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Religious symbols of Meghwals – मेघवालों के धार्मिक प्रतीक

(ताराराम जी ने अपनी ‘Know your history’ सीरीज़ के तहत मेघवालों के एक धार्मिक प्रतीक के बारे में एक फोटो फेसबुक पर दिया जिसपर पर प्रमोद पाल सिंह जी ने टिप्पणी दी. विषय पर चर्चा हुई. उसे यहाँ सहेज कर रख लिया है ताकि उसके बारे में कुछ विस्तृत जानकारी उपलब्ध रहे.) 

“Know your history– Symbol of religious faith of Meghawals of western desert of Rajasthan.

प्रमोदपाल सिंह मेघवालमेघवाल समाज का गौरवशाली इतिहास’ पुस्तक के पृष्ठ सं. 75 पर लेखक डॉ. एम.एल. परिहार लिखते हैं कि ‘मेघवाल समाज के कई सिद्धों, संतों, नाथों, पीरों ने भी पदचिन्हों की पूजा को आगे बढ़ाया। राजस्थान में रामदेवजी से पहले भी मेघवाल समाज में कई सिद्ध हुए और जीवित समाधियाँ लीं। अतः रामदेवजी से पहले ही इस समाज में पदचिन्हों या पगलियों की पूजा होती थी। स्वयं बाबा रामदेवजी पगलिया की पूजा करते थे। उनके पास रहने वाली ध्वजा के सफेद रंग पर पगलिया बने होते थे। आज का मेघवाल जिन पदचिन्हों को रामदेवजी के पवित्र प्रतीक बताता हैं वे तो प्राचीनकाल से विरासत के रूप में चले आ रहे हैं। मेघवाल समाज इस प्रतीक चिह्नको बहुत ही पवित्र मानता है और इसके प्रति गहरी श्रद्धा भी रखता है। यही वजह है कि पगलिया बने लॉकेट पहनते हैं। बुज़ुर्ग सोने के गहने के रूप में गले में ‘फूल’ पहनते हैं। इस आभूषण पर पगलिया उत्कीर्ण रहता है। इसे आभूषण से भी बढ़कर माना जाता है और इसकी पूजा की जाती है। अक्सर इस पर कुमकुम लगा हुआ भी दिखाई दे जाता है। इसे उतारना पड़ जाए तो जमीन पर नहीं रखा जाता है। यह इस पहनने वाले व्यक्ति की धार्मिक प्रवृत्ति के साथसाथ उसकी प्रतिष्ठा का प्रतीक भी समझा जाता है।
Nathu Ram Meghwal- हमारे यहाँ इसे बाबा/अलखनाथ रा (का) पगलियाकहा जाता है. मैं भी पहना करता था. मेरे गाँव में सभी मेघों के घर यह प्रतीक मिल जाता है. कई बुज़ुर्ग लोग स्वर्णिम प्रतीक भी पहनते हैं.
Madha Ram- इस तरह के प्रतीक समाज और संस्कृति को पोज़िटिव एनर्जी देते हैं. हम कोई भी कार्य करते हैं तब हम इसके बारे में सोचते हैं और इससे कार्य करने का सही रास्ता पूछते हैं ताकि हम दुनिया में सही कार्य करें.
 
प्रमोदपाल सिंह मेघवाल@Nathu Ram Meghwal अलख जी की पूजा एक पाँवया एक चरण की मानी जाती है। जबकि बाबा रामदेवजी की पूजा दो पगलियों की होती है। इस संबंध में मेरा एक विस्तृत आलेख शीघ्र ही मेघवाल समाज के लिए बनाई गई मेरी वेबसाइट मेघयुग.कॉम www.meghyug.comपर आपको देखने को मिलेगा। आलेख लिखा जा चुका हैं। सिर्फ तथ्यों का परीक्षण एवं संपादन ही शेष है।
Thakur Das Meghwal Bramniya- ये प्रतीक गुलामी के प्रतीक हैं धर्म के नहीं.
Bharat Bhushan Bhagat प्रथम दृष्यटया Thakur Das Meghwal Bramniya की बात सही दिखती है. तथापि दर्शन की दृष्टि से देखें तो संसार में हर वस्तु को नाम और रूप से पहचान मिलती है. बौधधर्म के अपने प्रतीक हैं, ब्राह्मण धर्म के अलग. ऐसे ही अन्य का भी समझ लीजिए. गुलाम मानव समूहों पर ऐसे नाम और रूप (प्रतीक) थोपे जाते रहे हैं यह भी सच है. अब यह इस बात पर निर्भर करेगा कि उस प्रतीक को धारण करने वाला उसे किस अर्थ में ग्रहण करता है और कि क्या वह उस अर्थ से संतुष्ट है? यदि वह उसे अपना धार्मिक प्रतीक समझता है तो यह उस व्यक्ति का अपना चुनाव (selection) है.
Tararam Gautam अभी मैं थार के रेगिस्तान में हूँ और संयोग से इससे सामना हुआ. यह ऐतिहासिक रूप से पुष्ट है कि यह प्रतीक उस आस्था का प्रतिनिधित्व करता है जिसकी जड़ें बहुत गहरी हैं न कि यह गुलामी का प्रतीक है. इस प्रतीक का इतिहास समस पीर और रामदेव जी से भी पहले का है. यह किसी व्यक्ति का नहीं बल्कि व्यक्तित्व का सम्मान है.
 
इस वशिष्टता को सिद्ध और नाथ पंथ के बाद उभरे हरेक पदचिह्न के साथ सामान्यीकृत नहीं किया जा सकता.
 
जहाँ तक अलख पूजा का संबंध है कुछ लोग इसे निजारी इस्माइलिया के सत्पंथ के साथ जोड़ते हैं और दूसरे इसे अन्य के साथ जोड़ते हैं. समस ने इसे अलख रा पाँवक्यों कहा. और विस्तार से देखें तो एक पदचिह्न उसके साथ है और दूसरा पंखुडी पर है. क्या इसका कोई धार्मिक या आध्यात्मिक अर्थ है?
 
उस काल में मेघवालों की स्थिति और स्टैंड क्या था?
ऐसे प्रतीक कब और कहाँ मिले और उनका अर्थ क्या था?
Tararam Gautam सामाजिकऐतिहासिक जाँच से पता चलता है कि इन्हें आभूषण नहीं माना जाता और केवल आस्था के पवित्र प्रतीक माना जाता है.
माना जाता है कि उगम सी (जी) धारू मेघ के गुरु का है, धारू मेघ जिसे ऐतिहासिक व्यक्ति माना जाता है जिससे मेघों के एक जाति बनने का रास्ता खुला. लेकिन विवेकपूर्ण प्रमाणों से स्पष्ट हो जाता है कि उगम सी महामुद्रा पंथ का अनुयायी था जिसमें पाट (पट) स्थापनाऔर घट या कलश स्थापनाधार्मिक कार्यकलाप का अनिवार्य अंग है न कि पदचिह्न.हो सकता है यह पाट में हो लेकिन तब पाट संपूर्ण है और पदचिह्न एक भाग है जबकि इस आस्था को मानने वाले मुख्यतः पदचिह्न को महत्व देते हैं. क्या इसका कोई समाधान है?
जैसलमेर शहर से दूर लेकिन जैसलमेर के इस क्षेत्र में मैंने लोगों को यही प्रतीक धारण किए देखा है जिससे उनके एक ही धर्म और पंथ के होने का पता चलता है.”

Foot prints of Buddha (left) and Jesus (right)
इस चर्चा के दौरान मुझे याद पड़ा कि श्रीनगर के एक मंदिर में ईसा मसीह के पदचिह्न होने की बात विश्वप्रसिद्ध है. उसकी फोटो को मैंने फेसबुक की चर्चा वाली जगह पर लगाया और बताया कि पदचिह्नों में समानता है. स्वतंत्र रूप से बनाई गई छवियाँ मिलतीजुलती हो सकती हैं लेकिन एक समान नहीं होतीं. फिर भी मैं वह छवि वहाँ लगाने से खुद को रोक नहीं सका. इसका कारण यह था कि एक पुस्तक जीसस लिव्ड इन इंडियामें लिखा है कि जीसस का आखिरी जीवन भारत में बीता. यह भी पढ़ रखा था कि जीसस ने बौधों की एक बहुत बड़ी सभा को कश्मीर में संबोधित किया था. एक ऐसा लिंक भी मिला जिसमें स्पष्ट था कि गांधार में बुद्ध की पदशिला मिली है. मन में कौंधा कि कहीं ईसा ने यहाँ ऐसे बौध मठ में शरण तो नहीं ली थी जहाँ बौधजन और बुद्ध की पदशिला पहले से मौजूद थे? क्या संभव है कि आगे चल कर बुद्ध के उक्त पदचिह्न को जीसस के पदचिह्न की प्रसिद्धि प्राप्त हुई हो या उन पदचिह्नों का मिलताजुलता अनुसृजन हुआ हो? क्या ये पदचिह्न बुद्धिज़्म और क्रिश्चिएनिटी के परस्पर संबंध का प्रतीक तो नहीं है? यह विषय आर्कियालॉजिस्टों और इतिहासज्ञों का है. मैं तो केवल प्रश्न ही पूछ सकता हूँ

वैसे मेरी मान्यता यह है कि बौधधर्म, ईसाइयत और इस्लाम एक ही धर्म के तीन क्षेत्रीय रूप हैं. बात इतनी है कि दुनिया भर के बौद्धों, ईसाइयों और मुसलमानों के प्रति भारत में पाई जाने वाली घृणा के मूल में ब्राह्मणवाद जनित वंशवाद अर्थात जातिवाद है जो वैश्वीकरण के बाद कुछ ढीला पड़ता दिखाई दिया है.

