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Aryans do not belong to Indus Valley Civilization – आर्य सिंधुघाटी सभ्यता के नहीं हैं.

जब महात्मा ज्योतिराव फुले ने 1880 के आसपास आर्य आक्रमणों का अपने तौर पर विवरण (जिसे फुले का ‘बीजक’ कहा जा सकता है) दिया तब से कई आर्यों/ब्राह्मणों ने इतिहास और साहित्य में मन वाँछित तर्क-कुतर्क से प्रमाणित करने की कोशिशें शुरू कर दीं कि आर्य सिंधुघाटी सभ्यता के ही हैं, न कि बाहर से आए हैं. बामसेफ (BAMCEF) के साहित्य में भी इस बात का खुल कर उल्लेख होने लगा कि आर्य बाहर से आए हैं और इनकी जड़ें भारत की नहीं हैं और न ही कभी इन्होंने भारत को अपनी भूमि माना. ये यहाँ के मूलनिवासियों के साथ आज तक घृणा का व्यवहार करते आए हैं. इन्होंने ही अन्य बाहरी आक्रमणकारियों जैसे मुग़लों, अंगरेज़ों आदि को यहाँ लूट मचाने के लिए उत्साहित किया और हर प्रकार से उनका साथ देते रहे. ऐतिहासिक रूप से यह प्रमाणित भी हो चुका है कि आर्य भारत के नहीं हैं. ये बाहर से आए हैं.
देश में आर्य जाति के विरुद्ध बन रहे वातावरण के कारण अब आर्यों द्वारा ऐसा साहित्य लिखा जा रहा है जो सिद्ध करने की कोशिश करता है कि आर्य भारत भूमि की संतानें हैं. इसके लिए इंटरनेट का जम कर प्रयोग किया जा रहा है.
इसी सिलसिले में अनार्यों (एससी, एसटी, ओबीसी आदि) की ओर से तर्क जुटाए गए हैं कि आर्य वास्तव में ही भारत के नहीं हैं और उन्होंने न केवल इस देश को लुटाया बल्कि लूटा भी है. और आज तक लूट रहे हैं.
इसी सिलसिले में फेस बुक के माध्यम से एक अकाट्य तर्क सामने आया है जो प्रदीप नागदेव के माध्यम से पहुँचा है :-
सिंधुघाटी की सभ्यता जिसे आर्य अपनी सभ्यता बता रहे हैंयदि ये इनके बाप -दादा की सभ्यता है तो इन आर्यों से मेरा दावा है आप अपनी लिपि (सिंधुघाटी की) को आज तक पढ़ क्यों नही पाए? आर्य तो संस्कृत भाषी थे कितु ये सभ्यता संस्कृत भाषी नही थी. आर्यों से काफी विकसित और उन्नत सभ्यता थी. इन विकसित सभ्यता के लोगों को ये विदेशी आर्यदैत्यदानवअसुर और राक्षस कहते आ रहे हैं. क्योंकि इनकी सभ्यता आर्यों से भिन्न और विकसित तथा उन्नत भी थी, सिंधुघाटी के लोग नाग तथा प्रकृति की पूजा करते थे. खुदाई में आज तक कोई भी हिंदू देवी-देवताओं की मूर्ति नहीं मिली है. न ही आज तक सिंधुघाटी सभ्यता की लिपि को कोई आर्य पढ़ पाया है. फिर भी विदेशी आर्यों का इसे अपनी सभ्यता कहना पागलपन की हदें पार करना ही है. दरअसल सिंधुघाटी की सभ्यता आर्यों से पृथक है. इसी कारण आर्यों और सिन्धुघाटी सभ्यता के लोगों में दो भिन्न संस्कृति के कारण ही अनेकों युद्ध होते आये हैं. सिंधुघाटी के लोगजिन्हें आर्य लोगदैत्यराक्षसअसुरदानव कहते आ रहे हैं वे सब SC/ST/OBC के हमारे पूर्वज हैं जिन्हें आज भूदेवताओं ने शूद्र कहकर प्रचारित कर रखा हैसिंधुघाटी तथा मोहनजोदड़ो की विकसित और उन्नत सभ्यता हमारी सभ्यता है. जय भीम ……!!!! जय प्रबुद्ध भारत ….!!!! जय मूलनिवासी …!!!!
इस पैरा में सिंधुघाटी सभ्यता की लिपि वाला तर्क ध्यान देने योग्य है. इसके अनुसार यदि आर्य जाति के लोग और उनके पूर्वज वाकई सिंधुघाटी के थे और उस भाषा/लिपि का प्रयोग करते थे जो वहाँ की खुदाई में मिली है तो वे उसे आज स्वयं ही पढ़ क्यों नहीं पाते? वे संस्कृत में लिखे वेदों को धरती का प्राचीनतम ग्रंथ कहते हैं. 

