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Kayasthas in Radhasoami Mat – राधास्वामी मत में कायस्थ – Maharishi Shivbrat Lal Varman महर्षि शिवब्रत लाल वर्मन

पहले यह कह देना उचित होगा कि राधास्वामी मत की स्थापना स्वामी जी महाराज ने की थी जो सहजधारी सिख थे. उन्होंने सत्गुरु (सत्ज्ञान) देने का कार्य राय सालिग्राम को दिया दिया था जो कायस्थ थे और राधास्वामी मत का आज का जो स्वरूप है उसे आकार देने वाले राय सालिग्राम ही हैं.
सालिग्राम जी के शिष्य शिवब्रत लाल बर्मन का जन्म सन् 1860 ईस्वी में उत्तर प्रदेश के भदोही ज़िला में हुआ था. वे दाता दयालऔर महर्षि जीके नाम से प्रसिद्ध हुए. वे स्नातकोत्तर (एम.ए., एल.एल.डी.) थे और साथ ही लेखक और आध्यात्मिक गुरु के रूप में ख्याति पाई. उन्होंने विभिन्न विषयों यथा सामाजिक, ऐतिहासिक, धार्मिक और आध्यात्मिक विषयों पर लगभग 3000 पुस्तकें-पुस्तिकाएँ लिखीं और पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया. संतमत, राधास्वामी मत और सुरत-शब्द योग आदि पर अनेक पुस्तकें लिखने के कारण उन्हें राधास्वामी मत का वेद व्यासभी कहा गया.
उनका अपने गुरु में अटल विश्वास था और वे राधास्वामी आध्यात्मिक आन्दोलन के अनुयायी बन गए. सन् 1898 में अपने गुरु के निधन के बाद उन्होंने सन् 1898 से ले कर 1939 तक राधास्वामी आध्यात्मिक आन्दोलन की सेवा की.

उर्दू साप्ताहिक आर्य गज़टके संपादक के तौर पर कार्य करने के लिए वे लाहौर गए थे. 01 अगस्त 1907 को उन्होंने अपनी एक पत्रिका साधुशुरू की. बहुत जल्द यह लोकप्रिय हो गई. एक लेखक के रूप में वे स्थापित हुए. हिंदी के अतिरिक्त इन्होंने उर्दू और अंग्रेज़ी में भी लिखा. ये फ़ारसी के भी अच्छे जानकार थे. इनकी पुस्तकें लाइट ऑन आनंद योग‘, ‘दयाल योगऔर शब्द योगबहुत प्रसिद्ध हुईं.
विश्व में राधास्वामी आध्यात्मिक आंदोलन फैलाने के लिए उन्होंने लाहौर से दुनिया की यात्रा शुरू की. 2 अगस्त 1911 को वे कोलकाता पहुँचे. 22 अक्टूबर 1911 को वे कोलकाता से रंगून की ओर समुद्र से रवाना हुए. 31 अक्तूबर को वे पेनांग पहुँचे और सिंगापुर और जावा होते हुए 22 नवंबर को हांगकांग पहुँचे. इन सभी स्थानों पर वे राधास्वामी आध्यात्मिक आंदोलन का संदेश फैला रहे थे. उसके बाद वे जापान और बाद में सैनफ्रांसिस्को, अमेरिका गये और सैनफ्रांसिस्को में व्याख्यान भी दिए.
सन् 1912 में शिवब्रत लाल जी ने गोपी गंज, मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश, भारत में अपने आश्रम की स्थापना की. उनके प्रेरक प्रवचनों ने समस्त भारत और विदेशों में भी राधास्वामी आंदोलन के चाहने वालों को आकर्षित किया. 23 फरवरी 1939 को उनासी वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ. उनकी पवित्र समाधि गोपी गंज के निकट राधास्वामी धाम में है.
इसके अतिरिक्त और बहुत कुछ है जो दाता दयाल महर्षि के बारे में जानने योग्य है. वे कायस्थ थे. बहुत कम लोग जानते हैं कि भारत की दूसरी टॉकी फिल्म शिवब्रतलाल जी ने बनाई थी जिसका नाम था शाही लकड़हारा जो इन्हीं के एक आध्यात्मिक उपन्यास पर आधारित थी. सुना है कि यह फिल्म इन्होंने अपने दामाद की सहायता करने के लिए बनाई थी.