Meghvansh and its Gotra system – मेघवंश और उसकी गोत्र व्यवस्था

गोत्र व्यवस्था और मेघवंश : ताराराम

 
(यह आलेख माननीय ताराराम जी की पुस्तक ‘मेघवंश- इतिहास और संस्कृति-2′ का एक अंश है)

हिंदू समाज विभिन्न जातियों का एक ऐसा जाल है, जिसे समझना एवं भेदना बड़ा मुशिकल है। इन जातियों की पूर्वगामी व्यवस्था को वर्णव्यवस्थाके रूप में प्रकट किया जाता है एवं उसे धर्म प्रणीत ठहराया जाता है। सामाजिक व्यवस्था के धर्मप्रणीत आधार को सुव्यवस्थित तरीके से जितनी चतुराई से व्यावहारिक जामा हमारे देश में पहनाया गया, उतना अन्य किसी भी देश में देखने और सुनने को भी नहीं मिलता। कदाचित भारत देश को धर्म प्रधान देश कहना उचित लगता है, जब उसकी प्रत्येक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था में हम धर्म का गहरा आधार पाते हैं। परंतु गहराई में जाने पर ऐसा मालूम पड़ता है कि यह प्रचार का एक साधन भी है। हम इस नाम से उन समस्त तत्त्वों का प्रचार करते हैं, जो वर्ण प्रभुत्व (वर्णप्रभुत्व) के पोषक हैं। वर्णव्यवस्था, जातिव्यवस्था या गोत्रव्यवस्था की उत्पत्ति का जो भी आधार रहा हो वह आज इतना महत्वपूर्ण नहीं है, परंतु सामाजिक और ऐतिहासिक रूप से वर्गप्रभुत्व के दृष्टिकोण से आज भी ये धर्मप्रणीत आधारभूत है। अत: इस दृष्टि से मेघवंश के संदर्भ में इस पर विचार करना चाहिए।