प्रमाण मिल चुके हैं कि सिंधुघाटी सभ्यता की लिपि सबसे पुरानी है जिसे डी-कोड करने के प्रयास अमेरिका आदि देशों में अभी हो रहे हैं. कंप्यूटरों की सहायता ली जा रही है. 

भारत में बसे आर्य अपनी ही भाषा-लिपि न पढ़ पाते हों यह हैरानगी की बात है. दूसरी ओर ये स्वयं को दुनिया की पहली पढ़ी-लिखी और संस्कृत, जिसे इन्होंने ईश्वरीय भाषा कह कर प्रचारित किया है, जानने वाली जाति कहते हैं. सिंधुघाटी या हड़प्पा सभ्यता को यदि इन्होंने ही विकसित किया था तो परंपरागत रूप से स्वयं को सदा शिक्षित कहने वाले आर्य अपनी लिपि कैसे भूल गए जबकि देवनागरी लिपि में लिखी संस्कृत इन्हें याद रह गई जिसे ये सबसे प्राचीन भाषा कहना नहीं भूलते.

इस बीच भारत में असुरों/राक्षसों को गोरे रंग का दिखाया जाने लगा है जैसे- रावण. पता नहीं अचानक काले रंग के असुर और राक्षस गोरे कैसे होने लगे. रावण जैसे असुर और राक्षस चरित्रों को सदियों से काले रंग का दिखाया जाता रहा है. अब रामायण पर बने सीरियलों में राम और रावण दोनों गोरे होते हैं जबकि राम काले थे. इस दृष्टि से राम के काले/श्याम होने का संकेतात्मक अर्थ यह निकलता है कि काले ने गोरे को हराया और मारा). 

इसका एक ही कारण हो सकता है कि राम काले थे ही और रावण, जिसे ब्राह्मण भी कहा जाता है, को कुछ ग्रंथों में आर्य लिखा लिया गया है. अब उस लिखे को निभा ले जाने में कतिपय कठिनाइयाँ हैं. कुछ आर्यों ने असुरों को आर्यों की ही एक जाति बताने के प्रयास शुरू कर दिए हैं जो हास्यास्पद है.

एक समय था जब राम और रावण दोनों का रंग काला दर्शाया जाता था. ऐसे ही कृष्ण और कंस और उसकी दूतियों का भी समझ लीजिए. कहा जाता रहा है कि आर्यों ने काले को काले के हाथों मरवा कर हमेशा अपना स्वार्थ साधा है. ऐसी तार्किक बातें अब पढ़े-लिखे (ब्राह्मण भी) कहने लगे हैं. कुछ सच्चाई का सामना करने की बजाय भय के कारण मिथकों को नए रंग देने के प्रयास में लगे हैं. इस प्रकार पौराणिक/ऐतिहसिक तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने-दरेड़ने का कार्य होने लगा है.
अब समय आ गया है कि ऐसी बातों को भूल कर ये आर्य या ब्राह्मण (जो देश की राजनीति, उद्योग, अफसरशाही, शिक्षा, न्याय व्यवस्था आदि में बहुतायत से बैठे हैं) देश में हो रहे भ्रष्टाचार को समाप्त करने में अधिक सहयोग करें. यदि वे इस देश को अपना मानने लगे हैं तो आम लोगों के लिए बनी विकास योजनाओं को उन तक पहुँचने दें. अपने पुराने कुंद हो चुके धार्मिक साहित्य पर अधिक ज़ोर न देकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण और मानवीयता अपनाएँ.  
  