Faqir Library, Hoshiarpur
इनके साहित्य में इनके शिष्य उक्त बाबा फकीर चंद का बहुत बार उल्लेख आता है. इन्होंने एक पूरी पुस्तकफ़कीर शब्दावली लिखी है. पहले कभी सुनने में नहीं आता था कि किसी गुरु ने अपने शिष्य की प्रशंसा में पुस्तकें लिखी हों. ऐसा करना गुरु गद्दी के लिए खतरा बन सकता है. दाता दयाल इन बातों से ऊपर थे और उन्होंने अपने शिष्य की दिल खोल कर तारीफ की है. फकीर ने इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए अपने अनुयायी भगत मुंशीराम की तारीफ में बुहत कुछ कहा है. भगत मुंशीराम जी ने दाता दयाल जी की वाणी और शिक्षा की व्याख्या अपने साहित्य में की है.
Statue of Data Dayal  Ji Maharaj, Hoshiarpu
मैंने स्वयं परम दयाल फकीर चंद जी से सुना है कि जब दाता दयाल जी बहुत बूढ़े हो चुके थे तब भी देश के दूरदराज़ के शहर-गाँव में जाकर राधास्वामी मत का कार्य करते थे. एक बार फकीर ने कहा कि दाता आप इस उम्र में क्यों इतना कष्ट उठाते हैं, अब आप इतनी यात्रा न किया करें तो उन्होंने कहा, फ़कीर, मेरे गाँव के लोग बहुत गरीब हैं. मैं जाता हूँ तो उनके लिए चार पैसे ले आता हूँ. इस पैसे से वे अपने गाँव में एक आश्रम चलते थे जहाँ लोगों को रोज़गार और भोजन मिल जाता था. कमाई के लिए सारी-सारी रात लिखते थे. सहायता स्वरूप दान देने में कभी कोई कमी नहीं आने दी. शिष्यों के दान और चढ़ावे में से अपने लिए कुछ इस्तेमाल नहीं करते थे. फकीर ने भारत और इराक में की हुई अपनी कमाई का बहुत-सा हिस्सा इन्हें भेजा. दाता दयाल जानते थे कि फकीर की कमाई पर उसके परिवार का हक़ है. जब कई वर्ष बाद फकीर घर लौटे तो उनकी पत्नी ने दाता दयाल से शिकायत की कि ये घर में पैसे नहीं देते हैं तो दाता दयाल ने कहा कि किसने कहा है फकीर ने तुम्हारे लिए पैसा नहीं रखा. और उन्होंने बैंक से निकलवा कर 20000/- रुपए फकीर की पत्नी को दिए.
फकीर ने अपने सत्संगों में बताया है कि वे एक बार अपने घर में बहुत कष्टपूर्ण स्थिति में थे और ध्यान दाता दयाल की दया पर लगा था. उस समय दाता दयाल किसी अन्य शहर में सत्संग करा रहे थे. अचानक उन्होंने सत्संग समाप्त करते हुए कहा कि चलो भाई, मेरा फकीर मुसीबत में है. इतनी संवेदनशीलता कितने लोगों में देखने को मिलती है.
दूसरे विश्वयुद्ध में इराक में युद्ध के दौरान एक बार फकीर और उनके साथी शत्रु फौजों से घिर गए. बचने की कोई उम्मीद नहीं थी क्योंकि गोला-बारूद लगभग खत्म हो चुका था. जैसा कि साधक करते आए हैं फकीर ने दाता दयाल जी का ध्यान किया और दाता दयाल का रूप प्रकट हुआ जिसने कुछ हिदायतों के साथ कहा कि विरोधी सेनाओं को उनके मृत फौजियों की लाशें ले जाने दो, वे तुम पर हमला नहीं करेंगे. फकीर ने यह बात सब को बताई जिसका पालन किया गया. वे सभी सुरक्षित रहे. जब वे इराक से लौटते हुए लाहौर स्टेशन पर पहुँचे तो फकीर के कुछ शिष्यों ने उन्हें घेर लिया और कहा कि,हम युद्ध की मुसीबतों में फँस गए थे. हमने आपका ध्यान किया और आपने हमारी मदद की.
फकीर सोच में पड़े कि मैं तो स्वयं मुसीबत में था और दाता दयाल का ध्यान कर रहा था. मैं तो इनकी मदद के लिए गया नहीं. क्या माजरा है कि ये लोग कह रहे हैं कि मेरा रूप इनके यहाँ प्रकट हुआ था. इस घटना ने फकीर की आँखें खोल दीं और उन्हें दाता दयाल की वह बात याद हो आई जो उन्होंने फकीर को कही थी कि सत्संगियों के रूप में तुम्हें सत्गुरु (सच्चे ज्ञान) के दर्शन होंगे. वे जान गए कि कोई गुरु, ईश्वर, अल्लाह बाहर से नहीं आता. वे सब व्यक्ति के भीतर के संस्कार होते हैं जो किसी कठिन परिस्थिति में रूप बन कर प्रकट होते दिखते हैं. तब से फकीर दाता दयाल की सही प्रकार से क़द्र कर पाए. कैलिफोर्निया में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर और धार्मिक पाखंडवाद के विशेषज्ञ डॉ. डेविड सी. लेनने इस पर एक फिल्म बनाई है जिसे इस लिंक पर देखा जा सकता है- Inner Visions and Running Trains.