हिंदू समाज में जाति अपने आप में न केवल एक सामाजिक घटक बन चुका है, अपितु राजनीतिक और सांस्कृतिक घटक भी बन चुका है। सामाजिक और सांस्कृतिक घटक रूप में प्रत्येक जाति अपने प्रभुत्व के लिए गोत्र की सहायता लेती है। जातिवादी व्यवस्था में वर्ग प्रभुत्व को स्थायी बनाए रखने में गोत्रव्यवस्था ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। भारतीय समाज किंवा हिंदू समाज में गोत्र का विचार विभिन्न सामाजिक रस्मोंरिवाज एवं सामाजिक सरोकारों में किया जाता है, यह रूढ़ि मेघ समाज में भी वर्तमान है। मेघ समाज में गोत्र की प्रथा अन्य समाजों में व्याप्त इस प्रथा की देखादेखी से आयी है। जब चारों ओर गोत्र की परंपरा का बोलबाला हो गया, तो मेघों ने भी अपने को ब्राह्मणवादी व्यवस्था में मिलाते हुए इस व्यवस्था को प्रश्रय देना प्रारंभ कर दिया। यह गोत्रपरंपरा मेघों की अपनी सामाजिक या सांस्कृति परंपरा नहीं है, बल्कि ब्राह्मणी परंपरा से ली गई प्रथा है।
ब्राह्मणवादी व्यवस्था में प्रत्येक जाति अपनी उत्पति किसी न किसी ऋषि या नायक (शूरवीर) से जोड़कर अपनी जाति के वर्ग प्रभुत्व की व्याख्या करती है। अपनी जाति की श्रेष्ठता को स्थापित करने में गोत्र व्यवस्था को महत्वपूर्ण आधार के रूप में देखा जाता है। ये सब गोत्रव्यवस्था को परंपरागत रूप से मिली दृढ़ मान्यता के सूचक हैं। ब्राह्मणवादी व्यवस्था के पोषक ऋषियों ने देखा कि जब तक व्यक्ति या समाज के जीवन में जात्याभिमान या वंश अभिमान की सृष्टि नहीं की जाएगी, तब तक वर्ग प्रभुत्व की कल्पना साकार रूप नहीं ले सकती है। इसीलिए उन्होंने इसे व्यावहारिक रूप देने के लिए गोत्र प्रथा का सृजन किया। प्रारंभ में इनेगिने ऋषि थे, जिन्होंने इस व्यवस्था को चलाया। परंतु बाद में यह संख्या बढ़ती गयी। कई ऋषियों के नाम वेदों, ब्राह्मणों और उपनिषदों में आते हैं, परंतु वे किसी गोत्रकर्ता अर्थात गोत्रव्यवस्था को चलाने वाले नहीं बताए गए। वेदों में उल्लेखित बहुत से ऋषि मन्त्र दृष्टा बताए गए हैं, परंतु वे सभी भी गोत्रकर्ता नहीं हैं। स्पष्टत: इस व्यवस्था को लेकर भी ऋषियों में मतभेद थे। भारत की विभिन्न परंपराओं में इसका कभीभी एकसा स्वरूप व स्वीकृति नहीं रही है।
भारत की ब्राह्मणवादी परंपरा में गोत्रभेद की पृष्ठभूमि भेदभाव और ऊँचनीच की वर्णवादी व्यवस्था को स्थायी और सनातन बनाने के लिए ही रची गई है और इसे चालू रखकर प्रथा एवं परंपरा का रूप इसलिए दिया गया, क्योंकि यह वर्ण व्यवस्था या जातिव्यवस्था को मजबूत बनाती है। वस्तुत: यह मनुष्यों को विभक्त करने की एक अन्य सोचीसमझी भेदकारी व्यवस्था है, जो जनजीवन में रूढ़ होकर परंपरा के रूप में चली आ रही है। वैदिक व्यवस्था या ब्राह्मणवादी व्यवस्था में इससे किसी व्यक्ति या समुदाय विशेष की आंशिक इतिहास की छानबीन करने में भी सहायता मिलती है। वैदिक परंपरा में यह उस समय की देन है, जब मानवसमुदाय अनेक भागों में विभक्त होने लगा था और उसे अपने पूर्वजों और संबंधियों का ज्ञान कराने के लिए संकेत की आवश्यकता प्रतीत होने लगी। क्रमश: जैसेजैसे मानवसमाज अनेक भागों में विभक्त होने लगा व वर्णव्यवस्था प्रभावी होने लगी, वैसेवैसे इस गोत्रव्यवस्था या गोत्र नाम के प्रति मनुष्यों में मोह भी बढ़ता गया। भारत की जिन परंपराओं में इसका कुछ भी स्थान नहीं था, वहां भी यह धीरेधीरे फैल गई। इस प्रकार से विवाहसंबंध और सामाजिक रीतिरिवाजों में उसका विचार किया जाने लगा एवं किसी न किसी रूप में सभी ने इसको स्वीकृति प्रदान कर दी। वर्तमान मेघवाल समाज भी इससे बच नहीं सका। प्रारंभ में जिन आठ ऋषियों को गोत्रकर्ता माना जाता है, उन्हें गोत्रप्रवर में इस प्रकार से उल्लेखित किया गया है
जमदग्निभरद्वाजो विश्वामित्रात्रिगौतमा:
वशिष्ठकश्यपोSगस्त्यो मुनयो गोत्रकारिण:।।
अर्थात जमदग्नि, भरद्वाज विश्वामित्र, अत्रि, गौतम, वशिष्ठ, कश्यप और अगस्त्य ये गोत्रकर्ता मुनि हैं। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि जगदग्नि आदि इन आठ ऋषियों के समय भृगु और अंगिरा आदि भी अनेक ऋषि थे, परंतु उस समय उनके नाम के गोत्र का प्रचलन नहीं हुआ था। ये अन्य ऋषि भी मंत्रदृष्टा थे, परंतु इनके नाम से गोत्र नहीं बनें अर्थात ये गोत्रकर्ता नहीं बन पाए। ऐतिहासिक रूप से यह विचारणीय है कि ऐसा क्यों हुआ। एक ही जाति में अलगअलग गोत्र भी सुने जाते हैं और अलगअलग जातियों का एक ही गोत्र या समान नाम के गोत्र भी सुने जाते है। इन सबके विश्लेषण से एक बात स्पष्ट होती है कि हक़ीकत में इन ऋषियों या शूरवीरों का एकदूसरे ऋषि या शूरवीर से कुछ भी लेनादेना नहीं है, तभी तो कई जातियां एक ही नामधारी ऋषि से अपनी उत्पत्ति बताती हैं। परंतु वास्तव में उन जातियों का आपस में कुछ भी लेनादेना नहीं होता है। साधारणतया ब्राह्मण परंपरा में गोत्र प्रथा को रक्तपरंपरा की पर्यायवाची माना गया है। अत: यह परंपरा यह स्वीकार करती है कि ब्राह्मण सदासर्वदा ब्राह्मण ही बना रहता है। जिसका ब्राह्मण जाति में जन्म हुआ है, ह अन्य जाति वाला कभी नहीं हो सकता है। ब्राह्मणवादी परंपरा में प्रारंभ से ही सदाचार की अपेक्षा रक्त परंपरा को अधिक महत्व दिया गया है। जब इस परंपरा में रक्तशुद्धता का सिद्धांत अस्वीकृत होने लगा या डंबोडोल होने लगा, तो रक्त की शुद्धता के सिद्धांत को सामाजिक व्यवस्था की शुद्धता के सिद्धांत पर ला खड़ा किया गया। यही गोत्र परंपरा का गंभीर भेद है। अन्य देशों में रंगभेद या नस्लभेद तो है, परंतु गोत्रभेद नहीं है। ब्राह्मणवादी परंपरा में जाति की इस जटिल व्यवस्था को गोत्रप्रवर की व्यवस्था ने न केवल भेदकारी बनाया, अपितु उसे कारगर व स्थायी बनाने में भी संस्थागत आधार प्रदान किया।
भारत की गैर ब्राह्मणवादी परंपराओं में गोत्र व्यवस्था का ऐसा कोई भेदकारी स्वरूप नहीं था। वर्णव्यवस्था या जातिव्यवस्था की शुद्धता के आधारभूत रूप में गैर ब्राह्मणवादी परंपराओं यथा बौद्धजैनों में गोत्र का ऐसा कोई विधान कभी भी स्वीकृत नहीं हुआ। वैदिक लोगों की गोत्र की व्यवस्था उनउन ब्राह्मणों को उनउन ऋषियों का वंशज प्रकट करती है। ब्राह्मणवादी गोत्रव्यवस्था, जो पहले उच्चवर्ण तक ही थी, वह धीरेधीरे सभी वर्णों व जातियों में से गोत्रों की जो व्यवस्था ब्राह्मणों तक सीमित थी, वह क्षत्रियों और वैश्यों तक जाने या अनजाने रूप में आ गई, परंतु ब्राह्मणों के अलावा अन्य वर्णों में गोत्र का कोई महत्व नहीं था।
वर्णों में गोत्र का कोई महत्व नहीं था और शूद्र एवं गैर वैदिक लोगों में तो इसका वैसे ही कोई महत्व नहीं रखा गया था यहाँ तक कि क्षत्रियों में भी इसका कोई महत्व नहीं था, मेघ समाज का गठन पूर्ण रूपेण गैर ब्राह्मणवादी परंपरा से हुआ था, अत: वे इससे अनभिज्ञ से बने रहे, धीरेधीरे मेघ समाज अब एक जाति के रूप में पुकारा जाने लगा और अभिहीत किया जाने लगा तो वर्णवादी व्यवस्था के अन्य पोषक तत्त्वों का भी इस समाज में प्रश्रय मिलाना शुरू हुआ। इसी के परिणाम स्वरूप वे खाप को ही अपना गोत्र कह देते हैं।
मेघ समाज संपूर्ण भारत में मेघ जाति से ही पहचाना जाता है। यह अपने आप में एक परंपरागत सांस्कृतिक घटक है, जिसकी अपनी एक विशिष्ट पहचान है। मेघों का अपना वंश है। वे वंश के नाम से ही जाने जाते हैं, इसके अलावा इनका कोई गोत्र नहीं है। वंश या बंस ही उनका कुल या गोत्र है, अन्य दूसरा कोई गोत्र नहीं है। अपनी विशिष्ट सामाजिक और राजनीतिक सोच एवं सांस्कृतिक व धार्मिक परंपरा से उनके वंश का गठन हुआ है। इस वंश या बंस को कई समाज सुधारकों ने गोत्रकर्ता ऋषियों से जोड़कर देखने की चेष्टा की। उनका प्रयास हिंदू व्यवस्था में इस जाति के मान को बढ़ाने हेतु था, परंतु वास्तव में ऐसे प्रयास इस जाति की हीनता को ही स्थायी बनाने वाले सिद्ध हुए हैं। अत: मेघों को अपने कुल या बंस को ही पुन: प्रतिष्ठित करना होगा। जिसे ब्राह्मणवादी व्यवस्था में सम्मिलित होने के प्रयासों में वे भूल गए हैं। सन 2001 की भारत देश की जनगणना में मेघ जाति सबसे ज्यादा राजस्थान में निवास करती है, जहाँ बहुधा वे मेघवाल नाम से जाने जाते हैं। राजस्थान की समस्त अधिसूचित अनुसूचित जातियों की जनसंख्या में इनकी जनसंख्या 21.23% है। जो चमारों की जनसंख्या से थोड़ी सी कम है। जम्मूकश्मीर की समस्त अधिसूचित अनुसूचित जातियों की जनसंख्या में मेघों की जनसंख्या 39.00% से ज्यादा है। इस प्रकार से यहां पर मेघ लोग सघन रूप से निवास करते हैं। इन मेघों की कुछ खापें एकसी हैं अर्थात मिलती हैं एवं कुछ खापें ऐसी है, जो नहीं मिलतीं। यहां पर उसकी विवेचना अपेक्षित नहीं है। परंतु इससे एक बात स्पष्ट है कि कुछ खापें तो भौगोलिक प्रभाव से बनी है, कुछ राजनीतिक कारणों से व अन्य कारणों से उत्पन्न हुई हैं। उनमें गोत्र प्रवर की कोई मान्यता ऐतिहासिक रूप से कभी भी नहीं रही है। इस बात को स्पष्ट करने के लिए राजस्थान की मेघ जाति की कुछ खापों का उल्लेख करना समीचीन है, जिससे मेघ जाति इस गोत्र के बारे में पनप रही मिथ्या धारणा को समझ सके एवं पुन: एक सांस्कृतिक और राजनीतिक वजूद रखने वाला प्रभुत्वकारी घटक बन सके।
राजस्थान के मेघवालों में गोत्रकर्ता के नाम का कोई भी गोत्र प्रचलित नहीं है। वे अपने सामाजिक रीतिरिवाजों में अपनी खाप को ही गोत्र का नाम दे देते हैं। इस प्रकार से खाप की अभिव्यक्ति उनके ब्राह्मणवादी गोत्र की कमी को पूरा कर देती है। ये खापें भी राजस्थान में बहुधा राजपूतों की उपजातियों से मिलती हैं। यह ध्यान देने योग्य है कि राजपूतों की ये उपजातियां भी उनका कोई गोत्र या प्रवर नहीं है। वस्तुत: राजपूत, जाट और मेघ आदि जातियों का परिघटन एक ही आधार पर हुआ है, परंतु परंपरा व प्रभुत्व भेद से उनमें ऊँचनीच की दीवारें खड़ी हो गई अन्यथा ये सभी एक ही घटक दल व घटनाक्रम की उपज हैं।