कोली, कोरी, कोल- भारतीय मूलनिवासी कबीले

पठानकोट से मेरे एक अनजाने मित्र प्रीतम भगत ने मोबाइल पर बताया कि बुद्ध की माता कोली (कोरी) समुदाय से थीं. मेरी रुचि बढ़ी. इंटरनेट ने एक ऐसे आलेख पर पहुँचने में मदद की जो कोली समुदाय के बारे में था. इस आलेख का आरंभ एक जाने-पहचाने वाक्य से हुआ था कि हम कौन हैं? मेरे पुरखे कौन थे? वे कहाँ से आए थे? वे कैसे रहते थे?’ मैं यहाँ इस आलेख के कुछ अंश दे रहा हूँ. पूरा आलेख कोली समुदाय के इतिहास का बढ़िय़ा लेखा-जोखा देता है. यह देखने वाली बात है कि कोली समुदाय भी अपना इतिहास उसी अतीत में ढूँढता है जहाँ आज के सभी दलित पहुँचते हैं. इससे उस कथा का गुब्बारा फट जाता है कि असुरों (सिंधुघाटी सभ्यता के मूलनिवासियों) और सुरों, जो इरान से होते हुए मध्य एशिया से आए थे, के बीच कोई सद्भावनापूर्ण समझौता हुआ था.

ऐसी पौराणिक कहानियाँ हैं जो इंगित करती हैं कि असुरों को सुरों ने गुलाम बना लिया था. ये गुलाम जातियाँ आज भी जातिप्रथा के उन्मूलन के लिए संघर्षशील हैं. वे अति निर्धनता की हालत में जी रही हैं. उनके आज के नाम हैं अन्य पिछड़ी जातियाँ, अनुसूचित जातियाँ और अनुसूचित जनजातियाँ. इन्हें अभी जानकारी नहीं है कि मानवाधिकार क्या होते हैं. यह तथ्य है कि भारत के मूलनिवासी गुलाम बना लिए गए थे और सदियों से उनके साथ अमानवीय व्यवहार होता रहा है. इनमें से अधिकतर गाँवों में रहते हैं और इन्हें अमानवीय स्थिति में रहने के लिए मजबूर किया जाता है. कई लोग शेष विश्व को बहुत अच्छी तस्वीर बना कर दिखा रहे हैं कि भारत बदल चुका है लेकिन यह सच्चाई से बहुत दूर की बात है और दुनिया इसे जान चुकी है.
इस बीच एक ब्लॉगर डोरोथी ने अपने एक कमेंट के द्वारा बताया था कि पूर्वी भारत की कोल जनजाति भी अपना उद्गम सिंधुघाटी सभ्यता को मानती है. इस बारे में मुझे एक लिंक मिला- दि इंडियन एनसाइक्लोपीडियाजिसे इस आलेख में ‘Other Links’के अंत में दिया गया है. यह इस बिंदु की पर्याप्त रूप से व्याख्या कर देता है. इससे यह भी सिद्ध होता है कि भारत के मूलनिवासियों को जनजातियों और जातियों में अलग-अलग नामों के अंतर्गत बाँटना भी एक नकली चीज़ है.
भारत की अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ी जातियों की भाँति कोली, कोरी और कोल भी भारत के मूल निवासी हैं. इनका अतीत एक है. उन्हें धार्मिक प्रतिबंधों (अर्थात मनुस्मृति) के तहत अलग-अलग नाम और व्यवसाय दे कर अलग-अलग समुदाय कहा गया ताकि वे अपने भाइयों से दूर ही रहें. देश में लोकतंत्र और जनतंत्र होने के बावजूद ये अभी इतने अशिक्षित और इतने दबाव में हैं कि अपनी सामाजिक और राजनीतिक एकता के बारे में सोच नहीं पाते.
कुल मिला कर मेघवाल, बुनकर, मेघ, भगत, जुलाहा, अंसारी आदि समुदायों की भाँति कोली और कोरी भी पारंपरिक रूप से जुलाहे हैं (हो सकता है है कि कोल समुदाय को ऐसे ही किसी व्यवसाय में डाला गया हो) और इसी से इन समुदायों की आर्थिक स्थिति की पूरी तस्वीर का पता चलता है. ये लोग कुपोषण और भूख के शिकार हैं. ये अत्यल्प वेतन पर और बलात् श्रम (Forced labor)के तौर पर कार्य करते हैं. (कोल जाति मूलतः अफ़्रीकी मूल की है. ऐसा प्रतीत होता है कि कोली शब्द कोल से ही बना है). ख़ैर, आप इस आलेख के अंश पढ़ना जारी रखें और इन विश्वसनीय तथा प्यारे कोली/कोरी लोगों के बारे में जाने.

