित सैयद, शेख़ और अन्य अगड़े मुस्लिम आज भी अंबेडकर को कोसते हैं कि उसने बौध धर्म अपनाने जैसा निर्णय क्यों लिया और इस्लाम क्यों नहीं अपनाया.
दलितों की हालत पर कांग्रेस और बीजेपी का रवैया अलग नहीं है.

आरक्षण विरोधी यह हमला करना नहीं भूलते के क्या दलित अपना या अपने परिवार का इलाज आरक्षण का लाभ उठा कर बने (घटिया) डॉक्टर से कराना चाहेंगे

सरकारी अस्पतालों में बहुत से दलित वर्षों से कार्यरत हैं. लोग उनसे इलाज कराते हैं. वे न जानते हैं न पूछते कि डॉक्टर की जाति क्या है. इलाज करा कर घर चले जाते हैं. बहुत से दलितों के अपने क्लीनिक हैं. वे सफल प्रैक्टिस कर रहे हैं और समाज सेवा में संलग्न हैं.

काश, आरक्षण विरोधी जनरल वाले डॉक्टरों से पूछते कि आपके नाम के साथ शर्मा लगा है, आप आरक्षण से तो नहीं आए या कम अंकों के कारण आपने डोनेशन दे कर मेडिकल की सीट तो नहीं खरीदी थी

चिकित्सा के क्षेत्र में अकूत सरकारी और गैर-सरकारी धन आता है. आरक्षण विरोध का एक कारण वह धन भी है. यहाँ भी वही कोशिश है कि कहीं पैसे का प्रवाह दलितों की ओर न जाए.


आरक्षण का लाभ उठा कर अच्छी आर्थिक हालत में आ चुके और अच्छी शिक्षा ले सकने में सक्षम दलितों से आरक्षण वापस लेने की बात इस लिए उठाई जाती है कि दलित अब मैरिट वाली सीटें लेने लगे हैं. मैरिट के ध्वजाधर सवर्णों को दलितों का यह मैरिट हज़म नहीं होता. बेहतर होगा पहले इन दलितों को ‘मैरिट समूह’ में स्वीकार किया जाए. ऐसा करने से देश के मानव संसाधनों के बेहतर प्रयोग का मार्ग बनेगा. वैसे मानव संसाधनों को बरबाद करने में हमारा रिकार्ड बहुत चमकदार है.

सवर्ण मानसिकता वाले वकालत करते हैं कि आरक्षण का लाभ पढ़े-लिखे मैरिट वाले दलितों के लिए समाप्त करके उन दलितों को दिया जाए जो अभी ग़रीब हैं (जो अच्छी शिक्षा के मँहगा होने के कारण कंपीट करने की हालत में नहीं आए). वास्तविकता यह है कि सस्ते स्कूलों में पढ़ कर आए ग़रीबों के लिए आरक्षित सीटों को यह कह कर अनारक्षित करना बहुत आसान हो जाता है कि ‘योग्य उम्मीदवार नहीं मिले’. इसका लाभ किसे होता है, विचार करें. इस मामले का रेखांकित बिंदु शिक्षा का है और दलितों तक पहुँच रही शिक्षा का हाल आप सभी जानते हैं. ग़रीबी और महँगी शिक्षा में दोस्ती कैसे हो सकती है.

यह तो सरकारी नौकरियों की बात है. इसके आगे का मुद्दा तो निजी क्षेत्र में आरक्षण का है जिसमें रोज़गार की संभावनाएँ बहुत अधिक हैं. तैयारी वहाँ की करनी चाहिए.

यह टेबल फेस बुक से है जिसे Economic & Political Weekly से बताया गया है अतः सत्यापन करना बेहतर होगा
Development of Human Resources :((

 

एवरेस्ट पर चढ़ने वाली वाल्मीकि समाज की महिला- ममता सौदा. आईएलएलडी ने उसे सम्मान दिए जाने पर विरोध जताया था.

जाति पहचान कर किया जाता है फेल तो मैरिट वाले भी ऐसे बनाए जा सकते हैं

सीईओ, एमडी बनना है तो अपनी जाति टटोलिए

आरक्षण नहीं, जाति समस्या है

People question when Dalits get benefits 

Economic Times’s story- SCs/STs in top government jobs