मेघ समाज एक जाति के रूप में ज्ञात होने से पहले एक संगठित व अभिज्ञात राजनीतिक और सांस्कृतिक दल था जिसकी राजनीतिक सत्ता का केन्द्र वत्स जनपद था। वहां पर मेघ राजा वसिष्ठीपुत्र भीमसेन के शौर्य एवं बल से उनको एक विशेष पहचान मिली। की पीढ़ियों तक शासन करने के बाद जब ये सत्ताविहीन हुए तो विस्थापित हुआ यह समाज भारत के विभिन्न भागों में जा बसा, जहां पर ये कई जगहों पर शासक या गवर्नरों के रूप में ख्यात नाम हुए। चूंकि मेघों की परंपरा वर्ण, जाति और गोत्र आदि परंपरा से भिन्न थी, अत: उनकी पहचान वशिष्टी के नाम से ही की जाती रही अर्थात मेघ जाति बनने से पूर्व ये अपने को वशिष्टी या वशिष्ठा नाम से ही अपना परिचय देते थे जो उनके गौरव और शौर्य का इतिहास बयान करता था। अत: सारे भारत में मेघ वाशिष्ठी, वशिष्टा या वासिका नाम से संज्ञान हुए। कई भूभागों में यह वशिष्टा नाम धीरेधीरे लुप्तप्राय हो गया और भूभाग विशेष में निवास करने के कारण उस भूभाग का नाम उनके साथ जुड़ गया यथा मारूमेवाड़ा आदि, ऐतिहासिक रूप से मेघों के प्रतिबोध हेतु ऐसे कई अन्यान्य शब्दों का भी प्रयोग होने लगा। परंतु ये न तो उनके गोत्र थे और न ही उन्होंने इन्हें गोत्र के रूप में धारण किया था। उस समय तक वे गोत्रव्यवस्था को अभिसात नहीं कर पाए थे, क्योंकि अभी तक ब्राह्मणवादी व्यवस्था में उनका विलीनीकरण नहीं हुआ था।
राजस्थान में राजपूतों के उत्कर्ष के समय और उसके बाद भी उनमें गोत्रप्रवर की ललक कहीं पर भी दृष्टिगोचर नहीं होती है। इसके कई कारण थे, परंतु सबसे बड़ा कारण यह था कि प्रभुत्वकारी रूप में उभरे राजपूत भी गोत्रव्यवस्था के प्रति उदासीन ही थे। यह तो राजपूतों का जब हिंदूकरण हुआ, तो उनमें हिंदू वर्ण व्यवस्था में उच्च स्थान प्राप्ति के उत्साहस्वरूप गोत्र के प्रति उनका रुझान बढ़ा। ब्राह्मणवादी व्यवस्था के पुरोधे गैर ब्राह्मणवादी परंपराओं को अपने में मिलाने के लिए उनको कृत्रिम नाम और उत्पति की कथाकिंवदतियों से उनका उत्साहवर्धन कर रहे थे। इस युग में एक ही घटक दल के विभिन्न मानव समूह विभिन्न जातियों में विभक्त कर दिए गए। जिनका राजनीतिक वजूद स्थिर हो चुका था, वे राजपूत नाम से ब्राह्मणवादी व्यवस्था में उच्चवर्ण में मिला दिए गए व खेतीबाड़ी, शिल्पकारी या अन्य पेशों में संलग्न लोगों को, जो ब्राह्मणी परंपरा के नहीं थे, उन्हें निम्नस्तर पर खपाया जाने लगा। सत्ता प्राप्त लोगों का अतिउत्साह से पुरानी परंपरा में मेल कराने का कार्य उनके इतिहासकारों ने बखूबी किया बाकी आमजन को उनका आश्रित बनाकर उनकी अभिज्ञात जाति का नाम धारण करने का लोभ देकर उनको भी इस चक्रव्यूह में पीसा गया। यह जनता जनार्दन कहीं से भी न तो ब्राह्मण थी और न ही शूद्र, वैश्य या अन्य वर्णवादी व्यवस्था का अंग। परंतु जब उनके बड़ेबड़े लोगों को मिला दिया, तो उनके अन्य स्वजनों को भी इस घेरे में लेना आवश्यक था। इसी पर पूरा सामाजिक और राजनीतिक वजूद टिका था। अत: एक शासक कौम मेघ का, जिसका कोई अभिज्ञात गोत्र नहीं था, उसे इस व्यवस्था ने अपने में खपाने में सफलता प्राप्त की। उनके लिए इतना भर अभीष्ट था कि वे फलांफलां राजपूत वर्ग या जाति से हैं, चूंकि वे अब शासक वर्ग से नहीं है, अत: उनकी स्थिति निम्न है। खेतीबाड़ी उनका मुख्य पेशा था। वर्षा के मौसम के अलावा वे कपड़े बुनने का कार्य व अन्य शिल्पकार्यों में संलग्न हो गए। कपड़ेबुनने व अन्य शिल्प व दस्तकारी ब्राह्मणवादी व्यवस्था में शूद्र की श्रेणी में ही गिने जाते थे। अत: धीरेधीरे हिंदू व्यवस्था में वे हीन अवस्था को प्राप्त होते गए।
प्रभुत्कारी जातियों के नाम का उपयोग उनकी जाति नहीं भी, बल्कि वह उनका नख कहलाता था। नख का वास्तविक अर्थ यही है कि जोजो जिसजिस नख को धारण करता है, वहवह उसउस शासक के अधीन है। राजस्थान में मेघों में विभिन्न खापों के नाम यथा परिहार, पँवार, चौहान, सोलंकी, राठौड़, भाटी आदि प्रचलित हैं, वे भी उनके गोत्र नहीं हैं। बल्कि स्पष्टतः उनसे वही अद्यबोध होता है कि फलांफलां सत्तासंपन्न वर्गों से ही इनका संबंध है। ये खापें मेघों के गोत्र कदापि नहीं रहे हैं व न ये गोत्र हैं। ये जो खापें हैं वे भौगोलिक और राजनीतिक कारणों से बनी हैं, इसके अलावा इसमें गोत्र, प्रवर आदि का कोई आधार भी नहीं है। इसे स्पष्ट करने के लिए हमें इन राजपूतों के गोत्रों के बारे में जानना आवश्यक है।
ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह सुविदित है कि ब्राह्मणों के गौतम, भरद्वाज, अत्रि आदि अनेक गोत्र मिलते हैं, जो उन ब्राह्मणों का उनउन ऋषियों का वंशज होना माना जाता है। परंतु राजपूतों के गोत्र उनके वंशकर्ता के सूचक नहीं हैं, क्योंकि प्रारंभ में गोत्र व्यवस्था ब्राह्मणों तक ही सीमित थी। यह विशुद्ध रूप से वर्ण व्यवस्था को टिकाऊ बनाने की एक कारगर युक्ति थी जिसके प्रति जितने कायल ब्राह्मण थे, अन्य कोई वर्ग उतना उत्सुक नहीं था। परंतु धार्मिक व राजनीतिक क्षेत्र में ब्राह्मणों की पूरी पैठ थी, अत: इसे पुरोहित के माध्यम से क्षत्रियों तक विस्तारित किया गया। जोजो पुरोहित जिनजिन क्षत्रियों के याजक होते थे, उनउन क्षत्रियों को भी उस गोत्र का माना जाने लगा। यह सिर्फ धार्मिक पूजापाठयज्ञयाज्ञ आदि तक सीमित था। भगवान बुद्ध एवं श्रमणवादी परंपरा ने वर्ण व्यवस्था को स्थायी करने वाली इस संकल्पना को कभी भी स्वीकार नहीं किया। अत: बौद्धमय भारत में हमें क्षत्रियों के गोत्रों का कहीं पर भी कोई सायाश उल्लेख नहीं मिलता है। बौद्ध धर्म के अपकर्ष के बाद एवं हिंदू धर्म के उत्थान के समय गोत्र की संकल्पना ने फिर दृढ़ होना शुरू किया और राजपूतों के उदय के साथ उनके हिंदू धर्म में मिल जाने पर उनके भी गोत्रों पर विचार किया जाने लगा। जिसजिस राजपूत राजे के जोजो पुरोहित होते थे, वे उसउस गोत्र में अभिज्ञात किए जाने लगे। यह सरल युक्ति राजपूतों व अन्य घटक दलों को ब्राह्मणवादी व्यवस्था में अंतर्भूत करने में संजीवनी का काम करने लगी और इस प्रकार से उनउन गोत्रों से जुड़े प्राचीन क्षत्रियों से इन राजपूतों ने बड़े उत्साह से अपना संबंध जोड़कर इतिहास की रिक्तता को पूरा करने में कामयाबी हासिल की। परंतु निम्नस्तर पर जीवन यापन करने वाले वर्ग को इससे न तो कोई सरोकार था और न गौरव और न ही ब्राह्मणी व्यवस्था उन्हें गोत्र या प्रवर की परिधि में लाने की इच्छुक थी, क्योंकि गोत्र की संकल्पना जात्यायिमान और वर्णवाद से जुड़ी थी, जिसे ब्राह्मणवादी व्यवस्था खंडित या कलुषित नहीं करना चाहती थी। अत: निम्नस्तर पर जीवनयापन करने वाला वर्ग कभी भी इसके प्रति कायल नहीं रहा।
जहां तक परिहार, पंवार, भाटी आदि नामों का संबंध है। ये न तो उनके गोत्र हैं और न राजपूतों की एकएक खाप में अलगअलग गोत्रों की अभिव्यक्ति ही इस बात का संकेत करती है कि जातीयता के दायरे में लिए जाते वक्त इन राजेलोगों को कहांकहां, क्याक्या मेलजोल करना पड़ा। कुछ विद्वान यह अवश्य कहते हैं कि राजपूतों के गोत्र भी वास्तव में उनके मूल पुरुषों के सूचक हैं, पुरोहितों के नहीं और पहले क्षत्रिय लोग ऐसा ही मानते थे अर्थात भिन्नभिन्न क्षत्रिय वास्तव में उन ब्राह्मणों की संतान हैं, जिनके गोत्र वे धारण करते हैं। इसी युक्ति को मेघ समाज में भी फैलाने का कार्य अज्ञानतावश कुछ लोग करने लगे हैं, जिसका आशय यह है कि मेघों की फलांफलां खाप फलांफलां राजपूत से उत्पन्न है। यह विचार मेघों को हिंदू समाज में निम्नतर स्थिति को जायज ठहराने का कुत्सित प्रयास है। इस कूटनीति व छलपूर्ण बात को प्राचीन काल के मेघ लोग बखूबी जानते थे, अत: उन्होंने उसे कभी भी अपना गोत्र नहीं माना। अपना गोत्र तो वे मेघ ही बताते व मानते थे। जो इस जाति या वंश का मूल पुरुष था। उनका मूलपुरुष ही सदैव उनका गोत्र माना जाता था। आंख मूंदकर देखादेखी करने की बजाय मेघों को अपने वंश को ही गोत्र के रूप में पुन: प्रतिष्ठित करना चाहिए।
जहां तक पुरोहित या गुरु के गोत्र की युक्ति का प्रश्न है, जिससे राजपूतों आदि के गोत्रों का संज्ञान किया जाता है, वह भी मेघों के समाज पर उपयुक्त नहीं बैठती है, क्योंकि आदिकाल से ही मेघ लोग अपने मूलपुरुष के रूप में मेघ नामधारी महापुरुष को ही मानते आए हैं। कई जगहों पर भाषाभेद या प्रचलन में भेद होने से भले हीउसे मेघऋषि, मेघ सिरी, मेघरिख, मेघ कुमार या धारूमेघ आदि कुछ भी कहा जाता हो, परंतु व्यक्तिवाचक मेघ शब्द उन सब में समान रूप से स्वीकार्य है। यह मूल पुरुष ही उनका गोत्रकर्ता (वंशकर्ता) है। इसी बात को मेघों को ध्यान में रखना चाहिए और मानते रहना चाहिए। कुछ लोगों ने वशिष्ठ आदि गोत्रकर्ता ऋषियों का अभिज्ञान होने से व मेघों द्वारा भी प्राचीन काल में अपने को वशिष्ठी या वसीका कहने के आधार पर मेघों का गोत्र वाशिष्ठी बताने की सायास चेष्टा की है। परंतु यह स्पष्ट है कि मेघ लोगों का वासिष्ठी नाम वशिष्ठी ऋषि के कारण प्रचलन में नहीं आया था, बल्कि उनकी मातृशक्ति के बहुमान से प्रचलन में आया था और स्वीकार्य हुआ था। अत: मेघों को पुन: अपने प्राचीन गोत्र जिसे मेघवंश कहा गया है, उसे ही मान्यता देनी चाहिए। अन्य जो खापें हैं, उन्हें गोत्र के रूप में मान्यता नहीं देनी चाहिए, क्योंकि ये खापे किसी भी आधार पर उनके गोत्र नहीं है और न ही उन राजपूत जातियों के, जिनसे ये अपना निकास मानते हैं।