अशोक महान कोरी कबीले से थे
कोली (Story Of India’s Historic People – The Kolis)
एक समय आता है जब हममें से प्रत्येक व्यक्ति पूछता है, ‘मैं कौन हूँ?मेरे पुरखे कौन थे? वे कहाँ से आए थे?वे कैसे रहते थे? उनकी बड़े कार्य क्या थे और उनके सुख-दुख क्या थे?’ ये और अन्य कई मूलभूत सवाल हैं जिनके बारे में हमें उत्तर पाना होता है ताकि हम अपने मूल को पहचान सकें.
भारत के मूलनिवासी कबीलों के बारे में अध्ययन करते हुए हमारे विद्वानों ने अति प्राचीन रिकार्ड और दस्तावेज़ वेद, पुराण, विभिन्न भाषाओं के महाकाव्य, कई पुरातात्विक रिकार्ड और नोट्स और अन्यान्य प्रकाशन देखे हैं.
इतिहास और एंथ्रपॉलॉजी के विद्यार्थियों ने प्रागैतिहासिक और भारत के स्थापित इतिहास में भारत के प्राचीन कबीले का चमकता अतीत पाया है और शोध की निरंतरता में और भी बहुत कुछ मिल रहा है.
यह आलेख गुजराती में लिखे मुख्यतः तीन प्रकाशनों पर आधारित है. भारत का एक प्राचीन कबीला कोली कबीले का इतिहासइस पुस्तक का संपादन श्री बचूभाई पीतांबर कंबेद ने किया था और भावनगर के श्री तालपोड़ा कोली समुदाय ने प्रकाशित किया था (पहला संस्करण 1961 और दूसरा संस्करण 1981), 1979 में बॉम्बे समाचारमें प्रकाशित श्री रामजी भाई संतोला का एक आलेख और डॉ. अर्जुन पटेल द्वारा 1989 में लिखा एक विस्तृत आलेख जो उन्होंने 1989 में हुए अंतर्राष्ट्रीय कोली सम्मेलन में प्रस्तुत करने के लिए तैयार किया था.
भगवान वाल्मीकि और उनकी रामायण

प्राचीनतम राजा मन्धाता, एक सर्वोपरि और सार्वभौमिक राजा था जिसका प्रताप भारत में सर्वत्र था और जिसके शौर्य और यज्ञों की कथाएँ मोहंजो दाड़ो (मोहन जोदड़ो) के शिलालेखों पर अंकित हैं, वे इसी कबीले के थे. प्राचीनतम और पूज्य ऋषि वाल्मीकि जिन्होंने रामायण लिखी वे इसी कबीले से थे. महाराष्ट्र राज्य में आज भी रामायण को कोली वाल्मीकि रामायण कहा जाता है. रामायण की शिक्षाएँ भारतीय संस्कृति का आधार हैं. 