हैदराबाद के संत श्री पी. आनंद राव जी जिनका ज़िक्र ऊपर किया गया है उन्होंने दाता दयाल के बारे में एक कथा सुनाई थी कि एक बार एक स्त्री उनके पास अपने छह माह के शिशु को ले आई जिसे डॉक्टरों ने मृत घोषित कर दिया था. उस स्त्री को विश्वास था कि दाता दयाल उसे ज़िंदा कर सकते हैं. दाता दयाल ने उसे डॉक्टर की सलाह मानने के लिए कहा लेकिन वह नहीं मानी और शिशु को उनके आश्रम में छोड़ कर चली गई. प्रातः जब वह स्त्री लौटी उस समय शिशु खेल रहा था. ऐसे कई चमत्कार उनके जीवन से जुड़े हैं जिनके बारे में दाता दयाल ने कभी कोई श्रेय नहीं लिया. वे उन्हें स्वाभाविक घटनाएँ बताते रहे.
जीवन में इतना कार्य करने वाले और जीवन भर निस्वार्थ भाव से दूसरों की सहायता करने वाले शिवब्रत लाल जी के जीवन का आखिरी पड़ाव बहुत निर्धनता में बीता. खाना भी पूरा और ठीक से नहीं मिलता था. फकीर ने कहीं लिखा है कि दाता दयाल में फकीरी की अवस्था का बहुत गहरा ख़्याल होने के कारण ऐसा होना स्वाभाविक था. उन्होंने मकाँ जब छुट गया तो क्यों ख़्याले ला मकाँ रखना जैसे शब्दों की रचना की थी.
शिवब्रत लाल जी ने देश-विदेश में खूब भ्रमण किया. इस सिलसिले में उन्होंने कितने शिष्य बनाए इसका सही पता लगाना कठिन है. दाता दयाल जी के चोला छोड़ने के बाद उनके गाँव में उनकी समाधि बना दी गई. किसी महात्मा की मृत्यु के बाद उनकी छोड़ी परंपरा में लोग सब से पहले उसकी संपत्ति देखते हैं. उनकी शिक्षा को जायदाद मानने वाले बिरले होते हैं. बाबा फकीर चंद निस्संदेह प्रमुख शिष्य थे लेकिन वे गोपी गंज जाना नहीं चाहते थे. उन्होंने समय-समय पर लोगों को वहाँ आचार्य नियुक्त किया. पहले एक सज्जन श्री कुबेरनाथ श्रीवास्तव को वहाँ का आचार्य बनाया. लेकिन दाता दयाल के संबंधियों ने उनका विरोध किया. उसके बाद अध्यात्म के क्षेत्र में बहुत ही व्यावहारिक व्यक्ति श्री प्रेमानंद जी को उक्त कार्य दिया लेकिन उन्हें भी कार्य नहीं करने दिया गया.
दाता दयाल जी की वाणी की व्याख्या बाबाफकीर और भगत मुंशीराम ने खूब की है. वर्तमान में मानवता मंदिर में गुरु का कार्य कर रहे दयाल कमल जी महाराज (श्री बी.आर. कमल) भी अपने सत्संग में दाता दयाल की वाणी के आधार पर सत्संग कराते हैं.
दाता दयाल जी के एक अन्य शिष्य श्री मामराज शर्मा ने दाता दयाल जी की जीवनी लिखी है जिसका प्रकाशन मानवता मंदिर, होशियारपुर के ट्रस्ट ने किया था और उसे निःशुल्क वितरित किया था.
दाता दयाल की समाधि पर एक बहुत बड़े स्तंभ का निर्माण किया जा रहा है.
अन्य लिंक्स सहित विस्तृत आलेख यहाँ पढ़ा जा सकता है:-
राधास्वामी मत से जुड़े अन्य कायस्थ सज्जन
संत प्रेमानंद जी (कायस्थ) f/o Shri A.N. Roy
अगम प्रसाद माथुर(कायस्थ) ऱाधास्वामी मत पर इनकी पुस्तकें बहुत उपयोगी सिद्ध हुई हैं.