BJP and Meghs – भाजपा और मेघ

बीजेपी का दलित दाँव
आज सभी समाचारिया चैनल उदित राज (बुद्धिस्टऔर रामविलास पासवान (दुसाधऔर रामदास अठावले (बुद्धिस्ट), अध्यक्षरिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के बीजेपी में जाने की खबरों से अटे पड़े हैं.
पासवान कभी पायदार सामाजिक कार्यकर्ता रहे हैंकेंद्र में मंत्री भी रह चुके हैंउनकी पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी हैआजकल उनकी छवि मौकापरस्त राजनेता की हैउदितराज का नाम पहले रामराज थासंभवतः अंबेडकरवाद से प्रभावित हो कर उन्होंने अपना नाम उदितराज कर लियादिल्ली में काफी सक्रिय रहे हैंउनकी इंडियन जस्टिस पार्टी नाम से एक राजनीतिक पार्टी भी हैदक्षिण भारत की कुछ दलित संस्थाओं में उनकी अच्छी घुसपैठ हैएक बार उनसे फोन पर बात करने का सुअवसर प्राप्त हुआ थाकाफी खनखनाती आवाज़ में टू द प्वाइंट बोलते हैं.
बीजेपी ने काफी समय से ओबीसी को जानेअनजाने में अपने पसंदीदा टारगेट पर रखा हैउमा भारती, (शायदगोविंदाचार्य (भी), नरेंद्र मोदी नामक ओबीसी पत्ते उसके पास रहे हैंपंजाब में एक वर्तमान मंत्री श्री चूनी लाल भगत को कुछ प्रोमोट किया हैइसी प्रकार राजस्थान और जम्मूकश्मीर के मेघों में भी बीजेपी की बिजली चमकी हैराजस्थान में कैलाश मेघवाल विधानसभा के अध्यक्ष हैं केंद्र में एनडीए की पिछली सरकार में अर्जुन मेघवाल एक महत्वपूर्ण चेहरा बने हैं.
मेघवंशियों और बीजेपी पर मैंने मेघनेट पर एक पोस्ट लिखी थीनीचे दिए उसके लिंक पर आप कुछ जानकारी ले सकते हैंमैं अपनी खोपड़ी के खाँचे के अनुसार पासवान और उदितराज को मेघवंशी मानता हूँ.

ख़ैरहर पार्टी दलित कार्ड खेलती है और हर दलित नेता के हाथ में 4-5 पार्टियों के पत्ते होते हैंदेखा यह है कि दलितों का थर्मामीटर राजनीतिक समझदारी का तापमान कम और आपसी अनेकता का तापमान अधिक दिखाता हैदाँव पर ख़ुद जनता होती है.


History of Meghwals – मेघवाल समाज का गौरवशाली इतिहास

समीक्षा नोट – पुस्तक के अग्रेषण पत्र पर आधारित
भारत का अधिकतर लिखित इतिहास झूठ का पुलिंदा है जिसे धर्म के ठेकेदारों और राजा रजवाड़ों के चाटुकारों ने गुणगान के रूप में लिखा है. इसमें आज की शूद्र जातियों के वीरतापूर्ण, कर्मठ, वफादार व गौरवशाली इतिहास को छोड़ दिया गया है या बिगाड़ कर लिखा गया है. बौद्ध शासकों के बाद के शासकों की विलासितापूर्ण जीवनशैली तथा प्रजा के प्रति निर्दयी व्यवहार को छिपा कर उनके मामूली किस्सेकहानियों को बढ़ाचढ़ा कर कहा गया है.
 
गत कुछ दशकों में दलित समाज कुछ शिक्षित हुआ है और उसमें जानने की इच्छा बढ़ी है, इसी सिलसिले में सच्चा इतिहास जानने और लिखने का उद्यम भी किया जा रहा है. 

मेघवंश समाज के अतीत को भी खंगाला गया है. तथ्य सामने आ रहे हैं कि आज का मेघवंश अतीत में महाप्रतापी, विद्वान व कुशल बौध शासक था, जिसने उस काल में प्रेम, दया, करुणा व पंचशील का प्रचार किया. खेती, मज़दूरी, बुनकरी, चर्मकारी, शिल्पकला जैसे विभिन्न पेशों से ये जुड़े थे. इनके पूर्वज बौद्ध शासक थे. आक्रमणों के दौर में अहिंसा पर अत्यधिक ज़ोर देने से उनका पतन हुआ. कालांतर में युद्ध हारने के कारण इन्हें गुलाम और सस्ते मज़दूर बना लिया गया. एक इतिहास लिखा गया जिसमें इनके गौरवशाली इतिहास का उल्लेख जानबूझ कर नहीं किया गया.

यह पुस्तक इनके बौद्ध शासकों के वंशज होने के प्रमाण देती है. जिससे मालूम होता है कि मेघवाल व अन्य मेघवंशी जातियों के पुरखे काल्पनिक ऋषि नहीं बल्कि विद्वान बौद्ध शासक थे जिनका भारत के कई इलाकों में साम्राज्य रहा है. इस परिप्रेक्ष्य में यह पुस्तक सिंधुघाटी सभ्यता से लेकर आज तक की पूरी जानकारी देती है. इसमें मेघवंश के समृद्ध इतिहास और उसकी सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक स्थिति पर गंभीर चिंतनमनन करते हुए अलगअलग नामों के कारण बिखरे पड़े इस समाज को एक ही नाम तले लाने का प्रयास किया गया है.
 
पुस्तक का मूल्य रू100/- है. संपर्क : बुद्धम् पब्लिशर्ज़, 21-, धर्म पार्क, श्याम नगर-II, अजमेर रोड, जयपुर– (राज्स्थान) मोबाइल नं. – 09414242059

(पंजाबी का यह अनुवाद मशीनी है)

ਸਮਿਖਿਅਕ ਨੋਟ  –  ਕਿਤਾਬ ਦੇ ਅਗਰੇਸ਼ਣ ਪੱਤਰ ਉੱਤੇ ਆਧਾਰਿਤ

ਭਾਰਤ ਦਾ ਜਿਆਦਾਤਰ ਲਿਖਤੀ ਇਤਹਾਸ ਝੂਠ ਦਾ ਪੁਲੰਦਾ ਹੈ ਜਿਨੂੰ ਧਰਮ ਦੇ ਠੇਕੇਦਾਰਾਂ ਅਤੇ ਰਾਜਾ ਰਜਵਾੜੀਆਂ  ਦੇ ਚਾਟੁਕਾਰੋਂ ਨੇ ਗੁਣਗਾਨ  ਦੇ ਰੂਪ ਵਿੱਚ ਲਿਖਿਆ ਹੈ. ਇਸਵਿੱਚ ਅੱਜ ਦੀ ਸ਼ੂਦਰ ਜਾਤੀਆਂ ਦੇ ਵੀਰਤਾਪੂਰਣ, ਚਤੁਰ, ਵਫਾਦਾਰ ਅਤੇ ਗੌਰਵਸ਼ਾਲੀ ਇਤਹਾਸ ਨੂੰ ਛੱਡ ਦਿੱਤਾ ਗਿਆ ਹੈ ਜਾਂ ਵਿਗਾੜ ਕਰ ਲਿਖਿਆ ਗਿਆ ਹੈ. ਬੋਧੀ ਸ਼ਾਸਕਾਂ ਦੇ ਬਾਅਦ ਦੇ ਸ਼ਾਸਕਾਂ ਦੀ ਵਿਲਾਸਿਤਾਪੂਰਣ ਜੀਵਨਸ਼ੈਲੀ ਅਤੇ ਪ੍ਰਜਾ ਦੇ ਪ੍ਰਤੀ ਨਿਰਦਈ ਸੁਭਾਅ ਨੂੰ ਲੁੱਕਾ ਕਰ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਮਾਮੂਲੀ ਕਿੱਸੇ-ਕਹਾਣੀਆਂ ਨੂੰ ਵਧਾ-ਚੜ੍ਹਿਆ ਕਰ ਕਿਹਾ ਗਿਆ ਹੈ. 