ईश बुद्ध
ईश बुद्ध की पत्नी कोली कबीले से थी. महान राजा चंद्रगुप्त मौर्य और उसके कुल के राजा कोली कबीले के थे. संत कबीर, जो पेशे से जुलाहे थे, के कई भजनों में लिखा है- कहत कबीर कोरी”, उन्होंने स्वयं को कोरी कहा है. सौराष्ट्र के भक्तराज भदूरदास और भक्तराज वलराम, जूनागढ़ के गिरनारी संत वेलनाथजी, भक्तराज जोबनपगी, संत श्री कोया भगत, संत धुधालीनाथ, मदन भगत, संत कंजीस्वामी जो 17वीं और 18वीं शताब्दी के थे, ये सभी कोली कबीले के थे. उनके जीवन और ख्याति के बारे में मुंबई समाचार‘, ‘नूतन गुजरात‘, ‘परमार्थआदि में छपे आलेखों से जानकारी मिलती है.
महाराष्ट्र राज्य में शिवाजी के प्रधान सेनापति और कई अन्य सेनापति इसी कबीले के थे. ‘A History of the Marathas’ (मराठा इतिहास) मुख्यतः मवालियों और कोलियों से भरी शिवाजी की सेना का शौर्य गर्वपूर्वक कहता है. शिवाजी का सेनापति तानाजी राव मूलसरे जिसे शिवाजी हमेशा मेरा शेरकहा करते थे, एक कोली था. जब तानाजी कोडना गढ़को जीतने के लिए लड़ी लड़ाई में शहीद हुआ तो शिवाजी ने उसकी स्मृति में उस किले का नाम बदल कर सिंहाढ़रख दिया.  
सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्रम में बहुत सी कोली महिला योद्धाओं ने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के प्राण बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. उनमें एक उसकी बहुत करीबी साथी थी जिसका नाम झलकारी बाई था. इस प्रकार कोली समाज ने देश और दुनिया को महान बेटे और बेटियाँ दी हैं जिनकी शिक्षाओं का सार्वभौमिक महत्व और प्रासंगिकता आज आधुनिक जीवन में भी है.
हमारे प्राचीन राजा मन्धाता की कथा

ओंकारनाथेश्वर में मन्धाता मंदिर
कहा जाता है कि श्री राम का जन्म मन्धाता के बाद 25वीं पीढ़ी में हुआ था. एक अन्य राजा ईक्ष्वाकु सूर्यवंश के कोली राजाओं में हुए हैं अतः मन्धाता और श्रीराम ईक्ष्वाकु के सूर्यवंश से हैं. बाद में यह वंश नौ उप समूहों में बँट गया, और सभी अपना मूल क्षत्रिय जाति में बताते थे. इनके नाम हैं: मल्ला, जनक, विदेही, कोलिए, मोर्या, लिच्छवी, जनत्री, वाज्जी और शाक्य.
पुरातात्विक जानकारी को यदि साथ मिला कर देखें तो पता चलता है कि मन्धाता ईक्ष्वाकु के सूर्यवंश से थे और उसके उत्तराधिकारियों को सूर्यवंशी कोली राजा के नाम से जाना जाता है. कहा जाता है कि वे बहादुर, लब्ध प्रतिष्ठ और न्यायप्रिय शासक थे. बौध साहित्य में असंख्य संदर्भ हैं जिससे इसकी प्रामाणिकता में कोई संदेह नहीं रह जाता. मन्धाता के उत्तराधिकारियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और हमारे प्राचीन वेद, महाकाव्य और अन्य अवशेष उनकी युद्धकला और राज्य प्रशासन में उनके महत्वपूर्ण योगदान का उल्लेख करते हैं. हमारी प्राचीन संस्कृत पुस्तकों में उन्हें कुल्या, कुलिए, कोली सर्प, कोलिक, कौल आदि कहा गया है.
प्रारंभिक इतिहास बुद्ध के बाद
वर्ष 566 ई.पू. के दौरान, जब हिंदू धर्म निर्दयी हो चुका था और पूर्णतः पतित हो चुका था, तब राजकुमार गौतम जिसे बाद में विश्व ने बुद्ध (the enlightened one) के रूप में जाना,का जन्म उत्तर-पश्चिमी भारत में हिमायलन घाटी में रोहिणी नदी के किनारे हुआ. ईश बुद्ध की माता महामाया एक कोली राजकुमारी थीं.
ईश बुद्ध की शिक्षा को ऊँची जाति के हिंदुओं के निहित स्वार्थ के लिए ख़तरे के तौर पर देखा गया. शीघ्र ही बुद्ध की शिक्षाओं को भारत से पूरी तरह बाहर कर दिया गया.
ऐसा प्रतीत होता है कि कोली साम्राज्यों का बुद्ध से संबंध और प्रेम होने के कारण उन्हें सबसे अधिक अत्याचार सहना पड़ा. यद्पि अधिकतर लोगों ने बौध शिक्षा को नहीं अपनाया था लेकिन अन्य ने उन्हें दूर किया और शासकों ने भी उनकी उपेक्षा की.
ईश बुद्ध के 2000 वर्ष बाद
इस संघर्ष ने कोली साम्राज्यों को बहुत हानि पहुँचाई होगी. ऐसा प्रतीत होता है कि बहुत ही क्लिष्ट हिंदू समाज में पदच्युति के बाद कभी बहुत शक्तिशाली रहा यह कबीला, जो बहुत परिश्रमी, कुशल, निष्ठावान्, आत्मनिर्भर साथ ही आसानी से भड़क कर युद्ध पर उतारू होने वाला था, अपनी केंद्रीय स्थिति खो बैठा. एक समाज जिसने अपनी देवी मुंबा देवी के नाम से मुंबई की स्थापना और निर्माण किया उसे आज राजनीतिक और शिक्षा की प्रभावी स्थिति में आना कठिन हो गया है. अब तो कई शताब्दियों से अन्य कबीलों ने इसे नीची नज़र से देखा और इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव इस समस्त क्षत्रिय समुदाय को तबाह करने वाला था.
वर्तमान
महाराष्ट्र के कोली मछुआरे
आज के भारत में कश्मीर से कन्याकुमारी तक कोली पाए जाते हैं और क्षेत्रीय भाषा के प्रभाव के कारण उनके नाम तनिक परिवर्तित हो गए हैं. कुछ मुख्य समूह इस प्रकार हैं: कोली क्षत्रिय, कोली राजा, कोली राजपूत, कोली सूर्यवंशी, नागरकोली, गोंडाकोली, कोली महादेव, कोली पटोल,कोली ठाकोर, बवराया, थारकर्ड़ा, पथानवाडिया, मइन कोली, कोयेरी, मन्धाता पटेल आदि.
भारत के मूलनिवासी कबीले के तौर पर खुले कृषि भू-भागों और समुद्र तटीय क्षेत्रों में रहने को पसंद करने वाला यह क्लैन्ज़मन है. आज के कोली कई कबीलाई अंतर्विवाहों से हैं. अनुमान लगाया गया है कि जनगणना में 1040 से भी अधिक उप-समूह हैं जिन्हें एक मुश्त रूप से कोली कहा जाता है. हिंदू होने के अतिरिक्त इन अधिकांश समूहों में सामान्य कुछ नहीं है, और कि ऊँची जाति के हिंदुओं यह स्वीकार करते हैं कि कोली स्पर्श से वे भ्रष्ट नहीं होते और शुद्ध वंश के कोली मुखियाओं की क्षत्रिय राजपूतों से अलग पहचान करना कठिन है जिनके साथ उनके नियमित अंतर्विवाह होते हैं.  
गुजरात के कोली
लेखक द्वय अंथोवन और डॉ. विल्सन मानते हैं कि गुजरात में मूलरूप से बसने वाले कोली और आदिवासी भील थे. रायबहादुर हाथीभाई देसाई पुष्टि करते हैं कि यह 600 वर्ष पूर्व शासक वनराज के समय में था. गुजराती जनसंख्या में बिल्कुल अलग जातीय समूहों का प्रतिनिधित्व करने वाले या तो वैदिक हैं या द्रविडियन हैं. इनमें नागर ब्रह्मण, भाटिया, भडेला, कोली,राबरी, मीणा, भंगी, डुबला, नैकडा, और मच्छी खारवा कबीले हैं. मूलतः पर्शिया से आए पारसी बहुत बाद में आए. शेष आबादी मूलनिवासी भीलों की है.