ਪਿਛਲੇ ਕੁੱਝ ਦਸ਼ਕਾਂ ਵਿੱਚ ਦਲਿਤ ਸਮਾਜ ਕੁੱਝ ਸਿੱਖਿਅਤ ਹੋਇਆ ਹੈ ਅਤੇ ਉਸ ਵਿੱਚ ਜਾਣਨੇ ਦੀ ਇੱਛਾ ਵਧੀ ਹੈ, ਇਸ ਸਿਲਸਿਲੇ ਵਿੱਚ ਸੱਚਾ ਇਤਹਾਸ ਜਾਣਨੇ ਅਤੇ ਲਿਖਣ ਦਾ ਹਿੰਮਤ ਵੀ ਕੀਤਾ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੈ. 

ਮੇਘਵੰਸ਼ ਸਮਾਜ ਦੇ ਅਤੀਤ ਨੂੰ ਵੀ ਖੰਗਾਲਾ ਗਿਆ ਹੈ. ਸਚਾਈ ਸਾਹਮਣੇ ਆ ਰਹੇ ਹਨ ਕਿ ਅਜੋਕਾ ਮੇਘਵੰਸ਼ ਅਤੀਤ ਵਿੱਚ ਮਹਾਪ੍ਰਤਾਪੀ, ਵਿਦਵਾਨ ਅਤੇ ਕੁਸ਼ਲ ਬੋਧ ਸ਼ਾਸਕ ਸੀ, ਜਿਨ੍ਹੇ ਉਸ ਕਾਲ ਵਿੱਚ ਪ੍ਰੇਮ, ਤਰਸ, ਕਰੁਣਾ ਅਤੇ ਪੰਚਸ਼ੀਲ ਦਾ ਪ੍ਚਾਰ ਕੀਤਾ. ਖੇਤੀ, ਮਜ਼ਦੂਰੀ, ਬੁਨਕਰੀ, ਚਰਮਕਾਰੀ, ਸ਼ਿਲਪਕਲਾ ਜਿਵੇਂ ਵੱਖਰਾ ਪੇਸ਼ੋਂ ਵਲੋਂ ਇਹ ਜੁਡ਼ੇ ਸਨ. ਇਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਪੂਰਵਜ ਬੋਧੀ ਸ਼ਾਸਕ ਸਨ. ਆਕਰਮਣਾਂ ਦੇ ਦੌਰ ਵਿੱਚ ਅਹਿੰਸਾ ਉੱਤੇ ਬਹੁਤ ਜ਼ਿਆਦਾ ਜ਼ੋਰ ਦੇਣ ਵਲੋਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਪਤਨ ਹੋਇਆ. ਹੋਰ ਵੇਲਾ ਵਿੱਚ ਲੜਾਈ ਹਾਰਨੇ ਦੇ ਕਾਰਨ ਇਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਗੁਲਾਮ ਅਤੇ ਸਸਤੇ ਮਜ਼ਦੂਰ ਬਣਾ ਲਿਆ ਗਿਆ. ਇੱਕ ਇਤਹਾਸ ਲਿਖਿਆ ਗਿਆ ਜਿਸ ਵਿੱਚ ਇਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਗੌਰਵਸ਼ਾਲੀ ਇਤਹਾਸ ਦਾ ਚਰਚਾ ਜਾਨਬੂਝ ਕਰ ਨਹੀਂ ਕੀਤਾ ਗਿਆ.

ਇਹ ਕਿਤਾਬ ਇਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਬੋਧੀ ਸ਼ਾਸਕਾਂ ਦੇ ਵੰਸ਼ਜ ਹੋਣ ਦੇ ਪ੍ਰਮਾਣ ਦਿੰਦੀ ਹੈ. ਜਿਸਦੇ ਨਾਲ ਪਤਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਕਿ ਮੇਘਵਾਲ ਅਤੇ ਹੋਰ ਮੇਘਵੰਸ਼ੀ ਜਾਤੀਆਂ ਦੇ ਪੁਰਖੇ ਕਾਲਪਨਿਕ ਰਿਸ਼ੀ ਨਹੀਂ ਸਗੋਂ ਵਿਦਵਾਨ ਬੋਧੀ ਸ਼ਾਸਕ ਸਨ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਭਾਰਤ ਦੇ ਕਈ ਇਲਾਕੀਆਂ ਵਿੱਚ ਸਾਮਰਾਜ ਰਿਹਾ ਹੈ. ਇਸ ਪਰਿਪੇਖ ਵਿੱਚ ਇਹ ਕਿਤਾਬ ਸਿੰਧੁਘਾਟੀ ਸਭਿਅਤਾ ਵਲੋਂ ਲੈ ਕੇ ਅੱਜ ਤੱਕ ਦੀ ਪੂਰੀ ਜਾਣਕਾਰੀ ਦਿੰਦੀ ਹੈ. ਇਸਵਿੱਚ ਮੇਘਵੰਸ਼ ਦੇ ਬਖ਼ਤਾਵਰ ਇਤਹਾਸ ਅਤੇ ਉਸਦੀ ਸਾਮਾਜਕ, ਆਰਥਕ ਅਤੇ ਧਾਰਮਿਕ ਹਾਲਤ ਉੱਤੇ ਗੰਭੀਰ ਚਿੰਤਨ-ਵਿਚਾਰਨਾ ਕਰਦੇ ਹੋਏ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਨਾਮਾਂ ਦੇ ਕਾਰਨ ਬਿਖਰੇ ਪਏ ਇਸ ਸਮਾਜ ਨੂੰ ਇੱਕ ਹੀ ਨਾਮ ਤਲੇ ਲਿਆਉਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕੀਤਾ ਗਿਆ ਹੈ. 

ਕਿਤਾਬ ਦਾ ਮੁੱਲ ਰੂ100/- ਹੈ. ਸੰਪਰਕ: ਬੁੱਧਮ ਪਬਲਿਸ਼ਰਜ ਮੋਬਾਇਲ ਨਂ. – 09414242059

Unity of SCs, STs and OBCs – अ.जा., अ.ज.जा. और पिछड़ी जातियों की एकता


कई विद्वानों ने इस विषय पर विचार-विमर्ष किया है विशेषकर बहुजन हिताय दर्शन के तहत जिसका बहुत महत्व है. मैंने भी अपने चिट्ठों में इस विचार-धारा के समर्थन में लिखा है.

लेकिन जब समाज की व्यावहारिक स्थिति की बात आती है तो दर्शन अलग खड़ा दिखता है और वस्तुस्थिति अलग.
यह ऐतिहासिक तथ्य है कि स्वयं को सुरक्षित रखते हुए ब्राह्मणों ने दलित जातियों और जन जातियों पर सीधे हमले स्वयं तो कम ही किए हैं. अधिकतर हमले अन्य पिछड़ी जातियों के लोग ही करते आए हैं. यह ब्राह्मणवाद का ऊंच-नीचवादी हथकंडा है जो भारत के मूलनिवासियों को बाँटने और उन्हें एक-दूसरे के हाथों मरवाने में सफल होता आया है.
यही फैक्टर है जो आज अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ी जातियों की एकता की संभावना पर प्रश्न चिह्न लगाता है. देश के दूर-दराज़ के गाँवों में फैली पुरानी और जातिगत हिंसक प्रवृत्तियाँ इस एकता को रोकने के लिए हमेशा कटिबद्ध रहती हैं. कुछ राज्यों में अन्य पिछड़ी जातियाँ अब तेज़ी से सत्ता की ओर बढ़ रही हैं और अनुसूचित जातियाँ तथा अनुसूचित जनजातियाँ उनके मुँह की ओर ताक रही हैं कि शायद बुलावा आ जाए. उधर अन्य पिछड़ी जातियाँ इनकी ओर देख तक नहीं रहीं.
देखते हैं स्थिति कैसे बदलेगी. इसे बदलना तो होगा.

Publications of Meghvanshis, Jaipur – मेघवंशियों के प्रकाशन, जयपुर


04 सितंबर 2012 को श्री आर.पी. सिंह, IPS ने ये प्रकाशन भेजे हैं. इनके चित्रों को यहाँ सहेज लिया है. इनमें लगभग 168 पृष्ठों की सामग्री है.

‘मेघ सेना’ विषयक अधिक जानकारी के लिए ऊपर चित्र पर क्लिक करें
 

अन्य पत्रों के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए इस चित्र पर क्लिक करें.

मेघवंशियों की आवाज़ – ‘दर्द की आवाज़’

Lost brother of Meghvanshis – Banjara (Gypsies, Roma) community – मेघवंशियों का गुमनाम बिरादर – बंजारा (जिप्सी, रोमा) समुदाय

ऐसे संकेत मिले हैं कि बंजारे और ख़ानाबदोश (Gypsies and Roma) सिंधुघाटी सभ्यता की ही मानव शाखाएँ हैं. बाहरी आक्रमणों के बाद ये लोग भारत के दक्षिण में भी फैले और यूरोप में स्पेन आदि देशों में भी गए. ऐसा प्रतीत होता है कि आक्रमणकारी आर्यों ने इन्हें पहचानाइनका पीछा किया और इनके विरुद्ध विषैला प्रचार किया. स्पेन के नाटककार फेडेरिको गर्सिया लोर्का (Federico Garcia Lorca ) के नाटक द हाऊस ऑफ बर्नार्डा आल्बा‘ (The House of Bernarda Albaमें इसका उदाहरण देखा जा सकता है जिसमें इनके बारे में नकारात्मक टिप्पणियाँ हैं.

बहुत देर के बाद आज बंजारा समुदाय के बारे में एक अच्छा खोजपूर्ण आलेख पढ़ने को मिला. 1963 में टोहाना प्रवास के दौरान बंजारों को काफी नज़दीक से देखा है. इनकी भाषा के उच्चारण को ध्यान से सुने तो ऐसी ध्वनियाँ सुनने में आती हैं जो पंजाबी मिश्रित हैं.  इन पर भारत के एक महान शोधकर्ता डब्ल्यू. आर. ऋषि (Padmashri W.R. Rishi) ने काफी कार्य किया है (ऋषि जी से मिलने का मौका एक बार सै. 15-डी, चंडीगढ़ में मिला था और उस छोटी सी मुलाकात में उनसे रोमा लोगों की भाषा के बारे में कुछ जानकारी मिली थी). ऋषि जी से संबंधित लिंक्स से ज्ञात होता है कि रोमां और जिप्सियों के उत्थान के लिए अंतर्राष्ट्रीय प्रयास हो रहे हैं. 
बंजारों को राजपूतों और जाटों का वंशज माना जाता है. चूँकि अधिकतर दलित राजपूतों के वंशज हैं इस दृष्टि से मैं इन बंजारों-रोमां को भी मेघवंशी कहता हूँ. वैसे भी अधिकतर दलित सूर्यवंशी हैं और इनके मूल को सूर्यवंशी (भगवान) रामचंद्र के कुल में ढूंढा जाता है. इनकी वर्तमान दशा के बारे में ख़बरकोश.कॉम ने एक बहुत अच्छा आलेख प्रकाशित किया है जो भारत के बंजारों की दशा के बारे में बहुत कुछ बताता है. आलेख नीचे दिया गया है :-

BJP and Megh – भाजपा और मेघ

पिछले 65 वर्षों से मेघवंशी कांग्रेस को माँ मान कर उसके चरणों में लोटते रहे हैं.
अंग्रेज़ों से सत्ता हस्तांतरित होकर कांग्रेसियों के पास आने के कारण और उस समय कांग्रेस का सशक्त विकल्प न होने के कारण कोई अन्य गोद नहीं थी जिसमें ये बैठने की कोशिश करते. लेकिन दूध पिलाना तो दूर कांग्रेस ने इन्हें कभी ढँग से पास में बिठाया भी नहीं. इनके पास पैसा और पार्टी फंड नहीं था. केवल वोट था जिसे सस्ते में लेकर इस पार्टी ने वोटर को भूल जाना बेहतर समझा. अति ग़रीब समुदायों की स्थिति नहीं बदली. धीरे-धीरे इनकी निराशा बढ़ती गई.
जम्मू-कश्मीर में मेघ समुदाय के सामाजिक स्तर को बेहतर बनाने में राजा हरि सिंह का बहुत बड़ा हाथ रहा है. लेकिन वहाँ के कार-ए-बेगार कानून (यह कानून हिंदू समुदायों को कानूनन यह हक देता था कि वे मेघों को बिना किसी तरह की पगार दिए उनसे कोई भी काम ले सकते थे) के पश्चप्रभावों (after effects) से जूझ रहे मेघों की अधिकांश संख्या को अभी तक आर्थिक विकास का मुँह देखना नसीब नहीं हुआ. हालाँकि वे पंजाब के मेघों के मुकाबले अब अधिक शिक्षित हैं और अधिक उन्नति कर चुके हैं, राजनीतिक रूप से भी. 
भारत विभाजन के बाद स्यालकोट से जालंधर और पंजाब के अन्य शहरों में आकर बसे मेघों को दोहरी मार पड़ी. वहाँ अंग्रेज़ों के राज में इनके लिए जो रोज़गार के अवसर बने थे वे अचानक समाप्त हो गए. भारत में आकर फिर से इन्हें न केवल प्रतिदिन की रोटी के लिए जूझना पड़ा बल्कि जात-पात को नई जगह और नए माहौल में झेलना पड़ा. यह मानना इनकी नियति थी कि जिस कांग्रेस को सत्ता दी गई है शायद वही इनकी नैया को पार लगाएगी. अंग्रेज़ों द्वारा दिए गए आरक्षण का श्रेय अब कांग्रेस को दिया जाने लगा या कहें कि कांग्रेस उस श्रेय को बटोरने लगी.
इस बीच भारत की राजनीति का चेहरा बहुत बदल गया है. जनसंघ से लेकर भाजपा तक एक हिंदूवादी विचारधारा विकसित हुई जिसे दलित संदेह की दृष्टि से देखते रहे हैं क्योंकि हिंदू धर्म के नाम से चल रही छुआछूत को जनसंघ से जोड़ कर भी देखा जाता रहा और भाजपा से भी. इस बीच लोकनायक जय प्रकाश नारायण के आंदोलन के बाद जो जनता पार्टी अस्तित्व में आई उसने जनसंघ की कट्टर हिंदूवादी छवि को बदलने में मदद की.
मुझे याद है कि 1977 में आपातकाल के बाद जो चुनाव हुए थे उसमें श्री मनमोहन कालिया के प्रयासों से जालंधर के भार्गव कैंप के एक सामाजिक कार्यकर्ता श्री रोशन लाल को जनता पार्टी का टिकट मिला. देश भर में जनता पार्टी को अभूतपूर्व समर्थन मिला लेकिन श्री रोशन लाल मेघों के गढ़ भार्गव कैंप से चुनाव हार गए. मेघों ने हलधर पर मोहर लगाई तो सही लेकिन ऐसा करने की सही राजनीतिक समझ रखने वाले मेघ उस समय कम थे. रोशन लाल जी के हक में प्रचार करने के लिए मैं भी जालंधर गया था और मुझे याद है कि आर्यसमाजी विचारधारा (उस समय यह शब्द कांग्रेसी विचारधारा का पर्यायवाची था) के लोगों ने उन्हें हराने के लिए पूरा ज़ोर लगा दिया था.
अब समय में काफी परिवर्तन आ चुका है. कई मेघों ने अपने सेवा क्षेत्र के छोटे-छोटे उद्योग धंधों और लघु उद्योगों के बल पर आर्थिक विकास किया है. समय के साथ भाजपा ने दूकानदारों और व्यापारियों की पार्टी होने की छवि अर्जित की है. इसी सिलसिले में इसने मेघ समुदाय के व्यापारियों और उद्यमियों को चिह्नित किया है.
वर्ष 1997, 2007 और 2012 के चुनाव में जालंधर वेस्ट से भाजपा ने आरएसएस काडर से आए श्री चूनी लाल भगत को चुना और भाजपा का टिकट दिया. वे अजेय समझे जाने वाले कांग्रेसी उम्मीदवार को हरा कर चुनाव जीत गए. वे तीन बार चुनाव जीते. 2011 में शिरोमणी अकाली दल और भाजपा गठबंधन के समर्थन से वे पंजाब विधान सभा के डिप्टी स्पीकर बने. वर्ष 2012 के पंजाब चुनावों में वे विजयी हुए और पंजाब विधान सभा में उन्हें भाजपा के विधायक दल का नेता बनाया गया. केबिनेट मंत्री के तौर पर उन्हें लोकल बॉडीज़ और मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च मंत्रालय दिया गया. भाजपा और शिअद गठबंधन की यह पहल ध्यान खींचती है.
उधर राजस्थान से श्री कैलाश मेघवाल को भाजपा का समर्थन मिला और केंद्र में भाजपा शासन के दौरान वे सन् 2003 से 2004 तक सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्रालय के राज्यमंत्री रहे. वे 1975 से 1977 तक आपातकाल के दौरान जेल काट चुके हैं. श्री अर्जुन मेघवाल (जो पूर्व में आईएएस अधिकारी थे) आरएसएस काडर से भाजपा में आए और लोक सभा के बहुत सक्रिय सदस्य हैं. श्री नितिन गडकरी ने भारतीय जनता मजदूर महासंघ की स्थापना की है. इस कार्य के लिए राजस्थान में तीन बार विधायक रह चुके और एक बार राज्य मंत्री,आयुर्वेद,रह चुके अचलाराम मेघवाल को भारतीय जनता मजदूर महासंघ, पाली जिला के अध्यक्ष की जिम्मेवारी सौंपी गई है. श्री मेघवाल पाली जिले में भारतीय जनता पार्टी के संस्थापक रहे हैं. पंजाब में श्री कीमती भगत, जो आरएसएस काडर से आए हैं, को भाजपा ने गोरक्षा समिति का चेयरमैन बनाया है. ऐसे ही मेघों के और बहुत से नाम होंगे जो अब भाजपा से जुड़े हैं.
मेघवंशियों के लिए इन बातों से यह समझना आसान हो सकता है कि भाजपा ने भारत के मेघवंशियों (वृहद्तर रूप में दलितों और आदिवासियों) में अपनी पैठ बनाई है जिसने भाजपा की छवि को बदला है और भाजपा के ज़रिए राजनीति में इन समुदायों की सहभागिता बढ़ी है.
इतना होने के बावजूद अति पिछड़े मेघ समुदायों के लिए यह एक मुद्दा बना रहेगा कि ‘अपने पास देने के लिए पार्टी फंड कितना है’. राजनीति पैसे के बिना नहीं चलती. समुदायों के भीतर ऐसे फंड बनाने ही पड़ेंगे.