गुजरात के भील
डाँडी मार्च
जब बापू (एम.के. गाँधी) 9 जनवरी 1920 को दक्षिण अफ्रीका से लौटे तो उनके साथ वहाँ जो लोग थे वे भी लौट आए. बापू को हमारे लोगों के चरित्र के बारे में व्यक्तिगत जानकारी थी. इसलिए जब 1930 के डाँडी मार्च के स्थान का निर्णय करने का समय आया तो डाँडी को चुना जाना अचानक नहीं हुआ क्योंकि उस समय कई विकल्प थे और अन्य स्वार्थी पक्षों का दबाव भी था. बापू किसी परियोजना को सफलतापूर्वक पूरा करने में हमारे लोगों के साहस और गहरी समझ संतुष्ट थे. और यह प्रमाणित भी हो गया.
निष्कर्ष
अपनी वर्तमान स्थिति के लिए हम उच्च जातिओं पूरी तरह दोष नहीं दे सकते. इतिहास में यह होता आया है कि कभी शक्तिशाली रहे लोग पतन को प्रात हुए और पूरी तरह अदृश्य हो गए या अकिंचन बना दिए गए. इस संसार में जहाँ योग्ययतम की जीतका नियम है वहाँ लोगों को महान प्रयास करने होते हैं और कुर्बानियाँ देनी होती हैं ताकि वे बुद्धिमान नेतृत्व में एक हों और फिर से इतिहास लिखना शुरू करें.
हमारे पास हज़ारों स्नातक और व्यवसायी हैं, उच्च योग्यता वाले डॉक्टर, डेंटिस्ट, वकील और कुशल टेक्नोक्रैट हैं जो भारत और अन्य देशों में रह रहे हैं. वे सभी अपनी कुशलता का प्रयोग पैसा बनाने और भौतिक पदार्थों और अन्य छोटे सुखों के लिए कर रहे प्रतीत होते हैं. भौतिक सुविधाएँ आवश्यक हैं परंतु हमारी प्राथमिकता अपने धर्म, संस्कृति और परंपरा को बचाने की भी अवश्य होनी चाहिए.
हमारी वर्तमान पीढ़ी के संपन्न लोग स्वयं को अपने समाज के मशालची के तौर पर देखें और ऐसे सभी प्रयास करें कि आपसी संवाद स्थापित हो, एकता हो और अपने अतीत के गौरव को पुनः प्राप्त करने की ज़बरदस्त शक्ति बना जाए. अब यह हमारे लिए चुनौती है.  
पूरे आलेख (अँग्रेज़ी) के लिए कृपया यहाँ क्लिक करेंhttp://www.kolisamaj.org/myhistory/historyofkolis.html

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Koli Kori of India
मेघवंश एक सिंहावलोकन : लेखक आर. पी. सिंह (पीडीएफ पाठ)
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