Arjun Meghwal, BJP, Raj.
Kailash Meghwal, BJP, Raj.
Chuni Lal Bhagat, BJP, Punjab
Achalaram Meghwal, BJP, Raj.
Kimti Bhagat, BJP, Punjab
Chandrakanta Meghwal, BJP, Raj.
Mrs. Kamsa Meghwal, BJP, Raj.
Bali Bhagat, BJP, Jammu

Lost brother of Meghvanshis – Banjara (Gypsies, Roma) community – मेघवंशियों का गुमनाम बिरादर – बंजारा (जिप्सी, रोमा) समुदाय

ऐसे संकेत मिले हैं कि बंजारे और ख़ानाबदोश (Gypsies and Roma) सिंधुघाटी सभ्यता की ही मानव शाखाएँ हैं. बाहरी आक्रमणों के बाद ये लोग भारत के दक्षिण में भी फैले और यूरोप में स्पेन आदि देशों में भी गए. ऐसा प्रतीत होता है कि आक्रमणकारी आर्यों ने इन्हें पहचाना, इनका पीछा किया और इनके विरुद्ध विषैला प्रचार किया. स्पेन के नाटककार फेडेरिको गर्सिया लोर्का (Federico Garcia Lorca ) के नाटक द हाऊस ऑफ बर्नार्डा आल्बा‘ (The House of Bernarda Alba) में इसका उदाहरण देखा जा सकता है जिसमें इनके बारे में नकारात्मक टिप्पणियाँ हैं.

 
बहुत देर के बाद आज बंजारा समुदाय के बारे में एक अच्छा खोजपूर्ण आलेख पढ़ने को मिला. 1963 में टोहाना प्रवास के दौरान बंजारों को काफी नज़दीक से देखा है. इनकी भाषा के उच्चारण को ध्यान से सुने तो ऐसी ध्वनियाँ सुनने में आती हैं जो पंजाबी मिश्रित हैं.  इन पर भारत के एक महान शोधकर्ता डब्ल्यू. आर. ऋषि (Padmashri W.R. Rishi) ने काफी कार्य किया है (ऋषि जी से मिलने का मौका एक बार चंडीगढ़ में मिला था और उन्होंने रोमां लोगों की भाषा पर जानकारी दी थी). उनसे संबंधित लिंक्स से ज्ञात होता है कि रोमां और जिप्सियों के उत्थान के लिए अंतर्राष्ट्रीय प्रयास हो रहे हैं.
बंजारों को राजपूतों और जाटों का वंशज माना जाता है. चूँकि अधिकतर दलित राजपूतों के वंशज हैं इस दृष्टि से मैं इन बंजारों-रोमां को भी मेघवंशी कहता हूँ. वैसे भी अधिकतर दलित सूर्यवंशी हैं और इनके मूल को सूर्यवंशी (भगवान) रामचंद्र के कुल में ढूंढा जाता है. इनकी वर्तमान दशा के बारे में ख़बरकोश.कॉम ने एक बहुत अच्छा आलेख प्रकाशित किया है जो भारत के बंजारों की दशा के बारे में बहुत कुछ बताता है. आलेख नीचे दिया गया है :-

Bharatiya Shudra Sangh (BSS) – भारतीय शूद्र संघ

भारत की दलित जातियाँ अपनी परंपरागत जाति पहचान से हटने के प्रयास करती रहीं हैं. इस बात को भारत का जातिगत पूर्वाग्रह भली-भाँति जानता है. मूलतः शूद्र के नाम से जानी जाती ये जातियाँ अपनी पहचान को लेकर बहुत कसमसाहट की स्थिति में हैं.

व्यक्ति जानता है कि यदि वह अपना कोई जातिनिरपेक्ष सेक्युलरसा नाम रख लेता है जैसे भारत भूषण या दशरथ कुमार या अर्जुन तो उसे हर दिन कोई न कोई व्यक्ति अवश्य पूछेगा कि भाई साहब आप अपना पूरा नाम बताएँगे? तो वह अपनी पहचान छिपाने के लिए दूसरी कोशिश करते हुए कहेगा, “भारत भूषण भारद्वाज. दूसरा व्यक्ति कहेगा, “यह तो ऋषि गोत्र हुआ. पूरा नाम…”. दो-चार सवालों के बाद उत्तर देने वाले व्यक्ति का स्वाभिमान आहत होने लगता है. वह जानता है कि उसकी जाति पहचान ढूँढने वाला व्यक्ति उसे हानि पहुँचाने वाला है.
अपनी पहचान के कारण संकट से गुज़र रही इन जातियों के सदस्यों ने अपने नाम के साथ सिंह, चौधरी, शर्मा, वर्मा, राजपूत, अग्रवाल, गुप्ता, मल्होत्रा, पंडित सब कुछ लगाया. लेकिन संकट टलता नज़र नहीं आता. मैंने अपने जीवन में इसका सरल हल निकाला कि नाम बताने के तुरत बाद मैं कह देता था कि मेरी जाति जुलाहा है, कश्मीरी जुलाहा (तर्ज़ वही रहती थी- My name is bond, James bond). :)) इससे पूछने वाले के प्रश्न शांत हो जाते थे और उसके मन को पढ़ने में मुझे भी आसानी हो जाती थी. इस तरीके से मुझे बहुत से बढ़िया इंसानों को पहचानने में मदद मिली.
अभी हाल ही में एक कार्यक्रम के दौरान भारतीय शूद्र संघके राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री प्रीतम सिंह कुलवंशी से बात हुई और उन्होंने एक पुस्तिका मुझे थमाते हुए कहा कि इसे देखिएगा. इसमें उल्लिखित बातों से बहुत-सी आशंकाओं का समाधान हो जाएगा. वह पुस्तिका मैंने ध्यान से पढ़ी है और उसका सार यहाँ लिख रहा हूँ.
भारतीय शूद्र संघ मिशन
इस पुस्तिका में स्पष्ट लिखा गया है कि भारतीय शूद्र संघ, संघ नहीं एक मिशन है. इसमें मोहन जोदड़ो और हड़प्पा सभ्यताओं से लेकर आधुनिक युग तक भारत के मूलनिवासियों का बहुत ही संक्षिप्त इतिहास दिया गया है जो बहुत प्रभावकारी है. इसी के दूसरे पक्ष के तौर पर शूद्र समाज के सदस्य व्यक्ति की अस्मिता (पहचान) की बात उठाई गई है. इस संस्था का मिशन यह है कि शूद्र समाज के हर बुद्धिजीवी को एकजुट होकर स्वाभिमान के लिए प्रयास और संघर्ष करना पड़ेगा. अन्य बातों के साथ-साथ इस मिशन का उद्देश्य इस बात का प्रचार करना भी है कि शूद्र समाज के व्यक्ति अपने नाम के पूरक के तौर पर इन नामों का प्रयोग करें- भारती, भारतीय, रवि, अंबेडकर, भागवत, वैष्णव, सूर्यवंशी, कुलवंशी, नागवंशी, रंजन, भास्कर इत्यादि. उल्लेखनीय है कि ये नाम दलितों के साथ पहले भी जुड़े हैं. शायद यह मिशन ऐसे नामों की शार्ट लिस्ट (छोटी सूची) तैयार करना चाहता है या स्पष्ट पहचान वाले शब्दों को बढ़ावा देना चाहता है.
मिशन द्वारा वितरित पुस्तिका में बहुत से बिंदु हैं जिन पर गंभीर विचार मंथन आवश्यक है. दलितों के कई समूह सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक संगठनों में बँट कर अलग-अलग कार्य कर रहे हैं. उनमें से कई बहुत बड़े स्तर पर सक्रिय हैं. उनका एक गठबंधन (confederation) तैयार करने की आवश्यकता है. सभी समूह अपना-अपना कार्य करें साथ ही अपना एक महासंघ गठित करें. इससे सुदृढ़ संगठन और एक साझा अनुशासन निर्मित होगा.
समाज के विभिन्न वर्गों में सदियों से चला आ रहा और घर-घर में फैला कर्मचारी-नियोक्ताका संबंध एक अविरल प्रक्रिया है. ऐसे सामाजिक संबंध का विकास तो होता है लेकिन यह अपना समय लेता है. यह मिशन इस तथ्य को स्पष्ट स्वीकारता है.